रुचि भल्ला कविताएँ
रुचि भल्ला
कबूलनामा
जबकि मैं लिख सकती थी कविता
मेरा जन्म कविता लिखने के लिए नहीं हुआ
एक बाउल नूडल्स एक फ्लास्क कॉफी
जगजीत सिंह की चार गजलों से हो सकता था
मेरे दिन का गुजारा
मैं दिन गुजार सकती थी सूरज से नजरें मिला कर
सूरज में वह तेज नहीं था
जैसा तेज तर्रार रफीक होता था
खैर ! रफीक की बात छोडो
आनन्द भी बुरा नहीं था
आनन्द मिल जाता तो मैं लिख सकती थी कविता
कोई मेरे दिल से पूछे
कैसी छूटती है हाथ आयी कविता-
मैंने हाथ छुडाती कविता के पीछे भागना
मुनासिब नहीं समझा
सोचा कि वह गया वक्त है
लौट आएगा इतिहास की बीती तारीख की तरह
मेरा सोचना मुझ जैसा झूठा निकला
झूठे सच की तरह
मैंने सोचा मिलेगा प्यार आजाद हिन्दोस्तान में-
आजादी की तरह
मेरा सोचना गलत नहीं था
मैंने पढी थी रोमियो और जूलियट की कथा
मैं रोमियो जूलियट की दीवानी हो गई
इंतजार करती रही अल्फ्रेड पार्क में बैठी
नीम अँधेरे में चेतन के आने का
देखती रह गई बंद हाथघडी की सुईंया
नजर उठा कर देख नहीं सकी
कि अल्फ्रेड पार्क में ही तो खडा था वह बाँका
मूँछों पर ताव देता
नाम था चन्द्रशेखर आजाद जिसका
जिससे प्रेम की खातिर हुआ था जन्म मेरा
उस बुत को जब मैंने रौशन दोपहर में देखा
मेरी आँख पत्थर की हो गई
वह बुत था या इलाहाबाद था मेरा
मेरी पत्थर की आँख को भरोसा हुआ
भरोसे की आँख से मैंने दुनिया को देखा
आसान था दुनिया के प्रेम में पडना
कठिन था प्रेम में पड कर
प्रेम को कविता में लिखना
अशेष मुलाकात
तुम आए और चले गए
जबकि तुम्हारे आने-जाने के बीच
कहीं शेष रह गयी है मुलाकात
ठीक उस तरह से
जैसे पानी से भरा आधा गिलास
तुम छोड गए हो आधा पीकर खाली
मैं बचे हुए उस पानी में
तुम्हारा होना देख रही हूँ
याद कर रही हूँ बची हुई अधूरी बात
तुम्हारे आने-जाने को गिलास के पानी में
झाँक कर देखती हूँ
वहाँ मुझे पानी नहीं
शेष बची रह गई प्यास दिखती है
सुनाई देते हैं गिलास के इर्द-गिर्द
बिखरे हुए सुने-अनसुने किस्से
जबकि जानती हूँ तुम जा चुके हो
मैं अब भी गिलास के किनारों पर
तुम्हारा छूट कर जाना देख रही हूँ
प्यार का रिश्ता
फलटन का चाँद चमकीला है
फलटन की मिट्टी सुनहरी
फलटन में आलू भी मिलता है
संतरा भी
इलाहाबाद का भाटा नहीं मिलता
नेनवा भी नहीं
न ही मिलती है फरीदाबाद की हरबती
मैं खुश हूँ कि धनिया पत्ती मिल जाती है
मैकडोनाल्ड का बर्गर न सही
बर्गर से नहीं चलती दुनिया
दुनिया चलती है रोटी से
मैं खुश हूँ मुझे रोटी मिलती है-
फलटन में लोग रोटी नहीं बोलते-
चपाती बोलते हैं
मैं चपाती में रोटी ढूँढती हूँ
जैसे तलाशती हूँ वडा पाव में समोसा
समोसे के नाम पर याद आने लगता है
यू पी का मोहल्ला
जहाँ हर घर में मिलती है एक चाची
यहाँ घर-घर में मिल जाती है मावशी
मैं जय महाराष्ट्र के झण्डे के नीचे
खडी होकर याद करती हूँ हिंदी को
हिंदी जो अब मुझसे मिलने नहीं आती
मैं उसे पत्रिकाओं में तलाशती हूँ
काले अक्षर वाले हिंदी के मोतियों को
गले का हार बना लेती हूँ
पहन कर टहलती हूँ फलटन की गलियों में
एक दोपहर मिला है मुझे
गली में घूमता हुआ हशमत
बिहार से चला आया है
बाँसुरी बेचने राम रथ यात्रा के मेले में
मैं हशमत से आगे बढ कर मिलती हूँ
जैसे मिलता है यू पी बिहार के गले से-
मैं बाँसुरी का मोल भाव करती हूँ उससे
इस बहाने खूब बतियाती हूँ
बाँसुरी बजा कर भी देखती हूँ-
वैसे मुझे बाँसुरी बजाना नहीं आता-
हशमत हँस देता है इस बात पर
मैं भी उसके संग हँस पडती हूँ-
दस ठो सिक्के पकडा देती हूँ उसको
दस रुपये में दस बटा दस खुशी पा जाती हूँ-
बाँसुरी हाथ में लिए मुड -मुड कर-
हशमत को देखती जाती हूँ-
हशमत लौट जाएगा बिहार-
फिर नहीं दिखेगा फलटन की गलियों में-
इस बात पर उदास हो आती हूँ
प्रियंका से कह नहीं पाती-
कि मैं बाँसुरी की खरीददार नहीं हूँ-
मेरा रिश्ता है हशमत से-
मैं यू पी की हूँ और वह बिहार का है
वही रिश्ता है उससे-
जो यू पी का होता है बिहार से
सम्पर्क - सम्पर्क - श्रीमंत, प्लॉट नं. 51, स्वामी विवेकानंद नगर, फलटन,
जिला सतारा, महाराष्ट्र- ४१५५२३
मो. 9560180202
जबकि मैं लिख सकती थी कविता
मेरा जन्म कविता लिखने के लिए नहीं हुआ
एक बाउल नूडल्स एक फ्लास्क कॉफी
जगजीत सिंह की चार गजलों से हो सकता था
मेरे दिन का गुजारा
मैं दिन गुजार सकती थी सूरज से नजरें मिला कर
सूरज में वह तेज नहीं था
जैसा तेज तर्रार रफीक होता था
खैर ! रफीक की बात छोडो
आनन्द भी बुरा नहीं था
आनन्द मिल जाता तो मैं लिख सकती थी कविता
कोई मेरे दिल से पूछे
कैसी छूटती है हाथ आयी कविता-
मैंने हाथ छुडाती कविता के पीछे भागना
मुनासिब नहीं समझा
सोचा कि वह गया वक्त है
लौट आएगा इतिहास की बीती तारीख की तरह
मेरा सोचना मुझ जैसा झूठा निकला
झूठे सच की तरह
मैंने सोचा मिलेगा प्यार आजाद हिन्दोस्तान में-
आजादी की तरह
मेरा सोचना गलत नहीं था
मैंने पढी थी रोमियो और जूलियट की कथा
मैं रोमियो जूलियट की दीवानी हो गई
इंतजार करती रही अल्फ्रेड पार्क में बैठी
नीम अँधेरे में चेतन के आने का
देखती रह गई बंद हाथघडी की सुईंया
नजर उठा कर देख नहीं सकी
कि अल्फ्रेड पार्क में ही तो खडा था वह बाँका
मूँछों पर ताव देता
नाम था चन्द्रशेखर आजाद जिसका
जिससे प्रेम की खातिर हुआ था जन्म मेरा
उस बुत को जब मैंने रौशन दोपहर में देखा
मेरी आँख पत्थर की हो गई
वह बुत था या इलाहाबाद था मेरा
मेरी पत्थर की आँख को भरोसा हुआ
भरोसे की आँख से मैंने दुनिया को देखा
आसान था दुनिया के प्रेम में पडना
कठिन था प्रेम में पड कर
प्रेम को कविता में लिखना
अशेष मुलाकात
तुम आए और चले गए
जबकि तुम्हारे आने-जाने के बीच
कहीं शेष रह गयी है मुलाकात
ठीक उस तरह से
जैसे पानी से भरा आधा गिलास
तुम छोड गए हो आधा पीकर खाली
मैं बचे हुए उस पानी में
तुम्हारा होना देख रही हूँ
याद कर रही हूँ बची हुई अधूरी बात
तुम्हारे आने-जाने को गिलास के पानी में
झाँक कर देखती हूँ
वहाँ मुझे पानी नहीं
शेष बची रह गई प्यास दिखती है
सुनाई देते हैं गिलास के इर्द-गिर्द
बिखरे हुए सुने-अनसुने किस्से
जबकि जानती हूँ तुम जा चुके हो
मैं अब भी गिलास के किनारों पर
तुम्हारा छूट कर जाना देख रही हूँ
प्यार का रिश्ता
फलटन का चाँद चमकीला है
फलटन की मिट्टी सुनहरी
फलटन में आलू भी मिलता है
संतरा भी
इलाहाबाद का भाटा नहीं मिलता
नेनवा भी नहीं
न ही मिलती है फरीदाबाद की हरबती
मैं खुश हूँ कि धनिया पत्ती मिल जाती है
मैकडोनाल्ड का बर्गर न सही
बर्गर से नहीं चलती दुनिया
दुनिया चलती है रोटी से
मैं खुश हूँ मुझे रोटी मिलती है-
फलटन में लोग रोटी नहीं बोलते-
चपाती बोलते हैं
मैं चपाती में रोटी ढूँढती हूँ
जैसे तलाशती हूँ वडा पाव में समोसा
समोसे के नाम पर याद आने लगता है
यू पी का मोहल्ला
जहाँ हर घर में मिलती है एक चाची
यहाँ घर-घर में मिल जाती है मावशी
मैं जय महाराष्ट्र के झण्डे के नीचे
खडी होकर याद करती हूँ हिंदी को
हिंदी जो अब मुझसे मिलने नहीं आती
मैं उसे पत्रिकाओं में तलाशती हूँ
काले अक्षर वाले हिंदी के मोतियों को
गले का हार बना लेती हूँ
पहन कर टहलती हूँ फलटन की गलियों में
एक दोपहर मिला है मुझे
गली में घूमता हुआ हशमत
बिहार से चला आया है
बाँसुरी बेचने राम रथ यात्रा के मेले में
मैं हशमत से आगे बढ कर मिलती हूँ
जैसे मिलता है यू पी बिहार के गले से-
मैं बाँसुरी का मोल भाव करती हूँ उससे
इस बहाने खूब बतियाती हूँ
बाँसुरी बजा कर भी देखती हूँ-
वैसे मुझे बाँसुरी बजाना नहीं आता-
हशमत हँस देता है इस बात पर
मैं भी उसके संग हँस पडती हूँ-
दस ठो सिक्के पकडा देती हूँ उसको
दस रुपये में दस बटा दस खुशी पा जाती हूँ-
बाँसुरी हाथ में लिए मुड -मुड कर-
हशमत को देखती जाती हूँ-
हशमत लौट जाएगा बिहार-
फिर नहीं दिखेगा फलटन की गलियों में-
इस बात पर उदास हो आती हूँ
प्रियंका से कह नहीं पाती-
कि मैं बाँसुरी की खरीददार नहीं हूँ-
मेरा रिश्ता है हशमत से-
मैं यू पी की हूँ और वह बिहार का है
वही रिश्ता है उससे-
जो यू पी का होता है बिहार से
सम्पर्क - सम्पर्क - श्रीमंत, प्लॉट नं. 51, स्वामी विवेकानंद नगर, फलटन,
जिला सतारा, महाराष्ट्र- ४१५५२३
मो. 9560180202