मीठेश निर्मोही की कविताएँ
मीठेश निर्मोही
मीठेश निर्मोही
दो प्रेम
(1) तुम्हारा आना
सहारा में जैसे
प्यासे को मिल जाए पानी !
उजाड में जैसे
कुहू...कुहू कोयल की वाणी!
सूखे में जैसे-
हरहरा जाए धरती !
महकी हो बगिया जैसे
जेठ की दुपहरिया !
ऐन संध्या चहकी हो जैसे--
घर की मुण्डेर पर सोनचिरैया !
रेत के धोरों में जैसे
उगमी हों नदियाँ !
प्रिए ऐसा ही तुम्हारा आना हुआ !!
(2) तुम
वसन्त की नहीं
स्मृतियों की बहार बनकर आयी हो तुम
एक - एक कर उपस्थित हो आए हैं
अतीत के कई - कई मन्जर
इस मौसमे - गुल में !
मेरे प्रेम प्रदेश के
खुलते जा रहे हैं स्मृति - पट
प्रेम पगा -
एक बावरा समन्दर
कभी उफना करता था
मेरे कन्धों से टकराकर
अपनी बाँहों में भरने को
आतुर रहती थीं तुम
उस से उठतीं-
बल खाती लहरों संग
यह देखकर,
सागर तट पर
बादलों से आलिंगनबद्ध नदियाँ
बिछोह के वियोग में समेट कर
आंचल अपना
झडी लगा देती थीं आँसुओं की
जल विहीन हुई
सूख गई हैं वे!
आज सिद्बक्र्त और सिफ
उभर आयी हैं मेरे स्मृति- पटल पर
अतीत की कुछ सुन्दर और
कुछ खुरदरी छवियाँ
सूख गया है समन्दर भी
दूर दूर तक
चारों ओर पसरी हुई है रेत ही रेत
ठौर ठौर
रात में उग आए रेत के टीलों की ढलानों पर
उभर आई हैं अनूठी आकृतियाँ
जो दे रही हैं सबूत
कि देर रात तक जगे हैं मारुत सुत कलावंत!
मीलों - मीलों तक पसरी
धरती की छाती पर उभर आए
लूओं के ताप से ताए
इन टीलों से उठ रहे हैं बवण्डर
उफान पर है पूरा का पूरा रेत का समन्दर
और- तुम्हारी प्रीत पगा
बेचैन है मेरा मन
ऊँटों के टोळे को हाँकते
मूमल* गाते हुए
निकल पडा हूँ मैं तुम्हारी तलाश में
इन टीलों को उलांघता हुआ
अपने रेवड को टिचकारती हुई
रोही से निकल आओ न प्रिए
इन उफनते - बिफरते और आग उगलते
टीलों के बीच अकाल मौत मरने से अच्छा है
आलिंगनबद्ध हुए
हम समा जाएँ एक दूसरे में
सदा सदा के लिए
एक और प्रेम कथा रचते हुए ।
मूमल* - राजस्थानी लोक गीत
सम्पर्क - राजोला हाउस, ब्राह्मणों की गली,
उम्मेद चौक, जोधपुर - 342001
(राजस्थान)।
दो प्रेम
(1) तुम्हारा आना
सहारा में जैसे
प्यासे को मिल जाए पानी !
उजाड में जैसे
कुहू...कुहू कोयल की वाणी!
सूखे में जैसे-
हरहरा जाए धरती !
महकी हो बगिया जैसे
जेठ की दुपहरिया !
ऐन संध्या चहकी हो जैसे--
घर की मुण्डेर पर सोनचिरैया !
रेत के धोरों में जैसे
उगमी हों नदियाँ !
प्रिए ऐसा ही तुम्हारा आना हुआ !!
(2) तुम
वसन्त की नहीं
स्मृतियों की बहार बनकर आयी हो तुम
एक - एक कर उपस्थित हो आए हैं
अतीत के कई - कई मन्जर
इस मौसमे - गुल में !
मेरे प्रेम प्रदेश के
खुलते जा रहे हैं स्मृति - पट
प्रेम पगा -
एक बावरा समन्दर
कभी उफना करता था
मेरे कन्धों से टकराकर
अपनी बाँहों में भरने को
आतुर रहती थीं तुम
उस से उठतीं-
बल खाती लहरों संग
यह देखकर,
सागर तट पर
बादलों से आलिंगनबद्ध नदियाँ
बिछोह के वियोग में समेट कर
आंचल अपना
झडी लगा देती थीं आँसुओं की
जल विहीन हुई
सूख गई हैं वे!
आज सिद्बक्र्त और सिफ
उभर आयी हैं मेरे स्मृति- पटल पर
अतीत की कुछ सुन्दर और
कुछ खुरदरी छवियाँ
सूख गया है समन्दर भी
दूर दूर तक
चारों ओर पसरी हुई है रेत ही रेत
ठौर ठौर
रात में उग आए रेत के टीलों की ढलानों पर
उभर आई हैं अनूठी आकृतियाँ
जो दे रही हैं सबूत
कि देर रात तक जगे हैं मारुत सुत कलावंत!
मीलों - मीलों तक पसरी
धरती की छाती पर उभर आए
लूओं के ताप से ताए
इन टीलों से उठ रहे हैं बवण्डर
उफान पर है पूरा का पूरा रेत का समन्दर
और- तुम्हारी प्रीत पगा
बेचैन है मेरा मन
ऊँटों के टोळे को हाँकते
मूमल* गाते हुए
निकल पडा हूँ मैं तुम्हारी तलाश में
इन टीलों को उलांघता हुआ
अपने रेवड को टिचकारती हुई
रोही से निकल आओ न प्रिए
इन उफनते - बिफरते और आग उगलते
टीलों के बीच अकाल मौत मरने से अच्छा है
आलिंगनबद्ध हुए
हम समा जाएँ एक दूसरे में
सदा सदा के लिए
एक और प्रेम कथा रचते हुए ।
मूमल* - राजस्थानी लोक गीत
सम्पर्क - राजोला हाउस, ब्राह्मणों की गली,
उम्मेद चौक, जोधपुर - 342001
(राजस्थान)।