मनोज कुमार शर्मा की कविताएँ
मनोज कुमार शर्मा
ए छलना है छलती जाती
उम्र बर्फ है गलती जाती,
ए छलना है छलती जाती।
बचपन से जैसे चंचलता,
आप ही आप निकलती जाती।
यौवन पाकर बाबुल के घर,
से बिटिया ज्यों चलती जाती।
कभी लकीरें कभी झुर्रियाँ,
चालें अपनी चलती जाती।
पेट में रखती सारे अनुभव,
खुद ही याद निगलती जाती।
कभी बचपना कभी लडकपन,
ज्यों-ज्यों बढे मचलती जाती।
खुद को समझे सबसे ज्ञानी,
पल-पल रूप बदलती जाती।
समय चक्र के खा हिचकोले,
अपने-आप संभलती जाती।
गर्म दूध-सी उफन उफन कर,
सांध्य सूर्य सी ढलती जाती।
उम्र बर्फ है गलती जाती,
ए छलना है छलती जाती।
कहो कैसी रही
बाजार में गोली चली
सांय की आवाज
गोली मेरे कानों के बिल्कुल पास से गुजरी
फिर गोली चलने की आवाज भी आई
अफरा-तफरी, मैंने देखा
गोली चलाने वाले को
और उसे भी जिसे गोली मारी गई
साइरन बजा पुलिस आई
मैं निर्लिप्त देखता रहा सब
घर पहुंचा, चैन की नींद सोया
सुबह टीवी पर हत्यारे का स्केच जारी हुआ
और यह घोषणा भी कि चश्मदीद गवाह को
नकद पुरस्कार दिया जाएगा
मैंने एकबारगी सोचा
मुझे हत्यारे को पकडवाना चाहिए
जाकर पुलिस को बता देता हूँ
हत्यारे की पहचान
परंतु हठात पुलिस की पूछताछ का भय
एवं परिवार की सुरक्षा की चिंता की सिहरन
शरीर में समा गई
मैंने फिर सोचा
और स्वयं को मिथ्या भरोसा दिया
मैं कोई धन का लोभी थोडे ही हूं
मैंने हत्यारे को पहचाना ही नहीं
कहो कैसी रही?
कभी कुछ दिखे कभी कुछ दिखे
धन, कामिनी, भूभाग भी
सब कर लिया अधिकार में
लगता था सब कुछ पा लिया
जो प्राप्य था संसार में,
पर क्षितिज पर देखा तो
इक बादल में बनती आकृति
कभी कुछ दिखे, कभी कुछ दिखे।
सम्पर्क : manojjaipur@rediffmail.com
उम्र बर्फ है गलती जाती,
ए छलना है छलती जाती।
बचपन से जैसे चंचलता,
आप ही आप निकलती जाती।
यौवन पाकर बाबुल के घर,
से बिटिया ज्यों चलती जाती।
कभी लकीरें कभी झुर्रियाँ,
चालें अपनी चलती जाती।
पेट में रखती सारे अनुभव,
खुद ही याद निगलती जाती।
कभी बचपना कभी लडकपन,
ज्यों-ज्यों बढे मचलती जाती।
खुद को समझे सबसे ज्ञानी,
पल-पल रूप बदलती जाती।
समय चक्र के खा हिचकोले,
अपने-आप संभलती जाती।
गर्म दूध-सी उफन उफन कर,
सांध्य सूर्य सी ढलती जाती।
उम्र बर्फ है गलती जाती,
ए छलना है छलती जाती।
कहो कैसी रही
बाजार में गोली चली
सांय की आवाज
गोली मेरे कानों के बिल्कुल पास से गुजरी
फिर गोली चलने की आवाज भी आई
अफरा-तफरी, मैंने देखा
गोली चलाने वाले को
और उसे भी जिसे गोली मारी गई
साइरन बजा पुलिस आई
मैं निर्लिप्त देखता रहा सब
घर पहुंचा, चैन की नींद सोया
सुबह टीवी पर हत्यारे का स्केच जारी हुआ
और यह घोषणा भी कि चश्मदीद गवाह को
नकद पुरस्कार दिया जाएगा
मैंने एकबारगी सोचा
मुझे हत्यारे को पकडवाना चाहिए
जाकर पुलिस को बता देता हूँ
हत्यारे की पहचान
परंतु हठात पुलिस की पूछताछ का भय
एवं परिवार की सुरक्षा की चिंता की सिहरन
शरीर में समा गई
मैंने फिर सोचा
और स्वयं को मिथ्या भरोसा दिया
मैं कोई धन का लोभी थोडे ही हूं
मैंने हत्यारे को पहचाना ही नहीं
कहो कैसी रही?
कभी कुछ दिखे कभी कुछ दिखे
धन, कामिनी, भूभाग भी
सब कर लिया अधिकार में
लगता था सब कुछ पा लिया
जो प्राप्य था संसार में,
पर क्षितिज पर देखा तो
इक बादल में बनती आकृति
कभी कुछ दिखे, कभी कुछ दिखे।
सम्पर्क : manojjaipur@rediffmail.com