अविनाश मिश्र की कविता
अविनाश मिश्र
दिन
उषा
कितना जानता हूँ मैं सुबह को
सुबह को जिसने उतरते नहीं देखा
हर-हर हरियाली पर
बहुत-बहुत बर्फ पर
तल-अतल जल पर
जिसने हर सुबह को छोड दिया कल पर!
कल मेरे बहुत करीब है
सुबह उतनी नहीं है।
मध्यमा
कौन-सी दुपहर चाहता हूँ मैं
वह जिसमें कुछ भी नहीं
तय
या जिसमें नींद ही नींद है
जागकर जो जान नहीं पाती
समय
लगता है कुछ खो गया जिसे यों
बहुत कामनाविमुख
बगैर चादर और तकिये के
जमीन पर गिरी हुई देह-सी
दुपहर
तारों की नहीं
दुपहर की ही प्रतीक्षा करती
हुई
दुपहर
एक लडकी जो प्रेमियों पर यकीन खो चुकी
धोखा दे चुकी
खुद को
तुम्हें नहीं।
संध्या
मैं बीयर पीऊँ और वह ठण्डी हो
मैं पढूँ शमशेर को और कोई
आलोचना न हो
दरवाजे पर कोई दस्तक न
हो
दस्तक देने वाले सुखी रहें
दूर-दूर तक कोई बीमार न
हो
वर्षा हो, पर भय न हो
मैं जो खीरा काटूँ वह कडवा न हो
खीर ज्यादा मीठी न हो
सब समाचार मनसायन हों
टमाटर ज्यादा महँगे न मिलें
माँस में स्वाद बना रहे
और शाकाहार में विश्वास।
निशा
एक हाथ से छुपाया है उसने
गए दिन को
एक हाथ से आगामी को
और हाथ नहीं हैं उसके
इसलिए खुली हुई है
यह रात
सिर्फ अपनी नहीं है
इसमें हैं सबकी रातें
यों यह रात कहीं-कहीं रात
नहीं है
जहाँ से भी छुओ
एक नया समय देती है
नष्टचंद्र नष्टनीड नष्टनींद है
तो क्या
पूछती है स्वप्न को
क्या वहीं से हो सकता है
शुरू
जहाँ से टूटा था?
***
सम्पर्क -171, गिरधर एंक्लेव,
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
उत्तर प्रदेश
मो.-9818791434
ई-मेल : darasaldelhi@gmail.com
उषा
कितना जानता हूँ मैं सुबह को
सुबह को जिसने उतरते नहीं देखा
हर-हर हरियाली पर
बहुत-बहुत बर्फ पर
तल-अतल जल पर
जिसने हर सुबह को छोड दिया कल पर!
कल मेरे बहुत करीब है
सुबह उतनी नहीं है।
मध्यमा
कौन-सी दुपहर चाहता हूँ मैं
वह जिसमें कुछ भी नहीं
तय
या जिसमें नींद ही नींद है
जागकर जो जान नहीं पाती
समय
लगता है कुछ खो गया जिसे यों
बहुत कामनाविमुख
बगैर चादर और तकिये के
जमीन पर गिरी हुई देह-सी
दुपहर
तारों की नहीं
दुपहर की ही प्रतीक्षा करती
हुई
दुपहर
एक लडकी जो प्रेमियों पर यकीन खो चुकी
धोखा दे चुकी
खुद को
तुम्हें नहीं।
संध्या
मैं बीयर पीऊँ और वह ठण्डी हो
मैं पढूँ शमशेर को और कोई
आलोचना न हो
दरवाजे पर कोई दस्तक न
हो
दस्तक देने वाले सुखी रहें
दूर-दूर तक कोई बीमार न
हो
वर्षा हो, पर भय न हो
मैं जो खीरा काटूँ वह कडवा न हो
खीर ज्यादा मीठी न हो
सब समाचार मनसायन हों
टमाटर ज्यादा महँगे न मिलें
माँस में स्वाद बना रहे
और शाकाहार में विश्वास।
निशा
एक हाथ से छुपाया है उसने
गए दिन को
एक हाथ से आगामी को
और हाथ नहीं हैं उसके
इसलिए खुली हुई है
यह रात
सिर्फ अपनी नहीं है
इसमें हैं सबकी रातें
यों यह रात कहीं-कहीं रात
नहीं है
जहाँ से भी छुओ
एक नया समय देती है
नष्टचंद्र नष्टनीड नष्टनींद है
तो क्या
पूछती है स्वप्न को
क्या वहीं से हो सकता है
शुरू
जहाँ से टूटा था?
***
सम्पर्क -171, गिरधर एंक्लेव,
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
उत्तर प्रदेश
मो.-9818791434
ई-मेल : darasaldelhi@gmail.com