नन्दकिशोर आचार्य की कविताएँ
नन्दकिशोर आचार्य
1. आकाश लेकिन
कितने-कितने
रूपों में, रंगों में
ज्ञापित करती है अपनी कृतज्ञता
पृथ्वी
दूर सही
पर सूरज अब भी
निभाए हैं अपना नाता
न केवल थामे है उसको
फिर-फिर हरा करता है
आकाश लेकिन सहता है
निस्संग
मिल कर जिसे
बसाया है उन दोनों ने।
2. वहम
कौन जीता है यादें
- वहम है केवल-
यादें ही जीती हैं मुझको
मैं उनका प्राणवायु हूँ बस
जिलाए रखता हूँ उनको
खुद को जलाता हुआ।
3. हर बार कोरा
खींच ले जाना चाहती है
मुझे
हर मौज अपने साथ
सागर में
द्रष्टा होने के चक्कर में
लेकिन
हर बार
मैं कोरा रह जाता हूँ
- उसे केवल दृश्य करता हुआ-
बिना यह जाने
मौज़ पर खुद को छोड देना है
द्रष्टा होना
4 निरन्तर जलते रहना
उसी से हैं
सब दिन-रात
रात नहीं कोई
पर सूरज की
कभी मिले ही नहीं
रात जिसको
केवल वही जानता है :
क्या होता है
निरन्तर जलते ही रहना
आग में अपनी।
5. परस्पर वर्तमान
काल अपने जबडों में
जकडे है मुझको
पर अमर हूँ मैं
काल का प्रत्याख्यान है स्मृति
वर्तन है स्मृति
जो भी उसमें है इसीलिए
वह वर्तमान है खडा
परस्पर वर्तमान है हम।
6. कौंध और धुन्ध
कितना अजीब रिश्ता है
कौंध और धुन्ध में
एक कौंध की तरह
उतरी तुम
दुनिया में मेरी ;
और तब से
एक गहरी धुन्ध में
डूबा हुआ हूँ मैं।
7. पूरा करने के लिए
हरी घास पर
बिखरे हैं सूखे
झर गए पत्ते
पूरा करने के लिए
हरे के अधूरेपन को।
सम्पर्क - सुथारों की बडी गुवाड,
बीकानेर-३३४००५
मो. ९४१३३८१०४५
कितने-कितने
रूपों में, रंगों में
ज्ञापित करती है अपनी कृतज्ञता
पृथ्वी
दूर सही
पर सूरज अब भी
निभाए हैं अपना नाता
न केवल थामे है उसको
फिर-फिर हरा करता है
आकाश लेकिन सहता है
निस्संग
मिल कर जिसे
बसाया है उन दोनों ने।
2. वहम
कौन जीता है यादें
- वहम है केवल-
यादें ही जीती हैं मुझको
मैं उनका प्राणवायु हूँ बस
जिलाए रखता हूँ उनको
खुद को जलाता हुआ।
3. हर बार कोरा
खींच ले जाना चाहती है
मुझे
हर मौज अपने साथ
सागर में
द्रष्टा होने के चक्कर में
लेकिन
हर बार
मैं कोरा रह जाता हूँ
- उसे केवल दृश्य करता हुआ-
बिना यह जाने
मौज़ पर खुद को छोड देना है
द्रष्टा होना
4 निरन्तर जलते रहना
उसी से हैं
सब दिन-रात
रात नहीं कोई
पर सूरज की
कभी मिले ही नहीं
रात जिसको
केवल वही जानता है :
क्या होता है
निरन्तर जलते ही रहना
आग में अपनी।
5. परस्पर वर्तमान
काल अपने जबडों में
जकडे है मुझको
पर अमर हूँ मैं
काल का प्रत्याख्यान है स्मृति
वर्तन है स्मृति
जो भी उसमें है इसीलिए
वह वर्तमान है खडा
परस्पर वर्तमान है हम।
6. कौंध और धुन्ध
कितना अजीब रिश्ता है
कौंध और धुन्ध में
एक कौंध की तरह
उतरी तुम
दुनिया में मेरी ;
और तब से
एक गहरी धुन्ध में
डूबा हुआ हूँ मैं।
7. पूरा करने के लिए
हरी घास पर
बिखरे हैं सूखे
झर गए पत्ते
पूरा करने के लिए
हरे के अधूरेपन को।
सम्पर्क - सुथारों की बडी गुवाड,
बीकानेर-३३४००५
मो. ९४१३३८१०४५