मन्नु भण्डारी : असहमति और लगाव की जुगलबन्दी
शर्मिला बोहरा जालान
मन्नू भण्डारी के माँ पर लिखे गए लंबे संस्मरण और उनका आत्मकथ्य एक कहानी यह भी माँ-बेटी के मूल्यों, विचारों और दृष्टियों की टकराहटों, परस्पर लगाव और समझ का आख्यान है ।
मन्नू भण्डारी जब अपनी माँ पर लिखती हैं, स्मृतियों के झीने तारों को छेडती हैं, तब वहाँ उनके कन्सर्न, कुछ सरोकार , कुछ चिंताएँ, और चिन्तनाएँ नजर आती हैं। वहाँ परम्परा के बँधन का भले ही हौलनाक दृश्य न हो पर डर, तनाव, गुलामी का वह जीवन विचित्र, रोष भरा और दयनीय है।
विश्वास ही नहीं होता कि बिना नहाए-धोए, एक मिनट को भी कमर सीधी किए बिना, किसी से एक शब्द भी बोले बिना, रात-दिन लम्बा घूँघट काढे, सीढियों पर बैठकर एक साढे-चौदह-पन्द्रह साल की लडकी, पूरे छह महीने गुजार सकती है। पर मेरी माँ ने गुजारे। कारण मेरी माँ का किसी तरह का कोई गुनाह नहीं, बस, सिर्फ दादी का वहम।
माँ का गृहस्थी की व्यस्तताओं से भरा जीवन। माँ के जीवन से अंतरग सम्बन्ध बनाते हुए लेखिका के भीतर कई जिज्ञासाएँ और प्रश्न खडे होते हैं , बुआ से पूछती हैं, यह कैसा जीवन जिया!
कैसी जिन्दगी जी है गेंदी बाई आपने इतने कष्ट, इतनी तकलीफें! इस पर वे बोलीं -अरे, तुम्हारी माँ ने जो सहा उसके आगे हमारा क्या सहना? तुम्हें का बताया नहीं माँ ने कि कैसे छह महीने उन्होंने नाल (सीढी) पर बैठकर काटे थे? और तब उन्होंने यह सारा किस्सा विस्तार से बताया इस टिप्पणी के साथ कि मेरा और सीता-मन्नी का बडा मन करता कि हम कुछ मदद ही कर दें और कुछ भी तो दो बात ही कर लें, पर किसी की...।
यह एक बातचीत है, वार्तालाप जो एक स्त्री पिछली पीढी से कर रही है। जीवन को जानने समझने की अपने तईं कोशिश। माँ से संवाद में माँ पर लिखते हुए वह एक स्वतंत्र मेधा वाली स्त्री की तरह अकेली हो जाती हैं । उन को लेकर पीडा भी है और पिता और माँ के बीच अनकहे प्रेम का सम्मान भी है ।
संस्मरण जटिल नहीं है, इकहरा है, पर वहाँ परम्परा के नीति नियम का ऐसा संश्लिष्ट ताना बाना है, भाव की गहनता कि रचना भीतर तक जुडी मालूम पडती है।
माँ में विस्मरण है। पुरुष की स्वार्थपरता का विस्मरण। दूसरों ने उनके साथ क्या किया, उसका विस्मरण। तभी वह अटूट प्रेम खोज पाती है। यह वह प्रेम है जो प्राचीन परम्परा से आता है। माँ ने एक संयमित और व्यवस्थित जीवन जिया। आत्मसंयम और नियंत्रण है। घर परिवार में गहरे तक धँसी पति से अपेक्षित प्रतिदान न मिलने के बावजूद दुखी नहीं है। किसी को दोष और उलाहना नहीं देती है। पर माँ कभी भी उनका आदर्श नहीं रहीं। इन सभी बातों को नीचे उद्धृत लंबे उद्धरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
अजमेर लौटते ही मैंने माँ से पूछा- दादी साहब ने आपको छह महीनों तक सीढी पर बिठा कर रखा था और आपने यह बात हम लोगों को कभी बताई तक नहीं। माँ मेरा चेहरा ऐसे देखने लगीं जैसे कोई भूली-बिसरी बात याद कर रही हो।
भानपुरा में सुनकर आई दिखे या बात । बडी पुरानी बात हुई या तो और क्या बताती-बताने जैसा इसमें है ही क्या?
पर आप बैठी ही क्यों? क्यों नहीं मना कर दिया आपने कि मैं नहीं बैठ सकती छह महीने के लिए सीढियों पर। ऐसी सजा भी कोई दे सकता है भला? मेरा गुस्सा फिर भडक उठा। माँ हँसकर बोली- अरे, जिसने सहा उसे तो कोई गुस्सा नहीं और तू सुनकर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी- वो जमाना ही ऐसा था। सासूजी थीं वो मेरी। उन्होंने जो किया वो हक था उनका और जो मैंने सहा, फर्ज था मेरा। और सहा क्या बस, यों समझो कि फरज पूरा किया अपना।
माँ की जिन्दगी भी क्या थी...बस, काम और काम। बीस-बाईस आदमियों का खाना वे एक वक्त में पकाती थीं। सवेरे का खाना उनके गले में पूरी तरह उतरता भी नहीं होगा कि शाम के खाने में जुट जातीं। पिताजी अपने दोनों छोटे भाइयों को भी पढाने के लिए इन्दौर ले आए थे...आठ-नौ विद्यार्थियों को भी घर में रखकर पढा रहे थे। उनमें से कुछ तो भानपुरा के ही थे। आने-जाने वाले और मिलने वालों का ताँता तो लगा ही रहता था और जिनमें से कइयों के लिए पिताजी का आग्रह कि खाना यहीं खाकर जाएँगे, सो माँ तो सारा दिन रसोई में ही झुकी रहती।
आश्चर्य! माँ के मुँह से मैंने दादी के विरुद्ध तो क्या, उनकी शिकायत करते हुए कभी, एक शब्द तक नहीं सुना। जो कुछ उन्होंने सहा-भोगा उसमें दादी की कोई ज़्यादती नहीं- यह तो अपनी किस्मत का लेखा-जोखा था जो उन्हें भोगना था। समझ नहीं आता इसे माँ की सहनशीलता कहूँ या दब्बूपन। और यही दब्बूपन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया था, जिसे वे सारी जिन्दगी ढोती रहीं। पिता की ज़्यादतियों के खिलाफ भी कभी एक शब्द तक न बोल सकीं। शायद इसीलिए मैंने कभी लिखा था कि मेरी सारी सहानुभूति हमेशा चाहे माँ की ही तरफ रही हो, पर वे मेरा आदर्श कभी नहीं बन सकीं।
कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या थी उस जमाने की औरतों की जिन्दगी।
मैंने देखा कि गर्मी के दिनों में पिताजी सोते तो माँ उन्हें पंखा झलने के लिए बैठती। दिन भर के काम से थकी-हारी माँ कभी ऊँघने लगती, तो पिताजी की नींद उचट जाती और वे भन्ना पडते- अरे, पंखा क्यों बन्द कर दिया...देखती नहीं, कैसी गर्मी पड रही है। आखिर एक दिन मैं बिगड पडी- गर्मी क्या केवल आपको सता रही है, माँ को नहीं?
आज माँ पर लिखते हुए समझ ही नहीं आता कि धरती से भी ज़्यादा धैर्य वाली इस माँ को धिक्कारूँ या उसके आगे नतमस्तक होऊँ? नहीं, नतमस्तक तो मैं न तब कभी हुई, न इस जिन्दगी में कभी हो सकती हूँ। होती हूँ, तो केवल चकित- चकित से भी ज़्यादा शायद दुखी। क्यों सहती रही हैं वे पति की इन ज़्यादतियों को?
एक तरफ मन्नू भण्डारी एक कहानी यह भी आत्मकथ्य में अपने जीवन के छिलके उतारती हैं। वह जीवन जो आत्मविश्वास से भरा हुआ था, जो उनका अपना चुनाव था, जो उनकी पहचान भी है। अपने जीवन के साथ उन्होंने प्रयोग किया और पाया कि उनका मन आधुनिक स्त्री के मन पर पडने वाले नए दबाव और अंतर्द्वंद्व से भरा हुआ त्रिशंकु मन है। उनका अपना जीवन पारंपरिक परिवार का जीवन नहीं है, स्व अर्जित स्वतंत्रता का वहाँ बल है। सहज, जटिल पर सात्त्विक और पावन जीवन। माँ के जीवन के सामने अपना प्रति संसार।
मन्नू भण्डारी का माँ पर लिखा संस्मरण और उनके आत्म कथ्य एक ऐसा संवाद है जो दो पीढियों का है, दो जीवन का है, दो सोच का है, दो समझ और व्यक्तित्व का। एक जीवन में स्व अर्जित स्वतंत्रता की पवित्रता जिसमें मन्नू भण्डारी खुद की भी थाह ले रही हैं, टटोल रही हैं, अपने से मुठभेड। माँ के एक तरह से निरुदेश्य पारम्परिक जीवन के समकक्ष उनका अपना जीवन। माँ-बेटी के जटिल लेकिन गहरे लगाव और जुडाव के इर्द-गिर्द मूल्यों, विचारों और दृष्टियों की टकराहटों और आपसी नोक झोंक को समेटता, उनके आपसी समझ को साकार करता आख्यान।
इस प्रसंग में कृष्णा सोबती की ऐ लडकी की याद भी हो आती है, जो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढी स्त्री की निर्भय जिजीविषा का महाकाव्य है।
मन्नू भण्डारी का अपना सन्दर्भ नितांत भिन्न है। सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियाँ बिल्कुल भिन्न है। बाहर अपनी पीढी और आनेवाली पीढी की दुनिया। उनके काल, सन्दर्भ, समय पर ध्यान दें तो वह पराधीन काल नहीं है। अंग्रेजों के उपनिवेश हम नहीं हैं। आजाद भारत में साँस ले रहे हैं। साठ के दशक का मध्यवर्ग का वह दौर है जब मध्यवर्ग अपनी उन्नति को सर्वोपरि समझ रहा था। आधुनिक स्त्रियों ने घर गृहस्थी के व्यापर के अलावा घर और बाहर के बीच संतुलन बनाकर जीवन जीना सिख सिख लिया है। लेखिका का काल इक्कीसवीं सदी का काल है। जब महिलाएँ खुल कर कॅरियर की बात करती हैं। उनके अंदर वह अंतरदृष्टि है जो स्त्रियों के जीवन की अटूट थकान को समझती हैं। उनकी कहानियों में जीवन की विडम्बनाओं की संवेदनशील पकड है। मन्नू भण्डारी की कहानियों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि बहुत कुछ आज भी नहीं बदला है : स्त्री जीवन का सामाजिक यथार्थ, प्रेम और विरह की मरीचिका में लहूलुहान मन, परंपरा और आधुनिकता के बीच की तनातनी, मन के द्वन्द्व और अंतर्द्वंद्व, स्त्री मन के तमाम अँधेरे और उजाले, तरह- तरह के तनाव। आज सडक पर भले ही साडी जैसे पारम्परिक पहनावे में खडी स्त्री, सिगरेट का धुँवा उडाती नजर आएगी, रूढियों को तोडती दिखेगी, भले ही उसकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति बेहतर दिखाई देगी पर तरह-तरह के तनाव उसके जीवन में बने रहते हैं। आज की स्त्री एक साथ कईं तरह के आदर्श को प्रस्तुत करती है। आदर्श माँ, आदर्श पत्नी, कामकाजी, समर्थ, सम्पन्न, सुंदर तत्पर पर कलान्त और अशांत। दोहरी भूमिका निभाते हुए हलकान, लहूलुहान।
कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, संस्मरणकार, पटकथा लेखक मन्नू भण्डारी ने अपने रचना संसार में हर वय की स्त्री के मन की जटिलताओं को पकडा है। उनकी चिंता स्त्री की स्थिति को लेकर रही हैं। उनके स्त्री पात्र वास्तविक पात्र हैं। रूढियों के खिलाफ विद्रोह है। संबंधों की जटिलताएँ और गुत्थियाँ हैं। आज की आधुनिक सोच वाली नारी की आकांक्षाओं, तार्किक स्वप्नों और तेवरों को वह सामने लाती हैं। लेखिका ने जीवन को जिस रूप में देखा जाना उसकी झलक पात्रों के हर शब्द में है और पूरी वस्तु परकता के साथ, भावुक हुए बिना :-
प्यारी बहनों,
न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बडी मामूली-सी नौकरी पेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी है। लेकिन उस उम्र तक आते-आते जिन स्थितियों से मैं गुजरी हूँ, जैसा अहम् अनुभव मैंने पाया... चाहती हूँ, बिना किसी लाग-लपेट के उसे आफ सामने रखूँ और आपको बहुत सारे खतरों से आगाह कर दूँ। (स्त्री सुबोधिनी)
स्त्री के आतंरिक जीवन और वृद्ध स्त्री के एकाकीपन को भी उनकी कहानियाँ बखूबी दर्शाती हैं। हाशिये पर पडी स्त्री के जीवन को अकेली कहानी में सोम बुआ के माध्यम से जाना जा सकता है।
सोमा बुआ बुढिया है।
सोमा बुआ परित्यक्ता है।
सोमा बुआ अकेली है।...
बुआ ने साडी में माँड लगाकर सुखा दिया। फिर एक नयी थाली निकाली, अपनी जवानी के दिनों में बुना हुआ क्रोशिये का एक छोटा-सा मेजपोश निकाला। थाली में साडी, सिन्दूरदानी, एक नारियल और थोडे-से बताशे सजाये, फिर जाकर राधा को दिखाया। सन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे, और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आए तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा। हर बार बुआ ने बडे ही विश्वास के साथ कहा, मुझे क्या बावली समझ रखा है जो बिन बुलाये चली जाऊँगी? अरे वह पडोसवालों की नन्दा अपनी आँखों से बुलावे की लिस्ट में नाम देखकर आयी है। और बुलायेंगे क्यों नहीं? शहरवालों को बुलायेंगे और समधियों को नहीं बुलायेंगे क्या?...
फिर उन्होंने सूखी साडी को उतारा। नीचे जाकर अच्छी तरह उसकी तह की, धीरे-धीरे हाथों की चूडियाँ खोलीं, थाली में सजाया हुआ सारा सामान उठाया और सारी चीजें बडे जतन से अपने एकमात्र सन्दूक में रख दीं। और फिर बडे ही बुझे हुए दिल से अँगीठी जलाने लगीं। - (अकेली)
मन्नू भण्डारी का कथा फलक सिर्फ स्त्री जीवन जगत तक सीमित नहीं है। बडा फलक है जिसे उपन्यास महाभोज में पढ जान सकते हैं। यह जान सकते हैं कि, वर्तमान राजनीति लेखिका को परेशान करती हैं। राजनीति के अंदर की पेचीदगियाँ उसके पेचीदा दाँव पेंच की उन्हें खूब समझ है। आखिर उनके उपन्यास और कहानियों की जेनेसिस कहाँ है ?
अपने आत्मकथ्य में अपनी कहानियों के उत्स को बताते हुए कहती हैं -
आज तो मुझे बडी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी जिन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत पडोस-कल्चर से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुजार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक-दो को छोडकर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बडी हुई थी, लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बडे सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही महाभोज में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था... एक सुखद आश्चर्य का।
मन्नू भण्डारी को अपने पहले आयी प्रबुद्ध लेखिकाओं की तैयार की हुई जमीन मिली थी। महादेवी वर्मा की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत। जिनकी पहचान एक ओर अपने गहरे परम्परा-बोध से जुडी थी तो दूसरी ओर अपने आर्थिक स्वावलंबन से। महादेवी वर्मा के अविस्मरणीय भाषण को उन्होंने पहली बार 1957 इलाहाबाद प्रगतिशील लेखक संघ में सुना था (संस्मरणः कितने कमलेश्वर! /मन्नू भण्डारी)
उनकी कहानियाँ आज हमारे परिचित यथार्थ को एक बार फिर अपनी तरह से खोलती है। उनकी रचनाएँ अधपकी नहीं हैं। मन्नू भण्डारी का व्यक्तित्व सच्चा और असली था । उन में स्वयं को प्रमाणित करने का दबाव नहीं है।चालाक और फैशनेबल लेखन से दूर।
शर्मिला जालान , sharmilajalan@gmail.com.
6, रिची रोड, कोलकत्ता -700019
मन्नू भण्डारी जब अपनी माँ पर लिखती हैं, स्मृतियों के झीने तारों को छेडती हैं, तब वहाँ उनके कन्सर्न, कुछ सरोकार , कुछ चिंताएँ, और चिन्तनाएँ नजर आती हैं। वहाँ परम्परा के बँधन का भले ही हौलनाक दृश्य न हो पर डर, तनाव, गुलामी का वह जीवन विचित्र, रोष भरा और दयनीय है।
विश्वास ही नहीं होता कि बिना नहाए-धोए, एक मिनट को भी कमर सीधी किए बिना, किसी से एक शब्द भी बोले बिना, रात-दिन लम्बा घूँघट काढे, सीढियों पर बैठकर एक साढे-चौदह-पन्द्रह साल की लडकी, पूरे छह महीने गुजार सकती है। पर मेरी माँ ने गुजारे। कारण मेरी माँ का किसी तरह का कोई गुनाह नहीं, बस, सिर्फ दादी का वहम।
माँ का गृहस्थी की व्यस्तताओं से भरा जीवन। माँ के जीवन से अंतरग सम्बन्ध बनाते हुए लेखिका के भीतर कई जिज्ञासाएँ और प्रश्न खडे होते हैं , बुआ से पूछती हैं, यह कैसा जीवन जिया!
कैसी जिन्दगी जी है गेंदी बाई आपने इतने कष्ट, इतनी तकलीफें! इस पर वे बोलीं -अरे, तुम्हारी माँ ने जो सहा उसके आगे हमारा क्या सहना? तुम्हें का बताया नहीं माँ ने कि कैसे छह महीने उन्होंने नाल (सीढी) पर बैठकर काटे थे? और तब उन्होंने यह सारा किस्सा विस्तार से बताया इस टिप्पणी के साथ कि मेरा और सीता-मन्नी का बडा मन करता कि हम कुछ मदद ही कर दें और कुछ भी तो दो बात ही कर लें, पर किसी की...।
यह एक बातचीत है, वार्तालाप जो एक स्त्री पिछली पीढी से कर रही है। जीवन को जानने समझने की अपने तईं कोशिश। माँ से संवाद में माँ पर लिखते हुए वह एक स्वतंत्र मेधा वाली स्त्री की तरह अकेली हो जाती हैं । उन को लेकर पीडा भी है और पिता और माँ के बीच अनकहे प्रेम का सम्मान भी है ।
संस्मरण जटिल नहीं है, इकहरा है, पर वहाँ परम्परा के नीति नियम का ऐसा संश्लिष्ट ताना बाना है, भाव की गहनता कि रचना भीतर तक जुडी मालूम पडती है।
माँ में विस्मरण है। पुरुष की स्वार्थपरता का विस्मरण। दूसरों ने उनके साथ क्या किया, उसका विस्मरण। तभी वह अटूट प्रेम खोज पाती है। यह वह प्रेम है जो प्राचीन परम्परा से आता है। माँ ने एक संयमित और व्यवस्थित जीवन जिया। आत्मसंयम और नियंत्रण है। घर परिवार में गहरे तक धँसी पति से अपेक्षित प्रतिदान न मिलने के बावजूद दुखी नहीं है। किसी को दोष और उलाहना नहीं देती है। पर माँ कभी भी उनका आदर्श नहीं रहीं। इन सभी बातों को नीचे उद्धृत लंबे उद्धरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
अजमेर लौटते ही मैंने माँ से पूछा- दादी साहब ने आपको छह महीनों तक सीढी पर बिठा कर रखा था और आपने यह बात हम लोगों को कभी बताई तक नहीं। माँ मेरा चेहरा ऐसे देखने लगीं जैसे कोई भूली-बिसरी बात याद कर रही हो।
भानपुरा में सुनकर आई दिखे या बात । बडी पुरानी बात हुई या तो और क्या बताती-बताने जैसा इसमें है ही क्या?
पर आप बैठी ही क्यों? क्यों नहीं मना कर दिया आपने कि मैं नहीं बैठ सकती छह महीने के लिए सीढियों पर। ऐसी सजा भी कोई दे सकता है भला? मेरा गुस्सा फिर भडक उठा। माँ हँसकर बोली- अरे, जिसने सहा उसे तो कोई गुस्सा नहीं और तू सुनकर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी- वो जमाना ही ऐसा था। सासूजी थीं वो मेरी। उन्होंने जो किया वो हक था उनका और जो मैंने सहा, फर्ज था मेरा। और सहा क्या बस, यों समझो कि फरज पूरा किया अपना।
माँ की जिन्दगी भी क्या थी...बस, काम और काम। बीस-बाईस आदमियों का खाना वे एक वक्त में पकाती थीं। सवेरे का खाना उनके गले में पूरी तरह उतरता भी नहीं होगा कि शाम के खाने में जुट जातीं। पिताजी अपने दोनों छोटे भाइयों को भी पढाने के लिए इन्दौर ले आए थे...आठ-नौ विद्यार्थियों को भी घर में रखकर पढा रहे थे। उनमें से कुछ तो भानपुरा के ही थे। आने-जाने वाले और मिलने वालों का ताँता तो लगा ही रहता था और जिनमें से कइयों के लिए पिताजी का आग्रह कि खाना यहीं खाकर जाएँगे, सो माँ तो सारा दिन रसोई में ही झुकी रहती।
आश्चर्य! माँ के मुँह से मैंने दादी के विरुद्ध तो क्या, उनकी शिकायत करते हुए कभी, एक शब्द तक नहीं सुना। जो कुछ उन्होंने सहा-भोगा उसमें दादी की कोई ज़्यादती नहीं- यह तो अपनी किस्मत का लेखा-जोखा था जो उन्हें भोगना था। समझ नहीं आता इसे माँ की सहनशीलता कहूँ या दब्बूपन। और यही दब्बूपन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया था, जिसे वे सारी जिन्दगी ढोती रहीं। पिता की ज़्यादतियों के खिलाफ भी कभी एक शब्द तक न बोल सकीं। शायद इसीलिए मैंने कभी लिखा था कि मेरी सारी सहानुभूति हमेशा चाहे माँ की ही तरफ रही हो, पर वे मेरा आदर्श कभी नहीं बन सकीं।
कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या थी उस जमाने की औरतों की जिन्दगी।
मैंने देखा कि गर्मी के दिनों में पिताजी सोते तो माँ उन्हें पंखा झलने के लिए बैठती। दिन भर के काम से थकी-हारी माँ कभी ऊँघने लगती, तो पिताजी की नींद उचट जाती और वे भन्ना पडते- अरे, पंखा क्यों बन्द कर दिया...देखती नहीं, कैसी गर्मी पड रही है। आखिर एक दिन मैं बिगड पडी- गर्मी क्या केवल आपको सता रही है, माँ को नहीं?
आज माँ पर लिखते हुए समझ ही नहीं आता कि धरती से भी ज़्यादा धैर्य वाली इस माँ को धिक्कारूँ या उसके आगे नतमस्तक होऊँ? नहीं, नतमस्तक तो मैं न तब कभी हुई, न इस जिन्दगी में कभी हो सकती हूँ। होती हूँ, तो केवल चकित- चकित से भी ज़्यादा शायद दुखी। क्यों सहती रही हैं वे पति की इन ज़्यादतियों को?
एक तरफ मन्नू भण्डारी एक कहानी यह भी आत्मकथ्य में अपने जीवन के छिलके उतारती हैं। वह जीवन जो आत्मविश्वास से भरा हुआ था, जो उनका अपना चुनाव था, जो उनकी पहचान भी है। अपने जीवन के साथ उन्होंने प्रयोग किया और पाया कि उनका मन आधुनिक स्त्री के मन पर पडने वाले नए दबाव और अंतर्द्वंद्व से भरा हुआ त्रिशंकु मन है। उनका अपना जीवन पारंपरिक परिवार का जीवन नहीं है, स्व अर्जित स्वतंत्रता का वहाँ बल है। सहज, जटिल पर सात्त्विक और पावन जीवन। माँ के जीवन के सामने अपना प्रति संसार।
मन्नू भण्डारी का माँ पर लिखा संस्मरण और उनके आत्म कथ्य एक ऐसा संवाद है जो दो पीढियों का है, दो जीवन का है, दो सोच का है, दो समझ और व्यक्तित्व का। एक जीवन में स्व अर्जित स्वतंत्रता की पवित्रता जिसमें मन्नू भण्डारी खुद की भी थाह ले रही हैं, टटोल रही हैं, अपने से मुठभेड। माँ के एक तरह से निरुदेश्य पारम्परिक जीवन के समकक्ष उनका अपना जीवन। माँ-बेटी के जटिल लेकिन गहरे लगाव और जुडाव के इर्द-गिर्द मूल्यों, विचारों और दृष्टियों की टकराहटों और आपसी नोक झोंक को समेटता, उनके आपसी समझ को साकार करता आख्यान।
इस प्रसंग में कृष्णा सोबती की ऐ लडकी की याद भी हो आती है, जो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढी स्त्री की निर्भय जिजीविषा का महाकाव्य है।
मन्नू भण्डारी का अपना सन्दर्भ नितांत भिन्न है। सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियाँ बिल्कुल भिन्न है। बाहर अपनी पीढी और आनेवाली पीढी की दुनिया। उनके काल, सन्दर्भ, समय पर ध्यान दें तो वह पराधीन काल नहीं है। अंग्रेजों के उपनिवेश हम नहीं हैं। आजाद भारत में साँस ले रहे हैं। साठ के दशक का मध्यवर्ग का वह दौर है जब मध्यवर्ग अपनी उन्नति को सर्वोपरि समझ रहा था। आधुनिक स्त्रियों ने घर गृहस्थी के व्यापर के अलावा घर और बाहर के बीच संतुलन बनाकर जीवन जीना सिख सिख लिया है। लेखिका का काल इक्कीसवीं सदी का काल है। जब महिलाएँ खुल कर कॅरियर की बात करती हैं। उनके अंदर वह अंतरदृष्टि है जो स्त्रियों के जीवन की अटूट थकान को समझती हैं। उनकी कहानियों में जीवन की विडम्बनाओं की संवेदनशील पकड है। मन्नू भण्डारी की कहानियों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि बहुत कुछ आज भी नहीं बदला है : स्त्री जीवन का सामाजिक यथार्थ, प्रेम और विरह की मरीचिका में लहूलुहान मन, परंपरा और आधुनिकता के बीच की तनातनी, मन के द्वन्द्व और अंतर्द्वंद्व, स्त्री मन के तमाम अँधेरे और उजाले, तरह- तरह के तनाव। आज सडक पर भले ही साडी जैसे पारम्परिक पहनावे में खडी स्त्री, सिगरेट का धुँवा उडाती नजर आएगी, रूढियों को तोडती दिखेगी, भले ही उसकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति बेहतर दिखाई देगी पर तरह-तरह के तनाव उसके जीवन में बने रहते हैं। आज की स्त्री एक साथ कईं तरह के आदर्श को प्रस्तुत करती है। आदर्श माँ, आदर्श पत्नी, कामकाजी, समर्थ, सम्पन्न, सुंदर तत्पर पर कलान्त और अशांत। दोहरी भूमिका निभाते हुए हलकान, लहूलुहान।
कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, संस्मरणकार, पटकथा लेखक मन्नू भण्डारी ने अपने रचना संसार में हर वय की स्त्री के मन की जटिलताओं को पकडा है। उनकी चिंता स्त्री की स्थिति को लेकर रही हैं। उनके स्त्री पात्र वास्तविक पात्र हैं। रूढियों के खिलाफ विद्रोह है। संबंधों की जटिलताएँ और गुत्थियाँ हैं। आज की आधुनिक सोच वाली नारी की आकांक्षाओं, तार्किक स्वप्नों और तेवरों को वह सामने लाती हैं। लेखिका ने जीवन को जिस रूप में देखा जाना उसकी झलक पात्रों के हर शब्द में है और पूरी वस्तु परकता के साथ, भावुक हुए बिना :-
प्यारी बहनों,
न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बडी मामूली-सी नौकरी पेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी है। लेकिन उस उम्र तक आते-आते जिन स्थितियों से मैं गुजरी हूँ, जैसा अहम् अनुभव मैंने पाया... चाहती हूँ, बिना किसी लाग-लपेट के उसे आफ सामने रखूँ और आपको बहुत सारे खतरों से आगाह कर दूँ। (स्त्री सुबोधिनी)
स्त्री के आतंरिक जीवन और वृद्ध स्त्री के एकाकीपन को भी उनकी कहानियाँ बखूबी दर्शाती हैं। हाशिये पर पडी स्त्री के जीवन को अकेली कहानी में सोम बुआ के माध्यम से जाना जा सकता है।
सोमा बुआ बुढिया है।
सोमा बुआ परित्यक्ता है।
सोमा बुआ अकेली है।...
बुआ ने साडी में माँड लगाकर सुखा दिया। फिर एक नयी थाली निकाली, अपनी जवानी के दिनों में बुना हुआ क्रोशिये का एक छोटा-सा मेजपोश निकाला। थाली में साडी, सिन्दूरदानी, एक नारियल और थोडे-से बताशे सजाये, फिर जाकर राधा को दिखाया। सन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे, और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आए तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा। हर बार बुआ ने बडे ही विश्वास के साथ कहा, मुझे क्या बावली समझ रखा है जो बिन बुलाये चली जाऊँगी? अरे वह पडोसवालों की नन्दा अपनी आँखों से बुलावे की लिस्ट में नाम देखकर आयी है। और बुलायेंगे क्यों नहीं? शहरवालों को बुलायेंगे और समधियों को नहीं बुलायेंगे क्या?...
फिर उन्होंने सूखी साडी को उतारा। नीचे जाकर अच्छी तरह उसकी तह की, धीरे-धीरे हाथों की चूडियाँ खोलीं, थाली में सजाया हुआ सारा सामान उठाया और सारी चीजें बडे जतन से अपने एकमात्र सन्दूक में रख दीं। और फिर बडे ही बुझे हुए दिल से अँगीठी जलाने लगीं। - (अकेली)
मन्नू भण्डारी का कथा फलक सिर्फ स्त्री जीवन जगत तक सीमित नहीं है। बडा फलक है जिसे उपन्यास महाभोज में पढ जान सकते हैं। यह जान सकते हैं कि, वर्तमान राजनीति लेखिका को परेशान करती हैं। राजनीति के अंदर की पेचीदगियाँ उसके पेचीदा दाँव पेंच की उन्हें खूब समझ है। आखिर उनके उपन्यास और कहानियों की जेनेसिस कहाँ है ?
अपने आत्मकथ्य में अपनी कहानियों के उत्स को बताते हुए कहती हैं -
आज तो मुझे बडी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी जिन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत पडोस-कल्चर से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुजार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक-दो को छोडकर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बडी हुई थी, लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बडे सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही महाभोज में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था... एक सुखद आश्चर्य का।
मन्नू भण्डारी को अपने पहले आयी प्रबुद्ध लेखिकाओं की तैयार की हुई जमीन मिली थी। महादेवी वर्मा की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत। जिनकी पहचान एक ओर अपने गहरे परम्परा-बोध से जुडी थी तो दूसरी ओर अपने आर्थिक स्वावलंबन से। महादेवी वर्मा के अविस्मरणीय भाषण को उन्होंने पहली बार 1957 इलाहाबाद प्रगतिशील लेखक संघ में सुना था (संस्मरणः कितने कमलेश्वर! /मन्नू भण्डारी)
उनकी कहानियाँ आज हमारे परिचित यथार्थ को एक बार फिर अपनी तरह से खोलती है। उनकी रचनाएँ अधपकी नहीं हैं। मन्नू भण्डारी का व्यक्तित्व सच्चा और असली था । उन में स्वयं को प्रमाणित करने का दबाव नहीं है।चालाक और फैशनेबल लेखन से दूर।
शर्मिला जालान , sharmilajalan@gmail.com.
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