आदिवासी महिलाओं की कविता पढना आसान नहीं
शुभ्रा नागलिया
जसिंता केरिकेट्टा और पूनम वासम की कविताओं को पढना मुश्किल है। इन कविताओं को पढना मुश्किल इसलिए नहीं है कि इसमें उनके समाज के विनाश का चित्रण है, बल्कि उनकी कविताएँ पढना मुश्किल इसलिए है कि क्योंकि ये कविताएँ अपने पाठक को कटघरे में खडा कर देती हैं। हम अपने से दूरस्थ, आदिम समुदायों का अध्ययन करते हैं। जबकि हमारा अपना परिवेश सुरक्षित बना रहता है। विकास, विज्ञान, प्रगति आदि की बुनियादों पर टिका हमारा नागर आत्म इनसे श्रेष्ठ और सुरक्षित दूरी पर मौजूद रहता है। आदिवासी महिलाओं की कविता हमारी आत्म-सुरक्षा की इन बुनियादों को हिला देती है। वे पाठक और कविता के बीच के इस वर्चस्ववादी सम्बन्ध को खारिज करती हैं। बुनियादी तौर पर हमारे पर्यटक मन को यह कविता झटका देकर वापस भेज देती है। इसके बजाय ये कविताएँ अपने पाठक की इन निशिचतताओं पर पुनर्विचार की माँग करती हैं। कविता पाठक को समझाती है, संवाद स्थापित करती है और पाठक से माँग करती है कि वे इस बात पर पुनर्विचार करें कि वे अपनी जीवन प्रणाली को श्रेष्ठ क्यों समझते हैं।
उदाहरण के लिए ये अपने पाठक से माँग करती है कि वह अपने संस्थाबद्ध धर्म और ईश्वर पर पुनर्विचार करे। क्योंकि इसने उनके समाजों में भी पर्याप्त हिंसा को जन्म दिया है। ये कविताएँ सवाल खडा करती हैं कि आप क्यों अपने संस्थाबद्ध धर्म को हमारे समाजों में लाते हो और हमारे संघर्षरत हाथों को प्रार्थना में जुडे हाथों में बदल देते हो। धर्म की आदिवासी देवता से तुलना करते हुए आत्मकथ्य में पूनम वासम कहती हैं कि एक ऐसी जगह है जहाँ पर देवता को भक्त की मन्नत पूरी न करने पर सजा देने का प्रावधान है, बावजूद इसके सभ्यता की अदालत में उन्हें असभ्य ठहराया जाता है। कविता दिखाती है कि कैसे आदिवासी देवता तुम्हारे देवताओं की तरह पत्थर की मूर्तियाँ नहीं बल्कि हमारे साथ मौजूद और जीवन्त हैं। कवयित्री अपने पाठकों से पूछती है कि-
आदमी के लिए
ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता
बाजार से होकर क्यों जाता है (पृ.11, केरकेट्टा)
संगठित धर्म द्वारा किए गए विनाश से आहत कवयित्री पूछती है
कैसा धर्म है तुम्हारा
आपस में तो लड मरते हो
प्रकृति जो तुम्हें पालती है
उसको भी नहीं छोडते हो (पृ. 16, केरकेट्टा)
पूरी कविता में मौजूद धर्म की आलोचना के जरिये कवयित्री विभिन्न आदिवासी समुदायों में धर्म द्वारा किए गए विनाश की आलोचना पेश करती हैं। आदिवासियों के संघर्ष को धर्म ने अपने भीतर पचा लेने की कोशिश की है। धर्म की आलोचना सिर्फ इसलिए नहीं है कि उसने आदिवासी समुदायों को तबाह करने में भूमिका निभाई है, लेकिन इससे सभ्य दुनिया में भी तबाही मची है। पूजा स्थल की ओर ताकता देश कविता में वह कहती है, बडे शहरों में जहाँ धर्म लोगों से ऊपर है वहाँ नदियाँ सूख चुकी हैं, जहाँ लोगों को कुछ भी महसूस नहीं होता (पृ. 35-36-37, केरकेट्टा) ।
केरकेट्टा (ईश्वर और बाजार, 2022) और वासम (मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंण्डुमगीत, 2021) शहरी जीवन के सभी केन्द्रीय आयामों को पकडती हैं और उन्हें उलट देती हैं। वे शिक्षा के प्रश्न को उठाती हैं और उसकी असलियत को सामने खोलकर रख देती हैं। वे कहती हैं कि आप हमें शिक्षित करने के नाम पर अपने स्कूल ले आते हो लेकिन उन्हीं स्कूलों में बच्चे मुट्ठीभर खाने की लालसा में खडे दिखाई पडते हैं। कई बार तो वह भी तुम्हारी व्यवस्थाओं की भेंट चढ जाता है। हमारे असभ्य समाज में बच्चे बडे होते हैं अपने समाज और प्रकृति से जुडे हुए। वे अपने आप सीख जाते हैं तैरना और मछली पकडना, लेकिन तथाकथित सभ्यता के दायरे से खारिज ही रहते हैं। वासम कहती है कि
पटेल पारा नैमेड के
बच्चे जानते हैं ...
कैसे बनता है
तालाब की मछलियों का
स्वादिष्ट पुडगा...
पटेल पारा नैमेड के बच्चे
बस्ते में भरकर नहीं लाते
कापी, किताब और पेन्सिल
बल्कि उठा लाते हैं
मध्यान्ह भोजन की थाली
कविता का अंत करते हुए वे लिखती हैं
पृथ्वी गोल हैं, क्या करना है यह जानकर
कि खुश हैं ये तो, बस,
रोटी की गोलाई नापकर। (पृ. 82-83, वासम)
रोटी के बीच केचप शीर्षक एक अन्य कविता में वासम फिर से तथाकथित सभ्य समाज की बुनियाद पर सवाल उठाती हैं। इस प्रक्रिया में वे हमारी शिक्षा और आदिवासी बच्चों की शिक्षा के बीच तुलना करती हैं। वे ना ही विज्ञान के लिए किसी लैब की आवश्यकता कहते हुए जीवन को संतोषजनक ढँग से जीने के लिए आवश्यक कौशल के बारे में बात करती हैं जिनमें आदिवासी बच्चे आसानी से पारंगत हो जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद जैसे अचेबे की दुनिया में चीजें बिखर जाती हैं वे लिखती हैं,
बावजूद उन्हें अब तक
क्लासरूम में टीचर के प्रजेन्ट की
आवाज पर
यस सर बोलने का हुनर नहीं आया
बल्कि वह जंगल के
मनमोहक सन्नाटे में सेंध लगा चुके हैं
हैंड्सअप की कडक आवाज पर एकदम से
खडे हो जाते हैं
अपने दोनों हाथ उठाकर
जैसे खडा हो जाता है पन्द्रह अगस्त को
जिला मुख्यालय में हमारा राष्ट्रीय झण्डा
(पृ. 84-86)
कविता एक ओर तो पाठकों पर सवाल खडा करती है और दूसरी तरफ हर आदिवासी का शिकार करने वाली भूख और विस्फोटों में इस्तेमाल बारूद की गन्ध के चित्र खडा करती है। केरकेट्टा सवाल करती हैं कि उस रात चिडियों का क्या होता है जब पूर्वनिर्धारित धमाके किये जाते हैं (धमाकों के बीच चिडिया) चिडिया और उनके घोंसले गेहूँ के साथ पिसने वाले घुन नहीं बल्कि आदिवासी मनुष्यता का हिस्सा हैं। यहाँ केरकेट्टा उन लोगों की मनुष्यता पर सवाल खडा करती हैं जो मुनाफा कमाने के लिए हर हाल में प्रकृति का दोहन करना चाहते हैं।
सामूहिक स्मृतियों के प्रतीकों को नष्ट करने की सुविचारित कोशिशें की जा रही हैं। केरकेट्टा पूछती हैं कि क्यों मिटाये गये अखडा धुमकुडिया। ये जगहें समूह में एकत्र होने की जगहें हैं और धुमकुडिया आदिवासियों के परम्परागत शिक्षा केन्द्र हैं। वे कहती हैं -
वे चाहते हैं
आदमी पैदा होता रहे
कठोर, निर्मम और बहरा
इसलिए एक दिन उन्होंने मिटा दिये
गाँव जंगलों से धुमकुडिया
गितिः, ओडा, गोटुल और अखडा (पृ. 93)
जब संवेदनशील पाठक भी आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के संघर्षों से सहमति जताते हैं तब भी वे इनके प्रति आदिवासियों के नजरिये को पूरी तरह नहीं समझ पाते। सभ्य दुनिया के लिए जमीन तात्कालिक इस्तेमाल और मुनाफे की चीज है। हम जमीन के बारे में जब भी सोचते हैं, उसके मुनाफे के लिए इस्तेमाल के बारे में सोचते हैं। हमारे जेहन में पहला खयाल यह नहीं आता कि वह हमें पालती है। जैसे जब कोई बच्ची जन्म लेती है तो उसके आस-पास का संसार उसके अपने अस्तित्व का ही विस्तार होता है और यह संसार बडे होने पर और भी विस्तारित होता है। एक आदिवासी के इस विस्तारित समाज से उसके अस्तित्व को अलग करके नहीं देखा जा सकता और उसके अस्तित्व को जल, जंगल, जमीन से अलग करके नहीं देखा जा सकता। सभ्यता में प्रकृति और मनुष्य के अस्तित्व के बीच जो विभाजनरेखा खींची है उसके कारण सभ्यताग्रस्त व्यक्ति आदिवासियों के प्रकृति के बारे में इस नजरिये को समझने में अक्षम हो जाता है। ये कविताएँ इसी ओर संकेत करती हैं। ये कविताएँ पाठक को आत्मसमीक्षा की ओर प्रेरित करती हैं।
ये कविताएँ एक तरफ आदिवासी जीवन की ऐतिहासिक स्मृति, उसकी जीवन्त ताकत और दूसरी तरफ मौजूदा समय के द्वैध के बीच अवस्थित हैं और उस ऐतिहासिक स्मृति को नये सिरे से रच भी रही हैं। यह स्मृति बडी जीवंत लेकिन आक्रोश से भरी हुई है क्योंकि यह अपने आप को ऐसे वर्तमान संदर्भों के बीच पाती है जो उसे पूरी तरह अलगाव में डालना चाहते हैं। यह आक्रोश मौजूदा संकट की आसन्नता और आपात स्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए एक भाषा की तलाश में है।
ईश्वर और बाजार के दोनों प्रतीक गैर-मानव प्रतीक हैं, लेकिन इनका स्वरूप वास्तव में सर्वव्यापी जैसा होता चला गया है। इन गैर-मानव प्रतीकों की व्यापकता इतनी अधिक हो गई है कि ये अब मनुष्यों का जीवन और मरण निर्धारित कर रहे हैं, खासकर उनका जिन्होंने अभी अपनी मनुष्यता छोडी नहीं है।
आदिवासियों का श्रम, मिट्टी, भौतिकता और परिवेश के साथ एकात्म भाव से जुडाव उन्हें ऐसा जीवन दर्शन देता है जिसमें वे ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की सतत चाह से परे जीवन जीते हैं। उनकी मनुष्यता दैनिक जीवन की भौतिकता में निहित है जहाँ वे अपनी प्रकृति और अपने अतीत से एकरत होकर जीवन जीने की शैली जानते हैं।
कविता संग्रह के संक्षिप्त से आत्मकथ्य में जसिंता अपनी कविता में मौजूद ऐतिहासिक स्मृति और आक्रोश दोनों के बारे में बात करती हैं। साथ ही इस भूमिका में समुदाय और व्यक्ति के बारे में बात करती हैं। उनके आपसी सम्बन्धों के बारे में एक जबर्दस्त अभिव्यक्ति और आदिवासी दृष्टिकोण उनकी कविताओं में व्याप्त है।
सभ्य समाज ने विचार प्रक्रिया को एकान्तिक माना है लेकिन जसिंता इस बात को उलट कर कहती हैं कि आप जीवन, समाज, भाषा से जितनी दूर होते हैं आफ विचार भी उतना ही विलगावपूर्ण होते हैं। जबकि आदिवासी जीवन में नदी से, पेड से, पक्षियों से, पत्तों से कविता ही नहीं विचार भी आते हैं। इस तरह विचार और विचार प्रक्रिया एकान्तिक न होकर अपनी प्रकृति में ही सामुदायिक होती है। कविता, विचार और भाषा साझेपन में पनपते हैं। इसमें मनुष्यों का ही नहीं पशुओं, पक्षियों और जंगलों का भी साझा है । कविता में ध्वनियों की ही बात नहीं चुप्पियों को ध्यान से सुनने का अभ्यास भी है इसलिए जसिंता की कविता ध्वनि और मौन दोनों को साझापन लेकर आती है।
हमारी दुनिया का आत्म हमारे चिन्तन और दृष्टिकोण के केन्द्र में रहता है। व्यक्ति हमारे उपभोग-लिप्साग्रस्त आत्म का संचालक है। यही वह आत्मवत्ता हैं जो यह स्थापित करती है कि हम कितना आगे बढ गए हैं और आदिवासी समुदाय कितना पीछे रह गए हैं। आदिवासी आत्म जो स्वयं और प्रकृति के साथ एकरूप था अब पूँजीवाद के लुटेरे स्वरूप द्वारा संचालित है।
शताब्दियों से चले आ रहे जीवनानुभव और ज्ञान से आदिवासी जानते हैं कि मनुष्यता और शांति की जरूरत क्यों है।
कविता सभ्यता की दुनिया के पुरुष से प्रेम की असंभवता की ओर भी ध्यान खींचती है -
जिसने कहा स्त्री से प्रेम है
वह मारी गई
कहा बच्चियाँ सुरक्षित होनी चाहिए
वे तेजी से बलात्कार का शिकार हुईं
(केरकेट्टा, पृ. 53)
किस तरह असम्भव है हमारी दुनिया के पुरुषों से प्यार करना। इन सभ्य समाजों से आने वाले पुरुष जिससे भी प्रेम करते हैं उसकी हत्या कर देते हैं, जैसे- पेड, नदी, प्रकृति या स्त्री। (जब वह प्यार करता है, 53, 54)
आदिवासी लडकियाँ कविता दोनों दुनियाओं के बीच के अन्तर को बहुत साफ किन्तु त्रासद ढँग से दिखाती है। पुरुषसत्ता के लिए महिलाएँ केवल उपभोग की वस्तु हैं और वह आदिवासी लडकियों की भंगिमाओं और उनकी लय का कोई अर्थ नहीं समझ पाती। कविता कहती है
बात-बात पर कन्धा छू लेते उनके हाथ
कोई अल्हडपन
कोई सहजता
जिसे वह हमेशा सस्ती ही समझता (पृ. 117)
वह सिर्फ उनका उपभोग करना चाहता है और उन्हें बाजार की वस्तु बनाना चाहता है,
भेज दो अपनी लडकी को
और मेरे घर से डरे हुए सारे मर्द
उनकी देहरी पर छोड आते हैं
मुझे ये कहते हुए कि मर गई उनकी बेटी
(पृ. 120)
शोर मचाती लडकियाँ कविता में, विनाश से पहले की आदिवासी लडकियों की जीवन्त उपस्थिति है, जबकि मुख्यधारा की महिलाओं के पास उनकी चुप्पी ही है क्योंकि शान्त लडकियाँ ही होती हैं सबसे अच्छी (केरकेट्टा, पृ. 122).
हमने तो जूते पहन रखे हैं (43) कविता में जसिंता विकास और सभ्यता के पूरे तर्क को सिर के बल खडा कर देती हैं। वे अपने नंगे तलवों के नीचे धडकती धरती और जिन्दगी को महसूस करती हैं, जबकि जूते पहने हुए हम उसके नीचे जमीन को कुचलते हैं और ना उसे समझते हैं, न अपने द्वारा की गई बर्बादी को महसूस करते हैं। जो बाहर से आकर नंगे पैर आदिवासी पर तरस खाते हैं वे नहीं जान पाते कि उस आदिवासी की मनुष्यता उसके नंगे पैरों के नीचे मौजूद धरती से उसके रिश्ते में है। लोगों की दया के जवाब में केरकेट्टा कहती हैं-
पर मुझे उन पर तरस आया
क्योंकि जूते पहनने के अभ्यस्त लोग
ये कभी नहीं जान सकते
कि उनके पैरों तले की जमीन कैसी है
क्या वह साँस ले रही है
हम इसी धरती पर जन्म लेते हैं और अन्त में इसी में समा जाते हैं। जो पृथ्वी हमें पालती है हम उसकी भी देखभाल नहीं कर पाते। पर्यावरण में बदलाव के खिलाफ चलने वाले आँदोलनों को भी आदिवासियों से सीखना होगा कि अपने जीवन को कैसे पुनर्कल्पित किया जाए।
कार और जूतों में आने, तरस खाने और लोगों का उत्थान करने के इस दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए आखिरी कविता इंतजार कविता में जबर्दस्त ढंग से केरकेट्टा कहती हैं -
वे हमारे सभ्य होने के इन्तजार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने के। (पृ. 200)
ये इन्तजार कितना लम्बा है और कितना भयावह, ये उस कीमत से पता चलता है जो आदिवासी समाज हर दिन अदा कर रहा है। आदिवासियों के बारे में हमेशा ये बात सबको पता रही है कि उन्होंने बाहर से आए घुसपैठियों से हमेशा जमकर मुकाबला किया। अंग्रेजों से भीषण संघर्ष के कारण ही उन्हें अपराधी जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया। यह सभ्य दुनिया के साथ पहला संवाद था और इसमें आदिवासी अपनी दुनिया को बचाए रखने में कामयाब रहे। आजादी के बाद उन्हें भारतीय राज्य के साथ-साथ खनिजों, अयस्कों, नदियों, पहाडों और वन-उत्पादों के भूखे बडे पूँजीपतियों के हमलों का भी सामना करना पडा। यह हमला कई दशकों से जारी है। भू-स्वामित्व कानून में संशोधन के बारे में दासगुप्ता कहती हैं 2017 में झारखण्ड विधानसभा ने छोटा नागपुर टेनेन्सी ऐक्ट, 1908 में संशोधन करके आदिवासियों के जमीन पर परंपरागत हक को छीनने की कोशिश की। आदिवासी समुदाय अपने जल, जंगल और जमीन को छीनने के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
अतीत के संघर्षों की स्मृतियाँ आदिवासियों में उम्मीद का संचार करती हैं और उनके अतीत को उनकी कल्पना के भविष्य के साथ जोडती हैं। मुण्डा आदिवासी समुदाय से प्रेरित होकर पत्थलगडी आन्दोलन की शुरुआत भूमि कानूनों में संशोधन का विरोध करने के लिए हुई। ये संशोधन आदिवासियों की जमीन के व्यावसायिक इस्तेमाल की इजाजत देते हैं, खेतिहर जमीन को गैर खेतिहर कामों के लिए इस्तेमाल करने के लिए अधिग्रहीत करने की इजाजत देते हैं और क्षतिपूर्ति के बतौर जमीन को दूसरे व्यक्ति के नाम करने पर रोक लगाते हैं। इनमें से पहले दो प्रावधानों का झारखण्ड के आदिवासियों पर बहुत बुरा असर पडेगा क्योंकि सरकार ने पहले ही 21 लाख एकड जमीन को तथाकथित सरकारी जमीन घोषित कर दिया है। इसमें पवित्र माने जाने वाले जंगलों से लेकर, गाँवों के रास्ते, खेल के मैदान, कब्रिस्तान, वनभूमि और पहाड तक शामिल हैं। राज्य सरकार ने ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का भी आयोजन किया और कॉरपोरेट घरानों के साथ 210 नये समझौतों पर हस्ताक्षर किए। (ग्लैडसन डुंगडुंग) विकास और मुख्यधारा में जोडने के नाम पर कभी भी आदिवासियों के साथ ईमानदार सम्वाद करने की कोशिश नहीं की गई। इसके बजाय यह हुआ कि सामुदायिक सम्पत्तियों को आदिवासियों की मर्जी के खिलाफ गैर आदिवासी निजी हाथों में दे दिया गया है। आदिवासियों के अपने परिवेश को तहस-नहस करके उन्हें गरीबी वाले गन्दे और भौंडे कस्बों में बसा दिया गया है।
केरकेट्टा और वासम 1910 के विद्रोह के आदिवासी नायक गुण्डाधुर को अपनी कविताओं में ले आती हैं। वासम कहती हैं कि
अपनी इस धरती पर
गुंडाधुर जैसा
कोई नन्हा बीज बोना (पृ. 31)
ऐतिहासिक संघर्षों की स्मृतियाँ उम्मीद पैदा करती हैं।
संघर्षों द्वारा पैदा की गई उम्मीद की क्षीण-सी रोशनी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। लेकिन ये भी आदिवासी हैं, जल, जंगल और जमीन के पालने में पले बढे हैं, उनके साथ उनकी मनुष्यता है और उन्हें पता है कि दाँव पर क्या लगा है। बाहर के सभी लोगों के लिए उनके पुरखों की आवाज पूनम वासम की कविता में गूँजती है-
ये लैपटॉप की स्क्रीन पर लगी आग नहीं है
यहाँ सचमुच जंगल में आग लगी है
दौडो-दौडो (157, जंगल का आत्मकथ्य)
References
1. संगीता दासगुप्ता, आदिवासी स्टडीज : फ्रॉम से हिस्टोरियन्स पर्सपेक्टिव, हिस्ट्री कम्पास, सितम्बर, 2018
2. ग्लैसन डुंगडुंग https://www.iwgia.org/en/news/4613-the-pathalgari-movement-for-adivasi-autonomy-a-revolution-of-india%Ew%}®%99s-indigenous-peoples.html
3. चिनुआ अचेबे, 1958, थिंग्स फॉल अपार्ट, हेनेमन, लन्दन
4. पूनम वासम, मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुमगीत- बस्तर की लोकसंस्कृति एवं जनचेतना पर केन्द्रित कवितायें, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2021
5. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2022
सम्पर्क - shubhra@aud.ac.in
उदाहरण के लिए ये अपने पाठक से माँग करती है कि वह अपने संस्थाबद्ध धर्म और ईश्वर पर पुनर्विचार करे। क्योंकि इसने उनके समाजों में भी पर्याप्त हिंसा को जन्म दिया है। ये कविताएँ सवाल खडा करती हैं कि आप क्यों अपने संस्थाबद्ध धर्म को हमारे समाजों में लाते हो और हमारे संघर्षरत हाथों को प्रार्थना में जुडे हाथों में बदल देते हो। धर्म की आदिवासी देवता से तुलना करते हुए आत्मकथ्य में पूनम वासम कहती हैं कि एक ऐसी जगह है जहाँ पर देवता को भक्त की मन्नत पूरी न करने पर सजा देने का प्रावधान है, बावजूद इसके सभ्यता की अदालत में उन्हें असभ्य ठहराया जाता है। कविता दिखाती है कि कैसे आदिवासी देवता तुम्हारे देवताओं की तरह पत्थर की मूर्तियाँ नहीं बल्कि हमारे साथ मौजूद और जीवन्त हैं। कवयित्री अपने पाठकों से पूछती है कि-
आदमी के लिए
ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता
बाजार से होकर क्यों जाता है (पृ.11, केरकेट्टा)
संगठित धर्म द्वारा किए गए विनाश से आहत कवयित्री पूछती है
कैसा धर्म है तुम्हारा
आपस में तो लड मरते हो
प्रकृति जो तुम्हें पालती है
उसको भी नहीं छोडते हो (पृ. 16, केरकेट्टा)
पूरी कविता में मौजूद धर्म की आलोचना के जरिये कवयित्री विभिन्न आदिवासी समुदायों में धर्म द्वारा किए गए विनाश की आलोचना पेश करती हैं। आदिवासियों के संघर्ष को धर्म ने अपने भीतर पचा लेने की कोशिश की है। धर्म की आलोचना सिर्फ इसलिए नहीं है कि उसने आदिवासी समुदायों को तबाह करने में भूमिका निभाई है, लेकिन इससे सभ्य दुनिया में भी तबाही मची है। पूजा स्थल की ओर ताकता देश कविता में वह कहती है, बडे शहरों में जहाँ धर्म लोगों से ऊपर है वहाँ नदियाँ सूख चुकी हैं, जहाँ लोगों को कुछ भी महसूस नहीं होता (पृ. 35-36-37, केरकेट्टा) ।
केरकेट्टा (ईश्वर और बाजार, 2022) और वासम (मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंण्डुमगीत, 2021) शहरी जीवन के सभी केन्द्रीय आयामों को पकडती हैं और उन्हें उलट देती हैं। वे शिक्षा के प्रश्न को उठाती हैं और उसकी असलियत को सामने खोलकर रख देती हैं। वे कहती हैं कि आप हमें शिक्षित करने के नाम पर अपने स्कूल ले आते हो लेकिन उन्हीं स्कूलों में बच्चे मुट्ठीभर खाने की लालसा में खडे दिखाई पडते हैं। कई बार तो वह भी तुम्हारी व्यवस्थाओं की भेंट चढ जाता है। हमारे असभ्य समाज में बच्चे बडे होते हैं अपने समाज और प्रकृति से जुडे हुए। वे अपने आप सीख जाते हैं तैरना और मछली पकडना, लेकिन तथाकथित सभ्यता के दायरे से खारिज ही रहते हैं। वासम कहती है कि
पटेल पारा नैमेड के
बच्चे जानते हैं ...
कैसे बनता है
तालाब की मछलियों का
स्वादिष्ट पुडगा...
पटेल पारा नैमेड के बच्चे
बस्ते में भरकर नहीं लाते
कापी, किताब और पेन्सिल
बल्कि उठा लाते हैं
मध्यान्ह भोजन की थाली
कविता का अंत करते हुए वे लिखती हैं
पृथ्वी गोल हैं, क्या करना है यह जानकर
कि खुश हैं ये तो, बस,
रोटी की गोलाई नापकर। (पृ. 82-83, वासम)
रोटी के बीच केचप शीर्षक एक अन्य कविता में वासम फिर से तथाकथित सभ्य समाज की बुनियाद पर सवाल उठाती हैं। इस प्रक्रिया में वे हमारी शिक्षा और आदिवासी बच्चों की शिक्षा के बीच तुलना करती हैं। वे ना ही विज्ञान के लिए किसी लैब की आवश्यकता कहते हुए जीवन को संतोषजनक ढँग से जीने के लिए आवश्यक कौशल के बारे में बात करती हैं जिनमें आदिवासी बच्चे आसानी से पारंगत हो जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद जैसे अचेबे की दुनिया में चीजें बिखर जाती हैं वे लिखती हैं,
बावजूद उन्हें अब तक
क्लासरूम में टीचर के प्रजेन्ट की
आवाज पर
यस सर बोलने का हुनर नहीं आया
बल्कि वह जंगल के
मनमोहक सन्नाटे में सेंध लगा चुके हैं
हैंड्सअप की कडक आवाज पर एकदम से
खडे हो जाते हैं
अपने दोनों हाथ उठाकर
जैसे खडा हो जाता है पन्द्रह अगस्त को
जिला मुख्यालय में हमारा राष्ट्रीय झण्डा
(पृ. 84-86)
कविता एक ओर तो पाठकों पर सवाल खडा करती है और दूसरी तरफ हर आदिवासी का शिकार करने वाली भूख और विस्फोटों में इस्तेमाल बारूद की गन्ध के चित्र खडा करती है। केरकेट्टा सवाल करती हैं कि उस रात चिडियों का क्या होता है जब पूर्वनिर्धारित धमाके किये जाते हैं (धमाकों के बीच चिडिया) चिडिया और उनके घोंसले गेहूँ के साथ पिसने वाले घुन नहीं बल्कि आदिवासी मनुष्यता का हिस्सा हैं। यहाँ केरकेट्टा उन लोगों की मनुष्यता पर सवाल खडा करती हैं जो मुनाफा कमाने के लिए हर हाल में प्रकृति का दोहन करना चाहते हैं।
सामूहिक स्मृतियों के प्रतीकों को नष्ट करने की सुविचारित कोशिशें की जा रही हैं। केरकेट्टा पूछती हैं कि क्यों मिटाये गये अखडा धुमकुडिया। ये जगहें समूह में एकत्र होने की जगहें हैं और धुमकुडिया आदिवासियों के परम्परागत शिक्षा केन्द्र हैं। वे कहती हैं -
वे चाहते हैं
आदमी पैदा होता रहे
कठोर, निर्मम और बहरा
इसलिए एक दिन उन्होंने मिटा दिये
गाँव जंगलों से धुमकुडिया
गितिः, ओडा, गोटुल और अखडा (पृ. 93)
जब संवेदनशील पाठक भी आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के संघर्षों से सहमति जताते हैं तब भी वे इनके प्रति आदिवासियों के नजरिये को पूरी तरह नहीं समझ पाते। सभ्य दुनिया के लिए जमीन तात्कालिक इस्तेमाल और मुनाफे की चीज है। हम जमीन के बारे में जब भी सोचते हैं, उसके मुनाफे के लिए इस्तेमाल के बारे में सोचते हैं। हमारे जेहन में पहला खयाल यह नहीं आता कि वह हमें पालती है। जैसे जब कोई बच्ची जन्म लेती है तो उसके आस-पास का संसार उसके अपने अस्तित्व का ही विस्तार होता है और यह संसार बडे होने पर और भी विस्तारित होता है। एक आदिवासी के इस विस्तारित समाज से उसके अस्तित्व को अलग करके नहीं देखा जा सकता और उसके अस्तित्व को जल, जंगल, जमीन से अलग करके नहीं देखा जा सकता। सभ्यता में प्रकृति और मनुष्य के अस्तित्व के बीच जो विभाजनरेखा खींची है उसके कारण सभ्यताग्रस्त व्यक्ति आदिवासियों के प्रकृति के बारे में इस नजरिये को समझने में अक्षम हो जाता है। ये कविताएँ इसी ओर संकेत करती हैं। ये कविताएँ पाठक को आत्मसमीक्षा की ओर प्रेरित करती हैं।
ये कविताएँ एक तरफ आदिवासी जीवन की ऐतिहासिक स्मृति, उसकी जीवन्त ताकत और दूसरी तरफ मौजूदा समय के द्वैध के बीच अवस्थित हैं और उस ऐतिहासिक स्मृति को नये सिरे से रच भी रही हैं। यह स्मृति बडी जीवंत लेकिन आक्रोश से भरी हुई है क्योंकि यह अपने आप को ऐसे वर्तमान संदर्भों के बीच पाती है जो उसे पूरी तरह अलगाव में डालना चाहते हैं। यह आक्रोश मौजूदा संकट की आसन्नता और आपात स्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए एक भाषा की तलाश में है।
ईश्वर और बाजार के दोनों प्रतीक गैर-मानव प्रतीक हैं, लेकिन इनका स्वरूप वास्तव में सर्वव्यापी जैसा होता चला गया है। इन गैर-मानव प्रतीकों की व्यापकता इतनी अधिक हो गई है कि ये अब मनुष्यों का जीवन और मरण निर्धारित कर रहे हैं, खासकर उनका जिन्होंने अभी अपनी मनुष्यता छोडी नहीं है।
आदिवासियों का श्रम, मिट्टी, भौतिकता और परिवेश के साथ एकात्म भाव से जुडाव उन्हें ऐसा जीवन दर्शन देता है जिसमें वे ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की सतत चाह से परे जीवन जीते हैं। उनकी मनुष्यता दैनिक जीवन की भौतिकता में निहित है जहाँ वे अपनी प्रकृति और अपने अतीत से एकरत होकर जीवन जीने की शैली जानते हैं।
कविता संग्रह के संक्षिप्त से आत्मकथ्य में जसिंता अपनी कविता में मौजूद ऐतिहासिक स्मृति और आक्रोश दोनों के बारे में बात करती हैं। साथ ही इस भूमिका में समुदाय और व्यक्ति के बारे में बात करती हैं। उनके आपसी सम्बन्धों के बारे में एक जबर्दस्त अभिव्यक्ति और आदिवासी दृष्टिकोण उनकी कविताओं में व्याप्त है।
सभ्य समाज ने विचार प्रक्रिया को एकान्तिक माना है लेकिन जसिंता इस बात को उलट कर कहती हैं कि आप जीवन, समाज, भाषा से जितनी दूर होते हैं आफ विचार भी उतना ही विलगावपूर्ण होते हैं। जबकि आदिवासी जीवन में नदी से, पेड से, पक्षियों से, पत्तों से कविता ही नहीं विचार भी आते हैं। इस तरह विचार और विचार प्रक्रिया एकान्तिक न होकर अपनी प्रकृति में ही सामुदायिक होती है। कविता, विचार और भाषा साझेपन में पनपते हैं। इसमें मनुष्यों का ही नहीं पशुओं, पक्षियों और जंगलों का भी साझा है । कविता में ध्वनियों की ही बात नहीं चुप्पियों को ध्यान से सुनने का अभ्यास भी है इसलिए जसिंता की कविता ध्वनि और मौन दोनों को साझापन लेकर आती है।
हमारी दुनिया का आत्म हमारे चिन्तन और दृष्टिकोण के केन्द्र में रहता है। व्यक्ति हमारे उपभोग-लिप्साग्रस्त आत्म का संचालक है। यही वह आत्मवत्ता हैं जो यह स्थापित करती है कि हम कितना आगे बढ गए हैं और आदिवासी समुदाय कितना पीछे रह गए हैं। आदिवासी आत्म जो स्वयं और प्रकृति के साथ एकरूप था अब पूँजीवाद के लुटेरे स्वरूप द्वारा संचालित है।
शताब्दियों से चले आ रहे जीवनानुभव और ज्ञान से आदिवासी जानते हैं कि मनुष्यता और शांति की जरूरत क्यों है।
कविता सभ्यता की दुनिया के पुरुष से प्रेम की असंभवता की ओर भी ध्यान खींचती है -
जिसने कहा स्त्री से प्रेम है
वह मारी गई
कहा बच्चियाँ सुरक्षित होनी चाहिए
वे तेजी से बलात्कार का शिकार हुईं
(केरकेट्टा, पृ. 53)
किस तरह असम्भव है हमारी दुनिया के पुरुषों से प्यार करना। इन सभ्य समाजों से आने वाले पुरुष जिससे भी प्रेम करते हैं उसकी हत्या कर देते हैं, जैसे- पेड, नदी, प्रकृति या स्त्री। (जब वह प्यार करता है, 53, 54)
आदिवासी लडकियाँ कविता दोनों दुनियाओं के बीच के अन्तर को बहुत साफ किन्तु त्रासद ढँग से दिखाती है। पुरुषसत्ता के लिए महिलाएँ केवल उपभोग की वस्तु हैं और वह आदिवासी लडकियों की भंगिमाओं और उनकी लय का कोई अर्थ नहीं समझ पाती। कविता कहती है
बात-बात पर कन्धा छू लेते उनके हाथ
कोई अल्हडपन
कोई सहजता
जिसे वह हमेशा सस्ती ही समझता (पृ. 117)
वह सिर्फ उनका उपभोग करना चाहता है और उन्हें बाजार की वस्तु बनाना चाहता है,
भेज दो अपनी लडकी को
और मेरे घर से डरे हुए सारे मर्द
उनकी देहरी पर छोड आते हैं
मुझे ये कहते हुए कि मर गई उनकी बेटी
(पृ. 120)
शोर मचाती लडकियाँ कविता में, विनाश से पहले की आदिवासी लडकियों की जीवन्त उपस्थिति है, जबकि मुख्यधारा की महिलाओं के पास उनकी चुप्पी ही है क्योंकि शान्त लडकियाँ ही होती हैं सबसे अच्छी (केरकेट्टा, पृ. 122).
हमने तो जूते पहन रखे हैं (43) कविता में जसिंता विकास और सभ्यता के पूरे तर्क को सिर के बल खडा कर देती हैं। वे अपने नंगे तलवों के नीचे धडकती धरती और जिन्दगी को महसूस करती हैं, जबकि जूते पहने हुए हम उसके नीचे जमीन को कुचलते हैं और ना उसे समझते हैं, न अपने द्वारा की गई बर्बादी को महसूस करते हैं। जो बाहर से आकर नंगे पैर आदिवासी पर तरस खाते हैं वे नहीं जान पाते कि उस आदिवासी की मनुष्यता उसके नंगे पैरों के नीचे मौजूद धरती से उसके रिश्ते में है। लोगों की दया के जवाब में केरकेट्टा कहती हैं-
पर मुझे उन पर तरस आया
क्योंकि जूते पहनने के अभ्यस्त लोग
ये कभी नहीं जान सकते
कि उनके पैरों तले की जमीन कैसी है
क्या वह साँस ले रही है
हम इसी धरती पर जन्म लेते हैं और अन्त में इसी में समा जाते हैं। जो पृथ्वी हमें पालती है हम उसकी भी देखभाल नहीं कर पाते। पर्यावरण में बदलाव के खिलाफ चलने वाले आँदोलनों को भी आदिवासियों से सीखना होगा कि अपने जीवन को कैसे पुनर्कल्पित किया जाए।
कार और जूतों में आने, तरस खाने और लोगों का उत्थान करने के इस दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए आखिरी कविता इंतजार कविता में जबर्दस्त ढंग से केरकेट्टा कहती हैं -
वे हमारे सभ्य होने के इन्तजार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने के। (पृ. 200)
ये इन्तजार कितना लम्बा है और कितना भयावह, ये उस कीमत से पता चलता है जो आदिवासी समाज हर दिन अदा कर रहा है। आदिवासियों के बारे में हमेशा ये बात सबको पता रही है कि उन्होंने बाहर से आए घुसपैठियों से हमेशा जमकर मुकाबला किया। अंग्रेजों से भीषण संघर्ष के कारण ही उन्हें अपराधी जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया। यह सभ्य दुनिया के साथ पहला संवाद था और इसमें आदिवासी अपनी दुनिया को बचाए रखने में कामयाब रहे। आजादी के बाद उन्हें भारतीय राज्य के साथ-साथ खनिजों, अयस्कों, नदियों, पहाडों और वन-उत्पादों के भूखे बडे पूँजीपतियों के हमलों का भी सामना करना पडा। यह हमला कई दशकों से जारी है। भू-स्वामित्व कानून में संशोधन के बारे में दासगुप्ता कहती हैं 2017 में झारखण्ड विधानसभा ने छोटा नागपुर टेनेन्सी ऐक्ट, 1908 में संशोधन करके आदिवासियों के जमीन पर परंपरागत हक को छीनने की कोशिश की। आदिवासी समुदाय अपने जल, जंगल और जमीन को छीनने के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
अतीत के संघर्षों की स्मृतियाँ आदिवासियों में उम्मीद का संचार करती हैं और उनके अतीत को उनकी कल्पना के भविष्य के साथ जोडती हैं। मुण्डा आदिवासी समुदाय से प्रेरित होकर पत्थलगडी आन्दोलन की शुरुआत भूमि कानूनों में संशोधन का विरोध करने के लिए हुई। ये संशोधन आदिवासियों की जमीन के व्यावसायिक इस्तेमाल की इजाजत देते हैं, खेतिहर जमीन को गैर खेतिहर कामों के लिए इस्तेमाल करने के लिए अधिग्रहीत करने की इजाजत देते हैं और क्षतिपूर्ति के बतौर जमीन को दूसरे व्यक्ति के नाम करने पर रोक लगाते हैं। इनमें से पहले दो प्रावधानों का झारखण्ड के आदिवासियों पर बहुत बुरा असर पडेगा क्योंकि सरकार ने पहले ही 21 लाख एकड जमीन को तथाकथित सरकारी जमीन घोषित कर दिया है। इसमें पवित्र माने जाने वाले जंगलों से लेकर, गाँवों के रास्ते, खेल के मैदान, कब्रिस्तान, वनभूमि और पहाड तक शामिल हैं। राज्य सरकार ने ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का भी आयोजन किया और कॉरपोरेट घरानों के साथ 210 नये समझौतों पर हस्ताक्षर किए। (ग्लैडसन डुंगडुंग) विकास और मुख्यधारा में जोडने के नाम पर कभी भी आदिवासियों के साथ ईमानदार सम्वाद करने की कोशिश नहीं की गई। इसके बजाय यह हुआ कि सामुदायिक सम्पत्तियों को आदिवासियों की मर्जी के खिलाफ गैर आदिवासी निजी हाथों में दे दिया गया है। आदिवासियों के अपने परिवेश को तहस-नहस करके उन्हें गरीबी वाले गन्दे और भौंडे कस्बों में बसा दिया गया है।
केरकेट्टा और वासम 1910 के विद्रोह के आदिवासी नायक गुण्डाधुर को अपनी कविताओं में ले आती हैं। वासम कहती हैं कि
अपनी इस धरती पर
गुंडाधुर जैसा
कोई नन्हा बीज बोना (पृ. 31)
ऐतिहासिक संघर्षों की स्मृतियाँ उम्मीद पैदा करती हैं।
संघर्षों द्वारा पैदा की गई उम्मीद की क्षीण-सी रोशनी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। लेकिन ये भी आदिवासी हैं, जल, जंगल और जमीन के पालने में पले बढे हैं, उनके साथ उनकी मनुष्यता है और उन्हें पता है कि दाँव पर क्या लगा है। बाहर के सभी लोगों के लिए उनके पुरखों की आवाज पूनम वासम की कविता में गूँजती है-
ये लैपटॉप की स्क्रीन पर लगी आग नहीं है
यहाँ सचमुच जंगल में आग लगी है
दौडो-दौडो (157, जंगल का आत्मकथ्य)
References
1. संगीता दासगुप्ता, आदिवासी स्टडीज : फ्रॉम से हिस्टोरियन्स पर्सपेक्टिव, हिस्ट्री कम्पास, सितम्बर, 2018
2. ग्लैसन डुंगडुंग https://www.iwgia.org/en/news/4613-the-pathalgari-movement-for-adivasi-autonomy-a-revolution-of-india%Ew%}®%99s-indigenous-peoples.html
3. चिनुआ अचेबे, 1958, थिंग्स फॉल अपार्ट, हेनेमन, लन्दन
4. पूनम वासम, मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुमगीत- बस्तर की लोकसंस्कृति एवं जनचेतना पर केन्द्रित कवितायें, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2021
5. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2022
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