संवाद निरन्तर
प्रिय भाई जोशीजी,
बहुत लंबे से मधुमती का पाठक रहा हूँ। उसमें जब-तब लिखता भी रहा हूँ। इतने लंबे कालखण्ड में स्वाभाविक ही, पत्रिका में काफी बदलाव भी आए हैं। पर उसकी मूलधारा और भावना अक्षत रही। शायद इसीलिए मधुमती का साथ हमेशा प्रीतिकर ही रहा है। और इधर ढाई वर्षों से तो वह ऐसी जरूरी पत्रिका बन गई है, जिसे पढे बिना एक खला-सा महसूस होता है। वह मन और अंतःकरण से जुडी पत्रिका बन गई है।
असल में हिंदी में कुछ पत्रिकाएँ सिर्फ पत्रिकाएँ नहीं, वे खुद में एक सतत् परंपरा भी हैं। मधुमती की मैं उन्हीं में गणना करता हूँ। उसमें साहित्य के साथ-साथ भारतीय कलाओं और ज्ञान-परंपरा का रस है, तो साथ ही राजस्थान की माटी की अपनी एक अलग सांस्कृतिक महक भी। और यह त्रिवेणी ही मधुमती को एक ऐसी विशिष्ट पत्रिका भी बनाती है, जिसके हर नए अंक की प्रतीक्षा रहती है। हर अंक में कुछ ऐसा रुचिकर और विचारोत्तेजक मिलता भी है, जो पढने के बाद साथ रहता है और कहीं भीतर से समृद्ध भी करता है।
खासकर इधर के अंकों में इसका गुरुत्व और रस बढा है। और पत्रिका की साठ बरस लंबी गौरव-यात्रा को सहेजकर आगे बढने का निष्ठापूर्ण जतन भी। इस लिहाज से आफ कई संपादकीय याद आते हैं, जो मधुमती की साठ बरस लंबी गौरव-यात्रा की स्मृति को सहेजे हुए हैं, साथ ही भारतीय साहित्य और चिंतन की खुली, उदार बहुलतावादी दृष्टि को भी। मधुमती पूरे साहित्य जगत की पत्रिका है। पर उसमें राजस्थान की साहित्यिक, सांस्कृतिक चेतना की एक निराली तान हमेशा रही है, अपने पूरे देशज रूप और खाँटीपन के साथ, और यह मुझे काफी प्रिय लगती है। कहना चाहिए, जिस जमीन से उपजी है मधुमती उसका स्पर्श, रस, गंध उसमें व्याप्त है, और यह बेशक उसे एक अलग और मौलिक पहचान भी देती है।
इसी तरह मधुमती के लेख हमेशा ध्यान आकर्षित करते हैं और पढने के बाद भी जब-तब भीतर कुरेदते रहते हैं। अभी ताजा अंक (अक्तूबर, 2021) में आनंद कुमारस्वामी पर बृजेंद्र पांडेय का लेख ऐसा ही है, जिसे मैंने बहुत रुचिपूर्वक पढा। भारत के मूर्धन्य कला-चिंतक और विचारक आनंद कुमारस्वामी के व्यक्तित्व और कामों को बृजेंद्र भाई का इतने अच्छे ढंग से प्रस्तुत करता है कि इसे भूल पाना मुश्किल है। आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय कला-चिंतन के मर्म के साथ भारत और भारतीयता की जो मौलिक और चुनौती भरी व्याख्या की, उससे विश्व मानस में भारत की एक अलग और सम्माननीय तसवीर बनी। भारत की सनातन परंपराओं के गौरव की पहचान करने वाले आनंद कुमारस्वामी ने तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड में शामिल होने और स्व के परित्याग को जिस तरह प्रगति नहीं, विकृति के रूप में देखा, उसे बरसों बाद आज हम सभी महसूस करते हैं। पर आनंद कुमारस्वामी ने कई दशकों पहले यह देख लिया था और उतने ही साफ और निर्भ*ांत शब्दों में उसे कहा भी। बृजेंद्र पांडेय अपने लेख में आनंद कुमारस्वामी की मार्मिक जीवन-कथा, व्यक्तित्व और चिंतन सरणियों के साथ ही हमें स्वयं उनसे रू-ब-रू होने का सुख देते हैं और मैं समझता हूँ, यह बडी बात है।
पिछले कुछ अंकों में रुचिपूर्वक पढे लेखों को याद करूँ तो निर्मल वर्मा के भारतबोध पर लिखा गया अंबिकादत्त शर्मा का लेख भी मुझे एकदम अलग-सा लगा। ऐसा लेख, जो बडे सहज ढंग से उनके चिंतन की उन बारीकियों और विशेषताओँ की ओर इंगित करता है, जो निर्मल वर्मा को निर्मल वर्मा बनाती हैं।
समर्थ कवयित्री अनामिका पर दिविक रमेश जी का लेख अनामिका जी की कविताओं के मर्म और शख्सिसत को बडे सहज ढंग से खोलता है। नंदकिशोर नवल पर वेंकटेश कुमार का लेख उनके व्यक्तित्व के बहुत से अज्ञात या कम ज्ञात पहलुओं को उजागर करता है।
ऐसे ही गिरधर राठी जी की पुस्तकों कविता का फिलहाल और सोच-विचार पर कश्मीर उप्पल ने बडी आत्मीयता के साथ लिखा है। जयप्रकाश मानस की डायरी के पन्ने पठनीय हैं, अर्थपूर्ण भी। अगर कविताओं की बात करूँ, तो पिछले कुछ अंकों में पढी कविताओं में नंदकिशोर आचार्य और राजुला शाह की सघन और कुछ-कुछ अंतर्मुखी कविताएँ दिल में जगह बनाती हैं। हरीश भादानी जी की मैंने नहीं कल ने बुलाया है एक बडे विजन की बडी कविता है जो थोडे से शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। संदीप निर्भय का नाम मैंने पहली बार ही सुना है। पर मधुमती में ही पढी उनकी मुसलमानों की गली और हलफनामा कविताएँ मुझे अच्छी लगीं, जो देर तक स्मृति में रहेंगी। लाल्टू द्वारा अनूदित शक्ति चट्टोपाध्याय, मौसुमी भौमिक और नवारुण भट्टाचार्य की बंग्ला कविताओं की भी मन में बडी गहरी छाप है और रहेगी।
***
साहित्य के अलावा कलाओं पर जाने वाली सामग्री भी मधुमती को कुछ अधिक व्यापक फलक देती है। इस लिहाज से कई लेख और संस्मरण याद आ रहे हैं। खासकर रंगकर्मी रामगोपाल बजाज पर प्रयाग शुक्लजी का संस्मरण आत्मीयता से सराबोर कर देने वाला है। ऐसे ही सुरेखा सिकरी सरीखी अपने ढंग की विलक्षण अभिनेत्री पर पर हेमा सिंह ने बहुत अपनत्व के साथ लिखा है और उनकी अभिनय क्षमता के साथ-साथ एक कलाकार की खुद्दारी और सतर्क दृष्टि से भी पाठकों को काफी कुछ परचा दिया है।
विश्वनाथ सचदेव का आत्म-संस्मरण यादों के गलियारे, चवन्नी मतलब... भी मुझे खासा दिलचस्प लगा। उनके संस्मरण में बीकानेर की पुरानी यादों की महक है। साहित्यालोक और वातायन सरीखी संस्थाओं तथा यादवेंद्र शर्मा चंद्र, हरीश भादानी और मंगल सक्सेना सरीखी साहित्यिक शख्सियतों का उन्होंने बहुत प्यार से स्मरण किया है, और अपनी साहित्य-यात्रा के शुरुआती चरण का भी, जब खासी झिझक के साथ वे कविताएँ पढते थे, लेकिन होते-होते उनमें उत्साह भी आया और आत्मविश्वास भी।
इसी तरह मधुमती के अंकों में निरंतर राजस्थान की साहित्य, कला, पत्रकारिता और नाट्य परंपरा का रस मिलता है, तो वहाँ की लोक संस्कृति की सुवास भी। समय-समय पर राजस्थान की दार्शनिक चिंतनधारा और साहित्यिक शख्सियतों से रू-ब-रू करवाने के लिए भी हमें पत्रिका का कृतज्ञ होना पडता है। मधुमती के पिछले अंकों में सुप्रसिद्ध दार्शनिक चिंतक यशदेव शल्यजी पर रमेशचंद्र शाह का बहुत प्रीतिकर संस्मरणात्मक लेख पढा था, जिसकी स्मृति मन में बसी हुई है। शल्यजी पर ईश्वर सिंह दोस्त, कमलनयन, सुधांशु शेखर और आलोक टण्डन के लेख भी उनकी दार्शनिक शख्सियत और चिंतन पद्धति से परचाने वाले हैं। प्रकाश आतुर जी पर ज्योति वर्मा का लेख भी भूलता नहीं है।
ऐसे ही अपने ढंग के विशिष्ट सृजनकर्मी डा. श्रीलाल मोहता पर दीपचंद साँखला, सी.पी. देवल, कैलाश भरद्वाज और निर्मला दोषी के आत्मीय संस्मरणात्मक लेख और ईशमधु तलवार पर कृष्ण कल्पित का स्मति लेख मन में उनकी कुछ अलग सी छवि उकेर देते हैं।
मुझे खुशी है कि इधर मधुमती का एक जुदा व्यक्तित्व सामने आ रहा है, जिसमें वैचारिक गुरुत्व है, तो रस, आस्वाद और पठनीयता भी। एक वाक्य में कहूँ तो भाई जोशी जी, आपकी मेहनत और दृष्टि पत्रिका के हर पन्ने से झाँकती नजर आती है। इस कोरोना-काल में भी आप पत्रिका को निरंतरता के साथ, बडे गरिमामय ढंग से निकाल पा रहे हैं, यह बडी बात है।...
आशा है, स्वस्थ-सानंद हैं।
बहुत-बहुत स्नेह और शुभकामनाओं सहित,
प्रकाश मनु
ईमेल-prakashmanu333@gmail.com
बहुत लंबे से मधुमती का पाठक रहा हूँ। उसमें जब-तब लिखता भी रहा हूँ। इतने लंबे कालखण्ड में स्वाभाविक ही, पत्रिका में काफी बदलाव भी आए हैं। पर उसकी मूलधारा और भावना अक्षत रही। शायद इसीलिए मधुमती का साथ हमेशा प्रीतिकर ही रहा है। और इधर ढाई वर्षों से तो वह ऐसी जरूरी पत्रिका बन गई है, जिसे पढे बिना एक खला-सा महसूस होता है। वह मन और अंतःकरण से जुडी पत्रिका बन गई है।
असल में हिंदी में कुछ पत्रिकाएँ सिर्फ पत्रिकाएँ नहीं, वे खुद में एक सतत् परंपरा भी हैं। मधुमती की मैं उन्हीं में गणना करता हूँ। उसमें साहित्य के साथ-साथ भारतीय कलाओं और ज्ञान-परंपरा का रस है, तो साथ ही राजस्थान की माटी की अपनी एक अलग सांस्कृतिक महक भी। और यह त्रिवेणी ही मधुमती को एक ऐसी विशिष्ट पत्रिका भी बनाती है, जिसके हर नए अंक की प्रतीक्षा रहती है। हर अंक में कुछ ऐसा रुचिकर और विचारोत्तेजक मिलता भी है, जो पढने के बाद साथ रहता है और कहीं भीतर से समृद्ध भी करता है।
खासकर इधर के अंकों में इसका गुरुत्व और रस बढा है। और पत्रिका की साठ बरस लंबी गौरव-यात्रा को सहेजकर आगे बढने का निष्ठापूर्ण जतन भी। इस लिहाज से आफ कई संपादकीय याद आते हैं, जो मधुमती की साठ बरस लंबी गौरव-यात्रा की स्मृति को सहेजे हुए हैं, साथ ही भारतीय साहित्य और चिंतन की खुली, उदार बहुलतावादी दृष्टि को भी। मधुमती पूरे साहित्य जगत की पत्रिका है। पर उसमें राजस्थान की साहित्यिक, सांस्कृतिक चेतना की एक निराली तान हमेशा रही है, अपने पूरे देशज रूप और खाँटीपन के साथ, और यह मुझे काफी प्रिय लगती है। कहना चाहिए, जिस जमीन से उपजी है मधुमती उसका स्पर्श, रस, गंध उसमें व्याप्त है, और यह बेशक उसे एक अलग और मौलिक पहचान भी देती है।
इसी तरह मधुमती के लेख हमेशा ध्यान आकर्षित करते हैं और पढने के बाद भी जब-तब भीतर कुरेदते रहते हैं। अभी ताजा अंक (अक्तूबर, 2021) में आनंद कुमारस्वामी पर बृजेंद्र पांडेय का लेख ऐसा ही है, जिसे मैंने बहुत रुचिपूर्वक पढा। भारत के मूर्धन्य कला-चिंतक और विचारक आनंद कुमारस्वामी के व्यक्तित्व और कामों को बृजेंद्र भाई का इतने अच्छे ढंग से प्रस्तुत करता है कि इसे भूल पाना मुश्किल है। आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय कला-चिंतन के मर्म के साथ भारत और भारतीयता की जो मौलिक और चुनौती भरी व्याख्या की, उससे विश्व मानस में भारत की एक अलग और सम्माननीय तसवीर बनी। भारत की सनातन परंपराओं के गौरव की पहचान करने वाले आनंद कुमारस्वामी ने तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड में शामिल होने और स्व के परित्याग को जिस तरह प्रगति नहीं, विकृति के रूप में देखा, उसे बरसों बाद आज हम सभी महसूस करते हैं। पर आनंद कुमारस्वामी ने कई दशकों पहले यह देख लिया था और उतने ही साफ और निर्भ*ांत शब्दों में उसे कहा भी। बृजेंद्र पांडेय अपने लेख में आनंद कुमारस्वामी की मार्मिक जीवन-कथा, व्यक्तित्व और चिंतन सरणियों के साथ ही हमें स्वयं उनसे रू-ब-रू होने का सुख देते हैं और मैं समझता हूँ, यह बडी बात है।
पिछले कुछ अंकों में रुचिपूर्वक पढे लेखों को याद करूँ तो निर्मल वर्मा के भारतबोध पर लिखा गया अंबिकादत्त शर्मा का लेख भी मुझे एकदम अलग-सा लगा। ऐसा लेख, जो बडे सहज ढंग से उनके चिंतन की उन बारीकियों और विशेषताओँ की ओर इंगित करता है, जो निर्मल वर्मा को निर्मल वर्मा बनाती हैं।
समर्थ कवयित्री अनामिका पर दिविक रमेश जी का लेख अनामिका जी की कविताओं के मर्म और शख्सिसत को बडे सहज ढंग से खोलता है। नंदकिशोर नवल पर वेंकटेश कुमार का लेख उनके व्यक्तित्व के बहुत से अज्ञात या कम ज्ञात पहलुओं को उजागर करता है।
ऐसे ही गिरधर राठी जी की पुस्तकों कविता का फिलहाल और सोच-विचार पर कश्मीर उप्पल ने बडी आत्मीयता के साथ लिखा है। जयप्रकाश मानस की डायरी के पन्ने पठनीय हैं, अर्थपूर्ण भी। अगर कविताओं की बात करूँ, तो पिछले कुछ अंकों में पढी कविताओं में नंदकिशोर आचार्य और राजुला शाह की सघन और कुछ-कुछ अंतर्मुखी कविताएँ दिल में जगह बनाती हैं। हरीश भादानी जी की मैंने नहीं कल ने बुलाया है एक बडे विजन की बडी कविता है जो थोडे से शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। संदीप निर्भय का नाम मैंने पहली बार ही सुना है। पर मधुमती में ही पढी उनकी मुसलमानों की गली और हलफनामा कविताएँ मुझे अच्छी लगीं, जो देर तक स्मृति में रहेंगी। लाल्टू द्वारा अनूदित शक्ति चट्टोपाध्याय, मौसुमी भौमिक और नवारुण भट्टाचार्य की बंग्ला कविताओं की भी मन में बडी गहरी छाप है और रहेगी।
***
साहित्य के अलावा कलाओं पर जाने वाली सामग्री भी मधुमती को कुछ अधिक व्यापक फलक देती है। इस लिहाज से कई लेख और संस्मरण याद आ रहे हैं। खासकर रंगकर्मी रामगोपाल बजाज पर प्रयाग शुक्लजी का संस्मरण आत्मीयता से सराबोर कर देने वाला है। ऐसे ही सुरेखा सिकरी सरीखी अपने ढंग की विलक्षण अभिनेत्री पर पर हेमा सिंह ने बहुत अपनत्व के साथ लिखा है और उनकी अभिनय क्षमता के साथ-साथ एक कलाकार की खुद्दारी और सतर्क दृष्टि से भी पाठकों को काफी कुछ परचा दिया है।
विश्वनाथ सचदेव का आत्म-संस्मरण यादों के गलियारे, चवन्नी मतलब... भी मुझे खासा दिलचस्प लगा। उनके संस्मरण में बीकानेर की पुरानी यादों की महक है। साहित्यालोक और वातायन सरीखी संस्थाओं तथा यादवेंद्र शर्मा चंद्र, हरीश भादानी और मंगल सक्सेना सरीखी साहित्यिक शख्सियतों का उन्होंने बहुत प्यार से स्मरण किया है, और अपनी साहित्य-यात्रा के शुरुआती चरण का भी, जब खासी झिझक के साथ वे कविताएँ पढते थे, लेकिन होते-होते उनमें उत्साह भी आया और आत्मविश्वास भी।
इसी तरह मधुमती के अंकों में निरंतर राजस्थान की साहित्य, कला, पत्रकारिता और नाट्य परंपरा का रस मिलता है, तो वहाँ की लोक संस्कृति की सुवास भी। समय-समय पर राजस्थान की दार्शनिक चिंतनधारा और साहित्यिक शख्सियतों से रू-ब-रू करवाने के लिए भी हमें पत्रिका का कृतज्ञ होना पडता है। मधुमती के पिछले अंकों में सुप्रसिद्ध दार्शनिक चिंतक यशदेव शल्यजी पर रमेशचंद्र शाह का बहुत प्रीतिकर संस्मरणात्मक लेख पढा था, जिसकी स्मृति मन में बसी हुई है। शल्यजी पर ईश्वर सिंह दोस्त, कमलनयन, सुधांशु शेखर और आलोक टण्डन के लेख भी उनकी दार्शनिक शख्सियत और चिंतन पद्धति से परचाने वाले हैं। प्रकाश आतुर जी पर ज्योति वर्मा का लेख भी भूलता नहीं है।
ऐसे ही अपने ढंग के विशिष्ट सृजनकर्मी डा. श्रीलाल मोहता पर दीपचंद साँखला, सी.पी. देवल, कैलाश भरद्वाज और निर्मला दोषी के आत्मीय संस्मरणात्मक लेख और ईशमधु तलवार पर कृष्ण कल्पित का स्मति लेख मन में उनकी कुछ अलग सी छवि उकेर देते हैं।
मुझे खुशी है कि इधर मधुमती का एक जुदा व्यक्तित्व सामने आ रहा है, जिसमें वैचारिक गुरुत्व है, तो रस, आस्वाद और पठनीयता भी। एक वाक्य में कहूँ तो भाई जोशी जी, आपकी मेहनत और दृष्टि पत्रिका के हर पन्ने से झाँकती नजर आती है। इस कोरोना-काल में भी आप पत्रिका को निरंतरता के साथ, बडे गरिमामय ढंग से निकाल पा रहे हैं, यह बडी बात है।...
आशा है, स्वस्थ-सानंद हैं।
बहुत-बहुत स्नेह और शुभकामनाओं सहित,
प्रकाश मनु
ईमेल-prakashmanu333@gmail.com