अष्टभुजा शुक्ल : अकेली नई चप्पल
सदाशिव श्रोत्रिय
दुःस्वप्न भी आते हैं नाम के संग्रह में पृष्ठ 67-69 पर मुद्रित अष्टभुजा शुक्ल की कविता अकेली नई चप्पल ने इधर मेरा ध्यान आकर्षित किया है। यह संग्रह अब सरलता से उपलब्ध नहीं है अतः पाठकों के लिए यहाँ वह कविता देना भी ज़रूरी होगा । कविता इस प्रकार है-
अकेली नई चप्पल
सडक के बीचोबीच
गिरी हुई अकेली नई हवाई चप्पल
होगी कोई बित्ता भर की
कैसे गिरी यहाँ यह चप्पल
किसी नियम से गिरी
कि किसी नियम का उल्लंघन करके गिरी
किसकी गिरी
है चप्पल ही
कि गिरी हुई है आठ-दस वर्ष की उम्र
सडक के बीचोबीच
डिब्बे में से गिरी
कि भागते हुए गिरी
कि पैर में झुनझुनी पकडने से गिरी
या कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं
गिरते हुए देखना एक अनुभव है
गिरा हुआ देखना एक असमंजस
बिल्कुल टटकी है अकेली चप्पल
कि पंजे और एडी की नहीं पडी अभी कोई छाप
नम्बर और निर्मात्री कम्पनी का नाम
नहीं घिसा है तिल भर
पर चप्पल वाले का नाम कहीं नहीं इस पर
सोचिए, जरा
एक नए मन की एकदम नई आकांक्षा का
इस तरह गिरकर खो जाना
केवल आर्थिक क्षति है?
क्या किया जाए इस अकेली नई चप्पल का
वापस भेज दी जाए कम्पनी को,
तो कम्पनी ही क्या करेगी
या साधकर सौंप दी जाए
उसी नम्बर के किसी उसी पाँव को
या दर्ज करा दी जाए प्राथमिकी
या करा दी जाए मुनादी
अपनी जोडी से बिछडी
बाएँ पैर की यह चप्पल
ठीक आधे मूल्य की अधिकारी रही होगी
पर अब तो
दो कौडी की भी नहीं रही
यह गिरी हुई अकेली नई चप्पल
लेकिन दाहिने पैर की चप्पल को
कर गई होगी कितनी अकेली और असहाय
कुछ चीजें जोडी में ही सुशोभित होती हैं
बेजोड चीजें अधूरी होती हैं
कितना असुविधाजनक होगा
एक चप्पल पहनकर चलना
उससे भी अधिक अपमानजनक
लेकि सबसे अधिक दुविधाजनक होगा
अकेली नई चप्पल को रख या फेंक पाना
सडक के बीचोबीच गिरी
इस अकेली चप्पल को
कोई बच्चा ही क्यों नहीं उठा ले जाता
खिलौना समझकर
या कोई सज्ञान ही इसे अब चप्पल क्यों नहीं समझता
या कोई कबाडी क्यों नहीं भर लेता बोरे में इसे
इसे देख कर किसी लोभी का
लोभ ही क्यों नहीं जाग्रत होता
सरल है घायल कहना
अनाथ कहना भी सरल है
लेकिन कितना ही दिल पत्थर किया जाए
नहीं कहा जाता अकेली नई चप्पल
यह एक रौंदकाल है
जिसका कबन्ध काला, मुखडा लाल है
सामने से चली आ रही है सन्नाती हुई
अस्सी किलोमीटर के औसत वेग से
कोई पताका फहराती, सायरन बजाती गाडी
मैं ही इस चप्पल को उठा लूँ क्या ?
कविता पढने पर हम पाते हैं कि इसमें कवि एक नई हवाई चप्पल को सडक के बीचोबीच पडी देखता है-
सडक के बीचोबीच
गिरी हुई अकेली नई हवाई चप्पल
होगी कोई बित्ता भर की
किसी कम-उम्र बालिका के पैर के नाप की इस लावारिस पडी चप्पल को इस तरह सडक पर पडी देख कर इस संवेदनशील कवि का मन जिन तरह-तरह के विचारों से भर उठता है, उन्हें वही पाठक आसानी से समझ सकता है जिसमें करुणा और उद्विग्नता की उसी तरंग -दैर्घ्य (वेव-लेंथ) पर जाने की क्षमता हो जिस पर रह कर कवि ने इसे लिखा है ।
आज के हमारे समय में, जबकि हम आए दिन लडकियों के साथ *यादती और बलात्कार की घटनाओं के बारे में पढते हैं यह कवि इस कविता में एक सार्थक अभिव्यक्ति रौंदकाल का इस्तेमाल करता है । इसमें कौन कब कुचला जाकर जख्मी हो जाए, अकेला पड जाए या अपनी जान तक गँवा बैठे इसका कोई भरोसा नहीं।
हम देख सकते हैं कि किसी कवि का सामान्य भाव-संसार उसकी सभी रचनाओं की पृष्ठभूमि का काम करता है । इस दृष्टि से देखने पर हम पाते हैं कि कवि अष्टभुजा का भाव-संसार उतनी अनिवार्य मत बनना (चैत के बादल, 37) ननदें (वही,40) संतोषा (वही,132), किसी पिता का स्वगत (इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है, 31) छात्रा ( वही,27) या सज्ञान होती बेटियो (रस की लाठी,15) या ये चन्द्रशेखरियाँ किशोरियाँ (दुःस्वप्न भी आते हैं ,111) या अपराध और दंड (वही,32) लिखते हुए भी वही रहा है जो एक सडक पर गिरी इस नई चप्पल के सम्बन्ध में कोई कविता लिखते हुए मौजूद है। किसी पिता का स्वगत में एक ऐसे पिता की मनोदशा का वर्णन है जो शादी के बाद अपने ससुराल में अकेली पड गई है और जिसे इस दशा में देख कर भी वह कुछ नहीं कर सकता -
वहाँ एक डोलती परछाई थी
जो उसकी तनया नहीं थी बिल्कुल
जब वह वहाँ से चलने लगा
तो हवा भी किनारे हट गई चौखट से
पीछे- पीछे चलने लगी वह परछाई भी
लगा कि दुनिया की बेयरिंग फूट गई है
वह दिन था या कि कालरात्रि
लगता था सूरज रो देगा
ब्रह्माण्ड अभी फट जाएगा
मस्तिष्क सन्तुलन खो देगा।
इसी तरह ये चन्द्रशेखरियाँ किशोरियाँ (दुःस्वप्न भी आते हैं, 111) में जब आप सर पर प्रकाशित रॉड्स लेकर चलने वाली बालिकाओं का यह वर्णन पढते हैं, तो इन गरीब कन्याओं के प्रति फिर से उसी करुणा-विगलित कवि के दर्शन होते हैं जिसने अकेली चप्पल के बारे में यह कविता लिखी है -
उत्सव की गहमागहमी में
वे तरह- तरह की चीजों की तरह थीं
बल्कि चीजों को ढोने वाली चीजों की तरह थीं
बल्कि अपने से भी मूल्यवान चीजों को ढोने वाली
सस्ती चीजों की तरह थीं
उस बाजा गानाभियान में
चुपचाप सिरों पर जलते रॉड लेकर चलती हुई
पीछे को न देख पाने को विवश अगल-बगल
केवल सामने देखने को बाध्य
मूडी सीधी न कर पाने की मजबूरी
औ प्रकाशस्तम्भों को गिरने से बचाती हुई
वे चन्द्रशेखरियाँ
विवाहोत्सव में अपनी भूमिका निभाकर
रात भर शीत में ठरी गठरी की तरह
बैठ गई पंक्तिबद्ध
उतनी देर का मेहनताना मिलने की आस में
छात्रा नाम की कविता में भी एक साइकिल पर स्कूल जाने वाली बालिका के प्रति कवि की यह फिक्र -भारी करुणा अत्यंत मार्मिक तरीके से व्यक्त होती है -
आकाश की बिजलियों !
गिरना तो किसी ठूँठ पर गिरना
भारी वाहन के चालको !
ट्रक दौडाते हुए करुणा से भरे रहना
उडने वाली चिडियों!
उसे छाया करते हुए उडना
........
हे साइकिल की चेन!
उतरना तो बीच में मत उतरना ....... !
सज्ञान होती बेटियो ! में भी बेटियों के प्रति कवि की सहानुभूति इसी तरह अभिव्यक्त होती है-
....सज्ञान होती बेटियो !
तुम कामरूप बन जाओ
कोई छुए तो बन जाओ हवा
कोई गर्माए तो बन जाओ पानी
कोई मारे तो बन जाओ पत्थर
और बाप के सामने बन जाओ धिया
एक पुरुष-प्रधान समाज में एक स्त्री के साथ होने वाले अन्याय को भी यह कवि अपराध और दण्ड में सशक्त अभिव्यक्ति देता है -
अपराध किया तूने
चौखट से बाहर निकलकर
सिर से पल्लू हटाकर
अक्षम्य अपराध किया
परपुरुष से बातें करके
अनर्थ किया तूने
एक स्त्री के साथ सोकर
समाजद्रोह किया है तुमने
पाप किया है तूने
अपने ही समान बेटी को जन्म देकर
यही कारण है कि यह संवेदनशील कवि खतरे और उद्विग्नता के हमारे आज के वातावरण में जब सडक पर पडी किसी लावारिस नई चप्पल को देखता है, जो किसी आठ-दस वर्ष की बालिका के पैर में आने लायक है, तो यह चप्पल उसके लिए अचानक उस बालिका का ही प्रतीक बन जाती है जो आज के इस विकट समय में न जाने किस यौन अथवा अन्य दुर्घटना का शिकार हो सकती है। यह वस्तु में व्यक्ति का अक्स देखना बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि प्रेम में पडे किसी युवक को कभी-कभी उसकी प्रेमिका का कोई अधोवस्त्र या आभूषण या उसकी लिखावट भी प्रेम के तीव्र मनोवेग से भर सकती है ।
इसके बाद कवि इस चप्पल के सन्दर्भ में जिस तरह की बातें करता है, उससे पाठक सहज ही यह अनुमान लगा सकता है कि उसके विचार इस बेजान वस्तु के सडक पर गिरने तक ही सीमित नहीं रह गए हैं-
कैसे गिरी यहाँ यह चप्पल
किसी नियम से गिरी
कि किसी नियम का उल्लंघन करके गिरी
किसकी गिरी
है चप्पल ही
कि गिरी हुई है आठ-दस वर्ष की उम्र
सडक के बीचोबीच
कविता में अचानक आने वाला आठ-दस वर्ष की उम्र का यह जिक्र पाठक की कल्पना को इस बेजान वस्तु और उसके सडक पर गिरने तक ही सीमित नहीं रहने देता । उसके मन में अब किसी बालिका के किसी यौन-दुर्घटनाग्रस्त होकर लोगों की निगाह में गिर जाने की बात भी अचानक उभर सकती है ।
किसी एक शब्द की व्यंजना शब्द-शक्ति के उपयोग से कोई कवि अपनी किसी कविता में जो विशिष्टता और प्रभावोत्पादकता उत्पन्न कर सकता है उसका भी यह कविता एक बेहतरीन उदाहरण है ।
साहित्य का कोई भी पाठक इस बात को आसानी से देख-समझ सकता है कि जिस एक शब्द की व्यंजना शब्द-शक्ति का प्रयोग कवि इस कविता में करता है वह शब्द गिरना है। यह शब्द अलग -अलग सन्दर्भों में जिस तरह अलग-अलग अर्थ ग्रहण कर सकता है उससे भी हम अपरिचित नहीं हैं। गिरने का अर्थ किसी विशिष्ट सन्दर्भ में किसी की नजरों से या चाहत से गिर जाना हो सकता है। वह किसी सम्मानजनक स्थिति से गिरना हो सकता है। यह किसी पक्षी के बच्चे का किसी ऊँचे घोंसले से गिर कर इस कदर घायल और असुरक्षित हो जाना भी हो सकता है कि फिर वे पक्षी उसकी परवाह करना ही छोड दें ।
जब हम किसी अबोध बालिका के गिरने की बात सुनते हैं, तो अचानक और भी कई नई बातें हमारे मन में आने लगती हैं। एक परम्परा-ग्रस्त समाज में किसी बालिका का गिर जाना जिस तरह की चारित्रिक गिरावट का सूचक भी हो सकता है उस तरह का अर्थ भी इस शब्द की विशिष्ट व्यंजना-शक्ति के कारण कवि या पाठक की कल्पना से काफी दूर नहीं रह जाता है। कभी तो ऐसा लगता है कि इस शब्द की विशिष्ट व्यंजना शक्ति ही अब कविता को भी किसी विशिष्ट दिशा में लिए जा रही है-
डिब्बे में से गिरी
कि भागते हुए गिरी
कि पैर में झुनझुनी पकडने से गिरी
या कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं
चप्पल के सन्दर्भ में अन्तिम पंक्ति का यह कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं पाठक को फिर एक बार उलझन में डाल देता है -
गिरते हुए देखना एक अनुभव है
गिरा हुआ देखना एक असमंजस
जब कवि इस गिरी हुई चप्पल के सन्दर्भ में इससे आगे निम्नलिखित बात करता है तब गिरना शब्द का व्यंजनार्थ और भी *यादा स्पष्ट हो जाता है -
सोचिए, जरा
एक नए मन की एकदम नई आकांक्षा का
इस तरह गिर कर खो जाना
केवल आर्थिक क्षति है?
चप्पल के इस तरह अप्रत्याशित रूप से गिर जाने नें जो असमंजस की स्थिति अचानक उत्पन्न की है उससे उबरने का उपाय किसी को सूझ नहीं रहा है-
क्या किया जाए इस अकेली नई चप्पल का
वापस भेज दी जाए कम्पनी को,
तो कम्पनी ही क्या करेगी
या साधकर सौंप दी जाए
उसी नम्बर के किसी उसी पाँव को
या दर्ज करा दी जाए प्राथमिकी
या करा दी जाए मुनादी
कविता की अगली कुछ पंक्तियाँ चप्पल के इस तरह अकेली पड जाने के निहितार्थ को कुछ और आगे ले जाती हैं -
अपनी जोडी से बिछुडी
बाएँ पैर की यह चप्पल
ठीक आधे मूल्य की अधिकारी रही होगी
पर अब तो
दो कौडी की भी नहीं रही
जब तक कोई व्यक्ति किसी सामाजिक या पारिवारिक व्यवस्था का अविभाज्य अंग बन कर रहता है तब तक वह अपने आप को अकेला और असुरक्षित नहीं महसूस करता। पर जैसे ही वह किसी कारण उस व्यवस्था से छिटककर बाहर हो जाता है वैसे ही वह न केवल अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, बल्कि अपने अकेले पड जाने के साथ-साथ दूसरों को भी उससे अलग कर देता है। परम्परागत समाज में किसी लडकी के सन्दर्भ में यह बात और भी सटीक लगती है
यह गिरी हुई अकेली चप्पल
लेकिन दाहिने पैर की चप्पल को
कर गई होगी कितनी अकेली और असहाय
कुछ चीजें जोडी में ही सुशोभित होती हैं
बेजोड चीजें अधूरी होती हैं
एक परम्परागत समाज में इस तरह के किसी गिरे हुए या दूषित व्यक्ति का सम्पर्क जैसे दूसरों को भी कुछ असह्य लगने लगता है -
कितना असुविधाजनक होगा
एक चप्पल पहनकर चलना
उससे भी अधिक अपमानजनक
लेकिन सबसे अधिक दुविधाजनक होगा
अकेली नई चप्पल को रख या फेंक पाना
किसी पुराने और रूढिवादी समाज में तो किसी तथाकथित चरित्रहीन और भ्रष्ट संतति को वश में रख पाना उसके माता-पिता के लिए इतना कठिन हो सकता है कि वे उसके किसी तरह ठिकाने लग जाने में ही अपना त्राण ढूँढने लगते हैं । कुछ माँ-बाप तो परेशान होकर शायद यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि वह होते ही मर क्यों नहीं गई या कोई उसे उनसे दूर ही क्यों नहीं ले जाता ?
सडक के बीचोबीच गिरी
इस अकेली चप्पल को
कोई बच्चा ही क्यों नहीं उठा ले जाता
खिलौना समझकर
या कोई सज्ञान ही इसे अब चप्पल क्यों नहीं समझता
या कोई कबाडी क्यों नहीं भर लेता बोरे में इसे
इसे देखकर किसी लोभी का
लोभ ही क्यों नहीं जाग्रत होता
जब चप्पल के सन्दर्भ में कवि निम्नलिखित पंक्तियों द्वारा अपनी सहानुभूति और करुणार्द*ता को अभिव्यक्त करता है तब इससे जुडी व्यंजना और भी स्पष्ट हो जाती है-
सरल है घायल कहना
अनाथ कहना भी सरल है
लेकिन कितना ही दिल पत्थर किया जाए
नहीं कहा जाता अकेली नई चप्पल
यह एक रौंदकाल है
जिसका कबन्ध काला, मुखडा लाल है
कविता के अन्त तक आते आते कवि की यह करुणा और सहानुभूति एक नितांत व्यक्तिगत रूप ले लेती है। एक पतित चप्पल की रक्षा और उद्धार उसे तब एक निजी कर्तव्य ही लगने लगता है-
सामने से चली आ रही है सन्नाती हुई
अस्सी किलोमीटर के औसत वेग से
कोई पताका फहराती, सायरन बजाती गाडी
मैं ही इस चप्पल को उठा लूँ क्या ?
सम्पर्क - 5/126 राजस्थान हाउसिंग बोर्ड
सेक्टर-14, उदयपुर -313001 (राजस्थान)
मोबाइल -8290479063
ईमेल sadashivshrotriyav1941@gmail.com
अकेली नई चप्पल
सडक के बीचोबीच
गिरी हुई अकेली नई हवाई चप्पल
होगी कोई बित्ता भर की
कैसे गिरी यहाँ यह चप्पल
किसी नियम से गिरी
कि किसी नियम का उल्लंघन करके गिरी
किसकी गिरी
है चप्पल ही
कि गिरी हुई है आठ-दस वर्ष की उम्र
सडक के बीचोबीच
डिब्बे में से गिरी
कि भागते हुए गिरी
कि पैर में झुनझुनी पकडने से गिरी
या कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं
गिरते हुए देखना एक अनुभव है
गिरा हुआ देखना एक असमंजस
बिल्कुल टटकी है अकेली चप्पल
कि पंजे और एडी की नहीं पडी अभी कोई छाप
नम्बर और निर्मात्री कम्पनी का नाम
नहीं घिसा है तिल भर
पर चप्पल वाले का नाम कहीं नहीं इस पर
सोचिए, जरा
एक नए मन की एकदम नई आकांक्षा का
इस तरह गिरकर खो जाना
केवल आर्थिक क्षति है?
क्या किया जाए इस अकेली नई चप्पल का
वापस भेज दी जाए कम्पनी को,
तो कम्पनी ही क्या करेगी
या साधकर सौंप दी जाए
उसी नम्बर के किसी उसी पाँव को
या दर्ज करा दी जाए प्राथमिकी
या करा दी जाए मुनादी
अपनी जोडी से बिछडी
बाएँ पैर की यह चप्पल
ठीक आधे मूल्य की अधिकारी रही होगी
पर अब तो
दो कौडी की भी नहीं रही
यह गिरी हुई अकेली नई चप्पल
लेकिन दाहिने पैर की चप्पल को
कर गई होगी कितनी अकेली और असहाय
कुछ चीजें जोडी में ही सुशोभित होती हैं
बेजोड चीजें अधूरी होती हैं
कितना असुविधाजनक होगा
एक चप्पल पहनकर चलना
उससे भी अधिक अपमानजनक
लेकि सबसे अधिक दुविधाजनक होगा
अकेली नई चप्पल को रख या फेंक पाना
सडक के बीचोबीच गिरी
इस अकेली चप्पल को
कोई बच्चा ही क्यों नहीं उठा ले जाता
खिलौना समझकर
या कोई सज्ञान ही इसे अब चप्पल क्यों नहीं समझता
या कोई कबाडी क्यों नहीं भर लेता बोरे में इसे
इसे देख कर किसी लोभी का
लोभ ही क्यों नहीं जाग्रत होता
सरल है घायल कहना
अनाथ कहना भी सरल है
लेकिन कितना ही दिल पत्थर किया जाए
नहीं कहा जाता अकेली नई चप्पल
यह एक रौंदकाल है
जिसका कबन्ध काला, मुखडा लाल है
सामने से चली आ रही है सन्नाती हुई
अस्सी किलोमीटर के औसत वेग से
कोई पताका फहराती, सायरन बजाती गाडी
मैं ही इस चप्पल को उठा लूँ क्या ?
कविता पढने पर हम पाते हैं कि इसमें कवि एक नई हवाई चप्पल को सडक के बीचोबीच पडी देखता है-
सडक के बीचोबीच
गिरी हुई अकेली नई हवाई चप्पल
होगी कोई बित्ता भर की
किसी कम-उम्र बालिका के पैर के नाप की इस लावारिस पडी चप्पल को इस तरह सडक पर पडी देख कर इस संवेदनशील कवि का मन जिन तरह-तरह के विचारों से भर उठता है, उन्हें वही पाठक आसानी से समझ सकता है जिसमें करुणा और उद्विग्नता की उसी तरंग -दैर्घ्य (वेव-लेंथ) पर जाने की क्षमता हो जिस पर रह कर कवि ने इसे लिखा है ।
आज के हमारे समय में, जबकि हम आए दिन लडकियों के साथ *यादती और बलात्कार की घटनाओं के बारे में पढते हैं यह कवि इस कविता में एक सार्थक अभिव्यक्ति रौंदकाल का इस्तेमाल करता है । इसमें कौन कब कुचला जाकर जख्मी हो जाए, अकेला पड जाए या अपनी जान तक गँवा बैठे इसका कोई भरोसा नहीं।
हम देख सकते हैं कि किसी कवि का सामान्य भाव-संसार उसकी सभी रचनाओं की पृष्ठभूमि का काम करता है । इस दृष्टि से देखने पर हम पाते हैं कि कवि अष्टभुजा का भाव-संसार उतनी अनिवार्य मत बनना (चैत के बादल, 37) ननदें (वही,40) संतोषा (वही,132), किसी पिता का स्वगत (इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है, 31) छात्रा ( वही,27) या सज्ञान होती बेटियो (रस की लाठी,15) या ये चन्द्रशेखरियाँ किशोरियाँ (दुःस्वप्न भी आते हैं ,111) या अपराध और दंड (वही,32) लिखते हुए भी वही रहा है जो एक सडक पर गिरी इस नई चप्पल के सम्बन्ध में कोई कविता लिखते हुए मौजूद है। किसी पिता का स्वगत में एक ऐसे पिता की मनोदशा का वर्णन है जो शादी के बाद अपने ससुराल में अकेली पड गई है और जिसे इस दशा में देख कर भी वह कुछ नहीं कर सकता -
वहाँ एक डोलती परछाई थी
जो उसकी तनया नहीं थी बिल्कुल
जब वह वहाँ से चलने लगा
तो हवा भी किनारे हट गई चौखट से
पीछे- पीछे चलने लगी वह परछाई भी
लगा कि दुनिया की बेयरिंग फूट गई है
वह दिन था या कि कालरात्रि
लगता था सूरज रो देगा
ब्रह्माण्ड अभी फट जाएगा
मस्तिष्क सन्तुलन खो देगा।
इसी तरह ये चन्द्रशेखरियाँ किशोरियाँ (दुःस्वप्न भी आते हैं, 111) में जब आप सर पर प्रकाशित रॉड्स लेकर चलने वाली बालिकाओं का यह वर्णन पढते हैं, तो इन गरीब कन्याओं के प्रति फिर से उसी करुणा-विगलित कवि के दर्शन होते हैं जिसने अकेली चप्पल के बारे में यह कविता लिखी है -
उत्सव की गहमागहमी में
वे तरह- तरह की चीजों की तरह थीं
बल्कि चीजों को ढोने वाली चीजों की तरह थीं
बल्कि अपने से भी मूल्यवान चीजों को ढोने वाली
सस्ती चीजों की तरह थीं
उस बाजा गानाभियान में
चुपचाप सिरों पर जलते रॉड लेकर चलती हुई
पीछे को न देख पाने को विवश अगल-बगल
केवल सामने देखने को बाध्य
मूडी सीधी न कर पाने की मजबूरी
औ प्रकाशस्तम्भों को गिरने से बचाती हुई
वे चन्द्रशेखरियाँ
विवाहोत्सव में अपनी भूमिका निभाकर
रात भर शीत में ठरी गठरी की तरह
बैठ गई पंक्तिबद्ध
उतनी देर का मेहनताना मिलने की आस में
छात्रा नाम की कविता में भी एक साइकिल पर स्कूल जाने वाली बालिका के प्रति कवि की यह फिक्र -भारी करुणा अत्यंत मार्मिक तरीके से व्यक्त होती है -
आकाश की बिजलियों !
गिरना तो किसी ठूँठ पर गिरना
भारी वाहन के चालको !
ट्रक दौडाते हुए करुणा से भरे रहना
उडने वाली चिडियों!
उसे छाया करते हुए उडना
........
हे साइकिल की चेन!
उतरना तो बीच में मत उतरना ....... !
सज्ञान होती बेटियो ! में भी बेटियों के प्रति कवि की सहानुभूति इसी तरह अभिव्यक्त होती है-
....सज्ञान होती बेटियो !
तुम कामरूप बन जाओ
कोई छुए तो बन जाओ हवा
कोई गर्माए तो बन जाओ पानी
कोई मारे तो बन जाओ पत्थर
और बाप के सामने बन जाओ धिया
एक पुरुष-प्रधान समाज में एक स्त्री के साथ होने वाले अन्याय को भी यह कवि अपराध और दण्ड में सशक्त अभिव्यक्ति देता है -
अपराध किया तूने
चौखट से बाहर निकलकर
सिर से पल्लू हटाकर
अक्षम्य अपराध किया
परपुरुष से बातें करके
अनर्थ किया तूने
एक स्त्री के साथ सोकर
समाजद्रोह किया है तुमने
पाप किया है तूने
अपने ही समान बेटी को जन्म देकर
यही कारण है कि यह संवेदनशील कवि खतरे और उद्विग्नता के हमारे आज के वातावरण में जब सडक पर पडी किसी लावारिस नई चप्पल को देखता है, जो किसी आठ-दस वर्ष की बालिका के पैर में आने लायक है, तो यह चप्पल उसके लिए अचानक उस बालिका का ही प्रतीक बन जाती है जो आज के इस विकट समय में न जाने किस यौन अथवा अन्य दुर्घटना का शिकार हो सकती है। यह वस्तु में व्यक्ति का अक्स देखना बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि प्रेम में पडे किसी युवक को कभी-कभी उसकी प्रेमिका का कोई अधोवस्त्र या आभूषण या उसकी लिखावट भी प्रेम के तीव्र मनोवेग से भर सकती है ।
इसके बाद कवि इस चप्पल के सन्दर्भ में जिस तरह की बातें करता है, उससे पाठक सहज ही यह अनुमान लगा सकता है कि उसके विचार इस बेजान वस्तु के सडक पर गिरने तक ही सीमित नहीं रह गए हैं-
कैसे गिरी यहाँ यह चप्पल
किसी नियम से गिरी
कि किसी नियम का उल्लंघन करके गिरी
किसकी गिरी
है चप्पल ही
कि गिरी हुई है आठ-दस वर्ष की उम्र
सडक के बीचोबीच
कविता में अचानक आने वाला आठ-दस वर्ष की उम्र का यह जिक्र पाठक की कल्पना को इस बेजान वस्तु और उसके सडक पर गिरने तक ही सीमित नहीं रहने देता । उसके मन में अब किसी बालिका के किसी यौन-दुर्घटनाग्रस्त होकर लोगों की निगाह में गिर जाने की बात भी अचानक उभर सकती है ।
किसी एक शब्द की व्यंजना शब्द-शक्ति के उपयोग से कोई कवि अपनी किसी कविता में जो विशिष्टता और प्रभावोत्पादकता उत्पन्न कर सकता है उसका भी यह कविता एक बेहतरीन उदाहरण है ।
साहित्य का कोई भी पाठक इस बात को आसानी से देख-समझ सकता है कि जिस एक शब्द की व्यंजना शब्द-शक्ति का प्रयोग कवि इस कविता में करता है वह शब्द गिरना है। यह शब्द अलग -अलग सन्दर्भों में जिस तरह अलग-अलग अर्थ ग्रहण कर सकता है उससे भी हम अपरिचित नहीं हैं। गिरने का अर्थ किसी विशिष्ट सन्दर्भ में किसी की नजरों से या चाहत से गिर जाना हो सकता है। वह किसी सम्मानजनक स्थिति से गिरना हो सकता है। यह किसी पक्षी के बच्चे का किसी ऊँचे घोंसले से गिर कर इस कदर घायल और असुरक्षित हो जाना भी हो सकता है कि फिर वे पक्षी उसकी परवाह करना ही छोड दें ।
जब हम किसी अबोध बालिका के गिरने की बात सुनते हैं, तो अचानक और भी कई नई बातें हमारे मन में आने लगती हैं। एक परम्परा-ग्रस्त समाज में किसी बालिका का गिर जाना जिस तरह की चारित्रिक गिरावट का सूचक भी हो सकता है उस तरह का अर्थ भी इस शब्द की विशिष्ट व्यंजना-शक्ति के कारण कवि या पाठक की कल्पना से काफी दूर नहीं रह जाता है। कभी तो ऐसा लगता है कि इस शब्द की विशिष्ट व्यंजना शक्ति ही अब कविता को भी किसी विशिष्ट दिशा में लिए जा रही है-
डिब्बे में से गिरी
कि भागते हुए गिरी
कि पैर में झुनझुनी पकडने से गिरी
या कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं
चप्पल के सन्दर्भ में अन्तिम पंक्ति का यह कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं पाठक को फिर एक बार उलझन में डाल देता है -
गिरते हुए देखना एक अनुभव है
गिरा हुआ देखना एक असमंजस
जब कवि इस गिरी हुई चप्पल के सन्दर्भ में इससे आगे निम्नलिखित बात करता है तब गिरना शब्द का व्यंजनार्थ और भी *यादा स्पष्ट हो जाता है -
सोचिए, जरा
एक नए मन की एकदम नई आकांक्षा का
इस तरह गिर कर खो जाना
केवल आर्थिक क्षति है?
चप्पल के इस तरह अप्रत्याशित रूप से गिर जाने नें जो असमंजस की स्थिति अचानक उत्पन्न की है उससे उबरने का उपाय किसी को सूझ नहीं रहा है-
क्या किया जाए इस अकेली नई चप्पल का
वापस भेज दी जाए कम्पनी को,
तो कम्पनी ही क्या करेगी
या साधकर सौंप दी जाए
उसी नम्बर के किसी उसी पाँव को
या दर्ज करा दी जाए प्राथमिकी
या करा दी जाए मुनादी
कविता की अगली कुछ पंक्तियाँ चप्पल के इस तरह अकेली पड जाने के निहितार्थ को कुछ और आगे ले जाती हैं -
अपनी जोडी से बिछुडी
बाएँ पैर की यह चप्पल
ठीक आधे मूल्य की अधिकारी रही होगी
पर अब तो
दो कौडी की भी नहीं रही
जब तक कोई व्यक्ति किसी सामाजिक या पारिवारिक व्यवस्था का अविभाज्य अंग बन कर रहता है तब तक वह अपने आप को अकेला और असुरक्षित नहीं महसूस करता। पर जैसे ही वह किसी कारण उस व्यवस्था से छिटककर बाहर हो जाता है वैसे ही वह न केवल अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, बल्कि अपने अकेले पड जाने के साथ-साथ दूसरों को भी उससे अलग कर देता है। परम्परागत समाज में किसी लडकी के सन्दर्भ में यह बात और भी सटीक लगती है
यह गिरी हुई अकेली चप्पल
लेकिन दाहिने पैर की चप्पल को
कर गई होगी कितनी अकेली और असहाय
कुछ चीजें जोडी में ही सुशोभित होती हैं
बेजोड चीजें अधूरी होती हैं
एक परम्परागत समाज में इस तरह के किसी गिरे हुए या दूषित व्यक्ति का सम्पर्क जैसे दूसरों को भी कुछ असह्य लगने लगता है -
कितना असुविधाजनक होगा
एक चप्पल पहनकर चलना
उससे भी अधिक अपमानजनक
लेकिन सबसे अधिक दुविधाजनक होगा
अकेली नई चप्पल को रख या फेंक पाना
किसी पुराने और रूढिवादी समाज में तो किसी तथाकथित चरित्रहीन और भ्रष्ट संतति को वश में रख पाना उसके माता-पिता के लिए इतना कठिन हो सकता है कि वे उसके किसी तरह ठिकाने लग जाने में ही अपना त्राण ढूँढने लगते हैं । कुछ माँ-बाप तो परेशान होकर शायद यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि वह होते ही मर क्यों नहीं गई या कोई उसे उनसे दूर ही क्यों नहीं ले जाता ?
सडक के बीचोबीच गिरी
इस अकेली चप्पल को
कोई बच्चा ही क्यों नहीं उठा ले जाता
खिलौना समझकर
या कोई सज्ञान ही इसे अब चप्पल क्यों नहीं समझता
या कोई कबाडी क्यों नहीं भर लेता बोरे में इसे
इसे देखकर किसी लोभी का
लोभ ही क्यों नहीं जाग्रत होता
जब चप्पल के सन्दर्भ में कवि निम्नलिखित पंक्तियों द्वारा अपनी सहानुभूति और करुणार्द*ता को अभिव्यक्त करता है तब इससे जुडी व्यंजना और भी स्पष्ट हो जाती है-
सरल है घायल कहना
अनाथ कहना भी सरल है
लेकिन कितना ही दिल पत्थर किया जाए
नहीं कहा जाता अकेली नई चप्पल
यह एक रौंदकाल है
जिसका कबन्ध काला, मुखडा लाल है
कविता के अन्त तक आते आते कवि की यह करुणा और सहानुभूति एक नितांत व्यक्तिगत रूप ले लेती है। एक पतित चप्पल की रक्षा और उद्धार उसे तब एक निजी कर्तव्य ही लगने लगता है-
सामने से चली आ रही है सन्नाती हुई
अस्सी किलोमीटर के औसत वेग से
कोई पताका फहराती, सायरन बजाती गाडी
मैं ही इस चप्पल को उठा लूँ क्या ?
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