के.सच्चिदानंदन की कविताएँ
अनामिका अनु
साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कवि के. सच्चिदानंदन का जन्म केरल में स्वतंत्रता से एक वर्ष पूर्व हुआ था। मलयालम में इनके तीस काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कविताओं का देश की विभिन्न भाषाओं के साथ आठ से अधिक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। वे पचास से अधिक साहित्यिक पुरस्कारों समादरित हैं। दुनिया भर के कईं प्रतिष्ठित मंचों पर इन्हें कविता पाठ और बौद्धिक परिचर्चाओं में बुलाया जाता रहा है।
- सम्पादक
सत्तर और पचहत्तर के बीच
सत्तर और पचहत्तर के बीच में एक अँधेरी जगह है
स्मृतियों- सी चौडी
मृत्यु -सी गहरी
जो फँसा वह कभी लौटकर नहीं आता
वे भटकते हैं बचपन की झाडियों में
या सिर के बल जीर्णता के कुँए में गिरते
सावधान रहो
अगर वे सत्तर और पचहत्तर के बीच में हैं
युवा की तरह व्यवहार करो,उनके लिए जो युवा हैं
वे प्रेम कर सकते हैं
संगीत पर नृत्य कर सकते हैं
और अगर जरूरत पडे तो
युद्ध और क्रांति ला सकते हैं
वास्तव में वे मृत नहीं होते
ज़्यादातर युवाओं की तरह
जो सत्तर और पचहत्तर के बीच में होते हैं
हो सकता है मतिभ्रम से ग्रसित हों,कई बार वह चाहते हैं
एक घोडे की सवारी,
कई बार उडना चाहते हैं समुद्र और पहाड के ऊपर
किसी चील की पीठ पर बैठकर,
रेगिस्तान में भटकना चाहते हैं
पानी का इंतजार करते जो वहाँ नहीं है
नंगे खडे होकर
बारिश में या वह कविता पढते जो अब तक लिखी ही नहीं गयी
कई बार उन्हें लगता है इतिहास उनके पदचिह्न को
फिर से ढूँढ रहा है
और चिल्लाकर रोने-सा महसूस करते
लगभग चीखता हुए
सत्तर और पचहत्तर के बीच का अकेलापन
गहरे काले रंग में लिपटे भोर का स्वप्न
जैसे पुराने अल्बम में मित्रता.जब वे हँसे,
सूर्य की रौशनी की गाँव के गलियारों में वापसी
उनकी मीठी गंध तीसी के फूल-सी हल्की /मुलायम
उनकी चाल सावेरी की तान की तरह गिरती हुई
और उनके जिंदादिल भाषण गमक की तरह जन्म लेते हुए
तुम सोचते होगे,क्यों,यह सब पुरुषों के लिए ही है
हाँ,
औरतें सत्तर और पचहत्तर के बीच से होकर नहीं गुजरती
हमारे लिए अदृश्य
वे बस फिसलती हैं प्रेम के इंद्रधनुष पर
परियों के जैसे मुलायम पाँव
स्वर्ग जैसी खूशबू
और कनेर की मुस्कुराहट के साथ
मोक्ष का आमंत्रण
चिडियों का देश
चिडियों के राष्ट्र में
न सीमाएँ होती हैं
न संविधान
वे जो उड सकते हैं, इसके नागरिक होते हैं
कवि भी
पंख इनका झण्डा है
आपने कभी सुना है
गीत के लिए कोयल को बुलबुल से झगडते
या
रंग के लिए बगुले का कौवे को भगाना
यदि उल्लू शोर करता है
तो इसलिए नहीं
कि वह तोते से ईर्ष्या करता है
क्या कभी किसी ऑस्ट्रीच या पेंग्विन ने न उड पाने की शिकायत की है
जन्म लेते ही
वे आकाश से बातें करने लगते हैं
बादल और इंद्रधनुष उन्हें सहलाने के लिए उतरते हैं
कभी कभी वे अपनी शोखियाँ चिडियों को दान में देते हैं
जैसे बादल हंसों को देता है
या इन्द्रधनुष मोर को
वे सूरज और चाँद के बीच में बैठकर स्वप्न देखते हैं
इसके बाद
आकाश देवपरियों और सितारों से भर जाता है
ये अँधेरे में भी देख सकते हैं
ये जादुई बौने और परियों से बात कर सकते हैं
ये उतरकर पृथ्वी पर आते हैं
ताकि घास सुकून महसूस करें
या अपने गीत से फूलों को खोल सकें
वे जो फल और कीडे खाते हैं
वे उनके अण्डों से नन्हें पंखों के साथ प्रस्फुटित होते हैं
एक दिन मैंने चिडियों की तरह रहने की कोशिश की
मैंन अपनी राष्ट्रीयता खो दी
राष्ट्र एक पिंजरा है
ये तुम्हें खिलाएगा
पहले तुम्हारे गीत के लिए
तुम्हारे गीत नापसंद होने पर
तुम्हारे माँस के लिए
नमक
नब्बे साल पहले,
समुद्र के निर्विराम लहरों के पसीने से
हमने निकाला
एक मुट्ठी नमक
खिला कोमल सफेद
दुबले-पतले उठे हाथ में
एक हाथ अचानक तब्दील हो गया
छह हजार कडियों में
लाखों मुट्ठियाँ उठ गयीं
उस एक साम्राज्य के खलिाफ
जहाँ सूरज कभी अस्त नहीं होता
उस दिन से हमारे देश में सच्चाई
निरोधित नमक कही जाने लगी
राम, अल्लाह,खुदा,मसीहा
वह नमक हमारे लिए सबकुछ था
खुदाई जो समुद्र के पेडों से अवतरित होकर
रसोई तक आती थी
सफेद पंखों वाली देव परी
हमारे सपनों का शाश्वत तारणहार
एक मुट्ठी आजादी
एक मुट्ठी समानता
एक मुट्ठी प्रेम
एक मुट्ठी करूणा
नमक के एक बुद्ध
आज एक बार फिर हम उठाते हैं
सफेद नमक का एक झण्डा
समुद्र की गहरी फिरोजी नीली पृष्ठभूमि में
क्षणभंगुर दृष्टि
काले बालों वाली आजादी
हमारे नन्हे हाथों से फिसल रही है,
विपुल समानता का बर्फीला विस्तार
जिसे सुनने के लिए अभी भी हमारे कान उत्सुक हैं
रूखे हाथ जिसमें पसीने की महक है
वह गन्ध जो
हमारे माँस और आँसू में है
एक मुट्ठी गहरे किनारों वाला न्याय का नमक
जो विद्रोह की रेत में बिखरा पडा था
जिसे गाँधी ने डाण्डी में
नब्बे वर्ष पूर्व उठाया था
एक छोटा वसंत
एक छोटा वसंत
जो एक डिबिया में आ जाए
या आँखों की पुतली में
उसके रंग और गन्ध इतने तीव्र
कि रह न सके लंबे समय तक
कुछ किशोरावस्था के प्रेम -सा
एक छोटा-सा वसंत
जैसे कि पलास
अपने चरम पर
शरद के आगमन से बेखबर
यह इतनी जल्दी गायब क्यों हो गया
मैंने हवा से पूछा
एक फुहार इसका उत्तर था
उसके पास कुछ तैरती पंखुडियाँ थीं
जीवन के अकाउंट की किताब में प्रभु ने उसे
बुकमार्क की तरह रखा था
मैं इस लिपि को पढ नहीं पाता
वे सूख जाते हैं, सिकुडे हुए
मैंने किसी को भी चूमना बंद कर दिया
सिवाय कसे काले गॉउन में लिपटे
उसके एकाकीपन को
मैंने खिडकियों को फैलाकर खोल दिया
यह मानकर कि वह लौट आएगा
टूटी वाइन की कप में वापसी
वह जोश में चीखता है
आओ और मुझे ऊपर उठाओ
एक छोटा वसंत,एक टीस
मेरे होंठ कामनाओं से थरथरा हैं
चीयर्स
चाबी
जब गाँधी को गोली मारी गयी
तब मैं दो साल का था
पिता जरूर रोए होंगे
मुझे याद नहीं है
जब नेहरू की मृत्यु हुई
मैं अठ्ठारह साल का था
पिता अखबार लेकर घर आएँ
मैंने उन्हें बैठते देखा
लगभग गिरते हुए
माथे पर हाथ रखे
आगे झुके
पीले /बदरंग
जब पिता तीर्थ पर गए
वे अपनी चाबी का गुच्छा छोड गए
वे कभी वापस नहीं लौटे
केवल खबर आयी तीसरे दिन
मैं आज भी कोशिश कर रहा हूँ
वे चाबियाँ खोले ब्रह्माण्ड के रहस्य
मेरी कविताएँ
चलो, चलो
चलो, चलो, साथ चलो
सवालों के साथ चलो
अभी उत्तर मिलना बाकी है
बेघरों के गीत के साथ चलो
उस सुराही के साथ चलो
जिसकी नदी विलीन हो गयी
धराशायी वृक्ष के अंतिम पत्र के साथ चलो
प्रतिबंधित कविता के
व्यंजनों के साथ चलो
चलो,चलो
छुरा घोंपने से जो जख्म बना
उससे निकले रक्त के साथ चलो
खरहे और घास के बीच की छाया के साथ
आग से होकर
शब्द और अर्थ के बीच
लाल में चलो
सूरज का स्वप्न लिए
अँधेरे में चाँद की तन्हाई के साथ
बहती हवा के विपरीत चलो
जल की धार के पार चलो
चलो,चले
मृत्यु से जीवन की ओर
रंगों वाले रंगपात्र के साथ
तुम मूर्तिकार हो
और तुम, मूर्ति
रूके,और तुम गिर जाओगे
बिना रूके (थमे) चलो
जैसे बुद्ध गया के लिए छोड चले
जैसे यीशु बलिदान स्थल पर चढे
जैसे मुहम्मद मदीना की तरफ तेजी से बढे
जैसे गाँधी डाण्डी की ओर मार्च करते हुए गए
चलो,चुपचाप
पीछे मत देखो
चलो
मृतक की कविता
क्या मृत कविता लिखते हैं?
हाँ,बिना अंगों वाला काव्य
बयार और बारिश की फुहार-सी
गौर से सुनो अहाते के पेड पर जब पत्ते गुनगुना रहे हो
जब,
जैसे ही तुम अकेले खण्डहरों में से होकर गुजरते हो
तुम्हारे कान मीठे हो जाते हैं
एक शब्द विहीन गीत से
दूसरी तरफ से फुसफुसाते
जब गहरे अँधकार में तुम सुनते हो
चुडियों की आवाज-सी एक दबी हँसी
जब स्वप्न में तुम्हारे गाल गुलाबी हो जाते हैं
एक आह की हल्की गर्माहट से
जब आप उठते हैं देखने के लिए
अन्य के आँसू के धब्बे
आफ तकिए पर
यह किसी ऐसे कवि का हो सकता है जो मर चुका
मृत्यु एक क्रमांकित उन्नति है
मूर्त से अमूर्त की ओर
जैसे कला में होती है र्एक खमोश मुक्ति
निरंकुशता के स्वरूपों की
उडती रेखाएँ और तैरते रंगों में
कभी-कभी रंग भी नहीं होता
जैसे कुनिंग का अंतिम कैनवास
रंगों की परतों पर विशुद्ध सफेद
ऐसा लगता है मानो चित्रकार ने उसे मौत के बाद पूरा किया था
सुबह
अगर आरी तिरछी रेखाएँ, बिन्दु और छोटे-छोटे चित्र
तुम्हारी मेज पर रखे कागज
या
लेपटॉप स्क्रीन पर तुम्हें मिले
निश्चित हो जाना
यह एक मृत कवि ने बनायी है
तुम्हें याद है
वह बेतकल्लुफ फुसफुसाहट
चलते कलम की कागज पर
या
बटनों को दबाती उँगलियों की
परछाई जो तुम्हारे स्वप्न के आर पार गिरी
वह उस कवि की थी जो मार दिया गया
या जिसने आत्महत्या की थी
नेरवल,मायकोवस्की,पावेस,येसेनिन, आट्टिका योसेफ, सिल्विया प्लाथ,पॉल सेलान, स्वतायेवा, एन्ने सेक्सटन, पाश, इडपल्लि
या कौन जानता है,किसे पता
हो सकता है, मेरी
सम्पर्क - अनामिका विला,
एस.एन.आर.ए.हाऊस नम्बर, ३०ए
श्रीनगर, वल्लाकाडावू, त्रिवेन्द्रम, केरला-695008
- सम्पादक
सत्तर और पचहत्तर के बीच
सत्तर और पचहत्तर के बीच में एक अँधेरी जगह है
स्मृतियों- सी चौडी
मृत्यु -सी गहरी
जो फँसा वह कभी लौटकर नहीं आता
वे भटकते हैं बचपन की झाडियों में
या सिर के बल जीर्णता के कुँए में गिरते
सावधान रहो
अगर वे सत्तर और पचहत्तर के बीच में हैं
युवा की तरह व्यवहार करो,उनके लिए जो युवा हैं
वे प्रेम कर सकते हैं
संगीत पर नृत्य कर सकते हैं
और अगर जरूरत पडे तो
युद्ध और क्रांति ला सकते हैं
वास्तव में वे मृत नहीं होते
ज़्यादातर युवाओं की तरह
जो सत्तर और पचहत्तर के बीच में होते हैं
हो सकता है मतिभ्रम से ग्रसित हों,कई बार वह चाहते हैं
एक घोडे की सवारी,
कई बार उडना चाहते हैं समुद्र और पहाड के ऊपर
किसी चील की पीठ पर बैठकर,
रेगिस्तान में भटकना चाहते हैं
पानी का इंतजार करते जो वहाँ नहीं है
नंगे खडे होकर
बारिश में या वह कविता पढते जो अब तक लिखी ही नहीं गयी
कई बार उन्हें लगता है इतिहास उनके पदचिह्न को
फिर से ढूँढ रहा है
और चिल्लाकर रोने-सा महसूस करते
लगभग चीखता हुए
सत्तर और पचहत्तर के बीच का अकेलापन
गहरे काले रंग में लिपटे भोर का स्वप्न
जैसे पुराने अल्बम में मित्रता.जब वे हँसे,
सूर्य की रौशनी की गाँव के गलियारों में वापसी
उनकी मीठी गंध तीसी के फूल-सी हल्की /मुलायम
उनकी चाल सावेरी की तान की तरह गिरती हुई
और उनके जिंदादिल भाषण गमक की तरह जन्म लेते हुए
तुम सोचते होगे,क्यों,यह सब पुरुषों के लिए ही है
हाँ,
औरतें सत्तर और पचहत्तर के बीच से होकर नहीं गुजरती
हमारे लिए अदृश्य
वे बस फिसलती हैं प्रेम के इंद्रधनुष पर
परियों के जैसे मुलायम पाँव
स्वर्ग जैसी खूशबू
और कनेर की मुस्कुराहट के साथ
मोक्ष का आमंत्रण
चिडियों का देश
चिडियों के राष्ट्र में
न सीमाएँ होती हैं
न संविधान
वे जो उड सकते हैं, इसके नागरिक होते हैं
कवि भी
पंख इनका झण्डा है
आपने कभी सुना है
गीत के लिए कोयल को बुलबुल से झगडते
या
रंग के लिए बगुले का कौवे को भगाना
यदि उल्लू शोर करता है
तो इसलिए नहीं
कि वह तोते से ईर्ष्या करता है
क्या कभी किसी ऑस्ट्रीच या पेंग्विन ने न उड पाने की शिकायत की है
जन्म लेते ही
वे आकाश से बातें करने लगते हैं
बादल और इंद्रधनुष उन्हें सहलाने के लिए उतरते हैं
कभी कभी वे अपनी शोखियाँ चिडियों को दान में देते हैं
जैसे बादल हंसों को देता है
या इन्द्रधनुष मोर को
वे सूरज और चाँद के बीच में बैठकर स्वप्न देखते हैं
इसके बाद
आकाश देवपरियों और सितारों से भर जाता है
ये अँधेरे में भी देख सकते हैं
ये जादुई बौने और परियों से बात कर सकते हैं
ये उतरकर पृथ्वी पर आते हैं
ताकि घास सुकून महसूस करें
या अपने गीत से फूलों को खोल सकें
वे जो फल और कीडे खाते हैं
वे उनके अण्डों से नन्हें पंखों के साथ प्रस्फुटित होते हैं
एक दिन मैंने चिडियों की तरह रहने की कोशिश की
मैंन अपनी राष्ट्रीयता खो दी
राष्ट्र एक पिंजरा है
ये तुम्हें खिलाएगा
पहले तुम्हारे गीत के लिए
तुम्हारे गीत नापसंद होने पर
तुम्हारे माँस के लिए
नमक
नब्बे साल पहले,
समुद्र के निर्विराम लहरों के पसीने से
हमने निकाला
एक मुट्ठी नमक
खिला कोमल सफेद
दुबले-पतले उठे हाथ में
एक हाथ अचानक तब्दील हो गया
छह हजार कडियों में
लाखों मुट्ठियाँ उठ गयीं
उस एक साम्राज्य के खलिाफ
जहाँ सूरज कभी अस्त नहीं होता
उस दिन से हमारे देश में सच्चाई
निरोधित नमक कही जाने लगी
राम, अल्लाह,खुदा,मसीहा
वह नमक हमारे लिए सबकुछ था
खुदाई जो समुद्र के पेडों से अवतरित होकर
रसोई तक आती थी
सफेद पंखों वाली देव परी
हमारे सपनों का शाश्वत तारणहार
एक मुट्ठी आजादी
एक मुट्ठी समानता
एक मुट्ठी प्रेम
एक मुट्ठी करूणा
नमक के एक बुद्ध
आज एक बार फिर हम उठाते हैं
सफेद नमक का एक झण्डा
समुद्र की गहरी फिरोजी नीली पृष्ठभूमि में
क्षणभंगुर दृष्टि
काले बालों वाली आजादी
हमारे नन्हे हाथों से फिसल रही है,
विपुल समानता का बर्फीला विस्तार
जिसे सुनने के लिए अभी भी हमारे कान उत्सुक हैं
रूखे हाथ जिसमें पसीने की महक है
वह गन्ध जो
हमारे माँस और आँसू में है
एक मुट्ठी गहरे किनारों वाला न्याय का नमक
जो विद्रोह की रेत में बिखरा पडा था
जिसे गाँधी ने डाण्डी में
नब्बे वर्ष पूर्व उठाया था
एक छोटा वसंत
एक छोटा वसंत
जो एक डिबिया में आ जाए
या आँखों की पुतली में
उसके रंग और गन्ध इतने तीव्र
कि रह न सके लंबे समय तक
कुछ किशोरावस्था के प्रेम -सा
एक छोटा-सा वसंत
जैसे कि पलास
अपने चरम पर
शरद के आगमन से बेखबर
यह इतनी जल्दी गायब क्यों हो गया
मैंने हवा से पूछा
एक फुहार इसका उत्तर था
उसके पास कुछ तैरती पंखुडियाँ थीं
जीवन के अकाउंट की किताब में प्रभु ने उसे
बुकमार्क की तरह रखा था
मैं इस लिपि को पढ नहीं पाता
वे सूख जाते हैं, सिकुडे हुए
मैंने किसी को भी चूमना बंद कर दिया
सिवाय कसे काले गॉउन में लिपटे
उसके एकाकीपन को
मैंने खिडकियों को फैलाकर खोल दिया
यह मानकर कि वह लौट आएगा
टूटी वाइन की कप में वापसी
वह जोश में चीखता है
आओ और मुझे ऊपर उठाओ
एक छोटा वसंत,एक टीस
मेरे होंठ कामनाओं से थरथरा हैं
चीयर्स
चाबी
जब गाँधी को गोली मारी गयी
तब मैं दो साल का था
पिता जरूर रोए होंगे
मुझे याद नहीं है
जब नेहरू की मृत्यु हुई
मैं अठ्ठारह साल का था
पिता अखबार लेकर घर आएँ
मैंने उन्हें बैठते देखा
लगभग गिरते हुए
माथे पर हाथ रखे
आगे झुके
पीले /बदरंग
जब पिता तीर्थ पर गए
वे अपनी चाबी का गुच्छा छोड गए
वे कभी वापस नहीं लौटे
केवल खबर आयी तीसरे दिन
मैं आज भी कोशिश कर रहा हूँ
वे चाबियाँ खोले ब्रह्माण्ड के रहस्य
मेरी कविताएँ
चलो, चलो
चलो, चलो, साथ चलो
सवालों के साथ चलो
अभी उत्तर मिलना बाकी है
बेघरों के गीत के साथ चलो
उस सुराही के साथ चलो
जिसकी नदी विलीन हो गयी
धराशायी वृक्ष के अंतिम पत्र के साथ चलो
प्रतिबंधित कविता के
व्यंजनों के साथ चलो
चलो,चलो
छुरा घोंपने से जो जख्म बना
उससे निकले रक्त के साथ चलो
खरहे और घास के बीच की छाया के साथ
आग से होकर
शब्द और अर्थ के बीच
लाल में चलो
सूरज का स्वप्न लिए
अँधेरे में चाँद की तन्हाई के साथ
बहती हवा के विपरीत चलो
जल की धार के पार चलो
चलो,चले
मृत्यु से जीवन की ओर
रंगों वाले रंगपात्र के साथ
तुम मूर्तिकार हो
और तुम, मूर्ति
रूके,और तुम गिर जाओगे
बिना रूके (थमे) चलो
जैसे बुद्ध गया के लिए छोड चले
जैसे यीशु बलिदान स्थल पर चढे
जैसे मुहम्मद मदीना की तरफ तेजी से बढे
जैसे गाँधी डाण्डी की ओर मार्च करते हुए गए
चलो,चुपचाप
पीछे मत देखो
चलो
मृतक की कविता
क्या मृत कविता लिखते हैं?
हाँ,बिना अंगों वाला काव्य
बयार और बारिश की फुहार-सी
गौर से सुनो अहाते के पेड पर जब पत्ते गुनगुना रहे हो
जब,
जैसे ही तुम अकेले खण्डहरों में से होकर गुजरते हो
तुम्हारे कान मीठे हो जाते हैं
एक शब्द विहीन गीत से
दूसरी तरफ से फुसफुसाते
जब गहरे अँधकार में तुम सुनते हो
चुडियों की आवाज-सी एक दबी हँसी
जब स्वप्न में तुम्हारे गाल गुलाबी हो जाते हैं
एक आह की हल्की गर्माहट से
जब आप उठते हैं देखने के लिए
अन्य के आँसू के धब्बे
आफ तकिए पर
यह किसी ऐसे कवि का हो सकता है जो मर चुका
मृत्यु एक क्रमांकित उन्नति है
मूर्त से अमूर्त की ओर
जैसे कला में होती है र्एक खमोश मुक्ति
निरंकुशता के स्वरूपों की
उडती रेखाएँ और तैरते रंगों में
कभी-कभी रंग भी नहीं होता
जैसे कुनिंग का अंतिम कैनवास
रंगों की परतों पर विशुद्ध सफेद
ऐसा लगता है मानो चित्रकार ने उसे मौत के बाद पूरा किया था
सुबह
अगर आरी तिरछी रेखाएँ, बिन्दु और छोटे-छोटे चित्र
तुम्हारी मेज पर रखे कागज
या
लेपटॉप स्क्रीन पर तुम्हें मिले
निश्चित हो जाना
यह एक मृत कवि ने बनायी है
तुम्हें याद है
वह बेतकल्लुफ फुसफुसाहट
चलते कलम की कागज पर
या
बटनों को दबाती उँगलियों की
परछाई जो तुम्हारे स्वप्न के आर पार गिरी
वह उस कवि की थी जो मार दिया गया
या जिसने आत्महत्या की थी
नेरवल,मायकोवस्की,पावेस,येसेनिन, आट्टिका योसेफ, सिल्विया प्लाथ,पॉल सेलान, स्वतायेवा, एन्ने सेक्सटन, पाश, इडपल्लि
या कौन जानता है,किसे पता
हो सकता है, मेरी
सम्पर्क - अनामिका विला,
एस.एन.आर.ए.हाऊस नम्बर, ३०ए
श्रीनगर, वल्लाकाडावू, त्रिवेन्द्रम, केरला-695008