प्रकाश परिमल : मौन की अनंतघाटी का अनथक यात्री
हेमंत शेष
जयपुर के बजाज नगर में स्व. अनिता नामक एक अज्ञात महिला अपने उस फार्म हाउस के नाम की बदौलत ही अमर हो चुकी हैं क्यों कि गाँधीनगर स्टेशन के ऐन सामने अपनी बेहतरीन लोकेशन की वजह से अब उनके नाम की अनिता कॉलोनी महँगे रिहाइशी इलाकों में शुमार है .....हम यहाँ तब रहने आए थे, जब आसपास रिहाइश कम थी- यहाँ गंजी चाँद पर उगे एकाध बाल जैसे थोडे से मकान थे, कुछ बनना शुरू हो रहे थे- आसपास सिर्फ खेत नजर आते थे या एफ.एसी.आई. के भारी-भरकम पथरीले गोदाम और उनके साइड में जातीं गाँधीनगर स्टेशन की पटरियाँ ! रेलें भी तब बहुत कम आतीं थीं और हर शाम इस सुनसान मीटरगेज रेल-पटरी के सहारे आप व्यवधान के बगैर, काँटों भरी झाडियों और आँकडे के झाडों से बचते हुए दूर तक टहल सकते थे- जयपुर डेयरी का तब निर्माण नहीं हुआ था और डेयरी के सामने उस व्यस्ततम फ्लाईओवर भी नहीं, जहाँ आज भारत के सबसे तेज बढते अग्रवाल दैनिक भास्कर का बेरहम कारखाना है !
यहाँ किसी वक्त पानी नियमित न दिए जाने की वजह से एक मुरझाता-सा बगीचा सा था। और थी- इस बगीचे में किसी साहसी अतिक्रमणकर्ता द्वारा उठा ली गयी चाय की एक मामूली थडी..... कहने को जगह मामूली जरूर थी, पर थी- एकांत में, ट्रेफिक के शोरोगुल से दूर.....
प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय और हेमंत शेष नाम के तीन अज्ञात से आदमी, जिन्हें आज कुछ लोग लेखक के रूप में भी शायद जानते हों, यहाँ नियमित तौर पर बैठा करते थे।
कभी भी जुड जाने वाली इस अनौपचारिक बैठक में न टी.वी.पर जारी क्रिकेट मैचों की बात होती न हमारे अपने घर-परिवारों की समस्याओं की, बम्बइया फिल्में, जब तक वे घोर-कलात्मक न हों, हम लोगों के विचार के दायरे से बाहर थीं, चलताऊ राजनीतिक चर्चाओं पर भी अघोषित प्रतिबन्ध-सा था... चुटकुले वर्जित थे- बात सिर्फ कला की हो सकती थी या लेखन की। कला-संस्कृति से इतर बात सोचने करने या कहने वाले को बकाया दो आदमियों की घनघोर हिकारत की निगाह का सामना करना होता था। बात कहीं से भी किसी भी तरह शुरू की जा सकती थी। अक्सर अभी सुनी आपस की किसी कविता-पंक्ति से या किसी की अच्छी कोटेशन तक से।
या हममें से कोई भी एक शुरुआत में बस एक दो वाक्यों में अपनी हाल में पढी किसी नयी किताब या पत्रिका में छपी किसी कृति का कोई उद्धरण या सन्दर्भ दे देता, या फेंक देता अपनी तरफ से साहित्य संबंधी कोई भी विवादस्पद-सा वक्तव्य; और बस उसी एक आरंभिक वाक्य के सहारे हम कुल्हड में कडक चाय सुडकते हुए गर्मजोशी से लम्बी साहित्यिक बहस-मुबाहिसों में मुब्तिला हो जाते ! वे भी क्या दिन थ.....।
प्रकाश परिमल तब उम्र में हम सब से वरिष्ठ होने के नाते फौरन से भी पहले तीन तिलंगों की इस मजलिस में स्वयंभू अध्यक्ष की मुद्रा में आ जाते और उनसे कम उम्र के कारण हम दोनों- मैं और अशोक आत्रेय उन के निरीह से अनुयायियों की सूरत में! हालाँकि अनेक बार परिमलजी के निष्कर्षों या उनकी स्थापनाओं से से हमारी खासी असहमति भी होती फिर भी हम उनका सम्मान करते उनके कथन को आपसी झगडे (वाकयुद्ध) की सीमा तक कभी न ले जाते थे.....
वह कलाओं और साहित्य के ऐसे मूक-मौलिक मर्मज्ञ थे जिन्हें बेरहम समय और कृतघ्न-नासमझ आलोचकों ने हमेशा हाशिये पर रखा.....जो तवज्जो उनकी संख्या में इत्ती सारी प्रकाशित कृतियों को मिलनी चाहिए थी उस से भी वह लगभग आजीवन महरूम ही रहे और देवनगर टोंक रोड के अपने मकान भू-ऋषि सिद्धपीठ में एल्जाइमर नामक भयावह बीमारी की चपेट में आ कर अपने गिरते हुए स्वास्थ्य का सामना बहादुरी से करते हुए एक बुझती हुई लौ की तरह 25 अगस्त 2021 को दिवंगत हुए !
परिमलजी जैसे दुबले-पतले, पर आत्मा से कुलिश व्यक्ति को अगर एक वाक्य में व्याख्यायित किया जाना हो, तो जिबग्न्यू हर्बर्ट की कविता का एक वाक्य यह होगा -
असंभव है कंकरों को पालतू बना सकना!
मानसिक तौर पर वह कभी किसी की सत्ता, गुट, समूह या व्यक्ति के अधीन नहीं रहे थे, हालाँकि उनके जीवन में एकाधिक अवसर ऐसे जरूर आए, जब अज्ञेय जी जैसे बडे संपादक तक ने उनका एक लेख कविता और अन्य कलाएँ सुन कर उन्हें कभी अपने साथ दिनमान के सम्पादकीय विभाग में काम करने का मौखिक प्रस्ताव दिया था!
वे अज्ञेयजी की कईं कविताओं के गहरे प्रशंसक और व्याख्याकार थे और जैसा खुद नंदकिशोर आचार्य की स्वीकारोक्ति है- अज्ञेय की काव्य तितीर्षा पुस्तक के लिखे जाने में उन्हें परिमलजी से हुई लम्बी और लगातार चर्चाओं से बडी मदद मिली थी!
पारिवारिक संकटों की एक लम्बी चौडी सूची हमेशा परिमलजी मुँह जोए रहती थी। अनेक निजी कारणों से वात्स्यायनजी का यह मलाईदार निमंत्रण भी उन्होंने नहीं लपका, जैसा अज्ञेयजी से हल्दी की गाँठ मिल जाने पर अनेक लोगों ने समय-समय पर पंसारी बन कर किया।
इसी तरह एक अवसर पर इलाहाबाद से डॉ. रघुवंश राजस्थान विश्वद्यालय के हिंदी विभाग में किसी भाषण के लिए आए थे तब अपने पूर्व-परिचित और प्रिय आलोचक प्रकाश परिमल को श्रोताओं में न पा कर सरनाम सिंह शर्मा अरुण से कहने लगे- जब तक प्रकाशजी को नहीं बुलाया जाएगा तब तक वह अपना वक्तव्य शुरू ही नहीं करेंगे- लिहाजा शायद डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय को एक कार ले कर परिमलजी को सादर ले आने के लिए दौडाया गया था !
एक दफा विद्वान राजनेता डॉ. कर्णसिंह जब उनके बीकानेर स्थित संस्थान में कुछ हस्तलिखित अलभ्य ग्रन्थ देखने आए तो परिमलजी की मौन-साधना, लगन और ज्ञान के प्रति अनुराग ने उन्हें बडा प्रभावित किया। डॉ. कर्णसिंह ने इस भेंट के बाद उनसे तत्काल कश्मीर आ कर अपने अधीन कुछ पुराग्रंथों पर अकादमिक काम करने का सस्नेह न्योता दिया, पर वह इस उदार निमंत्रण पर भी बीकानेर रहने का मोह न छोड सके... अपने पुश्तैनी शहर में उस शोध संस्थान में सहायक निदेशक की अपनी सामान्य, किन्तु शोधपरक नौकरी में खपे रहना ही उन्होंने पसंद किया। परिमलजी इन दोनों प्रस्तावकों के सामने स्वभाव से एक घर-घुसाऊ ही साबित हुए।
यह वही बीकानेर था- जिसकी सांस्कृतिक पर पारंपरिक संस्कृति आबोहवा को आधुनिक साहित्य की बारीकियों से लगातार अवगत कराने में परिमलजी ने कई मंचों और अवसरों पर अपना खून-पसीना एक किया था, अपने मित्र हरीश भादानी की वातायन जैसी गीतवादी पत्रिकाओं में नयी संवेदना की कविताओं के लिए बंद खिडकियाँ खोलीं थीं..... नंदकिशोर आचार्य जैसे अनेक लोगों को साहित्य के कुण्ड में तैरने के गुर सिखलाए थे पर कहावत के अर्थ में गुरुजी तो बस गुड रह गए और चेले शक्कर !
उनके वैयक्तिक दुर्भाग्य की गाथा यहीं अंत नहीं होती, किसी वजह से इस शार्दूल रिसर्च संस्थान और अपने विधायक से उनकी बरसों तक अप्रीतिकर मुकद्दमेबाजी तब तक चली, जब तक उनकी गाँठ से वकीलों द्वारा पाई-पाई तक न झाड ली गयी.... वह अंततः मुकद्दमा जीते तो जरूर, पर मामूली आर्थिक मुआवजे के साथ, तब तक तो सेवानिवृत्ति की उम्र भी आ चुकी थी और उन्हें इस शार्दूल रिसर्च संस्थान की प्राइवेट सेवा से हाथ धोना पडा।
अपने आखिरी तीन दशकों में वह जीवन में सिर्फ एक चीज की बाट जोहते रहे थे- किसी न किसी से साहित्यिक संवाद की! मेरे साथ ले जाने पर एक बार जब भरतपुर रहने आए तो विजेंद्र ही नहीं, साहित्य में नए-नए रुचिशील एक नवयुवक राजाराम तक से वह बिना खाए-पिए या सोये, घन्टों तक संवादरत रह सके थे। यही युवक आगे चल कर राजाराम भादू बना-हमारे जैसा उनका एक और प्रशंसक ! विजेंद्रजी से प्रकाशजी का कई प्रश्नों पर हुआ ज्ञानवर्धक पत्राचार पत्रिका कृति-ओर में छपा है। परिमलजी विजेंद्र जी जैसे ही लम्बे पत्र लिखते थे। लहर, कल्पना, क ख ग और ज्ञानोदय और अणिमा जैसी पत्रिकाओं के अलावा एक जमाने में वह मुक्तिबोध के लम्बे पत्र-संफ में भी रहे।
वह मेरे बुलावे पर मेरी गंगानगर, अजमेर और पाली की पोस्टिंग्स के दौर में भी आए और स्थानीय लेखकों, चाहे छोटा हो या बडा - सब से आत्मीय-भाव से मिलते-मिलाते , लगभग रात-दिन चर्चारत रहे। साहित्य के बारे में बातचीत करते जाने में उनकी वाचिक-ऊर्जा का भण्डार हैरतंगेज़ था- लगभग अक्षय! डॉ.नामवर सिंह जैसी ही उनकी संवाद-ऊर्जा कभी थकती चुकती नहीं थी... बीकानेर में जब किसी समारोह में नामवरजी आए, तो प्रकाशजी के न्योते पर उनका रामपुरिया मोहल्ले के उनके पुश्तैनी घर में जमीन पर बैठ कर सहजता से भोजन करना मुझे याद है।
जहाँ तक उनके चित्रकार होने की बात है, मैंने पहले लिखा ही है, वह रेखांकनों में कुशल थे। उनकी अपनी कुछ किताबों में लेखों के साथ उनके बनाये स्याही-रेखांकन भी छपे हैं। वैदिक-थीम्स पर उन्होंने जवाहर कला केंद्र में अपने मिश्रित-माध्यम चित्रों का एकल प्रदर्शन कई साल पहले किया था। परिमलजी में हमारे एक फोटोग्राफर मित्र की जैसी अदम्य प्रचार-प्रवीणता न थी, वर्ना उनकी पेंटिंग प्रदर्शनी की चर्चा किसी न किसी जगह जरूर होती। बीकानेर में कागज पर काला स्याह धुँआ देते हुए अनेक प्रयोगवादी अमूर्त चित्र भी उन्होंने बनाए थे। वह निस्संदेह विजेंद्र से कहीं अच्छे चित्रकार थे ! श्रेष्ठ कला-समीक्षक तो खैर वह थे ही, आधुनिक भारतीय चित्रकारों पर समय समय पर उनका लिखा कई राष्ट्रीय पत्रिकाओं में ससम्मान छपा। जब अपने बेटे प्रतीक से मुंबई मिलने गए, तो उसके घर के आसपास कफ-परेड में रह रहे हुसैन का साक्षात्कार करने की गरज से बिना टेप रिकॉर्डर बिना कैमरे के सीधे जा पहुँचे थे। यह साक्षात्कार इसलिए दिनालोक नहीं
देख सका क्योंकि हुसैन तब (पागलपन की हद तक) माधुरी दीक्षित के इकतरफा-इश्क में मुब्तिला थे और उस दिन भी कहीं माधुरी की किसी मुंबैया फिल्म की शूटिंग का चाक्षुष-रसपान करने जाने की भयंकर हडबडी में थे!
ज्योतिस्वरूप जैसे असाधारण आधुनिक चित्रकार परिमलजी की पसंद-सूची में काफी ऊपर थे। तेजसिंह जोधा की पत्रिका दीठ के शायद प्रवेशांक के लिए उन्होंने ज्योतिस्वरूप की कला पर राजस्थानी में एक मार्मिक लम्बी कला-समीक्षा लिखी थी। बिना भेदभाव और उदारता से राजस्थान के तो शायद हर उल्लेखनीय कलाकर्मी के बारे में तो उनकी कलम खूब चली। भारतीय चित्रकला के विविध आयाम, Avant Garde Artists of Rajasthan, और Treaures of Indian Art heritage जैसी उनकी कुछ पठनीय और संग्रहणीय कला-पुस्तकें हैं। इन पंक्तियों के लेखक को अगर एक कला-समीक्षक के रूप में भी कहीं किसी के द्वारा जाना गया है, तो इस छवि के निर्माण में परिमलजी से संवादों का अपना अदृश्य हाथ जरूर कहीं न कहीं है।
पारिवारिक-संस्कारों की वजह से शास्रीय संगीत की अच्छी समझ थी उनमें। अमजद अली खान का सुमधुर सरोदवादन सुन कर अगर वह कविताओं की एक सीरीज लिख सकते थे, तो मुझे याद यह भी आ रहा है- मेरे बेटे निमिष के इलेक्ट्रोनिक सिंथेसाइजर पर अचानक एक दिन देर तक उन्होंने मधुरता से एक के बाद एक कई लोकप्रिय फिल्मी गाने बजाए थे! वे कईं कलाओं के जानकार थे, जैसा घिसी पिटी शब्दावली में अक्सर कहा ही जाता है- बहुमुखी प्रतिभा के धनी!
इसके बाद वह बरसों नहीं, दशकों तक छोटे-मोटे अनुवाद कार्य करते आर्थिक कष्ट झेलते पूर्णकालिक बेरोजगार ही रहे। इस लम्बी अवधि में उनकी पत्नी सच्चे मायनों में एकनिष्ठ भारतीय धर्मपत्नी साबित हुईं जिन्होंने शादी के बरसों बाद कृषि विपणन बोर्ड में क्लर्क की मामूली नौकरी शुरू की, रात -दिन संघर्ष की आग में सपरिवार दहकते हुए भी अपनी दोनों संततियों को सक्षम बनाया और अपने पति का हर तरह मनोवैज्ञानिक संबल बढाया, जिनकी जगह और कोई होता, तो निस्संदेह कभी का ध्वस्त हो चुका होता।
(परिमलजी का बडा बेटा प्रतीक, एम एन आई टी, जयपुर से इंजीनियरिंग पास कर पहले अटेम्प्ट में ही भारतीय रेल सेवा में चयनित हो कर मुंबई में आज भारतीय रेलवे का एक बडा अफसर है, तो दूसरा- अनन्य, जयपुर में एक सफल मेडिकल डॉक्टर...)
बीकानेर से लौट कर वह गाँधीनगर / बापूनगर में किराए के कई मकानों में गुजर बसर करते रहे क्योंकि तब तक इनका अपना कोई ठौर ठिकाना या मकान नहीं था - वह तो बहुत बाद में काफी कठिनाई से निर्मित हो पाया !
उनका राजधानी में आगमन भी कोई घटना नहीं बना और कारण था उनकी खुद की सामाजिक असम्प्रक्ति!
वह बीकानेर प्रवास में इतनी सभा-गोष्ठियों में भाग ले चुके थे कि जयपुर जैसे भीड-भाड वाले महानगर में एक स्कूटी के सहारे किसी सभा-समारोह में अकेले जाना उन्हें कभी सुरक्षित न लगा। लोगों ने उन्हें किसी साहित्यिक समारोह में आते जाते इसलिए भी नहीं देखा क्यों कि क्रमशः वह अपने कमरे के एकांत और मुख्यधारा से अलग-थलग खुद गुमनामी में डूबते किसी एकाकी ऋषि जैसे होते चले गए थे!
शुभतर यह था- निहत्थे संघर्ष की इस पूरी अवधि में प्रकाशजी ने सिर्फ एक चीज पर ध्यान लगाया और वह था- लेखन ! या मन आने पर कभी-कभी चित्रांकन। वह निस्संदेह एक सुदृढ स्केचिस्ट थे, बीकानेर के प्रसिद्ध कलाकार आशाराम गोस्वामी से, जो वहाँ सिनेमा के बडे बडे पोस्टर बनया करते थे, कभी अपनी किशोरावस्था में उन्होंने चित्रकला की बारीकियाँ सीखीं थीं।
लिखना या वेद साहित्य पढना तो जैसे उनके लिए जीवन के एक बडे अभाव की क्षतिपूर्ति ही हो गया। अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद परिमलजी मन से अपनी विषमतम परिस्थितियों के आगे कभी पराजित नहीं हुए और अपनी एकनिष्ठ एकाग्रता से अकेले दण्ड-अरण्य झेलते हुए किसी गुमनाम योगी की तरह बस लिखते-पढते रहे !
जैसा हम लिख चुके हैं, परिमलजी भी नन्द बाबू जैसे ही संवाद-प्रिय व्यक्ति थे। इस बीच उन्हें सिर्फ एक चीज की दरकार रहती-बीच-बीच में चाय पीने की! जिस तरह कृष्णा मेनन को कॉफी पीने की लत थी- परिमलजी को जिरह करते हुए चाय पीते रहने की, क्यों कि वह प्याज लहसुन से परहेज रखते सौ फी सदी एक ऐसे टी टोटलर थे जिनमें आधुनिक से अत्याधुनिक लिखी चीज को अभूतपूर्व जल्दी से समझ जाने और एप्रीशियेट करने का असमाप्त माद्दा था। विश्व-साहित्य के प्रति उनका सहज झुकाव आजीवन बना रहा था- लेखन में हर नयेपन के लिए उत्सुकता उस से भी ज्यादा, वह मुझसे अक्सर नए लेखकों के लेखन के बारे में विस्तार से जानकारियाँ लेते.....आधुनिकता का यह संस्कार उन्होंने दर्शनशास्त्र में सन 1963 में एम.ए. करते हुए राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में घन्टों जमे रह कर आत्मदीक्षा से अर्जित किया था। दर्शनशास्त्र विभाग में उनके प्रिय गुरु थे -चिन्तक प्रो.पी.टी. राजू - जिनके अधीन उन्होंने भाषाशास्त्री विटिगेन्सटाइन और लौजिकल पोजिटिविज्म पर आंशिक शोधकार्य भी किया था। स्नातकोत्तर परीक्षा पास कर चुकने पर 1964 में राजस्थान विश्वविद्यालय में तत्कालीन चांसलर राज्यपाल डॉ. सम्पूर्णानन्द की व्यक्तिगत रुचि के कारण ही नए खुले पैरासाइकोलोजी विभाग में वह डॉ. हेमेंद्रनाथ बनर्जी के शोध-सहायक भी रहे। इस परामनोविज्ञान विभाग में मनुष्य के पुनर्जन्म के मामलों को ले कर बनर्जी की झूठी-सच्ची अनुसन्धान-परियोजनाओं पर कुछ समय (लगभग अनिच्छा से कार्य करने के बाद) वह एक स्कूल में अंग्रेजी का सेकण्ड ग्रेड अध्यापक बन कर बीकानेर चले गए ! बाद में इन्होने शार्दूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टिट्यूट, बीकानेर में सहायक निदेशक पद पर (1966 से ) कार्य किया ।
बीच में 1976 में राजस्थान विश्वविद्यालय में यह डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय कुलपति के कार्यकाल में, आग्नेय जैसे मित्र की पहल पर थोडे समय उनके सचिवालय में स्थापित रिसर्च एंड रेफरेंस सैल के प्रभारी अधिकारी भी थे।
वह मन से न पूरे आस्तिक थे, न पूरे नास्तिक ! वह भीतर से ज़्यादातर नास्तिक ही थे और हर पल एक रेशनलिस्ट या तर्कवादी! गोष्ठियों में अक्सर बहती हुई वैचारिक-धारा के ठीक विपरीत वक्तव्य देना उनका शगल था... एक दौर में उन्होंने (अशोक आत्रेय के जोर देने पर) द्वारका मठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सस्वती से बाकायदा श्रीविद्या की मन्त्र दीक्षा भी ले ली थी, पर उस दिन के बाद एक सच्चे शिष्य की तरह नियमित पूजापाठ या मंत्रजाप करते उन्हें किसी ने नहीं पाया ..... इसी तरह वह विचारधारा के स्तर पर भी किसी दर्शन-विशेष के पिछलग्गू नहीं बन पाए। माक्र्सवाद के तो बिलकुल नहीं जब कि श्री भगवान सिंह जैसे कुछ लोग उन्हें कई दिन भूलवश पक्का माक्र्सवादी मानते रहे थे। आधुनिकता और परंपरा दोनों को संतुलित भार से साधते उन्होंने अपनी तरह के मौलिक आलोचक के रूप में अपने समीक्षक
ा विस्तार किया। पूर्वग्रह के सौवें आलोचना विशेषांक में छपा उनका एक आलेख बडा महत्त्वपूर्ण है जिसमें साफ शब्दों में परिमलजी का आरोप है कि समकालीन साहित्य में पारंपरिक भारतीय आलोचना-सिद्धांतों की जान बूझ कर अवहेलना करने और हिंदी-साहित्य को सिर्फ पश्चिमी साहित्यशास्त्र की कसौटियों पर कस कर देखने के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. नामवर सिंह दोनों ही सामान रूप से अपराधी हैं! उनकी स्थापना थी कि भारतीय काव्यशास्त्र- खासतौर पर वेदों में सौंदर्यशास्त्र सम्बन्धी अब तक अनदेखे ऐसे सूत्र भी नौजूद हैं जिनके आधार पर आधुनिक कलाकृतियों के मूल्यांकन तक का काम बखूबी लिया जा सकता है, हमें आलोचना में हर बार बाहरी (पश्चिमी) केनंस की जरूरत नहीं है ! अपनी इस धारणा के समर्थन में उन्होंने बाकायदा एक पुस्तक लिखीं- वैदिक सौंदर्यशास्त्र की भूमिका ।
अगर परिमलजी के व्यक्ति पर लौटें, तो कहना चाहूँगा- स्वभाव से वह चापलूस नहीं थे, न चालाक, न मौके का फायदा उठा सकने वाले अवसरवादी... उलटे वह कईं बार मुँहफट होने की सीमा तक साफगो थे, अगर किसी के प्रति किसी वजह से नाराज हो जाते, तो आसानी से अपनी राय नहीं बदलते थे, कईं बार अपनी मान्यताओं में बच्चों से भी ज्यादा जिद्दी थे, कई बार गलत होने पर भी बहस-मुबाहिसे के हित में अपनी बात पर अड जाते और फिर टस से मस न होते। जरूरत पडने पर भी कईं बार अपने क्रोध को छिपा नहीं सकते थे, मुहावरे के अर्थ में पूरी तरह कान के कच्चे न होते भी वह कई बार सुनी सुनाई बात पर सहजता से भरोसा कर लेते थे और बाद में खुद बडा पछताते, उन्हें आसानी से झाँसा दे सकना तक संभव था !
बस, एक ही घटना उल्लेख पर्याप्त होगा।
जब सन् साठ के दशक में रंग-चेतना पर हिन्दी कविताओं पर लिखा उनका एक मौलिक संग्रह रंग-धनु भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने के बाद भी किसी कारण से कुछ समय तक नहीं छपा, तो यह जान कर मणि मधुकर ने उनसे एक क्रूर मजाक किया- यह कहते हुए - परिमलजी! आजकल भारतीय ज्ञानपीठ के दिल्ली के दफ्तर में बडी भारी अव्यवस्था व्याप्त है... वहाँ कई लेखकों की पाण्डुलिपियाँ खोने की कईं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हुई हैं, आफ पास तो अपनी पुस्तक की कोई प्रति तक नहीं है, कहीं आपकी किताब भी तो उन लोगों ने कहीं गुम तो नहीं कर दी? प्रकाश परिमलजी मणि मधुकर की इस गंभीर, किन्तु सौ प्रतिशत गलत सूचना से इतने विचलित हुए कि अगले ही दिन लक्ष्मीचंद जैन को पत्र लिख कर उन्होंने अपनी पाण्डुलिपि पुस्तक प्रकाशित होने का इंतजार किए बिना ही वहाँ से वापस मँगवा ली... जहाँ ज्ञानपीठ जैसे बडे प्रकाशक को छापनी थी, वह किताब फिर दशकों तक नहीं छपी, बहुत बाद में शायद गीतकार मित्र ब्रजेश भट्ट के सुझाने पर अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद ने से उसे नए शीर्षक फिर उपस्थित रंग दे कर साल 2018 में छापा! पाँव पर कुल्हाडी नहीं, इस तरह खुद कुल्हाडी पर पाँव मारने की उनकी इस कार्रवाई से समय पर प्रसिद्धि का एक बेहतरीन अवसर भी जाता रहा। इस अजीबोगरीब घटना के लिए खुद प्रकाशजी की संदेहालु प्रवृत्ति को ही जिम्मेदार माना जा सकता है.....।
यों, लहर, वातायन, पूर्वग्रह, नवनीत (हिन्दी डाइजेस्ट), कला-प्रयोजन, रसवंती, भाषा, गगनांचल, साक्षात्कार, भारती, कल्पना, ज्ञानोदय, नया-प्रतीक, समकालीन कला, क ख ग, मधुमती, बिंदु, युग-प्रभात, संस्कृति, दीठ, राजस्थान भारती, मानदंड सहित कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ, लेख, निबंध, समीक्षाएं और समालोचना आदि प्रकाशित हुई हैं, पर एक समय बाद प्रकाशन के अपने क्रम को उन्होंने खुद ही तोड दिया। वह आलोचना में कुछ दादुरों के वक्ता बन जाने पर गुप्त रूप से बडे खिन्न रहने लगे। पत्रिकाओं को अपना लिखा भेजने में उनकी दिलचस्पी कमतर होती गयी। सारा जोर किताबें लिखने में जाने लगा।
हिन्दी परिदृश्य बडा सारा चिकना घडा है। अगर दो चार दिन भी आप कहीं छपते नहीं या अशोक वाजपेयी जैसे किसी न किसी तरह चर्चा में बने नहीं रहते हैं, तो जनस्मृति से गायब होने में भी फिर देर नहीं लगती .....उनके मामले में यही हुआ !
पर यह सच है उन्होंने समय समय पर अपने समय के कई महत्त्वपूर्ण लेखकों पर बेहतरीन और मौलिक अंतर्दृष्टि से आलोचनाएँ लिखी हैं। आलोचना-लेखन में अनावश्यक भाषाई-उलझाव और अभिव्यक्ति के जलेबीपन से उन्हें सख्त आपत्ति थी। वह कहते थे अगर किसी कृति के सम्बन्ध में आलोचक की अवधारणा उसके मस्तिष्क में साफ है, तो उसकी समीक्षा-भाषा को भी उतना ही सुबोध, अचूक, पारदर्शी और बोधगम्य होना चाहिए। उदाहरणार्थ एक बार जब नए-नए आलोचक बने मेरे मित्र भोपाल के मदन सोनी की पहली आलोचना-पुस्तक 1988 में कविता का व्योम और व्योम की कविता मेरे हाथ में देखी, तो कुछ समय तक गंभीरता से पन्ने पलटने के बाद वह मदन सोनी की रोंगटे खडे कर देने वाली उलझावपूर्ण आलोचना भाषा की दुरूहता पर कुछ बोले नहीं, बस ठहाका लगा कर खूब हँसे। मुझ से माँग कर किताब तत्काल ले गए। दूसरे दिन जब वह पुस्तक मेरे पास लौट कर आयी, तो पेन्सिल से अनगिनत जगह उन्होंने मदन सोनी की दुरूह भाषा और समझ पर गंभीर (पर मनोरंजक शैली में) अपनी आपत्तियाँ दर्ज की हुईं थीं। अधिकांश जगह आपत्तियों के वैध-कारण भी अंकित थे। वह किताब आज भी मेरे पास है और मुझे हमेशा अपनी समीक्षकीय प्रतिपत्तियाँ असंग्दिध शब्दों में दर्ज करने का पाठ सिखलाती रहती है !
उन्होंने 1966 से शायद 1979 तक राजस्थान-भारती के अलावा मानदंड, स्वायत्तशासन, दिग्दर्शक, संवत्सर, आदि कुछ गुमनाम पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। अपनी कृतियों के लिए यह इन संस्थाओं से सम्मानित हुए- कला-वृत्त संस्था, जयपुर की और से सार्वजनिक-अभिनन्दन (1982) फेस और कला-समूह पैग आर्ट ग्रुप का सम्मान (1983) तैलंग कुलम् का लाइफ-टाइम सम्मान (2011) अनुराग सेवा संस्थान का सर्वोच्च लेखक-सम्मान (2011) राजस्थान साहित्य अकादमी का अमृत-सम्मान (2013) पर यह लेखक लिख ही चुका है- ये सब अभिनन्दन और सम्मान उनकी कईं इलाकों में फैली प्रतिभा की पहचान या सम्मान के लिए बिलकुल अपर्याप्त थे। किसी साहित्यिक-गैंग या गुट का पल्ला अगर वह सही वक्त पकड लेते, तो उन्हें मिल सकने वाले सम्मानों की सूची और भारी भरकम नामों की होती। इसलिए जो समीक्षात्मक महत्त्व उनकी संख्या में इतनी सारी प्रकाशित कृतियों को मिलना चाहिए था उस पहचान से भी वह लगभग आजीवन वंचित ही रहे, इस अव्यवस्था के लिए शायद खुद परिमलजी भी उतने ही दोषी हैं। इसलिए कि आत्मविज्ञप्ति की कला उन्हें बिलकुल भी नहीं आती थी, किसी लेखकीय गिरोह के सरदार का दामन पकड कर चर्चा में आ जाना उन्हें रत्ती भर स्वीकार नहीं था, संपादकों और प्रतिष्ठानों की जी-हजूरी तो उन्हें फूटी-आँखों नहीं सुहाती थी और इस तरह पी.आर. की कला में वह पूरी तरह फेल थे।
उनका दोष यह था वह बिना विज्ञापित हुए अपना काम एकांत में करते रहे। उनका दोष यह भी था कि वह दबंग नहीं थे, सो सज्जनतावश अपनी किसी भी किताब के लिए किसी प्रकाशक से एक धेले की रौयल्टी नहीं ले सके, लिहाजा निराशा के अँधेरे परिदृश्य से पार न पा सकने की दुविधा में ज़्यादातर किताबें उन्होंने अपने निजी आर्थिक स्रोतों (बेटों या पत्नी की मदद ले कर) खुद ही छपवाईं.....
अपने संपन्न पूर्वजों के पारिवारिक-मकान को चरित्र बना कर उसके बहाने सामाजिक-पारिवारिक विखण्डन पर लिखा जा रहा एक उपन्यास लाल पत्थर की हवेली वह अधूरा छोड गए हैं - कुछ अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के अलावा, जो अब कभी पूरा नहीं हो सकेगा ! मुझे खुशी है उस लिखे जा रहे पर बीच में ही अधूरा छूट चुके
पन्यास के कुछ अंश मैंने कला-प्रयोजन में छापे थे.....। आगे एक पूरी सीरीज में यह लेखक जल्दी ही प्रकाशजी की उक्त उल्लेखित पुस्तकों पर एक विस्तृत समीक्षा लिखेगा, अभी तो ये पंक्तियाँ उनके व्यक्तिव के कुछ हिस्सों का आधा अधूरा-सा स्मृति-लेख भर हैं ।
मुझे खुशी यह भी है- भले परिमलजी जैसे रचनाकार आजीवन हमारी भाषा की लेखकीय राजनीति और उपेक्षा-भाव का आसान शिकार रहे हों, लेकिन लेखन में उनकी अपनी मौलिक चमक, अदम्य जिजीविषा के अलावा बौद्धिक-स्वायत्तता की उनकी ठसक और उन के स्वातंत्र्य-भाव का आदर करते हुए मैंने और अशोक आत्रेय ने वक्त-बेवक्त उनके श्रोता होने का सबूत दिया- जिसकी आत्मिक जरूरत उन्हें चिरकाल से थी ! उनके लिए यह सुकून और संतोष का सबब था कि हम लोग उनकी साहित्यिक-वाग्मिता की अदम्य तडप को समझते थे और कईं असहमतियों के बावजूद उन्हें धीरज से सुनते थे। हमें लगा अस्सी पार पहुँचते हुए गुमनाम हो चुके एक लेखक के लिए कई बार जबानी जमा-खर्च का यह नुस्खा भी बडा उत्साहजनक साबित होता है।
अशोक आत्रेय ने उस बगीचे के नियमित तीन लेखकों- प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय और हेमंत शेष की प्लास्टिक की उन तीन लाल कुर्सियों की याद में, जिन पर हम कभी बैठते थे- कालांतर में एक फिल्म-प्रोडक्शन शुरू किया- थ्री चेयर्स - जिसके बैनर पर कई टेलीफिल्में उन्होंने घर फूँक कर तमाशा देखने वाली शैली में निर्मित कीं .....इनमें से आधे घन्टे की एक पूरी फिल्म परिमलजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर ही एकाग्र थी - याद नहीं आ रहा, फिर उपस्थित रंग या शायद ऐसा ही कुछ शीर्षक रहा होगा उसका। काश! कुछ और लोग उस फिल्म को नए सिरे से देख पाते.....। अब जब परिमलजी लौट कर कभी वापस न आने के लिए बहुत दूर जा चुके हैं, अशोक आत्रेय पहले ही की तरह बार-बार स्वीकारते हैं- आधुनिक-कहानी को कांसेप्ट के स्तर पर समझने और उसे नयेपन से लिखने में प्रकाशजी से हुई लम्बी बहसों का सबसे बडा हाथ है! मैंने भी अनेक अवसरों पर कहा है- मेरी कई कविताओं के पहले सहानुभूत श्रोता या पाठक परिमलजी ही थे.....। मुझे याद है, जब मैंने आधुनिक-कला पर लिखी अपनी पूरी किताब एक ही लम्बी बैठक में उन्हें सुना दी थी और वह लगातार आठ घन्टे बिना थके, रुचि से उसे सुनते चले गए थे ।
अपार धीरज वाले ऐसे साहित्यकारों का निर्माण करना अब ईश्वर के कारखाने ने बंद कर दिया है .....
विस्मृति के काले स्याह परदे में डूब जाने से पहले तक एक समय उनकी रचनाओं की विविधता जैसा ही उनका अक्षुण्ण स्मृति-कोष भी था। बीकानेर की चायपट्टी, अपने दो मामाओं भाटी-महाराज और ढून्ढ महाराज की विलक्षणताओं, वातायन के दफ्तर की हलचलों, गोस्वामी चौक के कुछेक खास चरित्रों, नंदकिशोर आचार्य की (अज्ञेयजी सहित अन्यों की कविताओं को याद रखने की) स्मरण-शक्ति, एयरफोर्स में काम करने वाले अपने एक पक्के दोस्त पंजाबी कवि प्रकाश प्रभाकर, बीकानेर के कुछ पुष्करणा-ब्राह्मणों की सदाबहार राजनीति, हरीश भादानी की उदारताएं या फिजूलखर्ची, होली पर आयोजित रम्मतों, भू ऋषि भवन में निवास, जज लीलाधर स्वामी के साथ की गयी यात्राओं आदि की याद भी उन्हें आती थी- इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवंश, गुजराती भाषाशास्त्री डॉ.हरिवल्लभ भायाणी, कला-मर्मज्ञ रायकृष्ण दास, महाराजा गंगासिंह, चित्रकार हुसेन, अज्ञेयजी, और रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा लिखने वाले बीकानेर के ही के एक सुराप्रेमी कवि से सम्बद्ध कई संस्मरण भी उनके मन की पाटी पर साफ-साफ अंकित थे। अगर उनके संस्मरणों में बीकानेर की पुरानी यादों का कभी न उठने वाला काफिला होता तो कभी कलकत्ते या इलाहाबाद की किसी अखिल भारतीय संगोष्ठी में पढे गए अपने किसी पर्चे की याद !
कईं बार अन्यों द्वारा उनके किए-धरे की अक्सर की गयी उपेक्षा पर अफसोस की एक विषादात्मक छाया भी होती थी, अपने अचेतन में गहरे खुबे इस मार्मिक सत्य को लेकर व्यथा-सी भी कि हिंदी साहित्य ही नहीं, राजस्थान, यहाँ तक बीकानेर- खुद उनका शहर भी उन्हें और उनके साहित्यिक-अवदान को देखते-देखते भूल गया है, इसीलिए वह मजबूरी में, खुद कई बार सगर्व, कुछ-कुछ आत्म-स्तवनवादी लहजे में अपनी भूतपूर्व सांस्कृतिक उपलब्धियों की याद हम लोगों को अक्सर दिला दिया करते थे.....। मैं अक्सर उनसे कहता था- आप भूल क्यों जाते हैं, हिंदी की याददाश्त बडी कमजोर है, पर उसकी पाचन-शक्ति बेमिसाल !
भूलने की बीमारी ने जब उन्हें पूरी तरह अपने शिकंजों में कस लिया और पुराने दिनों की यादें परिमलजी के दिमाग से दूर होती चली गयीं, फिर हमने फिर कभी उन्हें अतीत की गलियों में दुबारा लौटते नहीं देखा.....यह एक वाचाल आदमी के मौन की अनंत घाटी में बेआवाज प्रवेश करने जैसी दुखान्तिका थी, मृत्यु से पहले उन्हें न अपना लिखा एक शब्द याद रहा न अपने पुराने दिन.....न कोई भी संस्मरण न लोगों के नाम और न चेहरे। एल्जाइमर के कारण हर याद को भूल जाना उनकी चौरासी साला संघर्षशील जिन्दगी का दुखांततम पटाक्षेप था।
पर स्मृतिहीनता में मरने से पहले उनका अपना एक निजी जीवन भी था- विलक्षण, लगभग एकाकी और प्रायः उपेक्षित, जिस देह को हम कुछ लोग अगस्त की एक सुबह जयपुर के मधुवन श्मशान में बिना बोले फूँ कआए।
उन्हें चिता अग्नि में निस्पंद लेटे देख कर मुझे याद आया - आग को समर्पित ऋग्वेद का पहला मन्त्र, जो संसार की सब से पहली कविता की सबसे पहले उच्चरित पंक्ति भी है।
अग्निशिखाओं में भस्म होने में प्रकाश परिमलजी की कृश काया को बहुत देर नहीं लगी - ठीक वैसे ही जैसी हमारे कृतघ्न हिंदी-समाज ने उन्हें या उनके अवदान को भुलाने में नहीं लगाई !
सवाल यह है- हमें इस भूल के लिए आखिर क्षमा कौन करेगा? कैसे और कब ??
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सम्पर्क - 40/158, स्वर्ण पथ
मानसरोवर जयपुर 302020
यहाँ किसी वक्त पानी नियमित न दिए जाने की वजह से एक मुरझाता-सा बगीचा सा था। और थी- इस बगीचे में किसी साहसी अतिक्रमणकर्ता द्वारा उठा ली गयी चाय की एक मामूली थडी..... कहने को जगह मामूली जरूर थी, पर थी- एकांत में, ट्रेफिक के शोरोगुल से दूर.....
प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय और हेमंत शेष नाम के तीन अज्ञात से आदमी, जिन्हें आज कुछ लोग लेखक के रूप में भी शायद जानते हों, यहाँ नियमित तौर पर बैठा करते थे।
कभी भी जुड जाने वाली इस अनौपचारिक बैठक में न टी.वी.पर जारी क्रिकेट मैचों की बात होती न हमारे अपने घर-परिवारों की समस्याओं की, बम्बइया फिल्में, जब तक वे घोर-कलात्मक न हों, हम लोगों के विचार के दायरे से बाहर थीं, चलताऊ राजनीतिक चर्चाओं पर भी अघोषित प्रतिबन्ध-सा था... चुटकुले वर्जित थे- बात सिर्फ कला की हो सकती थी या लेखन की। कला-संस्कृति से इतर बात सोचने करने या कहने वाले को बकाया दो आदमियों की घनघोर हिकारत की निगाह का सामना करना होता था। बात कहीं से भी किसी भी तरह शुरू की जा सकती थी। अक्सर अभी सुनी आपस की किसी कविता-पंक्ति से या किसी की अच्छी कोटेशन तक से।
या हममें से कोई भी एक शुरुआत में बस एक दो वाक्यों में अपनी हाल में पढी किसी नयी किताब या पत्रिका में छपी किसी कृति का कोई उद्धरण या सन्दर्भ दे देता, या फेंक देता अपनी तरफ से साहित्य संबंधी कोई भी विवादस्पद-सा वक्तव्य; और बस उसी एक आरंभिक वाक्य के सहारे हम कुल्हड में कडक चाय सुडकते हुए गर्मजोशी से लम्बी साहित्यिक बहस-मुबाहिसों में मुब्तिला हो जाते ! वे भी क्या दिन थ.....।
प्रकाश परिमल तब उम्र में हम सब से वरिष्ठ होने के नाते फौरन से भी पहले तीन तिलंगों की इस मजलिस में स्वयंभू अध्यक्ष की मुद्रा में आ जाते और उनसे कम उम्र के कारण हम दोनों- मैं और अशोक आत्रेय उन के निरीह से अनुयायियों की सूरत में! हालाँकि अनेक बार परिमलजी के निष्कर्षों या उनकी स्थापनाओं से से हमारी खासी असहमति भी होती फिर भी हम उनका सम्मान करते उनके कथन को आपसी झगडे (वाकयुद्ध) की सीमा तक कभी न ले जाते थे.....
वह कलाओं और साहित्य के ऐसे मूक-मौलिक मर्मज्ञ थे जिन्हें बेरहम समय और कृतघ्न-नासमझ आलोचकों ने हमेशा हाशिये पर रखा.....जो तवज्जो उनकी संख्या में इत्ती सारी प्रकाशित कृतियों को मिलनी चाहिए थी उस से भी वह लगभग आजीवन महरूम ही रहे और देवनगर टोंक रोड के अपने मकान भू-ऋषि सिद्धपीठ में एल्जाइमर नामक भयावह बीमारी की चपेट में आ कर अपने गिरते हुए स्वास्थ्य का सामना बहादुरी से करते हुए एक बुझती हुई लौ की तरह 25 अगस्त 2021 को दिवंगत हुए !
परिमलजी जैसे दुबले-पतले, पर आत्मा से कुलिश व्यक्ति को अगर एक वाक्य में व्याख्यायित किया जाना हो, तो जिबग्न्यू हर्बर्ट की कविता का एक वाक्य यह होगा -
असंभव है कंकरों को पालतू बना सकना!
मानसिक तौर पर वह कभी किसी की सत्ता, गुट, समूह या व्यक्ति के अधीन नहीं रहे थे, हालाँकि उनके जीवन में एकाधिक अवसर ऐसे जरूर आए, जब अज्ञेय जी जैसे बडे संपादक तक ने उनका एक लेख कविता और अन्य कलाएँ सुन कर उन्हें कभी अपने साथ दिनमान के सम्पादकीय विभाग में काम करने का मौखिक प्रस्ताव दिया था!
वे अज्ञेयजी की कईं कविताओं के गहरे प्रशंसक और व्याख्याकार थे और जैसा खुद नंदकिशोर आचार्य की स्वीकारोक्ति है- अज्ञेय की काव्य तितीर्षा पुस्तक के लिखे जाने में उन्हें परिमलजी से हुई लम्बी और लगातार चर्चाओं से बडी मदद मिली थी!
पारिवारिक संकटों की एक लम्बी चौडी सूची हमेशा परिमलजी मुँह जोए रहती थी। अनेक निजी कारणों से वात्स्यायनजी का यह मलाईदार निमंत्रण भी उन्होंने नहीं लपका, जैसा अज्ञेयजी से हल्दी की गाँठ मिल जाने पर अनेक लोगों ने समय-समय पर पंसारी बन कर किया।
इसी तरह एक अवसर पर इलाहाबाद से डॉ. रघुवंश राजस्थान विश्वद्यालय के हिंदी विभाग में किसी भाषण के लिए आए थे तब अपने पूर्व-परिचित और प्रिय आलोचक प्रकाश परिमल को श्रोताओं में न पा कर सरनाम सिंह शर्मा अरुण से कहने लगे- जब तक प्रकाशजी को नहीं बुलाया जाएगा तब तक वह अपना वक्तव्य शुरू ही नहीं करेंगे- लिहाजा शायद डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय को एक कार ले कर परिमलजी को सादर ले आने के लिए दौडाया गया था !
एक दफा विद्वान राजनेता डॉ. कर्णसिंह जब उनके बीकानेर स्थित संस्थान में कुछ हस्तलिखित अलभ्य ग्रन्थ देखने आए तो परिमलजी की मौन-साधना, लगन और ज्ञान के प्रति अनुराग ने उन्हें बडा प्रभावित किया। डॉ. कर्णसिंह ने इस भेंट के बाद उनसे तत्काल कश्मीर आ कर अपने अधीन कुछ पुराग्रंथों पर अकादमिक काम करने का सस्नेह न्योता दिया, पर वह इस उदार निमंत्रण पर भी बीकानेर रहने का मोह न छोड सके... अपने पुश्तैनी शहर में उस शोध संस्थान में सहायक निदेशक की अपनी सामान्य, किन्तु शोधपरक नौकरी में खपे रहना ही उन्होंने पसंद किया। परिमलजी इन दोनों प्रस्तावकों के सामने स्वभाव से एक घर-घुसाऊ ही साबित हुए।
यह वही बीकानेर था- जिसकी सांस्कृतिक पर पारंपरिक संस्कृति आबोहवा को आधुनिक साहित्य की बारीकियों से लगातार अवगत कराने में परिमलजी ने कई मंचों और अवसरों पर अपना खून-पसीना एक किया था, अपने मित्र हरीश भादानी की वातायन जैसी गीतवादी पत्रिकाओं में नयी संवेदना की कविताओं के लिए बंद खिडकियाँ खोलीं थीं..... नंदकिशोर आचार्य जैसे अनेक लोगों को साहित्य के कुण्ड में तैरने के गुर सिखलाए थे पर कहावत के अर्थ में गुरुजी तो बस गुड रह गए और चेले शक्कर !
उनके वैयक्तिक दुर्भाग्य की गाथा यहीं अंत नहीं होती, किसी वजह से इस शार्दूल रिसर्च संस्थान और अपने विधायक से उनकी बरसों तक अप्रीतिकर मुकद्दमेबाजी तब तक चली, जब तक उनकी गाँठ से वकीलों द्वारा पाई-पाई तक न झाड ली गयी.... वह अंततः मुकद्दमा जीते तो जरूर, पर मामूली आर्थिक मुआवजे के साथ, तब तक तो सेवानिवृत्ति की उम्र भी आ चुकी थी और उन्हें इस शार्दूल रिसर्च संस्थान की प्राइवेट सेवा से हाथ धोना पडा।
अपने आखिरी तीन दशकों में वह जीवन में सिर्फ एक चीज की बाट जोहते रहे थे- किसी न किसी से साहित्यिक संवाद की! मेरे साथ ले जाने पर एक बार जब भरतपुर रहने आए तो विजेंद्र ही नहीं, साहित्य में नए-नए रुचिशील एक नवयुवक राजाराम तक से वह बिना खाए-पिए या सोये, घन्टों तक संवादरत रह सके थे। यही युवक आगे चल कर राजाराम भादू बना-हमारे जैसा उनका एक और प्रशंसक ! विजेंद्रजी से प्रकाशजी का कई प्रश्नों पर हुआ ज्ञानवर्धक पत्राचार पत्रिका कृति-ओर में छपा है। परिमलजी विजेंद्र जी जैसे ही लम्बे पत्र लिखते थे। लहर, कल्पना, क ख ग और ज्ञानोदय और अणिमा जैसी पत्रिकाओं के अलावा एक जमाने में वह मुक्तिबोध के लम्बे पत्र-संफ में भी रहे।
वह मेरे बुलावे पर मेरी गंगानगर, अजमेर और पाली की पोस्टिंग्स के दौर में भी आए और स्थानीय लेखकों, चाहे छोटा हो या बडा - सब से आत्मीय-भाव से मिलते-मिलाते , लगभग रात-दिन चर्चारत रहे। साहित्य के बारे में बातचीत करते जाने में उनकी वाचिक-ऊर्जा का भण्डार हैरतंगेज़ था- लगभग अक्षय! डॉ.नामवर सिंह जैसी ही उनकी संवाद-ऊर्जा कभी थकती चुकती नहीं थी... बीकानेर में जब किसी समारोह में नामवरजी आए, तो प्रकाशजी के न्योते पर उनका रामपुरिया मोहल्ले के उनके पुश्तैनी घर में जमीन पर बैठ कर सहजता से भोजन करना मुझे याद है।
जहाँ तक उनके चित्रकार होने की बात है, मैंने पहले लिखा ही है, वह रेखांकनों में कुशल थे। उनकी अपनी कुछ किताबों में लेखों के साथ उनके बनाये स्याही-रेखांकन भी छपे हैं। वैदिक-थीम्स पर उन्होंने जवाहर कला केंद्र में अपने मिश्रित-माध्यम चित्रों का एकल प्रदर्शन कई साल पहले किया था। परिमलजी में हमारे एक फोटोग्राफर मित्र की जैसी अदम्य प्रचार-प्रवीणता न थी, वर्ना उनकी पेंटिंग प्रदर्शनी की चर्चा किसी न किसी जगह जरूर होती। बीकानेर में कागज पर काला स्याह धुँआ देते हुए अनेक प्रयोगवादी अमूर्त चित्र भी उन्होंने बनाए थे। वह निस्संदेह विजेंद्र से कहीं अच्छे चित्रकार थे ! श्रेष्ठ कला-समीक्षक तो खैर वह थे ही, आधुनिक भारतीय चित्रकारों पर समय समय पर उनका लिखा कई राष्ट्रीय पत्रिकाओं में ससम्मान छपा। जब अपने बेटे प्रतीक से मुंबई मिलने गए, तो उसके घर के आसपास कफ-परेड में रह रहे हुसैन का साक्षात्कार करने की गरज से बिना टेप रिकॉर्डर बिना कैमरे के सीधे जा पहुँचे थे। यह साक्षात्कार इसलिए दिनालोक नहीं
देख सका क्योंकि हुसैन तब (पागलपन की हद तक) माधुरी दीक्षित के इकतरफा-इश्क में मुब्तिला थे और उस दिन भी कहीं माधुरी की किसी मुंबैया फिल्म की शूटिंग का चाक्षुष-रसपान करने जाने की भयंकर हडबडी में थे!
ज्योतिस्वरूप जैसे असाधारण आधुनिक चित्रकार परिमलजी की पसंद-सूची में काफी ऊपर थे। तेजसिंह जोधा की पत्रिका दीठ के शायद प्रवेशांक के लिए उन्होंने ज्योतिस्वरूप की कला पर राजस्थानी में एक मार्मिक लम्बी कला-समीक्षा लिखी थी। बिना भेदभाव और उदारता से राजस्थान के तो शायद हर उल्लेखनीय कलाकर्मी के बारे में तो उनकी कलम खूब चली। भारतीय चित्रकला के विविध आयाम, Avant Garde Artists of Rajasthan, और Treaures of Indian Art heritage जैसी उनकी कुछ पठनीय और संग्रहणीय कला-पुस्तकें हैं। इन पंक्तियों के लेखक को अगर एक कला-समीक्षक के रूप में भी कहीं किसी के द्वारा जाना गया है, तो इस छवि के निर्माण में परिमलजी से संवादों का अपना अदृश्य हाथ जरूर कहीं न कहीं है।
पारिवारिक-संस्कारों की वजह से शास्रीय संगीत की अच्छी समझ थी उनमें। अमजद अली खान का सुमधुर सरोदवादन सुन कर अगर वह कविताओं की एक सीरीज लिख सकते थे, तो मुझे याद यह भी आ रहा है- मेरे बेटे निमिष के इलेक्ट्रोनिक सिंथेसाइजर पर अचानक एक दिन देर तक उन्होंने मधुरता से एक के बाद एक कई लोकप्रिय फिल्मी गाने बजाए थे! वे कईं कलाओं के जानकार थे, जैसा घिसी पिटी शब्दावली में अक्सर कहा ही जाता है- बहुमुखी प्रतिभा के धनी!
इसके बाद वह बरसों नहीं, दशकों तक छोटे-मोटे अनुवाद कार्य करते आर्थिक कष्ट झेलते पूर्णकालिक बेरोजगार ही रहे। इस लम्बी अवधि में उनकी पत्नी सच्चे मायनों में एकनिष्ठ भारतीय धर्मपत्नी साबित हुईं जिन्होंने शादी के बरसों बाद कृषि विपणन बोर्ड में क्लर्क की मामूली नौकरी शुरू की, रात -दिन संघर्ष की आग में सपरिवार दहकते हुए भी अपनी दोनों संततियों को सक्षम बनाया और अपने पति का हर तरह मनोवैज्ञानिक संबल बढाया, जिनकी जगह और कोई होता, तो निस्संदेह कभी का ध्वस्त हो चुका होता।
(परिमलजी का बडा बेटा प्रतीक, एम एन आई टी, जयपुर से इंजीनियरिंग पास कर पहले अटेम्प्ट में ही भारतीय रेल सेवा में चयनित हो कर मुंबई में आज भारतीय रेलवे का एक बडा अफसर है, तो दूसरा- अनन्य, जयपुर में एक सफल मेडिकल डॉक्टर...)
बीकानेर से लौट कर वह गाँधीनगर / बापूनगर में किराए के कई मकानों में गुजर बसर करते रहे क्योंकि तब तक इनका अपना कोई ठौर ठिकाना या मकान नहीं था - वह तो बहुत बाद में काफी कठिनाई से निर्मित हो पाया !
उनका राजधानी में आगमन भी कोई घटना नहीं बना और कारण था उनकी खुद की सामाजिक असम्प्रक्ति!
वह बीकानेर प्रवास में इतनी सभा-गोष्ठियों में भाग ले चुके थे कि जयपुर जैसे भीड-भाड वाले महानगर में एक स्कूटी के सहारे किसी सभा-समारोह में अकेले जाना उन्हें कभी सुरक्षित न लगा। लोगों ने उन्हें किसी साहित्यिक समारोह में आते जाते इसलिए भी नहीं देखा क्यों कि क्रमशः वह अपने कमरे के एकांत और मुख्यधारा से अलग-थलग खुद गुमनामी में डूबते किसी एकाकी ऋषि जैसे होते चले गए थे!
शुभतर यह था- निहत्थे संघर्ष की इस पूरी अवधि में प्रकाशजी ने सिर्फ एक चीज पर ध्यान लगाया और वह था- लेखन ! या मन आने पर कभी-कभी चित्रांकन। वह निस्संदेह एक सुदृढ स्केचिस्ट थे, बीकानेर के प्रसिद्ध कलाकार आशाराम गोस्वामी से, जो वहाँ सिनेमा के बडे बडे पोस्टर बनया करते थे, कभी अपनी किशोरावस्था में उन्होंने चित्रकला की बारीकियाँ सीखीं थीं।
लिखना या वेद साहित्य पढना तो जैसे उनके लिए जीवन के एक बडे अभाव की क्षतिपूर्ति ही हो गया। अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद परिमलजी मन से अपनी विषमतम परिस्थितियों के आगे कभी पराजित नहीं हुए और अपनी एकनिष्ठ एकाग्रता से अकेले दण्ड-अरण्य झेलते हुए किसी गुमनाम योगी की तरह बस लिखते-पढते रहे !
जैसा हम लिख चुके हैं, परिमलजी भी नन्द बाबू जैसे ही संवाद-प्रिय व्यक्ति थे। इस बीच उन्हें सिर्फ एक चीज की दरकार रहती-बीच-बीच में चाय पीने की! जिस तरह कृष्णा मेनन को कॉफी पीने की लत थी- परिमलजी को जिरह करते हुए चाय पीते रहने की, क्यों कि वह प्याज लहसुन से परहेज रखते सौ फी सदी एक ऐसे टी टोटलर थे जिनमें आधुनिक से अत्याधुनिक लिखी चीज को अभूतपूर्व जल्दी से समझ जाने और एप्रीशियेट करने का असमाप्त माद्दा था। विश्व-साहित्य के प्रति उनका सहज झुकाव आजीवन बना रहा था- लेखन में हर नयेपन के लिए उत्सुकता उस से भी ज्यादा, वह मुझसे अक्सर नए लेखकों के लेखन के बारे में विस्तार से जानकारियाँ लेते.....आधुनिकता का यह संस्कार उन्होंने दर्शनशास्त्र में सन 1963 में एम.ए. करते हुए राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में घन्टों जमे रह कर आत्मदीक्षा से अर्जित किया था। दर्शनशास्त्र विभाग में उनके प्रिय गुरु थे -चिन्तक प्रो.पी.टी. राजू - जिनके अधीन उन्होंने भाषाशास्त्री विटिगेन्सटाइन और लौजिकल पोजिटिविज्म पर आंशिक शोधकार्य भी किया था। स्नातकोत्तर परीक्षा पास कर चुकने पर 1964 में राजस्थान विश्वविद्यालय में तत्कालीन चांसलर राज्यपाल डॉ. सम्पूर्णानन्द की व्यक्तिगत रुचि के कारण ही नए खुले पैरासाइकोलोजी विभाग में वह डॉ. हेमेंद्रनाथ बनर्जी के शोध-सहायक भी रहे। इस परामनोविज्ञान विभाग में मनुष्य के पुनर्जन्म के मामलों को ले कर बनर्जी की झूठी-सच्ची अनुसन्धान-परियोजनाओं पर कुछ समय (लगभग अनिच्छा से कार्य करने के बाद) वह एक स्कूल में अंग्रेजी का सेकण्ड ग्रेड अध्यापक बन कर बीकानेर चले गए ! बाद में इन्होने शार्दूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टिट्यूट, बीकानेर में सहायक निदेशक पद पर (1966 से ) कार्य किया ।
बीच में 1976 में राजस्थान विश्वविद्यालय में यह डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय कुलपति के कार्यकाल में, आग्नेय जैसे मित्र की पहल पर थोडे समय उनके सचिवालय में स्थापित रिसर्च एंड रेफरेंस सैल के प्रभारी अधिकारी भी थे।
वह मन से न पूरे आस्तिक थे, न पूरे नास्तिक ! वह भीतर से ज़्यादातर नास्तिक ही थे और हर पल एक रेशनलिस्ट या तर्कवादी! गोष्ठियों में अक्सर बहती हुई वैचारिक-धारा के ठीक विपरीत वक्तव्य देना उनका शगल था... एक दौर में उन्होंने (अशोक आत्रेय के जोर देने पर) द्वारका मठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सस्वती से बाकायदा श्रीविद्या की मन्त्र दीक्षा भी ले ली थी, पर उस दिन के बाद एक सच्चे शिष्य की तरह नियमित पूजापाठ या मंत्रजाप करते उन्हें किसी ने नहीं पाया ..... इसी तरह वह विचारधारा के स्तर पर भी किसी दर्शन-विशेष के पिछलग्गू नहीं बन पाए। माक्र्सवाद के तो बिलकुल नहीं जब कि श्री भगवान सिंह जैसे कुछ लोग उन्हें कई दिन भूलवश पक्का माक्र्सवादी मानते रहे थे। आधुनिकता और परंपरा दोनों को संतुलित भार से साधते उन्होंने अपनी तरह के मौलिक आलोचक के रूप में अपने समीक्षक
ा विस्तार किया। पूर्वग्रह के सौवें आलोचना विशेषांक में छपा उनका एक आलेख बडा महत्त्वपूर्ण है जिसमें साफ शब्दों में परिमलजी का आरोप है कि समकालीन साहित्य में पारंपरिक भारतीय आलोचना-सिद्धांतों की जान बूझ कर अवहेलना करने और हिंदी-साहित्य को सिर्फ पश्चिमी साहित्यशास्त्र की कसौटियों पर कस कर देखने के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. नामवर सिंह दोनों ही सामान रूप से अपराधी हैं! उनकी स्थापना थी कि भारतीय काव्यशास्त्र- खासतौर पर वेदों में सौंदर्यशास्त्र सम्बन्धी अब तक अनदेखे ऐसे सूत्र भी नौजूद हैं जिनके आधार पर आधुनिक कलाकृतियों के मूल्यांकन तक का काम बखूबी लिया जा सकता है, हमें आलोचना में हर बार बाहरी (पश्चिमी) केनंस की जरूरत नहीं है ! अपनी इस धारणा के समर्थन में उन्होंने बाकायदा एक पुस्तक लिखीं- वैदिक सौंदर्यशास्त्र की भूमिका ।
अगर परिमलजी के व्यक्ति पर लौटें, तो कहना चाहूँगा- स्वभाव से वह चापलूस नहीं थे, न चालाक, न मौके का फायदा उठा सकने वाले अवसरवादी... उलटे वह कईं बार मुँहफट होने की सीमा तक साफगो थे, अगर किसी के प्रति किसी वजह से नाराज हो जाते, तो आसानी से अपनी राय नहीं बदलते थे, कईं बार अपनी मान्यताओं में बच्चों से भी ज्यादा जिद्दी थे, कई बार गलत होने पर भी बहस-मुबाहिसे के हित में अपनी बात पर अड जाते और फिर टस से मस न होते। जरूरत पडने पर भी कईं बार अपने क्रोध को छिपा नहीं सकते थे, मुहावरे के अर्थ में पूरी तरह कान के कच्चे न होते भी वह कई बार सुनी सुनाई बात पर सहजता से भरोसा कर लेते थे और बाद में खुद बडा पछताते, उन्हें आसानी से झाँसा दे सकना तक संभव था !
बस, एक ही घटना उल्लेख पर्याप्त होगा।
जब सन् साठ के दशक में रंग-चेतना पर हिन्दी कविताओं पर लिखा उनका एक मौलिक संग्रह रंग-धनु भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने के बाद भी किसी कारण से कुछ समय तक नहीं छपा, तो यह जान कर मणि मधुकर ने उनसे एक क्रूर मजाक किया- यह कहते हुए - परिमलजी! आजकल भारतीय ज्ञानपीठ के दिल्ली के दफ्तर में बडी भारी अव्यवस्था व्याप्त है... वहाँ कई लेखकों की पाण्डुलिपियाँ खोने की कईं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हुई हैं, आफ पास तो अपनी पुस्तक की कोई प्रति तक नहीं है, कहीं आपकी किताब भी तो उन लोगों ने कहीं गुम तो नहीं कर दी? प्रकाश परिमलजी मणि मधुकर की इस गंभीर, किन्तु सौ प्रतिशत गलत सूचना से इतने विचलित हुए कि अगले ही दिन लक्ष्मीचंद जैन को पत्र लिख कर उन्होंने अपनी पाण्डुलिपि पुस्तक प्रकाशित होने का इंतजार किए बिना ही वहाँ से वापस मँगवा ली... जहाँ ज्ञानपीठ जैसे बडे प्रकाशक को छापनी थी, वह किताब फिर दशकों तक नहीं छपी, बहुत बाद में शायद गीतकार मित्र ब्रजेश भट्ट के सुझाने पर अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद ने से उसे नए शीर्षक फिर उपस्थित रंग दे कर साल 2018 में छापा! पाँव पर कुल्हाडी नहीं, इस तरह खुद कुल्हाडी पर पाँव मारने की उनकी इस कार्रवाई से समय पर प्रसिद्धि का एक बेहतरीन अवसर भी जाता रहा। इस अजीबोगरीब घटना के लिए खुद प्रकाशजी की संदेहालु प्रवृत्ति को ही जिम्मेदार माना जा सकता है.....।
यों, लहर, वातायन, पूर्वग्रह, नवनीत (हिन्दी डाइजेस्ट), कला-प्रयोजन, रसवंती, भाषा, गगनांचल, साक्षात्कार, भारती, कल्पना, ज्ञानोदय, नया-प्रतीक, समकालीन कला, क ख ग, मधुमती, बिंदु, युग-प्रभात, संस्कृति, दीठ, राजस्थान भारती, मानदंड सहित कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ, लेख, निबंध, समीक्षाएं और समालोचना आदि प्रकाशित हुई हैं, पर एक समय बाद प्रकाशन के अपने क्रम को उन्होंने खुद ही तोड दिया। वह आलोचना में कुछ दादुरों के वक्ता बन जाने पर गुप्त रूप से बडे खिन्न रहने लगे। पत्रिकाओं को अपना लिखा भेजने में उनकी दिलचस्पी कमतर होती गयी। सारा जोर किताबें लिखने में जाने लगा।
हिन्दी परिदृश्य बडा सारा चिकना घडा है। अगर दो चार दिन भी आप कहीं छपते नहीं या अशोक वाजपेयी जैसे किसी न किसी तरह चर्चा में बने नहीं रहते हैं, तो जनस्मृति से गायब होने में भी फिर देर नहीं लगती .....उनके मामले में यही हुआ !
पर यह सच है उन्होंने समय समय पर अपने समय के कई महत्त्वपूर्ण लेखकों पर बेहतरीन और मौलिक अंतर्दृष्टि से आलोचनाएँ लिखी हैं। आलोचना-लेखन में अनावश्यक भाषाई-उलझाव और अभिव्यक्ति के जलेबीपन से उन्हें सख्त आपत्ति थी। वह कहते थे अगर किसी कृति के सम्बन्ध में आलोचक की अवधारणा उसके मस्तिष्क में साफ है, तो उसकी समीक्षा-भाषा को भी उतना ही सुबोध, अचूक, पारदर्शी और बोधगम्य होना चाहिए। उदाहरणार्थ एक बार जब नए-नए आलोचक बने मेरे मित्र भोपाल के मदन सोनी की पहली आलोचना-पुस्तक 1988 में कविता का व्योम और व्योम की कविता मेरे हाथ में देखी, तो कुछ समय तक गंभीरता से पन्ने पलटने के बाद वह मदन सोनी की रोंगटे खडे कर देने वाली उलझावपूर्ण आलोचना भाषा की दुरूहता पर कुछ बोले नहीं, बस ठहाका लगा कर खूब हँसे। मुझ से माँग कर किताब तत्काल ले गए। दूसरे दिन जब वह पुस्तक मेरे पास लौट कर आयी, तो पेन्सिल से अनगिनत जगह उन्होंने मदन सोनी की दुरूह भाषा और समझ पर गंभीर (पर मनोरंजक शैली में) अपनी आपत्तियाँ दर्ज की हुईं थीं। अधिकांश जगह आपत्तियों के वैध-कारण भी अंकित थे। वह किताब आज भी मेरे पास है और मुझे हमेशा अपनी समीक्षकीय प्रतिपत्तियाँ असंग्दिध शब्दों में दर्ज करने का पाठ सिखलाती रहती है !
उन्होंने 1966 से शायद 1979 तक राजस्थान-भारती के अलावा मानदंड, स्वायत्तशासन, दिग्दर्शक, संवत्सर, आदि कुछ गुमनाम पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। अपनी कृतियों के लिए यह इन संस्थाओं से सम्मानित हुए- कला-वृत्त संस्था, जयपुर की और से सार्वजनिक-अभिनन्दन (1982) फेस और कला-समूह पैग आर्ट ग्रुप का सम्मान (1983) तैलंग कुलम् का लाइफ-टाइम सम्मान (2011) अनुराग सेवा संस्थान का सर्वोच्च लेखक-सम्मान (2011) राजस्थान साहित्य अकादमी का अमृत-सम्मान (2013) पर यह लेखक लिख ही चुका है- ये सब अभिनन्दन और सम्मान उनकी कईं इलाकों में फैली प्रतिभा की पहचान या सम्मान के लिए बिलकुल अपर्याप्त थे। किसी साहित्यिक-गैंग या गुट का पल्ला अगर वह सही वक्त पकड लेते, तो उन्हें मिल सकने वाले सम्मानों की सूची और भारी भरकम नामों की होती। इसलिए जो समीक्षात्मक महत्त्व उनकी संख्या में इतनी सारी प्रकाशित कृतियों को मिलना चाहिए था उस पहचान से भी वह लगभग आजीवन वंचित ही रहे, इस अव्यवस्था के लिए शायद खुद परिमलजी भी उतने ही दोषी हैं। इसलिए कि आत्मविज्ञप्ति की कला उन्हें बिलकुल भी नहीं आती थी, किसी लेखकीय गिरोह के सरदार का दामन पकड कर चर्चा में आ जाना उन्हें रत्ती भर स्वीकार नहीं था, संपादकों और प्रतिष्ठानों की जी-हजूरी तो उन्हें फूटी-आँखों नहीं सुहाती थी और इस तरह पी.आर. की कला में वह पूरी तरह फेल थे।
उनका दोष यह था वह बिना विज्ञापित हुए अपना काम एकांत में करते रहे। उनका दोष यह भी था कि वह दबंग नहीं थे, सो सज्जनतावश अपनी किसी भी किताब के लिए किसी प्रकाशक से एक धेले की रौयल्टी नहीं ले सके, लिहाजा निराशा के अँधेरे परिदृश्य से पार न पा सकने की दुविधा में ज़्यादातर किताबें उन्होंने अपने निजी आर्थिक स्रोतों (बेटों या पत्नी की मदद ले कर) खुद ही छपवाईं.....
अपने संपन्न पूर्वजों के पारिवारिक-मकान को चरित्र बना कर उसके बहाने सामाजिक-पारिवारिक विखण्डन पर लिखा जा रहा एक उपन्यास लाल पत्थर की हवेली वह अधूरा छोड गए हैं - कुछ अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के अलावा, जो अब कभी पूरा नहीं हो सकेगा ! मुझे खुशी है उस लिखे जा रहे पर बीच में ही अधूरा छूट चुके
पन्यास के कुछ अंश मैंने कला-प्रयोजन में छापे थे.....। आगे एक पूरी सीरीज में यह लेखक जल्दी ही प्रकाशजी की उक्त उल्लेखित पुस्तकों पर एक विस्तृत समीक्षा लिखेगा, अभी तो ये पंक्तियाँ उनके व्यक्तिव के कुछ हिस्सों का आधा अधूरा-सा स्मृति-लेख भर हैं ।
मुझे खुशी यह भी है- भले परिमलजी जैसे रचनाकार आजीवन हमारी भाषा की लेखकीय राजनीति और उपेक्षा-भाव का आसान शिकार रहे हों, लेकिन लेखन में उनकी अपनी मौलिक चमक, अदम्य जिजीविषा के अलावा बौद्धिक-स्वायत्तता की उनकी ठसक और उन के स्वातंत्र्य-भाव का आदर करते हुए मैंने और अशोक आत्रेय ने वक्त-बेवक्त उनके श्रोता होने का सबूत दिया- जिसकी आत्मिक जरूरत उन्हें चिरकाल से थी ! उनके लिए यह सुकून और संतोष का सबब था कि हम लोग उनकी साहित्यिक-वाग्मिता की अदम्य तडप को समझते थे और कईं असहमतियों के बावजूद उन्हें धीरज से सुनते थे। हमें लगा अस्सी पार पहुँचते हुए गुमनाम हो चुके एक लेखक के लिए कई बार जबानी जमा-खर्च का यह नुस्खा भी बडा उत्साहजनक साबित होता है।
अशोक आत्रेय ने उस बगीचे के नियमित तीन लेखकों- प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय और हेमंत शेष की प्लास्टिक की उन तीन लाल कुर्सियों की याद में, जिन पर हम कभी बैठते थे- कालांतर में एक फिल्म-प्रोडक्शन शुरू किया- थ्री चेयर्स - जिसके बैनर पर कई टेलीफिल्में उन्होंने घर फूँक कर तमाशा देखने वाली शैली में निर्मित कीं .....इनमें से आधे घन्टे की एक पूरी फिल्म परिमलजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर ही एकाग्र थी - याद नहीं आ रहा, फिर उपस्थित रंग या शायद ऐसा ही कुछ शीर्षक रहा होगा उसका। काश! कुछ और लोग उस फिल्म को नए सिरे से देख पाते.....। अब जब परिमलजी लौट कर कभी वापस न आने के लिए बहुत दूर जा चुके हैं, अशोक आत्रेय पहले ही की तरह बार-बार स्वीकारते हैं- आधुनिक-कहानी को कांसेप्ट के स्तर पर समझने और उसे नयेपन से लिखने में प्रकाशजी से हुई लम्बी बहसों का सबसे बडा हाथ है! मैंने भी अनेक अवसरों पर कहा है- मेरी कई कविताओं के पहले सहानुभूत श्रोता या पाठक परिमलजी ही थे.....। मुझे याद है, जब मैंने आधुनिक-कला पर लिखी अपनी पूरी किताब एक ही लम्बी बैठक में उन्हें सुना दी थी और वह लगातार आठ घन्टे बिना थके, रुचि से उसे सुनते चले गए थे ।
अपार धीरज वाले ऐसे साहित्यकारों का निर्माण करना अब ईश्वर के कारखाने ने बंद कर दिया है .....
विस्मृति के काले स्याह परदे में डूब जाने से पहले तक एक समय उनकी रचनाओं की विविधता जैसा ही उनका अक्षुण्ण स्मृति-कोष भी था। बीकानेर की चायपट्टी, अपने दो मामाओं भाटी-महाराज और ढून्ढ महाराज की विलक्षणताओं, वातायन के दफ्तर की हलचलों, गोस्वामी चौक के कुछेक खास चरित्रों, नंदकिशोर आचार्य की (अज्ञेयजी सहित अन्यों की कविताओं को याद रखने की) स्मरण-शक्ति, एयरफोर्स में काम करने वाले अपने एक पक्के दोस्त पंजाबी कवि प्रकाश प्रभाकर, बीकानेर के कुछ पुष्करणा-ब्राह्मणों की सदाबहार राजनीति, हरीश भादानी की उदारताएं या फिजूलखर्ची, होली पर आयोजित रम्मतों, भू ऋषि भवन में निवास, जज लीलाधर स्वामी के साथ की गयी यात्राओं आदि की याद भी उन्हें आती थी- इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवंश, गुजराती भाषाशास्त्री डॉ.हरिवल्लभ भायाणी, कला-मर्मज्ञ रायकृष्ण दास, महाराजा गंगासिंह, चित्रकार हुसेन, अज्ञेयजी, और रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा लिखने वाले बीकानेर के ही के एक सुराप्रेमी कवि से सम्बद्ध कई संस्मरण भी उनके मन की पाटी पर साफ-साफ अंकित थे। अगर उनके संस्मरणों में बीकानेर की पुरानी यादों का कभी न उठने वाला काफिला होता तो कभी कलकत्ते या इलाहाबाद की किसी अखिल भारतीय संगोष्ठी में पढे गए अपने किसी पर्चे की याद !
कईं बार अन्यों द्वारा उनके किए-धरे की अक्सर की गयी उपेक्षा पर अफसोस की एक विषादात्मक छाया भी होती थी, अपने अचेतन में गहरे खुबे इस मार्मिक सत्य को लेकर व्यथा-सी भी कि हिंदी साहित्य ही नहीं, राजस्थान, यहाँ तक बीकानेर- खुद उनका शहर भी उन्हें और उनके साहित्यिक-अवदान को देखते-देखते भूल गया है, इसीलिए वह मजबूरी में, खुद कई बार सगर्व, कुछ-कुछ आत्म-स्तवनवादी लहजे में अपनी भूतपूर्व सांस्कृतिक उपलब्धियों की याद हम लोगों को अक्सर दिला दिया करते थे.....। मैं अक्सर उनसे कहता था- आप भूल क्यों जाते हैं, हिंदी की याददाश्त बडी कमजोर है, पर उसकी पाचन-शक्ति बेमिसाल !
भूलने की बीमारी ने जब उन्हें पूरी तरह अपने शिकंजों में कस लिया और पुराने दिनों की यादें परिमलजी के दिमाग से दूर होती चली गयीं, फिर हमने फिर कभी उन्हें अतीत की गलियों में दुबारा लौटते नहीं देखा.....यह एक वाचाल आदमी के मौन की अनंत घाटी में बेआवाज प्रवेश करने जैसी दुखान्तिका थी, मृत्यु से पहले उन्हें न अपना लिखा एक शब्द याद रहा न अपने पुराने दिन.....न कोई भी संस्मरण न लोगों के नाम और न चेहरे। एल्जाइमर के कारण हर याद को भूल जाना उनकी चौरासी साला संघर्षशील जिन्दगी का दुखांततम पटाक्षेप था।
पर स्मृतिहीनता में मरने से पहले उनका अपना एक निजी जीवन भी था- विलक्षण, लगभग एकाकी और प्रायः उपेक्षित, जिस देह को हम कुछ लोग अगस्त की एक सुबह जयपुर के मधुवन श्मशान में बिना बोले फूँ कआए।
उन्हें चिता अग्नि में निस्पंद लेटे देख कर मुझे याद आया - आग को समर्पित ऋग्वेद का पहला मन्त्र, जो संसार की सब से पहली कविता की सबसे पहले उच्चरित पंक्ति भी है।
अग्निशिखाओं में भस्म होने में प्रकाश परिमलजी की कृश काया को बहुत देर नहीं लगी - ठीक वैसे ही जैसी हमारे कृतघ्न हिंदी-समाज ने उन्हें या उनके अवदान को भुलाने में नहीं लगाई !
सवाल यह है- हमें इस भूल के लिए आखिर क्षमा कौन करेगा? कैसे और कब ??
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सम्पर्क - 40/158, स्वर्ण पथ
मानसरोवर जयपुर 302020