आरती श्रीवास्तव कविताएँ
आरती श्रीवास्तव
1.
अभी तो
बाकी है भोर से पहले उठकर
बगीचे में छन कर आती चाँदनी में
अनामिका के माणिक को झलकते हुए निरखना,
रातरानी की डोली में भीनी-सी गुजरती
सात बहनों की सवारी की आहट पर
हाथ जोड लेना
अभी तो टोक देना है
एक रहस्यमयी-सी दैवीय सुगंध को
एक छम-सी निःश्वांस सा बहने को
मुट्ठी भर रोक लेना है धूम के साये को
जिसके भीते
माँ ने हींग,काजल, काले डोरे
और कितनी ही ताबीजें बाँध रखीं हैं
अभी तो,
खूब मोटी-सी घुंघरुओं से गूँथी
पाजेब पहने,
महल के सबसे ऊँचे मंडप में
देर रात गोपिका बसंत की किसी
धुन पर थिरकना है,
हंसनी है
एक उन्मुक्त हँसी
जो कानों में घुलती हुई
उसकी किसी बात पर उठी
और होठों तले दबी-सी ही रह गयी
गुजरना है
कभी उस रास्ते से
जिधर से अनगिन लिप्साएँ हर दिन
भटक आती हैं,
खींच लेनी है
कभी, साँस से देह की सिलवटें,
और फिर धडकनों में एक अपना-
सा स्वर खोजना है,
देखना है
देर तक उस ओर
जहाँ एक प्रतीक्षा की प्रतिबद्धता
ठहरी अभी भी हुई है,
अभी तो
टूट जाना है
बंध की अंतिम ग्रंथि पर
उसकी परछाईं का भ्रम लिए
किसी पेड की छाया तले,
और फिर
खूब भर कर बरस जाना है
2.
नीरवता की महादशा में भी
श्रुतिफलों की गाँठ फली है
झिडकियों पर मोह फला है ,
प्रतिकार पर विनती ...
बोलो ..फली है कि नहीं !
प्रतीक्षा पर समय फलित होता गया,
न तो काल की बिसात ही क्या थी !
गणनाहीन !
आतुरता की माटी पर अश्रु फले हैं,
संतोष की आँच पर पूर्णाहुति ..
विष भर खीर में अमरफल फले हैं,
और, जूठी बेरों के बीज में संजीवनी,
बोलो.. फली है कि नहीं !
3.
हम...
किसी निषेध में भटकती हुई
आत्मस्वीकृतियाँ हैं,
साहस के शास्त्र पर धरी हुई
संवेदना की शपथ हैं,
हमारे धैर्य के सूत्र में
पुरखों की आत्माएँ बंधीं हैं
हमारी हँसी
आने वाली पीढियों की फली बेल है,
और हमारा मौन ...एक अंधलोक है
जिसमें हमने अपनी मुक्ति की चाभी
उछाल कर खो दी है ।
4.
धुँए में चेहरा बनाती हुई उँगलियाँ
आँच खोजती हुई आसमान टटोलने लगती हैं...
पैर,ओस भर घास पर फिरते हुए
शिखर से पिघली हिमानी में धुलने लगते हैं
आँखें सामने दीवार पर लगी
किसी कील की ओर देखती हैं
और दीवार के बल अनुप्रस्थ कमरे में
खाली कोने खिडकियों से नीचे गिर पडते हैं
ताल के पानी में भरा चाँद उडेले
जंगल के अशोक दहकते हैं रोशनी से
हवा लौटती है जमीन में और नमी लिए
भीतर ही भीतर रेगिस्तान चली जाती है
गहरे लाल समंदर के सीने पर लेटे हुए
धरती की पीठ चमकीली हो उठती है
और वहीं कहीं क्षैतिज
हृदय के मध्य में
अग्नि की नदियाँ प्रवाहित हो उठती हैं।
5.
मदार की बेदी पर श्वेत चंदन लीपे,
नीलपुष्प की आँजुरी ढलकती है,
नवपल्लवों की आरुणी,
बौर भर गंध पर बैठे बहकती है,
छंद की थाप बंधी,
पलाश कली,
झर-झर झरती है गीत पर ...
और गिरती है अवरोह की
इक तिरती-सी धुन
जिसकी पंक्तियाँ,
भरे कण्ठ में डूब गई हैं
सम्पर्क - मडया,
दुर्गावती अस्पताल के पास,
खलीलाबाद,
संत कबीर नगर, २७२१७५ (उ.प्र)
अभी तो
बाकी है भोर से पहले उठकर
बगीचे में छन कर आती चाँदनी में
अनामिका के माणिक को झलकते हुए निरखना,
रातरानी की डोली में भीनी-सी गुजरती
सात बहनों की सवारी की आहट पर
हाथ जोड लेना
अभी तो टोक देना है
एक रहस्यमयी-सी दैवीय सुगंध को
एक छम-सी निःश्वांस सा बहने को
मुट्ठी भर रोक लेना है धूम के साये को
जिसके भीते
माँ ने हींग,काजल, काले डोरे
और कितनी ही ताबीजें बाँध रखीं हैं
अभी तो,
खूब मोटी-सी घुंघरुओं से गूँथी
पाजेब पहने,
महल के सबसे ऊँचे मंडप में
देर रात गोपिका बसंत की किसी
धुन पर थिरकना है,
हंसनी है
एक उन्मुक्त हँसी
जो कानों में घुलती हुई
उसकी किसी बात पर उठी
और होठों तले दबी-सी ही रह गयी
गुजरना है
कभी उस रास्ते से
जिधर से अनगिन लिप्साएँ हर दिन
भटक आती हैं,
खींच लेनी है
कभी, साँस से देह की सिलवटें,
और फिर धडकनों में एक अपना-
सा स्वर खोजना है,
देखना है
देर तक उस ओर
जहाँ एक प्रतीक्षा की प्रतिबद्धता
ठहरी अभी भी हुई है,
अभी तो
टूट जाना है
बंध की अंतिम ग्रंथि पर
उसकी परछाईं का भ्रम लिए
किसी पेड की छाया तले,
और फिर
खूब भर कर बरस जाना है
2.
नीरवता की महादशा में भी
श्रुतिफलों की गाँठ फली है
झिडकियों पर मोह फला है ,
प्रतिकार पर विनती ...
बोलो ..फली है कि नहीं !
प्रतीक्षा पर समय फलित होता गया,
न तो काल की बिसात ही क्या थी !
गणनाहीन !
आतुरता की माटी पर अश्रु फले हैं,
संतोष की आँच पर पूर्णाहुति ..
विष भर खीर में अमरफल फले हैं,
और, जूठी बेरों के बीज में संजीवनी,
बोलो.. फली है कि नहीं !
3.
हम...
किसी निषेध में भटकती हुई
आत्मस्वीकृतियाँ हैं,
साहस के शास्त्र पर धरी हुई
संवेदना की शपथ हैं,
हमारे धैर्य के सूत्र में
पुरखों की आत्माएँ बंधीं हैं
हमारी हँसी
आने वाली पीढियों की फली बेल है,
और हमारा मौन ...एक अंधलोक है
जिसमें हमने अपनी मुक्ति की चाभी
उछाल कर खो दी है ।
4.
धुँए में चेहरा बनाती हुई उँगलियाँ
आँच खोजती हुई आसमान टटोलने लगती हैं...
पैर,ओस भर घास पर फिरते हुए
शिखर से पिघली हिमानी में धुलने लगते हैं
आँखें सामने दीवार पर लगी
किसी कील की ओर देखती हैं
और दीवार के बल अनुप्रस्थ कमरे में
खाली कोने खिडकियों से नीचे गिर पडते हैं
ताल के पानी में भरा चाँद उडेले
जंगल के अशोक दहकते हैं रोशनी से
हवा लौटती है जमीन में और नमी लिए
भीतर ही भीतर रेगिस्तान चली जाती है
गहरे लाल समंदर के सीने पर लेटे हुए
धरती की पीठ चमकीली हो उठती है
और वहीं कहीं क्षैतिज
हृदय के मध्य में
अग्नि की नदियाँ प्रवाहित हो उठती हैं।
5.
मदार की बेदी पर श्वेत चंदन लीपे,
नीलपुष्प की आँजुरी ढलकती है,
नवपल्लवों की आरुणी,
बौर भर गंध पर बैठे बहकती है,
छंद की थाप बंधी,
पलाश कली,
झर-झर झरती है गीत पर ...
और गिरती है अवरोह की
इक तिरती-सी धुन
जिसकी पंक्तियाँ,
भरे कण्ठ में डूब गई हैं
सम्पर्क - मडया,
दुर्गावती अस्पताल के पास,
खलीलाबाद,
संत कबीर नगर, २७२१७५ (उ.प्र)