हिन्दी की आत्मकथा और अर्द्धकथानक
रूपा सिंह
आत्मकथा एक ऐसी विधा है जिसे अन्य विधाओं की अपेक्षा सबसे अधिक जनतांत्रिक विधा माना जाता है। उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज और डायरी की तरह इस विधा को भी यूरोप से आई विधा माना गया जबकि संस्कृत वाड्.मय में कुछ ग्रन्थों में आत्मकथा-लेखन के प्रखर तत्त्व पाए गए और बाद में भी जिस आधारभूमि पर इस विधा का विकास हुआ वह पूरी तरह से आध्यात्मिक और भारतीयता केन्द्रित भावभूमि ही थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् आत्मकथा विधा बहुतायत में पल्लवित हुई। दलित और स्त्री आत्मकथाओं की बहुलता ने समाज, साहित्य और संस्कृति के शास्त्र का परिदृश्य ही बदल कर रख दिया और लोक साहित्य की यह एक महत्त्वपूर्ण विधा बनी।
आत्मकथा है क्या - इसके बारे में यदि हम एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की राय देखें तो वह कहता है-आत्मकथा व्यक्ति के जिए हुए जीवन का ऐसा ब्योरा है जो कि स्वयं उसके द्वारा लिखा जाता है। डिक्शनरी ऑफ लिटरेचर के अनुसार, आत्मकथा मूलतः लेखक के जीवन का सातत्यपूर्ण विवरण होता है जिसमें मुख्य बात आत्म निरीक्षण और अपने जीवन की सार्थकता को प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार कई परिभाषाओं को देखने के बाद आत्मकथा लिखने के जो प्रयोजन जान पडते हैं उनमें आत्म प्रशंसा, आत्मविस्मृति, अमरता की आकांक्षा, लोकोपकार, सहानुभूति की चाह, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता के साथ-साथ अहं की तुष्टि भी शामिल है। कई बार अतीत का मोह भी एक मुख्य कारण होता है, तो कई बार कन्फेशन (Confessionh या आत्मस्वीकृति की भावना भी होती है। फ्रेंच लेखक रूसो ने अपनी आत्मकथा को कन्फेशन कहा तो महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग की संज्ञा दी। लेकिन यह आधुनिक युग की ही कुछ लेखनी थी। समय का इतना अन्तराल क्यों रहा और आत्मकथा लिखने की परम्परा इतनी क्षीण क्यों रही इसके अध्ययन करने से हमारी विपुल साहित्यिक सम्पदा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के दो सांस्कृतिक कारण साफ-साफ दिखाई देते हैं।
पहली श्रेणी के अन्तर्गत यह धारणा रही कि भारत की दार्शनिक संस्कृति इस प्रकार की है जहाँ निजता या वैयक्तिकता की कोई अलग पहचान नहीं की जा सकती है। समकालीन सामूहिकता इसका ऐसा दर्शन माना गया जहाँ व्यक्ति दूसरों के लिए जीने-मरने को ही जीवन की सार्थकता मानता है। प्रसिद्ध विद्वान मुकुन्द लाठ का कहना है कि चूंकि सारे मनुष्य अन्ततः एक हैं। वैयक्तिकता, आत्मवत्ता, अहं की चेतना या फिर विशिष्टता का बोध-यह सब माया मात्र हैं और महत्त्वहीन हैं, नश्वर हैं। इसीलिए यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।
मराठी आलोचक डॉ. आनन्द पाटील, भारतीय संस्कृति में आत्मान्वेषण की परम्परा को भौतिकता से जोडते हैं। उनके अनुसार आत्मान्वेषण की संकल्पना भारतीय संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में प्राचीन युग से है। आत्मन शब्द से आत्मविशेषण और आत्मा नाम संस्कृत से आया है और इस विधा को यूरोप से आयी विधा बताने वालों के लिए यह आश्वस्तिपरक कारक है कि हमारे यहाँ संस्कृत वाङ्मय में आत्मकथा लिखने की सशक्त परिपाटी मौजूद है। जबकि हिन्दी में प्रेमचन्दजी जब 1932 में हंस पत्रिका का आत्मकथा विशेषांक निकालने का संकल्प ले रहे थे तब इसका पुरजोर विरोध दर्शन की उक्त पृष्ठभूमि में खूब हुआ। नन्द दुलारे वाजपेयी जी ने खूब मुखर विरोध करते हुए वही बात कही थी, हिन्दू संस्कृति और उसमें आत्म का परित्याग वाली दृष्टि! हमारे देश में आत्मकथा लिखने की परिपाटी नहीं रही। यहाँ की दार्शनिक संस्कृति में उसका विचार नहीं है। यहाँ के सन्त हिमालय की कंदराओं में गलकर विश्वशक्ति समृद्ध करते हैं। प्राचीन भारत अपनी इतिवृत्ति और अपनी आत्मकथा नष्ट कर चिरजीवी का रहस्य बताता है। इन सब तर्कों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि आत्मकथा एक ऐसी स्वतंत्र और अद्वितीय आत्म की कथा है जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व दिया जाता है, अपने निजी इतिहास को महत्त्व दिया जाता है। जहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया को इतिहास-चिन्तन की सुसम्बद्ध वैज्ञानिक चेतना के बदले माया के रूप में देखा जाता रहा हो वहाँ अतीत के ऐसे ब्यौरे मूल्यहीन और महत्त्वहीन तो साबित किए ही जाएँगे। आत्मकथा तो वह समाज लिख सकता है, जिसने इतिहास-चिन्तन की वैज्ञानिक पद्धति को न केवल विकसित किया हो बल्कि धरोहर मानकर उसका उचित पोषण भी करता रहा हो।
संस्कृत में आत्मकथा के तत्त्व हमें दण्डी के दशकुमार चरितम् तथा बाणभट्ट के हर्षचरितम् में देखने को मिलते हैं। इन दोनों लेखकों ने अपनी व्यक्तिगत वृत्ति की संक्षिप्त लेकिन जीवन्त प्रस्तुति इन रचनाओं में की है। दण्डी ने अपनी रचना में बताया है कि उनके पितामह बीस वर्ष की उम्र में घर से भाग गए थे। दण्डी का जन्म काँची में हुआ था और बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया था। जब शत्रुओं की सेना ने काँची पर हमला किया तो जैसी हृदय विदारक हिंसा और नृशंसता का चित्रण दण्डी करते हैं वह बहुत सच्ची और मार्मिक है जिसमें निर्मम लूटपाट और फसलों के विनाश के साथ स्त्रियों के बलात्कार और मनुष्यता की पूर्ण तबाही का स्पष्ट चित्रण है। इसी प्रकार बाणभट्ट रचित हर्षचरितम् में भी आत्मकथा सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति की कुछ झलक मिलती है जिसे केन्द्र बनाकर हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने बाद में बाणभट्ट की आत्मकथा जैसे एक क्लासिक उपन्यास की रचना की। इसमें बाणभट्ट अपने अपमान, वंचना और हताशा से भरे जीवन को बिल्कुल सच्चे रूप में सामने रख देते हैं। इसी तरह बिल्हण की ऐतिहासिक कृति विक्रमांक देवचरित के एक अध्याय के अन्तर्गत भी कुछ आत्मकथात्मक सामग्री मिलती है। इसमें बिल्हण ने अपनी जन्मभूमि, शिक्षा का वर्णन करते हुए देश के प्रतिष्ठित कवियों के साथ अपनी प्रतियोगिता और जीत का वर्णन किया है। बाद में जिन संस्कृत कवियों ने व्यक्तिगत इतिहास लिखे वे उस श्रेणी के नहीं थे जिनमें विश्वसनीयता या मार्मिकता मिले। कईं बार यह बात हताशा भी पैदा करती है कि लेखकों, कवियों के जीवन के बारे में पर्याप्त विश्वसनीय जानकारियाँ नहीं मिलती हैं जो कि समय के उस बाह्य जगत के अनुभव, स्थितियों के अन्वेषण को भी उसी रूप में सामने रख सकती। जीवन-सत्य के विकास के लिए यह प्रक्रिया अत्यंत आवश्यक है जिसमें भले अपना सच शामिल हो लेकिन सच की वह ऐसी सामाजिक प्रक्रिया बन जाती है जो मनुष्य-सभ्यता के लक्ष्यों में आई हताशा, निराशा, जय, पराजय के साथ सबक से भरपूर होती है लेकिन इसके लिए वस्तुपरक सत्यपरायणता और आत्मपरक ईमानदारी दोनों बहुत जरूरी तत्त्व हैं। यही वे दूसरे तत्त्व हैं जिसे आत्मकथा-विधा की अनुपस्थिति से जोडा गया।
संस्कृति चिन्तक मुकुन्द लाठ ने कहा है-हम व्यक्ति की स्वतंत्रता और अद्वितीयता तथा उसकी उपलब्धियों को कोई महत्त्व नहीं देते। साहित्य को एक सात्त्विक जीवन मानकर जीवन की कठोर वास्तविकताओं और नग्न सत्य को उसी क्रम में अंकित करने से गुरेज करते हैं। डॉ. मैनेजर पाण्डे जी ने भी इस बात को उद्धृत किया है कि हिन्दी में आत्मकथा और जीवनी-लेखन की दुर्दशा का मुख्य कारण यही है-व्यक्तिगत जीवन की सच्चाई कह देने के साहस का और रहन-सहन करने की आदत का सर्वथा अभाव। आत्म-विज्ञापन या पाखंड के बहाने वाली गल्पशक्ति फिर आत्मकथा को आत्मकथा नहीं रहने देती, आत्मप्रचार का माध्यम बना देती है।
हिन्दी साहित्य में तेरहवीं शताब्दी के आस-पास आत्मकथा लेखन का प्रकट होना शुरू होता है। भक्ति आन्दोलन में भक्तों ने अपने जीवन में आए क्रांतिकारी परिवर्तनों को लिपिबद्ध किया। वासव, अक्का, मीरं, कबीर, तुलसीदास, तुकाराम, नरसी मेहता जैसे सन्त कवियों ने अपने जीवन का परिचयात्मक विस्तार, रिश्तेदारों, पत्नियों, मोह, आशा, आकांक्षा, हताशा के बारे में खूब लिखा। इन लेखकों ने इसे लिखने के पीछे जिन्दगी के उस मकसद को महत्त्वपूर्ण माना जिसमें निरन्तर संघर्ष और अध्यवसाय के बल पर सार्वभौम मनुष्य का जीवन सफल और सार्थक होता है। विदग्ध आत्मावलोकन और पार पाने की ज्वलन्त इच्छा से उनकी यह स्वीकारोक्ति न केवल धार्मिक विचार मात्र है न ही कन्फेशन, बल्कि आत्म-व्यंग्यात्मक-विडम्बना-संस्पर्श से विदग्ध हुआ भक्ति भरा ऐसा लेखन है जो सामाजिक सार्थकता से भरा है। इन आत्मकथाओं की अभिव्यक्ति जैसी ही व्यक्तिगत इतिहास का परिचय और भक्ति की बीन लिए आत्मकथा की साहित्यिक शून्यता के बीच 1641 में लिखा गया बनारसीदास जैन कृत अर्द्धकथानक जैसी आत्मकथा प्राप्त होती है जो हिन्दी साहित्य की प्रथम आत्मकथा के रूप में समादृत है। यह भी आश्चर्यजनक किन्तु सत्य घटना है कि इस ग्रन्थ के बाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध अर्थात् भारतेन्दु युग तक के लगभग दो-ढाई सौ वर्षों के लम्बे समय तक फिर एक भी आत्मकथा नहीं लिखी गई।
बनारसीदासजी ने अपनी आत्मकथा समकालीन ब्रज भाषा में लिखी। हालाँकि इनके समकालीन तुलसीदास जी तथा अन्य भक्तिकालीन प्रख्यात कवि हैं लेकिन इन्हें अर्द्धकथानक के कारण विशेष ख्याति मिली। इनकी अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं -
1. मोह विवेक युद्ध - (110 दोहे चौपाइयाँ युक्त)
2. बनारसी नाममाला - (शब्दकोश की रचना)
3. सार समय नाटक - (जैन साहित्य की यह बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है, जो 1636 में लिखी गई और श्वेतांबर और दिगम्बर-दोनों जैन संप्रदायों में खूब मान्य हुई।)
4. बनारसी विलास - (इसमें बनारसीदासजी की कई फुटकल रचनाएँ संकलित हैं, जिनका संकलन पं. जगजीवन जी ने 1664 में बनारसीदासजी के मरणोपरांत किया था।)
बनारसीदासजी की कई रचनाएं कुछ जैन मतावलम्बी पुस्तकालयों और व्यक्तिगत पुस्तक-संग्रहों में दबी पडी हैं। यहाँ तक कि अर्द्धकथानक का मिलना भी विलक्षण संयोग ही रहा। ब्रजभाषा से इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करने वाली रोहिणी चौधरीजी ने लिखा है कि-अर्द्धकथानक भी कहीं प्राप्य नहीं था। श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित अर्द्धकथानक के 1956 और 1957 के दो संस्करण और डॉ. मुकुन्द लाठजी के अंग्रेजी अनुवाद ।।ड्डद्यद्घ ड्ड ञ्जड्डद्यद्ग जो अर्द्धकथानक के सबसे जाने-माने संस्करण हैं, ए भी आसानी से नहीं मिल रहे थे। यह पुस्तक उन्हें कैसे प्राप्त हुई और इसके अनुवाद से वे कैसे जुड सकीं, इसका दिलचस्प वर्णन वे करती हैं-बनारसीदास से मेरा परिचय दो साल पहले अर्थात् कहें, अप्रैल 2004 में हुआ। जब लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएन्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज के डॉ. रूपर्ट स्नैल ने मुझे डॉ. मुकुन्द लाठ के अंग्रेजी अनुवाद के साथ बनारसीदासजी का अर्द्धकथानक दिया और कहा-इसे तुम पढके देखो। जब मैं अर्द्धकथानक पढने बैठी, तब मैं रचना के बारे में और न इसके लेखक के बारे में कुछ जानती थी। परन्तु पढते-पढते पुस्तक के पृष्ठों से एक दिलचस्प और आकर्षक व्यक्ति का चित्र उभर पडा और मुझे ऐसा लगने लगा जैसे बनारसी मेरे मित्र या सगे सम्बन्धी हैं। बनारसी का मुगलकालीन भारत का वर्णन पढकर मुझे पूरा विश्वास हो गया कि इस रचना को व्यापक रूप से प्राप्य बनाना चाहिए। जब मैं दिल्ली में पेंगुइन इण्डिया के श्री रवि सिंह से मिली तो मैंने उन्हें अर्द्धकथानक के बारे में विस्तार से बताया और अनुरोध किया कि वे ही इस रचना को आधुनिक भारत के पाठकों तक पहुँचाएँ। उन्होंने यह जिम्मेदारी मुझे वापस पकडा दी और कहा कि मैं ही इसका अनुवाद खडी बोली में कर डालूं और फिर मैंने एक साल का वक्त लगाकर इस कार्य को सम्पन्न किया।
जैन कवि बनारसीदासजी का जन्म सन् 1586 में जैन धर्म को मानने वाले परिवार श्रीमालवंश में हुआ था। उनका बचपन जौनपुर में बीता, जहाँ उनके पिता खरगसेन जौहरी थे। बनारसीदास का नाम बनारस शहर के नाम पर पडा जिसे पहले काशी नगरी कहा जाता था। कसिवार देश के बीच में होने के कारण काशी कहलाने वाला यह नगर वरुणा और असी दो नदियों के साथ गंगा में जा मिलता है। यही नगरी जैन मुनियों श्री सुपार्श्वनाथ और श्री पार्श्वनाथ जी की जन्मभूमि भी मानी जाती है। बाद में बनारसीदासजी परिवार संग आगरा चले गए और आश्चर्यजनक ढंग से उनके मन में अनायास आया कि अब मैं अपनी कथा सबको सुनाऊं -
जैनधर्म श्रीमाल सुबंस। बनारसी नाम नरहंस
तिन मन मांहि विचारी बात। कहौं आपनी कथा विख्यात।
प्रयोजन मात्र इतना कि, जो कुछ भविष्य में होगा, वह तो केवल ज्ञानी ही जानते हैं। मैं केवल बीती हुई बातों को याद करूं और उनका स्थूल रूप से वर्णन करूं -
भावी दसा होइगी। ग्यानी जानै तिसकी कथा।
तातैं भई बात मन आनि। मूलरूप कछु कहौं बखानि।
कवि होने के लक्षण बनारसी में शुरू से ही थे। भाव विदग्धता, जीवन की मार्मिकता के साथ धर्म के वास्तविक स्वरूप की निरन्तर खोज बनारसी दास जी की इस आत्मकथा को एक आधुनिक विधा के रूप में जीवित तो रखती है लेकिन प्रभाव की संपूर्णता और अन्तरंग संप्रेषणीयता को कुचल डालती है जब प्राचीन लोक-साहित्य की आड में छिपकर वे एक उक्ति का हवाला देते हैं जिसका तात्पर्य यह है कि अपने बारे में नौ चीजें किसी को नहीं बतानी चाहिए, जैसे धन, संपत्ति, स्त्री-संसर्ग, उम्र इत्यादि -
आउ बित्त निज गृहचरित, दान मान अपमान।
औषध मैथुन मन्त्र निज, ए नव अकह-कहान।
नौ चीजों को छिपा लेने का, यह जड पारंपरिक आग्रह कई बार संवेदनशील कवि बनारसी के जीवन सत्य की मार्मिकता या संश्लिष्टता की सार्थकता को पाठकों के सामने रखने से अवरुद्ध कर देता है। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में पढना-लिखना सीख लिया था। व्यापार और व्यवसाय में उनका मन नहीं लगता था। काव्य-रचना में मन लगाने वाला, यह कवि सोलह साल की आयु में आशिकी के चक्कर में फँस गया -
कटै आसिखी धरे मन धीर। दरबंद ज्यौं सेख फकीर।
इकटक देखि ध्यान सौं धरै। पिता आपने कौ धन हरै।
पिता के पैसे चुराकर तरह-तरह के उपहारों से वे अपनी प्रेमिकाओं को खुश रखते थे। इसी बीच उन्होंने प्रेम-प्रसंग पर हजार मर्मस्पर्शी दोहे और चौपाइयाँ रचीं। अब तक सुकवि के रूप में सुख्यात् बनारसी आशिक के रूप में कुख्यात हो चले। उन्हें इसका दुष्परिणाम भी भुगतना पडा। उन्हें अजीब प्रकार की बीमारी हो गई जिसमें सारा शरीर कोढी की भाँति गलने लगा। हड्डी-हड्डी में दर्द रहने लगा। सारे केश झड गए। इन्होंने यह सब लिखा कि किसी नाई ने तब चने की रोटी और अलूने भोजन को खिला कर इनका उपचार किया और कई दिनों बाद वे स्वस्थ हो पाए।
अर्द्धकथानक शीर्षक क्यूं पडा - इसके पीछे की कहानी भी बनारसीदासजी ने स्वयं सुनाई है। यह कहानी उन्होंने 1641 म लिखी। इस समय वे पचपन वर्ष की आयु के थे। जैन शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का पूर्ण जीवनकाल 110 वर्षों का होता है। इसलिए बनारसीदासजी ने इन पचपन वर्षों की कहानी को अरधकथानक कहा है। लेकिन चूंकि अर्द्ध कथानक लिखने के दो तीन वर्षों बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी थी इसलिए यह उनकी पूर्णकथा ही मानी जाएगी।
अर्द्धकथानक की पूरी कथा रवानगी के साथ मध्यकालीन जौनपुर, बनारस, इलाहाबाद और आगरा की गलिएों में घूमती हुई हमें जैन और हिन्दू वैश्य समाज के घरों, कोठियों और दूकानों में ले जाती हैं, जहाँ उनके सगे-संबंधियों से हमारी मुलाकात होती है। खरगसेन, पिता कभी उन्हें गले लगाते हैं कभी उन पर खूब गरजते हैं। वृद्धा दादी, जो अपने पोते की पहली कमाई पर मिठाई बाँटती है लेकिन जिसके अन्धविश्वासों की बनारसी जमकर खिल्ली उडाते हैं। सम्पर्क में आई स्त्रियों के सम्बन्ध में भी यह महत्त्वपूर्ण है जैसा कि अनुवादक रोहिणी चौधरी ने भी लिखा है कि-इस बात पर आश्चर्य होता है कि बनारसीदासजी की पहली पत्नी जो उनकी दारुण बीमारी में न केवल भरपूर सेवा करती है बल्कि सब कुछ गँवा देने वाले बनारसी जी के हाथ में अपनी सारी जमा पूंजी सौंपते हुए नया व्यापार करने का हौंसला देती है, उनका या तीन विवाहितों का नाम तक वे अपनी इस आत्मकथा में छुपा जाते हैं। पूरा सच न बोलने या नौ चीजों को छिपा लेने की बुद्धिमत्ता का दुष्परिणाम यह हुआ कि अर्द्धकथानक में जीवन का ढाँचा तो मिलता है लेकिन प्राण नहीं मिलते। बाद में तो यह कथा जैन धर्म के अध्यात्म की ओर मुड गई दिखती है।
यह सच है कि मनुष्य का जीवन किन्हीं आकस्मिक चमत्कारों अथवा प्राकृतिक विधान से सर्वथा अतिक्रमण में घटित नहीं होता। समय और स्थान के कुछ निश्चित सन्दर्भों में उसका क्रमिक विकास होता है। अर्द्धकथानक बनारसीदासजी की केवल व्यक्तिगत या अन्तरंग घटनाओं की सूचना भर नहीं है बल्कि उनकी आत्मिक और आध्यात्मिक खोज का पूरा वर्णन सिलसिलेवार ढंग से इसमें आया है। यह पूरी कहानी दोहे और चौपाई में लिखी गई है। इसमें छह सौ पचहत्तर पद हैं। इन पदों में आशिकी के बाद नैतिक ग्लानि से ग्रस्त मन का अध्यात्म की ओर सामयिक प्रतिक्रमण, अस्तोन आदि श्वेताम्बरी विधियों के अध्ययन और अभ्यास में प्रवृत्त होता दिखाई देता है। आभ्यंतरिक सत्य और आभ्यतंरिक मुक्ति पर जोर देने वाले जैन धर्म के अध्यात्म आन्दोलन की तरफ वे आकर्षित होने लगे थे और शीघ्र ही उसके नेता तथा संचालक बन गए थे। इस आत्मकथा को लिखने के दौरान वे अध्यात्म आन्दोलन के नेता माने जाने लगे थे और अभी तक जैन दिगम्बरों की तेरापन्थी शाखा उन्हें अपने आदिगुरु के रूप में श्रद्धा से याद करती है। कई बार यह भ्रम मन में पैदा होता है कि बनारसीदास का लेखन जैन बिरादरी, उसके समुदाय और धर्म से इस कदर जुडा हुआ था कि वहाँ विद्रोह या प्रतिरोध की कोई गुंजाइश नहीं है। मुगल सत्ता के प्रति मोह या अकबर की मृत्यु पर उनका प्रलाप इन बातों की ताकीद करता है, लेकिन गहन अध्ययन से जो वास्तविकताएँ सामने आती हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं। यह पूरी आत्मकथा उनके पाँच आध्यात्मिक अन्तरंग मित्रों को समर्पित हैं, जिसमें वे परोक्ष रूप से उन मित्रों को धार्मिक बाह्यचारों के प्रति अपने विद्रोह के कारण सत्य से जुडे अपने आत्म संघर्ष और अपनी गतिविधियों तथा उद्देश्यों में निहित मूलभूत ईमानदारी के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहते हैं। बनारसीदासजी के आत्मसंघर्ष की इस विद्रोही चेतना का एक सुनिश्चित सम्बन्ध भक्ति काव्य से बनता है। कबीर, नानक, दादू और कई निर्गुण सन्तों की तरह बनारसीदासजी ने भी धार्मिक कर्मकाण्डों, बाह्यचारों और जडताओं का यथार्थ रूप सामने रखा। दरअसल वह युग ही शास्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध लोक-संवेदना के विद्रोह का था। मुकुन्द लाठ का यह कहना महत्त्वपूर्ण है कि अध्यात्म अपने युग की जैन-अभिव्यक्ति था। बनारसीदासजी ने अनासक्ति या निष्काम भाव को आत्मा का आंतरिक दृष्टिकोण कहा और उसे धर्माडम्बर से अलगाया। मुकुन्द लाठ के शब्दों में-वस्तुतः जैन धार्मिक इतिहास में यह दुर्लभ बात है कि बनारसी जैन भिक्षुओं की श्रेष्ठता को अस्वीकार करने की हद तक गए थे। संभवतः वे सत्य से जुडे अपने आत्म-संघर्ष और अपनी गतिविधियों या उद्देश्यों में निहित ईमानदारी को सामने रखकर अपने ऊपर लगाए भयानक बेबुनियाद आरोपों को खारिज करना चाहते थे तो दूसरी ओर जैन-दर्शन में शारीरिक आत्म-प्रताडना या आत्म-त्याग की तमाम प्रचलित पद्धतियों को दरकिनार कर आत्म-परिष्कार के लिए निश्चल आत्म-स्वीकार को सर्वोपरि स्थान देना चाहते थे। पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि इस अर्थ में अर्द्धकथानक उनके इसी संघर्ष का एक आयाम है, या यों कहें कि वह सत्य की उनकी खोज का एक साहित्य रूप है।
जहाँ तक इसकी भाषा की बात है, बनारसीदासजी ने अर्द्धकथानक के प्रारम्भ में ही लिखा है कि वे अपनी कहानी मध्यप्रदेश की बोली में सुनाएँगे। बोली का अर्थ उस समय की बोलचाल की भाषा है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित अर्द्धकथानक के दूसरे संस्करण में डॉ. हीरालाल जैन कहते हैं कि अर्द्धकथानक में उर्दू, फारसी के शब्द काफी तादाद में आए हैं और अनेक मुहावरे तो आधुनिक खडी बोली के ही कहे जा सकते ह। दरअसल यह भाषा का ऐसा संक्रमण-काल था जिसका प्रभाव इस पुस्तक की भाषा पर भी स्पष्ट दिखता है। बनारसीदास जैन जी ने अर्द्धकथानक की भाषा में ब्रजभाषा की भूमिका को लेकर उस पर मुगलकाल में बढते हुए प्रभाव वाली खडी बोली का पुट दिया है और इसे ही उन्होंने मध्यदेश की बोली कहा है। इसकी भाषा में एक सहज, मुहावरेदार प्रवाह है और आख्यान का अनौपचारिक लहजा भी है। कविता-सी सघनता और संक्षिप्तता लिए अर्द्धकथानक एक सुन्दर रचनात्मक कृति है। बेलाग आत्म-स्वीकरण की यह कथा व्यक्ति के पतन, विचलन, भटकाव का चित्रण करती हुई उसे एक समर्थ, साहसी, सार्थक जीवन की राह पर ले जाती है जिसमें कहीं कन्फेशन की आत्मग्लानि है तो कहीं नौ गुणों को छिपा लेने की दुर्बलता, कहीं आत्म-विश्लेषण की आलोचनात्मक नजर है, तो आत्मकथा लिख डालने का एक सबल आत्म भी। इस रूप में यह एक सुदृढ आत्मकथा है जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का आदर प्राप्त है, वहीं हमारी परम्परा में आत्म को लेकर एक खास तरह की जो निश्चिन्तता, मुग्धता और काहिली की मनोहारी रही है उसी के कारण युग के एक लम्बे दौर के बाद इस विचार का सर्जनात्मक उपयोग होना प्रारम्भ हुआ।
सम्पर्क - 501, टॉवर-1, अपनाघर शालीमार एक्सटेन्शन,
अलवर, राजस्थान-३०१००७
मो. नं. 8178820925बनारसीदास जीबनारसीदास जी
ईमेल - rupasinghanhandpreet@gmail.com
आत्मकथा है क्या - इसके बारे में यदि हम एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की राय देखें तो वह कहता है-आत्मकथा व्यक्ति के जिए हुए जीवन का ऐसा ब्योरा है जो कि स्वयं उसके द्वारा लिखा जाता है। डिक्शनरी ऑफ लिटरेचर के अनुसार, आत्मकथा मूलतः लेखक के जीवन का सातत्यपूर्ण विवरण होता है जिसमें मुख्य बात आत्म निरीक्षण और अपने जीवन की सार्थकता को प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार कई परिभाषाओं को देखने के बाद आत्मकथा लिखने के जो प्रयोजन जान पडते हैं उनमें आत्म प्रशंसा, आत्मविस्मृति, अमरता की आकांक्षा, लोकोपकार, सहानुभूति की चाह, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता के साथ-साथ अहं की तुष्टि भी शामिल है। कई बार अतीत का मोह भी एक मुख्य कारण होता है, तो कई बार कन्फेशन (Confessionh या आत्मस्वीकृति की भावना भी होती है। फ्रेंच लेखक रूसो ने अपनी आत्मकथा को कन्फेशन कहा तो महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग की संज्ञा दी। लेकिन यह आधुनिक युग की ही कुछ लेखनी थी। समय का इतना अन्तराल क्यों रहा और आत्मकथा लिखने की परम्परा इतनी क्षीण क्यों रही इसके अध्ययन करने से हमारी विपुल साहित्यिक सम्पदा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के दो सांस्कृतिक कारण साफ-साफ दिखाई देते हैं।
पहली श्रेणी के अन्तर्गत यह धारणा रही कि भारत की दार्शनिक संस्कृति इस प्रकार की है जहाँ निजता या वैयक्तिकता की कोई अलग पहचान नहीं की जा सकती है। समकालीन सामूहिकता इसका ऐसा दर्शन माना गया जहाँ व्यक्ति दूसरों के लिए जीने-मरने को ही जीवन की सार्थकता मानता है। प्रसिद्ध विद्वान मुकुन्द लाठ का कहना है कि चूंकि सारे मनुष्य अन्ततः एक हैं। वैयक्तिकता, आत्मवत्ता, अहं की चेतना या फिर विशिष्टता का बोध-यह सब माया मात्र हैं और महत्त्वहीन हैं, नश्वर हैं। इसीलिए यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।
मराठी आलोचक डॉ. आनन्द पाटील, भारतीय संस्कृति में आत्मान्वेषण की परम्परा को भौतिकता से जोडते हैं। उनके अनुसार आत्मान्वेषण की संकल्पना भारतीय संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में प्राचीन युग से है। आत्मन शब्द से आत्मविशेषण और आत्मा नाम संस्कृत से आया है और इस विधा को यूरोप से आयी विधा बताने वालों के लिए यह आश्वस्तिपरक कारक है कि हमारे यहाँ संस्कृत वाङ्मय में आत्मकथा लिखने की सशक्त परिपाटी मौजूद है। जबकि हिन्दी में प्रेमचन्दजी जब 1932 में हंस पत्रिका का आत्मकथा विशेषांक निकालने का संकल्प ले रहे थे तब इसका पुरजोर विरोध दर्शन की उक्त पृष्ठभूमि में खूब हुआ। नन्द दुलारे वाजपेयी जी ने खूब मुखर विरोध करते हुए वही बात कही थी, हिन्दू संस्कृति और उसमें आत्म का परित्याग वाली दृष्टि! हमारे देश में आत्मकथा लिखने की परिपाटी नहीं रही। यहाँ की दार्शनिक संस्कृति में उसका विचार नहीं है। यहाँ के सन्त हिमालय की कंदराओं में गलकर विश्वशक्ति समृद्ध करते हैं। प्राचीन भारत अपनी इतिवृत्ति और अपनी आत्मकथा नष्ट कर चिरजीवी का रहस्य बताता है। इन सब तर्कों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि आत्मकथा एक ऐसी स्वतंत्र और अद्वितीय आत्म की कथा है जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व दिया जाता है, अपने निजी इतिहास को महत्त्व दिया जाता है। जहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया को इतिहास-चिन्तन की सुसम्बद्ध वैज्ञानिक चेतना के बदले माया के रूप में देखा जाता रहा हो वहाँ अतीत के ऐसे ब्यौरे मूल्यहीन और महत्त्वहीन तो साबित किए ही जाएँगे। आत्मकथा तो वह समाज लिख सकता है, जिसने इतिहास-चिन्तन की वैज्ञानिक पद्धति को न केवल विकसित किया हो बल्कि धरोहर मानकर उसका उचित पोषण भी करता रहा हो।
संस्कृत में आत्मकथा के तत्त्व हमें दण्डी के दशकुमार चरितम् तथा बाणभट्ट के हर्षचरितम् में देखने को मिलते हैं। इन दोनों लेखकों ने अपनी व्यक्तिगत वृत्ति की संक्षिप्त लेकिन जीवन्त प्रस्तुति इन रचनाओं में की है। दण्डी ने अपनी रचना में बताया है कि उनके पितामह बीस वर्ष की उम्र में घर से भाग गए थे। दण्डी का जन्म काँची में हुआ था और बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया था। जब शत्रुओं की सेना ने काँची पर हमला किया तो जैसी हृदय विदारक हिंसा और नृशंसता का चित्रण दण्डी करते हैं वह बहुत सच्ची और मार्मिक है जिसमें निर्मम लूटपाट और फसलों के विनाश के साथ स्त्रियों के बलात्कार और मनुष्यता की पूर्ण तबाही का स्पष्ट चित्रण है। इसी प्रकार बाणभट्ट रचित हर्षचरितम् में भी आत्मकथा सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति की कुछ झलक मिलती है जिसे केन्द्र बनाकर हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने बाद में बाणभट्ट की आत्मकथा जैसे एक क्लासिक उपन्यास की रचना की। इसमें बाणभट्ट अपने अपमान, वंचना और हताशा से भरे जीवन को बिल्कुल सच्चे रूप में सामने रख देते हैं। इसी तरह बिल्हण की ऐतिहासिक कृति विक्रमांक देवचरित के एक अध्याय के अन्तर्गत भी कुछ आत्मकथात्मक सामग्री मिलती है। इसमें बिल्हण ने अपनी जन्मभूमि, शिक्षा का वर्णन करते हुए देश के प्रतिष्ठित कवियों के साथ अपनी प्रतियोगिता और जीत का वर्णन किया है। बाद में जिन संस्कृत कवियों ने व्यक्तिगत इतिहास लिखे वे उस श्रेणी के नहीं थे जिनमें विश्वसनीयता या मार्मिकता मिले। कईं बार यह बात हताशा भी पैदा करती है कि लेखकों, कवियों के जीवन के बारे में पर्याप्त विश्वसनीय जानकारियाँ नहीं मिलती हैं जो कि समय के उस बाह्य जगत के अनुभव, स्थितियों के अन्वेषण को भी उसी रूप में सामने रख सकती। जीवन-सत्य के विकास के लिए यह प्रक्रिया अत्यंत आवश्यक है जिसमें भले अपना सच शामिल हो लेकिन सच की वह ऐसी सामाजिक प्रक्रिया बन जाती है जो मनुष्य-सभ्यता के लक्ष्यों में आई हताशा, निराशा, जय, पराजय के साथ सबक से भरपूर होती है लेकिन इसके लिए वस्तुपरक सत्यपरायणता और आत्मपरक ईमानदारी दोनों बहुत जरूरी तत्त्व हैं। यही वे दूसरे तत्त्व हैं जिसे आत्मकथा-विधा की अनुपस्थिति से जोडा गया।
संस्कृति चिन्तक मुकुन्द लाठ ने कहा है-हम व्यक्ति की स्वतंत्रता और अद्वितीयता तथा उसकी उपलब्धियों को कोई महत्त्व नहीं देते। साहित्य को एक सात्त्विक जीवन मानकर जीवन की कठोर वास्तविकताओं और नग्न सत्य को उसी क्रम में अंकित करने से गुरेज करते हैं। डॉ. मैनेजर पाण्डे जी ने भी इस बात को उद्धृत किया है कि हिन्दी में आत्मकथा और जीवनी-लेखन की दुर्दशा का मुख्य कारण यही है-व्यक्तिगत जीवन की सच्चाई कह देने के साहस का और रहन-सहन करने की आदत का सर्वथा अभाव। आत्म-विज्ञापन या पाखंड के बहाने वाली गल्पशक्ति फिर आत्मकथा को आत्मकथा नहीं रहने देती, आत्मप्रचार का माध्यम बना देती है।
हिन्दी साहित्य में तेरहवीं शताब्दी के आस-पास आत्मकथा लेखन का प्रकट होना शुरू होता है। भक्ति आन्दोलन में भक्तों ने अपने जीवन में आए क्रांतिकारी परिवर्तनों को लिपिबद्ध किया। वासव, अक्का, मीरं, कबीर, तुलसीदास, तुकाराम, नरसी मेहता जैसे सन्त कवियों ने अपने जीवन का परिचयात्मक विस्तार, रिश्तेदारों, पत्नियों, मोह, आशा, आकांक्षा, हताशा के बारे में खूब लिखा। इन लेखकों ने इसे लिखने के पीछे जिन्दगी के उस मकसद को महत्त्वपूर्ण माना जिसमें निरन्तर संघर्ष और अध्यवसाय के बल पर सार्वभौम मनुष्य का जीवन सफल और सार्थक होता है। विदग्ध आत्मावलोकन और पार पाने की ज्वलन्त इच्छा से उनकी यह स्वीकारोक्ति न केवल धार्मिक विचार मात्र है न ही कन्फेशन, बल्कि आत्म-व्यंग्यात्मक-विडम्बना-संस्पर्श से विदग्ध हुआ भक्ति भरा ऐसा लेखन है जो सामाजिक सार्थकता से भरा है। इन आत्मकथाओं की अभिव्यक्ति जैसी ही व्यक्तिगत इतिहास का परिचय और भक्ति की बीन लिए आत्मकथा की साहित्यिक शून्यता के बीच 1641 में लिखा गया बनारसीदास जैन कृत अर्द्धकथानक जैसी आत्मकथा प्राप्त होती है जो हिन्दी साहित्य की प्रथम आत्मकथा के रूप में समादृत है। यह भी आश्चर्यजनक किन्तु सत्य घटना है कि इस ग्रन्थ के बाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध अर्थात् भारतेन्दु युग तक के लगभग दो-ढाई सौ वर्षों के लम्बे समय तक फिर एक भी आत्मकथा नहीं लिखी गई।
बनारसीदासजी ने अपनी आत्मकथा समकालीन ब्रज भाषा में लिखी। हालाँकि इनके समकालीन तुलसीदास जी तथा अन्य भक्तिकालीन प्रख्यात कवि हैं लेकिन इन्हें अर्द्धकथानक के कारण विशेष ख्याति मिली। इनकी अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं -
1. मोह विवेक युद्ध - (110 दोहे चौपाइयाँ युक्त)
2. बनारसी नाममाला - (शब्दकोश की रचना)
3. सार समय नाटक - (जैन साहित्य की यह बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है, जो 1636 में लिखी गई और श्वेतांबर और दिगम्बर-दोनों जैन संप्रदायों में खूब मान्य हुई।)
4. बनारसी विलास - (इसमें बनारसीदासजी की कई फुटकल रचनाएँ संकलित हैं, जिनका संकलन पं. जगजीवन जी ने 1664 में बनारसीदासजी के मरणोपरांत किया था।)
बनारसीदासजी की कई रचनाएं कुछ जैन मतावलम्बी पुस्तकालयों और व्यक्तिगत पुस्तक-संग्रहों में दबी पडी हैं। यहाँ तक कि अर्द्धकथानक का मिलना भी विलक्षण संयोग ही रहा। ब्रजभाषा से इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करने वाली रोहिणी चौधरीजी ने लिखा है कि-अर्द्धकथानक भी कहीं प्राप्य नहीं था। श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित अर्द्धकथानक के 1956 और 1957 के दो संस्करण और डॉ. मुकुन्द लाठजी के अंग्रेजी अनुवाद ।।ड्डद्यद्घ ड्ड ञ्जड्डद्यद्ग जो अर्द्धकथानक के सबसे जाने-माने संस्करण हैं, ए भी आसानी से नहीं मिल रहे थे। यह पुस्तक उन्हें कैसे प्राप्त हुई और इसके अनुवाद से वे कैसे जुड सकीं, इसका दिलचस्प वर्णन वे करती हैं-बनारसीदास से मेरा परिचय दो साल पहले अर्थात् कहें, अप्रैल 2004 में हुआ। जब लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएन्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज के डॉ. रूपर्ट स्नैल ने मुझे डॉ. मुकुन्द लाठ के अंग्रेजी अनुवाद के साथ बनारसीदासजी का अर्द्धकथानक दिया और कहा-इसे तुम पढके देखो। जब मैं अर्द्धकथानक पढने बैठी, तब मैं रचना के बारे में और न इसके लेखक के बारे में कुछ जानती थी। परन्तु पढते-पढते पुस्तक के पृष्ठों से एक दिलचस्प और आकर्षक व्यक्ति का चित्र उभर पडा और मुझे ऐसा लगने लगा जैसे बनारसी मेरे मित्र या सगे सम्बन्धी हैं। बनारसी का मुगलकालीन भारत का वर्णन पढकर मुझे पूरा विश्वास हो गया कि इस रचना को व्यापक रूप से प्राप्य बनाना चाहिए। जब मैं दिल्ली में पेंगुइन इण्डिया के श्री रवि सिंह से मिली तो मैंने उन्हें अर्द्धकथानक के बारे में विस्तार से बताया और अनुरोध किया कि वे ही इस रचना को आधुनिक भारत के पाठकों तक पहुँचाएँ। उन्होंने यह जिम्मेदारी मुझे वापस पकडा दी और कहा कि मैं ही इसका अनुवाद खडी बोली में कर डालूं और फिर मैंने एक साल का वक्त लगाकर इस कार्य को सम्पन्न किया।
जैन कवि बनारसीदासजी का जन्म सन् 1586 में जैन धर्म को मानने वाले परिवार श्रीमालवंश में हुआ था। उनका बचपन जौनपुर में बीता, जहाँ उनके पिता खरगसेन जौहरी थे। बनारसीदास का नाम बनारस शहर के नाम पर पडा जिसे पहले काशी नगरी कहा जाता था। कसिवार देश के बीच में होने के कारण काशी कहलाने वाला यह नगर वरुणा और असी दो नदियों के साथ गंगा में जा मिलता है। यही नगरी जैन मुनियों श्री सुपार्श्वनाथ और श्री पार्श्वनाथ जी की जन्मभूमि भी मानी जाती है। बाद में बनारसीदासजी परिवार संग आगरा चले गए और आश्चर्यजनक ढंग से उनके मन में अनायास आया कि अब मैं अपनी कथा सबको सुनाऊं -
जैनधर्म श्रीमाल सुबंस। बनारसी नाम नरहंस
तिन मन मांहि विचारी बात। कहौं आपनी कथा विख्यात।
प्रयोजन मात्र इतना कि, जो कुछ भविष्य में होगा, वह तो केवल ज्ञानी ही जानते हैं। मैं केवल बीती हुई बातों को याद करूं और उनका स्थूल रूप से वर्णन करूं -
भावी दसा होइगी। ग्यानी जानै तिसकी कथा।
तातैं भई बात मन आनि। मूलरूप कछु कहौं बखानि।
कवि होने के लक्षण बनारसी में शुरू से ही थे। भाव विदग्धता, जीवन की मार्मिकता के साथ धर्म के वास्तविक स्वरूप की निरन्तर खोज बनारसी दास जी की इस आत्मकथा को एक आधुनिक विधा के रूप में जीवित तो रखती है लेकिन प्रभाव की संपूर्णता और अन्तरंग संप्रेषणीयता को कुचल डालती है जब प्राचीन लोक-साहित्य की आड में छिपकर वे एक उक्ति का हवाला देते हैं जिसका तात्पर्य यह है कि अपने बारे में नौ चीजें किसी को नहीं बतानी चाहिए, जैसे धन, संपत्ति, स्त्री-संसर्ग, उम्र इत्यादि -
आउ बित्त निज गृहचरित, दान मान अपमान।
औषध मैथुन मन्त्र निज, ए नव अकह-कहान।
नौ चीजों को छिपा लेने का, यह जड पारंपरिक आग्रह कई बार संवेदनशील कवि बनारसी के जीवन सत्य की मार्मिकता या संश्लिष्टता की सार्थकता को पाठकों के सामने रखने से अवरुद्ध कर देता है। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में पढना-लिखना सीख लिया था। व्यापार और व्यवसाय में उनका मन नहीं लगता था। काव्य-रचना में मन लगाने वाला, यह कवि सोलह साल की आयु में आशिकी के चक्कर में फँस गया -
कटै आसिखी धरे मन धीर। दरबंद ज्यौं सेख फकीर।
इकटक देखि ध्यान सौं धरै। पिता आपने कौ धन हरै।
पिता के पैसे चुराकर तरह-तरह के उपहारों से वे अपनी प्रेमिकाओं को खुश रखते थे। इसी बीच उन्होंने प्रेम-प्रसंग पर हजार मर्मस्पर्शी दोहे और चौपाइयाँ रचीं। अब तक सुकवि के रूप में सुख्यात् बनारसी आशिक के रूप में कुख्यात हो चले। उन्हें इसका दुष्परिणाम भी भुगतना पडा। उन्हें अजीब प्रकार की बीमारी हो गई जिसमें सारा शरीर कोढी की भाँति गलने लगा। हड्डी-हड्डी में दर्द रहने लगा। सारे केश झड गए। इन्होंने यह सब लिखा कि किसी नाई ने तब चने की रोटी और अलूने भोजन को खिला कर इनका उपचार किया और कई दिनों बाद वे स्वस्थ हो पाए।
अर्द्धकथानक शीर्षक क्यूं पडा - इसके पीछे की कहानी भी बनारसीदासजी ने स्वयं सुनाई है। यह कहानी उन्होंने 1641 म लिखी। इस समय वे पचपन वर्ष की आयु के थे। जैन शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का पूर्ण जीवनकाल 110 वर्षों का होता है। इसलिए बनारसीदासजी ने इन पचपन वर्षों की कहानी को अरधकथानक कहा है। लेकिन चूंकि अर्द्ध कथानक लिखने के दो तीन वर्षों बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी थी इसलिए यह उनकी पूर्णकथा ही मानी जाएगी।
अर्द्धकथानक की पूरी कथा रवानगी के साथ मध्यकालीन जौनपुर, बनारस, इलाहाबाद और आगरा की गलिएों में घूमती हुई हमें जैन और हिन्दू वैश्य समाज के घरों, कोठियों और दूकानों में ले जाती हैं, जहाँ उनके सगे-संबंधियों से हमारी मुलाकात होती है। खरगसेन, पिता कभी उन्हें गले लगाते हैं कभी उन पर खूब गरजते हैं। वृद्धा दादी, जो अपने पोते की पहली कमाई पर मिठाई बाँटती है लेकिन जिसके अन्धविश्वासों की बनारसी जमकर खिल्ली उडाते हैं। सम्पर्क में आई स्त्रियों के सम्बन्ध में भी यह महत्त्वपूर्ण है जैसा कि अनुवादक रोहिणी चौधरी ने भी लिखा है कि-इस बात पर आश्चर्य होता है कि बनारसीदासजी की पहली पत्नी जो उनकी दारुण बीमारी में न केवल भरपूर सेवा करती है बल्कि सब कुछ गँवा देने वाले बनारसी जी के हाथ में अपनी सारी जमा पूंजी सौंपते हुए नया व्यापार करने का हौंसला देती है, उनका या तीन विवाहितों का नाम तक वे अपनी इस आत्मकथा में छुपा जाते हैं। पूरा सच न बोलने या नौ चीजों को छिपा लेने की बुद्धिमत्ता का दुष्परिणाम यह हुआ कि अर्द्धकथानक में जीवन का ढाँचा तो मिलता है लेकिन प्राण नहीं मिलते। बाद में तो यह कथा जैन धर्म के अध्यात्म की ओर मुड गई दिखती है।
यह सच है कि मनुष्य का जीवन किन्हीं आकस्मिक चमत्कारों अथवा प्राकृतिक विधान से सर्वथा अतिक्रमण में घटित नहीं होता। समय और स्थान के कुछ निश्चित सन्दर्भों में उसका क्रमिक विकास होता है। अर्द्धकथानक बनारसीदासजी की केवल व्यक्तिगत या अन्तरंग घटनाओं की सूचना भर नहीं है बल्कि उनकी आत्मिक और आध्यात्मिक खोज का पूरा वर्णन सिलसिलेवार ढंग से इसमें आया है। यह पूरी कहानी दोहे और चौपाई में लिखी गई है। इसमें छह सौ पचहत्तर पद हैं। इन पदों में आशिकी के बाद नैतिक ग्लानि से ग्रस्त मन का अध्यात्म की ओर सामयिक प्रतिक्रमण, अस्तोन आदि श्वेताम्बरी विधियों के अध्ययन और अभ्यास में प्रवृत्त होता दिखाई देता है। आभ्यंतरिक सत्य और आभ्यतंरिक मुक्ति पर जोर देने वाले जैन धर्म के अध्यात्म आन्दोलन की तरफ वे आकर्षित होने लगे थे और शीघ्र ही उसके नेता तथा संचालक बन गए थे। इस आत्मकथा को लिखने के दौरान वे अध्यात्म आन्दोलन के नेता माने जाने लगे थे और अभी तक जैन दिगम्बरों की तेरापन्थी शाखा उन्हें अपने आदिगुरु के रूप में श्रद्धा से याद करती है। कई बार यह भ्रम मन में पैदा होता है कि बनारसीदास का लेखन जैन बिरादरी, उसके समुदाय और धर्म से इस कदर जुडा हुआ था कि वहाँ विद्रोह या प्रतिरोध की कोई गुंजाइश नहीं है। मुगल सत्ता के प्रति मोह या अकबर की मृत्यु पर उनका प्रलाप इन बातों की ताकीद करता है, लेकिन गहन अध्ययन से जो वास्तविकताएँ सामने आती हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं। यह पूरी आत्मकथा उनके पाँच आध्यात्मिक अन्तरंग मित्रों को समर्पित हैं, जिसमें वे परोक्ष रूप से उन मित्रों को धार्मिक बाह्यचारों के प्रति अपने विद्रोह के कारण सत्य से जुडे अपने आत्म संघर्ष और अपनी गतिविधियों तथा उद्देश्यों में निहित मूलभूत ईमानदारी के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहते हैं। बनारसीदासजी के आत्मसंघर्ष की इस विद्रोही चेतना का एक सुनिश्चित सम्बन्ध भक्ति काव्य से बनता है। कबीर, नानक, दादू और कई निर्गुण सन्तों की तरह बनारसीदासजी ने भी धार्मिक कर्मकाण्डों, बाह्यचारों और जडताओं का यथार्थ रूप सामने रखा। दरअसल वह युग ही शास्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध लोक-संवेदना के विद्रोह का था। मुकुन्द लाठ का यह कहना महत्त्वपूर्ण है कि अध्यात्म अपने युग की जैन-अभिव्यक्ति था। बनारसीदासजी ने अनासक्ति या निष्काम भाव को आत्मा का आंतरिक दृष्टिकोण कहा और उसे धर्माडम्बर से अलगाया। मुकुन्द लाठ के शब्दों में-वस्तुतः जैन धार्मिक इतिहास में यह दुर्लभ बात है कि बनारसी जैन भिक्षुओं की श्रेष्ठता को अस्वीकार करने की हद तक गए थे। संभवतः वे सत्य से जुडे अपने आत्म-संघर्ष और अपनी गतिविधियों या उद्देश्यों में निहित ईमानदारी को सामने रखकर अपने ऊपर लगाए भयानक बेबुनियाद आरोपों को खारिज करना चाहते थे तो दूसरी ओर जैन-दर्शन में शारीरिक आत्म-प्रताडना या आत्म-त्याग की तमाम प्रचलित पद्धतियों को दरकिनार कर आत्म-परिष्कार के लिए निश्चल आत्म-स्वीकार को सर्वोपरि स्थान देना चाहते थे। पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि इस अर्थ में अर्द्धकथानक उनके इसी संघर्ष का एक आयाम है, या यों कहें कि वह सत्य की उनकी खोज का एक साहित्य रूप है।
जहाँ तक इसकी भाषा की बात है, बनारसीदासजी ने अर्द्धकथानक के प्रारम्भ में ही लिखा है कि वे अपनी कहानी मध्यप्रदेश की बोली में सुनाएँगे। बोली का अर्थ उस समय की बोलचाल की भाषा है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित अर्द्धकथानक के दूसरे संस्करण में डॉ. हीरालाल जैन कहते हैं कि अर्द्धकथानक में उर्दू, फारसी के शब्द काफी तादाद में आए हैं और अनेक मुहावरे तो आधुनिक खडी बोली के ही कहे जा सकते ह। दरअसल यह भाषा का ऐसा संक्रमण-काल था जिसका प्रभाव इस पुस्तक की भाषा पर भी स्पष्ट दिखता है। बनारसीदास जैन जी ने अर्द्धकथानक की भाषा में ब्रजभाषा की भूमिका को लेकर उस पर मुगलकाल में बढते हुए प्रभाव वाली खडी बोली का पुट दिया है और इसे ही उन्होंने मध्यदेश की बोली कहा है। इसकी भाषा में एक सहज, मुहावरेदार प्रवाह है और आख्यान का अनौपचारिक लहजा भी है। कविता-सी सघनता और संक्षिप्तता लिए अर्द्धकथानक एक सुन्दर रचनात्मक कृति है। बेलाग आत्म-स्वीकरण की यह कथा व्यक्ति के पतन, विचलन, भटकाव का चित्रण करती हुई उसे एक समर्थ, साहसी, सार्थक जीवन की राह पर ले जाती है जिसमें कहीं कन्फेशन की आत्मग्लानि है तो कहीं नौ गुणों को छिपा लेने की दुर्बलता, कहीं आत्म-विश्लेषण की आलोचनात्मक नजर है, तो आत्मकथा लिख डालने का एक सबल आत्म भी। इस रूप में यह एक सुदृढ आत्मकथा है जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का आदर प्राप्त है, वहीं हमारी परम्परा में आत्म को लेकर एक खास तरह की जो निश्चिन्तता, मुग्धता और काहिली की मनोहारी रही है उसी के कारण युग के एक लम्बे दौर के बाद इस विचार का सर्जनात्मक उपयोग होना प्रारम्भ हुआ।
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