कायनात की कविताएँ
कायनात
1. ध्वनियों का आखेटक
वह ध्वनियों का आखेटक था
और उस बसन्त मेरे गले में शूल अटकते थे
चिडियों का चहचहाना सपने में सुन उठ बैठने वाला वह
हवा की सरसराहट पर जाने क्या सुन मुस्कुराने वाला वह
अब कुछ सुनना नहीं चाहता था
मैं उसे सुनाई पडने की सब कोशिशें करती
बहुत शोर करने वाले जूते पहनती
सबसे *यादा खनकने वाली चूडियों से कलाई दुखाती
और तो और उसे सुनाने को सपनों में काँच चबाती
उस तक कुछ नहीं पहुँचता
मैं उसकी आँखों में गहरी खाई-सा खालीपन देखती
जिसमें मरती हुई आवाजों की गूँज थी
मैं घबराकर अपने ही दिल पर हाथ रखती
कोई जवाब नहीं आता
उसके होंठों की बदलती मुद्राओं के बीच मैं खिलखिलाहट सुनना चाहती
उसकी हँसी के जवाब में अपनी हँसी उस तक पहुँचाना चाहती
पर जाने कैसे मेरे और उसके बीच निर्वात आ जाता
ये वे दिन थे जब मैं ध्वनि से शब्दों को छानने की कोशिश में जुबान पर राख मलती थी
ये वे दिन थे जब ध्वनियों का आखेटक मौन-देस में विचरता ध्वनियों का स्वाद भूल गया था
2. दंश
दंश देना है तुम्हें?
तो आओ सर्पदंश दो
किन्तु पूर्व उसके
मस्तक मेरे भभूत मलो, अघोरी!
फिर मृत्यु मुझे सहर्ष दो
और अन्त में, लपेट गंगा
मेरी ग्रीवा पर
आत्मा को मेरी
मोक्ष का स्पर्श दो!
3. सर्प-विषयक
उन्हें मोह नहीं किसी से
क्या सगा, क्या पराया
सबकी देह में निरपेक्ष भाव से उतारते हैं विष
उनके स्पर्श तक को लोग मृत्यु कहते हैं
वे कहीं ठहरकर नहीं रहते
घर को घर नहीं कहते
वे भागते हैं बहुत बार जागते हुओं से
और बहुत बार सोते हुओं की
कभी न टूटने वाली नींद के दोषी होकर भी
नहीं रखते अपराधबोध कोई
न ही कोई दण्ड सहते हैं
यूँ तो सर्पों के विषय मे कही गई बातें हैं ये
पर अचम्भा तो देखो
सच हैं उन मनुजों के लिए भी
जो होते हैं सबके मित्र, शत्रु किसी के नहीं
और डसते उन्हें हैं जिनकी आस्तीनों में रहते हैं
4. तुम आए और...
मैं चाहती थी
चकित-भ्रमित आकाश मेरे पाँवों से लिपट जाए
जो करूँ मैं नीले आलते की कामना
जो मैं कहूँ- चन्दन
तो पृथ्वी धूल हो मेरे माथे पर आ सजे
ये वे दिन थे जब
मेरी इच्छाओं के परास में पूरी प्रकृति थी
ये वे ही दिन थे
जब तुम नहीं थे
तुम आए
और मैंने अपने पदचिह्नों को
चकित हो नीला होते देखा
तुमने उठाई धूल तनिक और
मैंने स्वयं को भ्रमित हो कर
चन्दन-वन में खोते देखा
5. ताप
भाग्य की रेखा जलने को है
सुख की साँझ पिघलने को है
बिखर रही श्वासों की माला
प्रेम, काल में ढलने को है
धूल हुई कंचन काया और ऐसे क्षण में
नाम तुम्हारा मृत्युंजय का जाप लगे है
रात का सपना प्रात खिलेगा, बुझ जाएगा
किसे पता है?
पथ से भटका, लौटेगा तो घर आएगा
किसे पता है?
किसे पता है, समय-पार क्या खेल रचा है
किसे पता है, चाल जीत कर कौन बचा है
समय-पार का समझा-देखा तुम ही जानो
जीवन का सब जोखा-लेखा तुम ही जानो
तुम ही जानो पुण्य चढे कि पाप लगे है
मैं अनजानी प्रेम-दिवानी बस ये जानूँ
मेरे गिरधर, मुझे तुम्हारा ताप लगे है!
6. प्रतिफल
मेरी अलिखित
कविता की
मरी हुई नायिका
मुझसे मेरे हिस्से की
दो मुट्ठी मिट्टी माँगती है
और मैं, बदले में
उसकी कब्र में
सो जाने की
कामना करती हूँ
मुझे मेरे तुच्छतम बलिदानों का
श्रेष्ठतम प्रतिफल चाहिए
7. रात्रि-उदिता
प्रकाश भ्रमित करता है मुझे
जैसे भ्रमर को भ्रम में रखते हैं पुष्प
जैसे भयाक्रांत रहती है मित्रता छल से
वैसे ही ठीक, दीप्ति से मुझे भय आता है
जब निद्रामग्न हो संसार समग्र
तो भींच लेता है स्वयं में
मुझे मुझसे मिलाता है, बूझो कौन?
अन्धकार
जो आश्रय है मेरा
मुझे जाग का पाठ पढाता है
इसी पाठ का प्रताप है
कि
मैं रात्रि-उदिता
दिवाकर से मानती हूँ बैर
जाने कौन जनम का
यूँ कि जो भूले से भी पडूँ दिवस के फेर में
तो मूँद रखती हूँ नेत्र अपने
तमस-तमस उच्चारती हूँ
सशंकित हूँ मैं शशि से भी
सो करती हूँ त्याग सुख-चन्द्रिका का
अमावस का नैकट्य स्वीकारती हूँ
सम्पर्क - क्कस्-454 नयी कॉलोनी,
निकट संतोषी माता मंदिर,
राजकमल रोड, बाराबंकी-225001
ईमेल- kaynaatekhwaab@gmail.com
वह ध्वनियों का आखेटक था
और उस बसन्त मेरे गले में शूल अटकते थे
चिडियों का चहचहाना सपने में सुन उठ बैठने वाला वह
हवा की सरसराहट पर जाने क्या सुन मुस्कुराने वाला वह
अब कुछ सुनना नहीं चाहता था
मैं उसे सुनाई पडने की सब कोशिशें करती
बहुत शोर करने वाले जूते पहनती
सबसे *यादा खनकने वाली चूडियों से कलाई दुखाती
और तो और उसे सुनाने को सपनों में काँच चबाती
उस तक कुछ नहीं पहुँचता
मैं उसकी आँखों में गहरी खाई-सा खालीपन देखती
जिसमें मरती हुई आवाजों की गूँज थी
मैं घबराकर अपने ही दिल पर हाथ रखती
कोई जवाब नहीं आता
उसके होंठों की बदलती मुद्राओं के बीच मैं खिलखिलाहट सुनना चाहती
उसकी हँसी के जवाब में अपनी हँसी उस तक पहुँचाना चाहती
पर जाने कैसे मेरे और उसके बीच निर्वात आ जाता
ये वे दिन थे जब मैं ध्वनि से शब्दों को छानने की कोशिश में जुबान पर राख मलती थी
ये वे दिन थे जब ध्वनियों का आखेटक मौन-देस में विचरता ध्वनियों का स्वाद भूल गया था
2. दंश
दंश देना है तुम्हें?
तो आओ सर्पदंश दो
किन्तु पूर्व उसके
मस्तक मेरे भभूत मलो, अघोरी!
फिर मृत्यु मुझे सहर्ष दो
और अन्त में, लपेट गंगा
मेरी ग्रीवा पर
आत्मा को मेरी
मोक्ष का स्पर्श दो!
3. सर्प-विषयक
उन्हें मोह नहीं किसी से
क्या सगा, क्या पराया
सबकी देह में निरपेक्ष भाव से उतारते हैं विष
उनके स्पर्श तक को लोग मृत्यु कहते हैं
वे कहीं ठहरकर नहीं रहते
घर को घर नहीं कहते
वे भागते हैं बहुत बार जागते हुओं से
और बहुत बार सोते हुओं की
कभी न टूटने वाली नींद के दोषी होकर भी
नहीं रखते अपराधबोध कोई
न ही कोई दण्ड सहते हैं
यूँ तो सर्पों के विषय मे कही गई बातें हैं ये
पर अचम्भा तो देखो
सच हैं उन मनुजों के लिए भी
जो होते हैं सबके मित्र, शत्रु किसी के नहीं
और डसते उन्हें हैं जिनकी आस्तीनों में रहते हैं
4. तुम आए और...
मैं चाहती थी
चकित-भ्रमित आकाश मेरे पाँवों से लिपट जाए
जो करूँ मैं नीले आलते की कामना
जो मैं कहूँ- चन्दन
तो पृथ्वी धूल हो मेरे माथे पर आ सजे
ये वे दिन थे जब
मेरी इच्छाओं के परास में पूरी प्रकृति थी
ये वे ही दिन थे
जब तुम नहीं थे
तुम आए
और मैंने अपने पदचिह्नों को
चकित हो नीला होते देखा
तुमने उठाई धूल तनिक और
मैंने स्वयं को भ्रमित हो कर
चन्दन-वन में खोते देखा
5. ताप
भाग्य की रेखा जलने को है
सुख की साँझ पिघलने को है
बिखर रही श्वासों की माला
प्रेम, काल में ढलने को है
धूल हुई कंचन काया और ऐसे क्षण में
नाम तुम्हारा मृत्युंजय का जाप लगे है
रात का सपना प्रात खिलेगा, बुझ जाएगा
किसे पता है?
पथ से भटका, लौटेगा तो घर आएगा
किसे पता है?
किसे पता है, समय-पार क्या खेल रचा है
किसे पता है, चाल जीत कर कौन बचा है
समय-पार का समझा-देखा तुम ही जानो
जीवन का सब जोखा-लेखा तुम ही जानो
तुम ही जानो पुण्य चढे कि पाप लगे है
मैं अनजानी प्रेम-दिवानी बस ये जानूँ
मेरे गिरधर, मुझे तुम्हारा ताप लगे है!
6. प्रतिफल
मेरी अलिखित
कविता की
मरी हुई नायिका
मुझसे मेरे हिस्से की
दो मुट्ठी मिट्टी माँगती है
और मैं, बदले में
उसकी कब्र में
सो जाने की
कामना करती हूँ
मुझे मेरे तुच्छतम बलिदानों का
श्रेष्ठतम प्रतिफल चाहिए
7. रात्रि-उदिता
प्रकाश भ्रमित करता है मुझे
जैसे भ्रमर को भ्रम में रखते हैं पुष्प
जैसे भयाक्रांत रहती है मित्रता छल से
वैसे ही ठीक, दीप्ति से मुझे भय आता है
जब निद्रामग्न हो संसार समग्र
तो भींच लेता है स्वयं में
मुझे मुझसे मिलाता है, बूझो कौन?
अन्धकार
जो आश्रय है मेरा
मुझे जाग का पाठ पढाता है
इसी पाठ का प्रताप है
कि
मैं रात्रि-उदिता
दिवाकर से मानती हूँ बैर
जाने कौन जनम का
यूँ कि जो भूले से भी पडूँ दिवस के फेर में
तो मूँद रखती हूँ नेत्र अपने
तमस-तमस उच्चारती हूँ
सशंकित हूँ मैं शशि से भी
सो करती हूँ त्याग सुख-चन्द्रिका का
अमावस का नैकट्य स्वीकारती हूँ
सम्पर्क - क्कस्-454 नयी कॉलोनी,
निकट संतोषी माता मंदिर,
राजकमल रोड, बाराबंकी-225001
ईमेल- kaynaatekhwaab@gmail.com