गोविन्द मिश्र के उपन्यास साहित्य में परिवार
लक्ष्मी चौधरी
गोविन्द मिश्र आधुनिक कथा-साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों से न केवल हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है, अपितु अपने प्रातिभा सामर्थ्य, गहन संवेदनशीलता, व्यापक अनुभव और सचेतन रचनाशीलता से नूतन संभावनाओं से संपन्न अनेक अलक्षित क्षितिजों का संधान भी किया है। उपन्यास विधा में कथ्य, शिल्प के साथ भाषागत स्तर पर नवीनता और मौलिकता के क्षेत्र में उनके प्रयास गंभी माने जाते हैं।
गोविन्द मिश्र हिन्दी के उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपने साहित्य में भारतीय समाज में परिवार की विविधता के अनेक आयामों को अपनी विषय-वस्तु बनाया है। उनका अधिकांश साहित्य किसी-न-किसी नए बोध को लिए हुए है। समय-समय पर उनके द्वारा लिखित निबंधों, लेखों और साक्षात्कारों में उनके विभिन्न विचार देखने को मिलते हैं जिससे उनकी दृष्टि का पता चलता है।
गोविन्द मिश्र अपने निबंध समय और सर्जना में हिंदी उपन्यासः भारतीय विधा शीर्षक लेख के अंतर्गत हिंदी उपन्यास के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। वह हिंदी उपन्यास को पश्चिम से आई हुई विधा न मानकर संस्कृत कथा-साहित्य से उसका उद्भव मानते हैं। उनके अनुसार महाभारत उपन्यास की ही तरह जीवन के प्रत्येक आयाम को दर्शाता है। संस्कृत में कथा और आख्यायिका की परंपरा दण्डी और बाणभट्ट के पहले भी थी। बाण की कादंबरी और हर्षचरित को अगर हमें आधुनिक विधागत खाँचों में बिठाना हो, तो उन्हें उपन्यास ही कहेंगे।
गोविन्द मिश्र का उपन्यास लेखन कार्य मुख्य रूप से स्वतंत्रता के बाईस वर्षों के बाद अर्थात् सन् 1969 ई. से आरंभ होता है। यह वह समय था, जब नवीन शिक्षा, वैज्ञानिक प्रगति, आधुनिकता तथा देश विभाजन की त्रासदी से उत्पन्न नई समस्याएँ भारतीय समाज को तेजी से परिवर्तित कर रही थी। भारतीय समाज में हो रहे इन परिवर्तनों का असर परिवार संस्था पर भी पडा। हालाँकि परिवार समाजशास्त्र का विषय है, लेकिन साहित्य की विधाओं में उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसका परिवार जैसी संस्था के साथ गहरा एवं रागात्मक रिश्ता है। जहाँ समाजशास्त्री परिवार सम्बन्धी सिद्धांतों को लेकर चलता है, वहीं साहित्यकार अने लेखक में जीवन को आधार बनाते हुए उसके परिप्रेक्ष्य में परिवार की व्याख्या करता है।
गोविन्द मिश्र ने अब तक कुल तेरह उपन्यास लिखे हैं जिनमें भारतीय परिवार के विविध आयामों की अभिव्यक्ति हुई है। मैंने अपने अध्ययन में उनके तीन उपन्यास वह अपना चेहरा, फूल इमारतें और बंदर और अरण्य तंत्र को आधार नहीं बनाया गया है क्योंकि इन तीनों उपन्यासों में परिवार मुख्य नहीं है। उनके शेष दस उपन्यासों को केन्द्र में रखते हुए भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों, मान्यताओं तथा भावनाओं में आए परिवर्तन को विश्लेषित करने की कोशिश की है।
गोविन्द मिश्र के उपन्यासों में संयुक्त प रिवार से एकल परिवार तक की तस्वीरें हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी में एकल पारिवारिक स्वरूप के विघटन की कथा शब्दबद्ध है। उतरती हुई धूप से लेकर खिलाफत तक उपन्यासकार भारतीय परिवार में हो रहे परिवर्तनों को विविध स्तर पर दर्शाता ही नहीं, अपितु विवेचित भी करता है। एक तरफ इन उपन्यासों में परिवार की पीढियों में हो रहे परिवर्तन दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ इक्कीसवीं सदी के एक ही पीढी के विवाहित स्त्री-पुरुष के मध्य परिवर्तित हो रहे संबंधों के बदलाव भी व्यंजित हैं। गोविन्द मिश्र परिवार में हो रहे निरन्तर परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तन को भी लक्षित करते चलते हैं।
गोविन्द मिश्र ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने राजनीति, प्रेम, विवाह, संस्कृति, स्त्री, परिवार, वृद्धपन आदि अनेक विषयों पर लिखा है। परिवार उनके अधिकतर उपन्यासों में केन्द्र में है और उन्होंने उसके बदलते स्वरूप के साथ कई परिप्रेक्ष्यों को भी दर्शाया है। हिन्दी उपन्यास में इससे पहले परिवार को इतने बदले हुए स्वरूप, ऐसे विस्तार में और ऐसे प्रभावशाली ढंग से कम देखने के मिलते हैं।
गोविन्द मिश्र का उपन्यास साहित्य लेखन इन 50 वर्षों के कालखण्ड में लेखन के मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में हो रहे आन्तरिक एवं बाह्य परिवर्तन को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं नैतिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं जो भारतीय परिवार के उन चार प्रकारों का चित्रण दर्शाते हैं।
1. स्वतन्त्रता से पूर्व परिवार - वह अपना चेहरा, उतरती हुई धूप और पाँच आँगनों वाला घर
2. स्वतन्त्रता के समय परिवार - हुजूर दरबार और धीर समीरे
3. स्वातंर्त्र्योत्तर परिवार- तुम्हारी रोशनी में, कोहरे में कैद रंग, लाल पीली जमीन
4. परिवार का समकालीन रूप - धूल पौधों पर, शाम की झिलमिल, और खिलाफत।
1969 ई. में उनका पहला उपन्यास वह अपना चेहरा प्रकाशित हुआ जिसने साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। उन्होंने वह अपना चेहरा’ (1969 ई.), उतरती हुई धूप (1971 ई.), लाल पीली जमीन (1976 ई.), हुजूर दरबार (1981 ई.), तुम्हारी रोशनी में (1985 ई.), धीरे समीरे (1988 ई.), पाँच आँगनों वाला घर (1995 ई.), फूल ईमारतें और बंदर (2000 ई.), कोहरे में कैद रंग (2004 ई.), धूल पौधों पर (2008 ई.), अरण्य तन्त्र (2013 ई.), शाम की झिलमिल (2017 ई.), और खिलाफत (2018 ई.) मिलाकर कुल तेरह उपन्यास लिखे हैं। उपन्यासों के अतिरिक्त गोविन्द मिश्र ने दस से ऊपर कहानी संग्रह, यात्रा वृत्तांत, निबंध संग्रह के साथ-साथ कविता, बाल साहित्य और संस्मरण भी लिखे हैं। गोविन्द मिश्र निरंतर मानवीय संवेदना के नये भाव स्तरों को कथ्याधार बनाकर आगे बढे हैं। एक उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति का आधार उनकी विविधता को जाता है। गोविन्द मिश्र के प्रत्येक उपन्यास का विषय और परिवेश अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों से बिल्कुल भिन्न होता है। इसलिए उन्हें किसी एक परिपाटी में बाँधना मुश्किल है। यहाँ तक कि उनकी भाषा में उनके पूर्ववर्ती उपन्यासों से बिल्कुल भिन्न होती है और यह किसी भी साहित्यकार की व्यापकता के दर्शाता है। कम ही साहित्यकार ऐसे होंगे जिन्होंने एक ही समय और परिवेश में एक जैसे लगने वाले यथार्थ को कई स्तरों और कोणों से देखा-समझा हो। उपन्यास के रूप में गोविन्द मिश्र की एक खासियत यह भी है कि भिन्न तरह के यथार्थ और वर्णन के बावजूद उनका यथार्थ-बोध अपनी संस्थान में एक संवेदनात्मक अन्तर सूत्र बनाए रखता है। मूलतः गोविन्द मिश्र एक प्रयोगधर्मी उपन्यासकार हैं।
गोविन्द मिश्र ने अपने अधिकतर उपन्यासों में परिवार के विविध रंगों को उकेरा है। पाँच आँगनों वाला घर में भारतीय परिवार की संपूर्ण अवधारणा केंद्र में है, तो धूल पौधों पर में आज के समय में एकल परिवार के टूटने और परिवार में स्त्री की बदलती भूमिका को प्रस्तुत किया गया है। तुम्हारी रोशनी में, धीर समीरे, कोहरे में कैद रंग, शाम की झिलमिल, आदि में भी गोविन्द मिश्र का परिवार संबंधी चिंतन मुखरित हुआ है। परिवार संबंधी उनके उपन्यास जैसे पाँच आँगनों वाला घर, कोहरे में कैद रंग, धीर-समीरे, धूल पौधों पर आदि का समापन व्यक्ति के अकेलेपन के साथ होता है, परंतु यहाँ व्यक्ति का यह अकेलापन, द्वन्द्व, कुण्ठा, निराशा, आदि भावों से ग्रस्त न होकर, मूलतः भारतीय परिवार की पारंपरिक मूल्यगत सकारात्मकता को ही स्थापित करता है।
उतरती हुई धूप (1971 ई.) गोविन्द मिश्र का दूसरा उपन्यास है। यह उपन्यास दो भागों में विभाजित है। पहला भाग कॉलेज के मध्यवर्गीय युगल अरविन्द और वह (युवती) के मध्य प्रेम प्रसंगों पर आधारित है, तो दूसरा भाग दस साल बाद की कहानी को प्रस्तुत करता है। जब वह की शादी हो चुकी होती है और अरविन्द की मुलाकात उससे फिर होती है। उपन्यास में परिवार संबंधी सूत्र कम दिखते हैं। लेकिन जितना दिखता है वह कहीं न कहीं परिवार में विवाह पूर्व प्रेम संबंधों से उत्पन्न तनाव को सघन रूप से संकेतित करता है।
उतरती हुई धूप की नायिका अरविन्द से प्रेम करती है, लेकिन माता-पिता के कारण वह खुद को अरविंद से विवाह करने के लिए तैयार नहीं कर पाती, उससे मार-पीटकर शादी कर डाली जाए ... कहाँ जाएगी। बाद में माँ बाप भी ठीक हो जाएँंगे ... पर तब वह न रहेगी। अपनी खुशी के लिए उसने इतनों को ठेस पहुँचाई यही उसे जीने नहीं देगा।1 वह की शादी हाती है, लेकिन अरविंद के साथ नायिका का प्रेम संबंध खत्म होने के कगार पर आ जाता है। चन्द्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, भारतीय परिवेश में विवाह पूर्व संबंध की किंवदन्तियाँ जिस वेग से फैलती हैं उसके कारण विवाह बँधन को कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार कर जीवन जीने की प्रामाणिक चेष्टा करने वाली वह लडकी बिखर जाती है ... टूट जाती है। एक बच्चे का आधार और पुनः पढाई कर जीवन को अलग आकार देने की आकांक्षा। इनके फलस्वरूप वह पी.एच.डी. कर रही है।2 विवाह के उपरांत वह की जिन्दगी में परिवर्तन आते हैं और उसे तरह-तरह की यातना से गुजरना पडता है। उसे प्रताडित किया जाता है, सास और पति के द्वारा उसे यातना दी जाती हैं। जब अरविंद उसके शादी के बाद पूछता है कि उसके हाथ पर दाग कैसे पड गए हैं, तब वह कहती है, क्या बताऊँ! वह सिसक रही थी इन लोगों ने क्या दुर्गति की है मेरी ... क्या-क्या कलंक लगाए ...।3 उपन्यास परिवर में विषम विवाह की यातना को दर्शाते हुए एक स्त्री के अभिशप्त जीवन को दर्शाता है।
गोविन्द मिश्र का तीसरा उपन्यास लाल पीली जमीन (1976 ई.) कस्बाई सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में व्याप्त हिंसा, भय, अपमान, शोषण और काम-कुण्ठा के विविध संदर्भों को चित्रित करता है। उपन्यास के केन्द्र में केशव नामक लडका है जो पूरी सामाजिक परिस्थिति को देखता है, परन्तु कर कुछ नहीं पाता। यह कुछ न कर पाने की छटपटाहट उपन्यास के आरंभ से लेकर अंत तक है। चाहे वह केशव के पिता जैसे ईमानदार पात्र की हो या फिर सुरेश जैसे गुण्डे की ही क्यों न हो। वस्तुतः सभी पात्रों में एक बैचेनी है, पूरा उपन्यास व्यक्ति और परिवार की विवशता, भय और लाचारी के चित्र को मूर्त्तता प्रदान करता है।
लाल पीली जमीन के केन्द्र में हिंसा है, परन्तु उपन्यास कस्बाई परिवार की पीडा और विस्थापन के दंश को अधिक व्यक्त करता है और इस संदर्भ के कई प्रश्नों को खडा करता है। उपन्यास के केन्द्र में केशव का परिवार है जिसके माध्यम से स्त्री को अपमान, बच्चों के भविष्य और अभिभावक की छटपटाहट और उनकी असहायता को दर्शाया गया है। उपन्यास के आरंभ में ही यह वाक्य, तुम्हारे खानदान में यह हमेशा से होता आया है, तुम्हारे चाचा ने अपनी बहू को जलते हुए चैलों से मारा और मार-मारकर भगा दिया।4 स्पष्ट करता है कि यह समस्या कब से चली आ रही है। जहाँ परिवार में स्त्री का मतलब ही उसका शोषण करना, उसे मारना-पीटना हो, वहाँ किसी आत्मीयता की कल्पना करना बेमानी है। पंडित का अपनी बीवी के बारे में कहना, कुछ नहीं... औरत जात है, ससुरी छिनार।5 कस्बाई परिवेश में स्त्री-पुरूष के संबंधों के स्तर को दर्शा देता है। उपन्यास में उन परिवारों की कहानी भी है। जहाँ जवान लडकी का विवाह उससे बीस वर्ष अधिक उम्र वाले व्यक्ति से करा दिया जाता है। मालती का विवाह सर्वेश की चौथी पत्नी के रूप में होता है, मालती को लगता है कि वह एक दिन में ही बूढी हो गई।
चंद्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, लाल पीली जमीन की लडकियाँ अपने यौवन को भोग ही नहीं सकती थीं, यह दर्दनाक तथ्य लगभग हर नारी प्रमाणित कर देती है। 6 वस्तुतः इसका मुख्य कारण परिवार के मुखिया पुरुष का स्त्रियों के महत्त्व को नकारना है। लक्ष्मण की माँ मालती के विवाह के खिलाफ थी, लेकिन लक्ष्मण के दद्दा के आगे किसी की नहीं चलती। औरत को समाज में गाय माना जाता है जिसे जिधर चाहे हाँक दिया और चाहे जिस खूँटे से बाँध दिया। भारतीय परिवार में स्त्री की विषम स्थिति और असहायता का चित्रण इस उपन्यास में हिंसा के परिवेश में और अधिक यथार्थपरक हो गया है।
हुजूर दरबार (1981 ई.) गोविन्द मिश्र द्वारा लिखित चौथा उपन्यास है। उपन्यास के केन्द्र में स्वतंत्रता के पूर्व के रियासती दरबार और स्वतंत्रता के पश्चात उसके देश के नए रूप में विलय होने की कथा है। उपन्यास की प्रमुख घटनाओं का संबंध रियासत से है और उपन्यास के अधिकतर पात्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रियासत से संबंधित हैं। हुजूर दरबार में मुख्य रूप से राजनीतिक परिवेश का चित्रण है जो रियासती और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न दाँव पेंचों को प्रदर्शित करता है। इसके अलावा हुजूर दरबार भारतीय परिवार के दो प्रमुख चित्रों को उपस्थित करता है। पहला, रियासती अर्थात् सामंतवादी परिवार जिसके केन्द्र में महाराज रूद्रप्रताप सिंह है और दूसरा वह परिवार जो राजदरबार के संरक्षण में पला बढा है जिसके केन्द्र में हरीश है। स्वतंत्रता के पूर्व के सामंतवादी परिवार के रहन-सहन, उनकी मानसिकता को यथार्थवादी तरीके से दर्शाया गया है, तो वहीं हरीश के परिवार के द्वारा उन लोगों की स्थिति को दर्शाया गया है जो सामंती परिवार की गुलामी को ही अपना जीवन का लक्ष्य मानते हैं।
हुजूर दरबार महाराजा रूद्रप्रताप सिंह द्वारा सामंती परिवार के विलासमयी चित्र को दर्शाने के साथ-साथ उस परिवार की जटिलताओं को भी रेखांकित करता है। रूद्रप्रताप सिंह उस भारतीय आदर्श परिवार का प्रतिनिधित्व नहीं करते जिनकी केवल एक पत्नी हो, बल्कि सामंती व्यवस्था से प्रभावित है, इसलिए उनकी तीन पत्नियाँ होती हैं पहली रानी अर्थात् राजगढ सरकार, दूसरी चरखारी सरकार और तीसरी नेपाल सरकार। इसके अतिरिक्त राजाओं के अवैध संबंध को भी दर्शाया गया है जैसे रूद्रप्रताप सिंह और राधाबाई का प्रेम-संबंध, उनका और सुधा का संबंध, सिर्री राजा के पिता और भीलनी के संबंध, आदि। चंद्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, खानदानी राजाशाही की लंपटता खून में प्रवाहित होने के कारण जिस स्त्री पर मन आ गए, उसे प्राप्त करके और कुछ दिन पास में रखकर पूर्णतः भूल जाना और राजघराने की अन्य दासियों के साथ संबंध रखना रूद्रप्रताप की लत है।7 वहीं हरीश का परिवार है जो इस राजदरबार पर पूर्णतः आश्रित है। हरीश के पिता और यहाँ तक कि उसके दादा भी राजदरबार की पराधीनता को स्वीकार करते हुए मठ की देखभाल करते हैं। यह पराधीनता केवल कार्य के स्तर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक स्तर पर भी है, सिवा हरीश और उसके माँ को छोडकर। हरीश के पिता इसलिए उपन्यास के अंत में हरीश को राजदरबार के खत्म हो जाने पर भी हरीश को उन्हीं सामंती परिवार के लोगों की तरफ ढकेलते हुए कहते हैं, महाराज नेपाल सरकार के लिए एक कपडे की बडी मील खुलवा रहे हैं ... माँ साहिबा की भी यही इच्छा थी कि तुम उसी मील में लग जाओ। 8 यह मुख्य रूप से निम्नमध्यवर्गीय परिवार की समझौतावादी नियति को दर्शाता है। वह जिस परिवेश के दबाव में रहता हैं उसी से समझौता करना चाहता है। वह परिस्थिति से लडने के बजाय एडजस्ट होने की कोशिश अधिक करता है। इससे हरीश का जीवन प्रभावित होता है।
गोविन्द मिश्र का पाँचवा उपन्यास तुम्हारी रोशनी में (1985 ई.) आधुनिक स्त्री की अस्मिता को भारतीय परिवार के केन्द्र में रखकर उसके द्वन्द्व की कथा है। कथा के केन्द्र में तीन पात्र हैं - सुवर्णा, उसका पति रमेश और उसका दोस्त अनन्त। सुवर्णा एक सुन्दर, पढी-लिखी, सम्पन्न घर की आधुनिक महिला है। अपनी अस्मिता की पहचान के लिए वह जिस पुरूष में कुछ विशेष दिखा... उसके करीब हो जाती है। इसमें वह अपने दाम्पत्य जीवन के लिए कोई खतरा महसूस नहीं करती क्योंकि उसने अपनी सीमा-रेखा भी तय कर रखी है। सब उसके सिर्फ दोस्त ही हो सकते हैं। वह प्रेम भी नहीं महसूस कर पाती। कस्बे से आया अनंत महानगर की इस आत्मविश्वास से भरी सफल महिला में प्रेम महसूसने की कुव्वत विकसित करता है, लेकिन तभी सुवर्णा का उसके पति के साथ विरोध शुरू हो जाता है - अनंत को लेकर नहीं, सुवर्णा के एक दूसरे रोस्त श्याम को लेकर। यहाँ से चल पडता है सुवर्णा का भीतरी संघर्ष।
गोविन्द मिश्र का छठवाँ उपन्यास धीर-समीरे (1988 ई.) ब्रज की पैंतालिस दिन की यात्रा पर आधारित है। इसी यात्रा के माध्यम से उन्होंने भारतीय परंपरा, संस्कृति, धर्म और परिवेश से साक्षात्कार कराया है। धीर-समीरे भारतीय परंपरा और संस्कृति के साथ-साथ वर्तमान परिदृश्य में आधुनिकता और उसमें व्यस्त जीवन को भी इस यात्रा के माध्यम से दिखाता है। धीर समीरे के कथा के केन्द्र में सुनन्दा है, जो ब्रज की यात्रा पर जाती है अपने खोए हुए बेटे किशोर को ढूँढने के लिए। उपन्यास ब्रज की यात्रा में सुनन्दा, सत्येन्द्र, मंजुला बैन, नरेन्द्र, नंदन, आदि पात्रों की तरह विभिन्न प्रान्त से आए भारतीयों के सुख-दुःख, विचार, भावना, मानसिक द्वन्द्व, संवेदना और संघर्ष को चित्रित करते हुए भारतीय समाज की जीवनयात्रा को विभिन्न स्तर पर बिम्बित करता है।
धीर-समीरे भारतीय समाज के साथ भारतीय परिवार की विभिन्न स्थितियों और परिवर्तनों को प्रस्तुत करता है। उपन्यास के अधिकांश पात्र किसी न किसी रूप में परिवार से जुडे हुए हैं। कुछ अपने परिवार के साथ आते हैं, तो कुछ परिवार को छोडकर। गोविन्द मिश्र ने प्रस्तुत उपन्यास में भी अधिकांश चरित्रों की कहानी को उसके परिवार के संदर्भ में चित्रित किया है। धीर-समीरे परिवार की उन समस्याओं से साक्षात्कार कराता है जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं। यह समस्या स्त्री, पुरूष, वृद्ध, बच्चे सभी को समेटे हुए हैं। धीरे- समीरे पुरानी पीढी के समक्ष नयी पीढी और पुरूष के समक्ष स्त्री को रखते हुए परिवारों के परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय परिवार की विविध चुनौतियों को सामने रखता है।
पाँच आँगनों वाला घर (1995 ई.) गोविन्द मिश्र का सातवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास की कथा 1940 ई. के आस से शुरू होकर 1990 ई. तक के कालखण्ड तक फैली हुई है। इन पचास वर्षों के कालखण्ड में लेखक ने मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में हो रहे आंतरिक एवं बाह्य परिवर्तन को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं नैतिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास तीन भागों में विभाजित है और इन तीनों भागों में गोविन्द मिश्र ने भारतीय परिवार के उन तीन पीढियों का चित्रण किया है जो यह दर्शाती है कि भारतीय परिवार समय के साथ किन परिस्थितियों के चलते परिवर्तित हो रहा है।
पाँच आँगनों वाला घर उपन्यास मुख्य रूप से संयुक्त परिवार से एकल परिवार में परिवर्तित होने की गाथा है। उपन्यास का आरम्भ बडी अम्मा अर्थात् जोगेश्वर के परिवार से होता है। जोगेश्वरी के चार लडके हैं, मुंशी राधेलाल, घनश्याम, बाँके और सन्नी। मुंशी राधेलाल सबसे बडे हैं और वकील होने के कारण घर का सारा भार उन्हीं पर है। उनकी पत्नी शांतिदेवी मोहल्ले की सबसे सुन्दर स्त्री है। दूसरे नंबर पर घनश्याम हैं जिनकी पत्नी घर में रामनगर वाली कहलाती है, तीसरे में बाँके हैं, जिनकी पत्नी नइकी चाची के रूप में प्रसिद्ध है और चौथे सन्नी अविवाहित हैं। ये सभी परिवार और उनके बाल-बच्चे बनारस के पाँच आँगनों वाला घर में रहते हैं। घर का यह आँगन सभी को जोडे रखता है। परिवार इतना बडा है कि गोविन्द मिश्र लिखते हैं, बच्चों की छोटी-मोटी भीड एक आँगन से दूसरे आँगन दौडती रहती है। माँ-बाप को अपने बच्चे जरूर मालूम हो, लेकिन बच्चों को बडे होने तक यह पता न चलता कि उनके माँ-बाप कौन है?9 यह भारतीय समाज में परिवार की उस एकता और सौहार्द को दर्शता है जहाँ परिवार के सभी सदस्य एक धागे में पिरोये हुए हैं। उपन्यास में संयुक्त परिवार में परिवर्तन का आरंभ तब होता है जब राधेलाल परिवार के छोडकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड जाता है।
गोविन्द मिश्र का नौवाँ उपन्यास कोहरे में कैद रंग (2004 ई.) एक व्यक्ति के माध्यम से समाज मे बिखरे विभिन्न जीवन रंगों को दर्शाता है। संभवतः लेखक का दृष्टिकोण यह है कि समाज के कितने ऐसे अच्छे संभावनाओं से भरे लोग होते हैं जो पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते, जो कोहरे में दबे रहते हैं। उपन्यास में कथानायक अर्थात् अरविन्द के बचपन से लेकर किशोरावस्था और युवावस्था से लेकर प्रौढता तक के जीवन को उकेरा गया है। अरविन्द अपने आँखों से सब कुछ देखता है और वही चलचित्र की तरह पाठक के सामने उपस्थित होता चला जाता है। वस्तुतः जिस सामाजिक रंगों को कोहरे में कैद रंग में दिखाया गया है उनके तल में भारतीय कस्बाई और महानगरीय परिवार है। स्थूल स्तर पर यह उपन्यास एक प्रेम कथा लग सकती है, परन्तु इस उपन्यास का असली प्रयोजन उन संबंधों को बनते-बिगडते हुए दर्शाना है जो परिवार के रूढिगत और नयी अवधारणाओं से साक्षात्कार कराते हैं।
भारतीय परिवार में स्त्री की स्थिति को गोविन्द मिश्र ने उतरती हुई धूप, तुम्हारी रोशनी में, धीर-समीरे जैसे उपन्यासों में आधार बनाया है। कोहरे में कैद रंग में भी वे इससे टकराते हैं, सवाल उठाते हैं, लेकिन यहाँ उनके उत्तर भी देने की कोशिश करते हैं। इक्कीसवीं सदी के परिवार केन्द्रित यह उनका पहला उपन्यास है जिसमें रेवा और टूटू मौसी जैसी आधुनिक भारतीय स्त्रियाँ है। उतरती हुई धूप, लाल पीली जमीन और हुजूर दरबार की महिलाएँ समाज और उसकी रूढियों के आगे बेबस और कमजोर हैं। तुम्हारी रोशनी में की सुवर्णा उनसे आगे की तस्वीर है, पर वह भी परंपरा और आधुनिकता के बीच झूलती नजर आती है। उसे अपने सवालों के उत्तर नहीं मिलते। कोहरे में कैद रंग में रेवा और टूटू मौसी पुराने द्वन्द्वों से उबर चुकी महिलाएँ हैं। परिप्रेक्ष्य देने के लिए गोविन्द मिश्र उपन्यास के पूर्वार्द्ध में अरविन्द का बचपन प्रस्तुत करते हैं, जहाँ सरस्वती और सविता हैं जो करीब-करीब पारंपरिक महिलाओं में ढलने जा रही हैं, लेकिन रेवा के रूप में सरस्वती का विस्तार और सविता का नया रूप हमें देखने को मिलता है। पहले भाग में नानी का चरित्र एक निडर नारी का है जो आत्मनिर्भर है, अपने परिवार को सँभालती है और जो उसके आस-पास हैं, उनकी प्रेरणा स्रोत भी है। पुराने समय के परिवारों में नानी जैसे पात्र अपवाद रूप थे, जो कोहरे में दब कर रह गए, जैसे सरस्वती अपने तमाम अच्छाइयों के बावजूद।
धूल पौधों पर (2008 ई.) गोविन्द मिश्र का दसवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास में गोविन्द मिश्र ने इक्कीसवीं सदी के एकल परिवार में दाम्पत्य संबंध के परिवर्तित स्वरूप को दर्शाया है। उपन्यास के केंद में एक युवती है, जो विमाता के साथ रहती है। उसका भाई सौतेले भाईयों द्वारा मण्डल आन्दोलन की आग में झोंक दिया जाता है। विमाता युवती का विवाह एक निखट्टू से कराकर उससे छुट्टी पा लेती है। ससुराल में युवती अपने पति और सास-ससुर से खुश नहीं रहती और पति द्वारा प्रताडित की जाती है और अन्ततः वह घर छोड देती है। शायद इसलिए कि उसकी व्यथा भारतीय समाज में रह रही हजारों उन लडकियों की व्यथा है जो परिवार द्वारा प्रताडित की जाती हैं।
उपन्यास के केन्द्र में वह (युवती) की संघर्षकथा और उसका प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रेमप्रकाश से प्रेम करना है। इससे पहले भी मिश्र ने कोहरे में कैद रंग में रेवा और तुम्हारी रोशनी में सुवर्णा, रमेश और अनंत के माध्यम से परिवार में पति-पत्नी के बदलते संबंध को दिखाया है, लेकिन धूल पौधों पर में यह संघर्ष केवल पति के साथ नहीं है, सास-ससुर के साथ भी है। संघर्ष के बीच एक बच्चा भी है जिसकी मनोदशा को गंभीर रूप से चित्रित किया गया है। शहरों में होने वाले अनैतिक संबंध, विवाहेतर प्रेम-संबंध, नौकरी की विवशता, आधुनिकीकरण का बढता प्रभाव, भारतीय समाज, विशेषकर पुजारी समाज की रूढियाँ, आदि कई महत्त्वपूर्ण बिंदु भी उपन्यास में उठाए गए हैं, लेकिन यह उपन्यास मुख्यतः युवती और प्रेमप्रकाश की बदलती मनोदशा को रेखांकित करता है। युवती सहारा देने वाले प्रेमप्रकाश से प्रेम करने लगती है, जो उससे उम्र में काफी बडे है और जिनका अपना परिवार है। एक विवाहिता का पर पुरूष से एक अधेड का युवती से प्रेम - दोनों ही भारतीय समाज में निंदनीय है। इसस तरह से ये दोनों पात्र नैतिक दृष्टि से गिरे हुए हैं, पर उपन्यास में उनका उदात्तीकरण होता है और वे पाठकों को स्वीकार्य हो जाते हैं - यह उपन्यास की सफलता है।
धूल पौधों पर में इक्कीसवीं सदी का परिवार है और परिवार में इक्कीसवीं सदी की युवती है। संयुक्त परिवार में अधिकांशतः स्त्री की स्वतंत्रता पर अंकुश रहता था, समय के साथ-साथ उसे अधिकार मिलने लगे और अब वह अपने पैरों पर खडे होकर खुद के और अपने परिवार के बारे में फैसले लेने में सक्षम होने लगी है, लेकिन उसे इसका मूल्य भी चुकाना पडा है और इसके साथ-साथ उसका संघर्ष अपने परिवार से भी होने लगा है।
शाम की झिलमिल (2017 ई.) गोविन्द मिश्र का बारहवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास वृद्धावस्था के अकेलेपन और जिजीविषा के द्वन्द्व और टकराहट को लेकर लिखा गया हिन्दी का संभवतः पहला उपन्यास है। उपन्यास के केन्द्र में कथानायक मैं है, जो कि एक सत्तर वर्षीय वृद्ध है और अपनी पत्नी के मृत्यु के उपरांत शेष जीवन में स्वतंत्रता को जीने की चाह में समाज में निकलता है। शाम की झिलमिल वृद्धों के माध्यम से इक्कीसवीं सदी में परिवार नामक संस्था को नये सिरे से देखने और समझने का प्रयास है। उपन्यास में कथानायक द्वारा दिवंगत हुए व्यक्तियों से वार्तालाप करते हुए दिखाया गया है जो हिन्दी उपन्यास में अभिनव प्रयोग है।
उपन्यास की मुख्य धारा आधुनिक भारतीय परिवार और उसमें वृद्धों की जीवन स्थिति है। भारतीय परिवार में वृद्धों का सम्मान करना और उनकी सेवा करने का विधान है। परंतु समय और परिस्थिति के बदलाव के कारण यह विचारधारा अतीत का हिस्सा बन चुका है। वर्तमान समय में परिवार में वृद्ध महज एक वस्तु के समान रह गये हैं जिसके साथ सिर्फ औपचारिकता की जाती है। भारत में सात करोड से अधिक वृद्ध हैं जो साठ वर्ष से ऊपर के हैं। एकल परिवारों की नवीन जीवन-शैली और उपभोक्तावादी संस्कृति ने आज भारत में वृद्ध को परिवार हाशिए पर धकेल दिया है। उपन्यास में कथानायक मैं और उसके परिवार के बीच ऐसा ही संबंध नजर आता है। कथानायक अर्थात् खुद के गायब हो जाने पर जब वह घर पर पहुँचता है, तो वह महसूस करता है कि घर के लोग उसके गायब हो जाने के कारण नहीं, बल्कि उससे उत्पन्न होने वाली परेशानी को लेकर परेशान थे। कथानायक का दौलत के संदर्भ में अपने बेटे से कहना, उस पर किसकी नजर है ...यह तो नहीं पता है, पर आपकी नजर जरूर उस पर है यह जाहिर हो गया है।10 वर्तमान समय में भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन हुए हैं। संतान जब अपने पैरों पर खडे हो जाते हैं, तब उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत कम होती हैं। इसलिए वह उनकी देखभाल या जरूरतें पूरी अधिकांशतः इसलिए करते हैं, ताकि उनकी दौलत प्राप्त कर सकें। वृद्धाश्रम का तेजी से बढना इस बात का सबूत है कि परिवार में वृद्धों को जिस समय प्रेम, विश्वास, आदि की ज्यादा जरूरत होती है उसी समय वह सबसे अधिक खुद को अशक्त, उपेक्षित और अकेला पाते हैं। शहरों में वैश्वीकरण और तेज गति से चलने वाली जिंदगी के कारण परिवार के सम्बन्ध पीछे छूटते चले जा रहे हैं।
खिलाफत (2018 ई.) गोविंद मिश्र का तेरहवाँ और नवीनतक उपन्यास है यह उपन्यास इस्लाम और उससे जुडे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को वैश्विक स्तर पर उठाता है वह हिन्दी उपन्यास में नवीन होने के साथ-साथ आज के बदलते परिवेश में इंसानियत और उसके सरेआम कत्ल की चुनौती से भी टकराता है। उपन्यास के केन्द्र में इस्लामिक स्टेट की वैश्विक स्तर पर आतंकवादी गतिविधियाँ और सामाजिक प्रतिक्रिया की आशंका से कश्मीर के दो मुस्लिम परिवारों के सदस्यों में हो रहे वैचारिक परिवर्तन और उससे बाहर निकलने की जद्दोजहद है, जिससे आतंकवाद पर आधारित इस आख्यान को मानवीय धरातल मिल गया है।
उपन्यास के केन्द्र में दो कश्मीरी मुस्लिम परिवार एक-दूसरे से परिचित हैं तथा एक के शिया और दूसरे के सुन्नी होने की बात को महत्त्व नहीं देते। बेग साहब का परिवार शिया है। उनकी तीन बेटियाँ हैं, जिनमें आलिया सबसे बडी है। दूसरी तरफ डॉ. आफताब का परिवार है जो सुन्नी है और उनके तीन बेटे और एक बेटी हैं। यूनुस उनका सबसे बडा बेटा है। आलिया और यूनुस बचपन के दोस्त हैं और बडे हो जाने और नौकरी पा लेने के बाद एक दूसरे से निकाह करना चाहते हैं। दोनों परिवारों में आरंभिक आपसी संबंध को देखकर यह बात सरल लगती है, परंतु ऐसा आफताब के परिवार के लोगों के हाथ शियाओं के खून से रंगे हैं। वे यूनुस-आलिया के विवाह के खिलाफ हो जाते हैं।
गोविन्द मिश्र का लक्ष्य आतंकवाद जिसकी जड इस्लामिक स्टेट है, उसके माध्यम से उन्होंने विश्व स्तर पर मुस्लिम परिवार के वैचारिक परिवर्तन तथा उसको लेकर समाज की जाने वाली प्रतित्रिज्या से रूबरू करवाना है। दोनों परिवारों के बीच मतभेद का आरंभ तब होता है, जब यूनुस का छोटा भाई अशरफ इस्लामिक स्टेट में शामिल हो जाता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। इसके साथ ही विश्व स्तर पर सुन्नियों द्वारा शियाओं के मारे जाने के कारण इन दो परिवारों के मध्य विभाजन की रेखा खिंच आती है। इन प्रसंगों के कारण बेग साहब जैसे प्रगतिशील व्यक्ति जो आलिया को नौकरी के लिए दिल्ली भेजते हैं, यूनुस को अपने बेटे के समान मानते हैं और अपने बच्चों को आधुनिक तालीम देते हैं और कहते हैं, मजहब हमारा जाती मामला है, उसकी तालिम घर पर मिलना चाहिए। मैंने वह दी है। मेरी तीनों लडकियों को देख लो ...लेकिन उन्हें बुर्का पहनकर ही बाहर जाने दिया जाए, मैं इसका हिमायती नहीं हूँ।11 उन्हें भी बदलकर रख देता है। आई.एस. की आतंकवादी गतिविधियों ने उन्हें भी समाज और मजहब की रूढियों से बाँधकर रख दिया और उन्हें धीरे-धीरे यूनुस में सुन्नी और आलिया में शिया नजर आने लगे। विश्व स्तर पर सुन्नियों द्वारा शियाओं को खत्म करने की साजिश पग-पग पर उन्हें चुभने लगी और वे जो यूनुस और आलिया की नजदीकियों को बडे ही स्वाभाविक रूप से देखते थे, उनके निकाह के लिए तैयार भी हो जाते, वे अब उस परिवार से सम्पर्क रखने के ही खिलाफ हो जाते हैं।
निष्कर्ष :
गोविन्द मिश्र के सम्पूर्ण उपन्यास साहित्य से गुजरने पर हम पाते हैं कि इनका रचनाकार इस तथ्य से भली-भाँति परिचित था कि परिवार जैसी संस्था के वैशिष्ट्य को उपन्यास जितना बेहतर एवं उदारता से अपने कलेवर में समेट सकता है, उतनी साहित्य की अन्य विधाएँ नहीं।
श्री मिश्र के तेरह उपन्यासों के चार तरह के परिवारों में वर्गीकरण करके देखें, तो पता लगता है कि मिश्र का उपन्यासकार शिल्प का आग्रही नहीं है और न ही वह किसी अनावश्यक प्रयोगों की राह पर बढता-जूझता अन्वेषी। वह जीवन को जीवन की तरह देखने, समझने और अभिव्यक्त करने वाला सहज रचनाकार है, जिसकी यात्रा उतनी ही सहज है, जितने की उनके पात्र और भाषा। उनकी भाषा जीवन की जडों से स्पंदित होकर हमें रस, संवेदना और सर्जनात्मकता से सम्पन्न कर देती है। यह जरूर है कि उनके व्यक्तित्व पर जैनेन्द्र कुमार का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है, पर आप यह नहीं कह सकते कि वे जैनेन्द्र की प्रभाव परिधि में से आगे नहीं बढ पाते। उनका रचनाकार आत्मीयता के द्वीपों की राह पर निकला वह नाविक है जो अंततः संघर्ष करते-करते अपने लक्ष्य को प्राप्त करता जाता है।
भारतीयता, समन्वय और बोध के विविध आयामों का एकत्व ही उनके समस्त उपन्यास लेखन का वह मूल सत्त्व है, जिस पर उनके रचनाकार का विराट संसार खडा है। वे किसी वर्ग विशेष या विषय टाईप विशेष के चरित्र रचने वाले रचनाकार नहीं है। वे तो जीवन को पूरी समग्रता से, भारतीय दृष्टि से ग्रहण करने वाले रचनाकार हैं। उनका परिवार पश्चिमी आँधी में लिपटता जा रहा भारतीय परिवार है, जिसे वे आत्मिक ऊर्जा के अक्षय स्रोत से बचाना चाहते हैं। वे उस आँधी का वर्णन पूरे मनोयोग से कर रहें हैं, पर उनके पात्र/चरित्र अपनी भारतीय दृष्टि से ही जीवनपथ पर आगे बढते हैं।
अस्तु, गोविन्द मिश्र का रचनाकार परम्परा से रस ग्रहण कर आगे बढने वाला रचनाकार है। उनके समस्त सृजन का मूल है, मनुष्य और मनुष्यता। वे इसे सर्वोपरि मानते हैं। क्योंकि इन्हीं की नींव पर सारा समाज खडा है और आगे भी खडा रहेगा। रही बात उनके लेखन में घर की उपस्थिति की, तो हमने देख ही लिया कि कैसे चार प्रकार के घरों में समस्त स्वातन्त्र्योत्तर जीवन को निबद्ध करते है और न केवल निबद्ध करते हैं, हमें परिवार संस्था की खूबियों-खामियों से भी गुजारते हैं।
संदर्भ :
1. गोविन्द मिश्र, उतरती हुई धूप, पृ. 37
2. चन्द्रकांत बांदिवडेकर, गोविन्द मिश्र का औपन्यासिक संसार, पृ. 20
3. गोविन्द मिश्र, उतरती हुई धूप, पृ. 59
4. गोविन्द मिश्र, लाल पीली जमीन, चुनी हुई रचनाएँ-भाग-1, पृ. 95
5. गोविन्द मिश्र, लाल पीली जमीन, चुनी हुई रचनाएँ-भाग-1, पृ. 130
6. (संपा.) चंद्रकांत बांदिवडेकर, गोविन्द मिश्रः सर्जन के आयाम, पृ. 98
7. (संपा.) रामजी तिवारी, आकलन गोविन्द मिश्र, पृ. 80
8. गोविन्द मिश्र, हुजूर दरबार, पृ. 208
9. गोविन्द मिश्र, पाँच आँगनों वाला घर, पृ. 10
10. गोविन्द मिश्र, शाम की झिलमिल, पृ. 29
11. गोविन्द मिश्र, खिलाफत, पृ. 11
मकान नं. 10, अशोक विहार, सोफिया स्कूल के पास, जयपुर रोड,
बीकानेर (राजस्थान) 334001
गोविन्द मिश्र हिन्दी के उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपने साहित्य में भारतीय समाज में परिवार की विविधता के अनेक आयामों को अपनी विषय-वस्तु बनाया है। उनका अधिकांश साहित्य किसी-न-किसी नए बोध को लिए हुए है। समय-समय पर उनके द्वारा लिखित निबंधों, लेखों और साक्षात्कारों में उनके विभिन्न विचार देखने को मिलते हैं जिससे उनकी दृष्टि का पता चलता है।
गोविन्द मिश्र अपने निबंध समय और सर्जना में हिंदी उपन्यासः भारतीय विधा शीर्षक लेख के अंतर्गत हिंदी उपन्यास के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। वह हिंदी उपन्यास को पश्चिम से आई हुई विधा न मानकर संस्कृत कथा-साहित्य से उसका उद्भव मानते हैं। उनके अनुसार महाभारत उपन्यास की ही तरह जीवन के प्रत्येक आयाम को दर्शाता है। संस्कृत में कथा और आख्यायिका की परंपरा दण्डी और बाणभट्ट के पहले भी थी। बाण की कादंबरी और हर्षचरित को अगर हमें आधुनिक विधागत खाँचों में बिठाना हो, तो उन्हें उपन्यास ही कहेंगे।
गोविन्द मिश्र का उपन्यास लेखन कार्य मुख्य रूप से स्वतंत्रता के बाईस वर्षों के बाद अर्थात् सन् 1969 ई. से आरंभ होता है। यह वह समय था, जब नवीन शिक्षा, वैज्ञानिक प्रगति, आधुनिकता तथा देश विभाजन की त्रासदी से उत्पन्न नई समस्याएँ भारतीय समाज को तेजी से परिवर्तित कर रही थी। भारतीय समाज में हो रहे इन परिवर्तनों का असर परिवार संस्था पर भी पडा। हालाँकि परिवार समाजशास्त्र का विषय है, लेकिन साहित्य की विधाओं में उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसका परिवार जैसी संस्था के साथ गहरा एवं रागात्मक रिश्ता है। जहाँ समाजशास्त्री परिवार सम्बन्धी सिद्धांतों को लेकर चलता है, वहीं साहित्यकार अने लेखक में जीवन को आधार बनाते हुए उसके परिप्रेक्ष्य में परिवार की व्याख्या करता है।
गोविन्द मिश्र ने अब तक कुल तेरह उपन्यास लिखे हैं जिनमें भारतीय परिवार के विविध आयामों की अभिव्यक्ति हुई है। मैंने अपने अध्ययन में उनके तीन उपन्यास वह अपना चेहरा, फूल इमारतें और बंदर और अरण्य तंत्र को आधार नहीं बनाया गया है क्योंकि इन तीनों उपन्यासों में परिवार मुख्य नहीं है। उनके शेष दस उपन्यासों को केन्द्र में रखते हुए भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों, मान्यताओं तथा भावनाओं में आए परिवर्तन को विश्लेषित करने की कोशिश की है।
गोविन्द मिश्र के उपन्यासों में संयुक्त प रिवार से एकल परिवार तक की तस्वीरें हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी में एकल पारिवारिक स्वरूप के विघटन की कथा शब्दबद्ध है। उतरती हुई धूप से लेकर खिलाफत तक उपन्यासकार भारतीय परिवार में हो रहे परिवर्तनों को विविध स्तर पर दर्शाता ही नहीं, अपितु विवेचित भी करता है। एक तरफ इन उपन्यासों में परिवार की पीढियों में हो रहे परिवर्तन दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ इक्कीसवीं सदी के एक ही पीढी के विवाहित स्त्री-पुरुष के मध्य परिवर्तित हो रहे संबंधों के बदलाव भी व्यंजित हैं। गोविन्द मिश्र परिवार में हो रहे निरन्तर परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तन को भी लक्षित करते चलते हैं।
गोविन्द मिश्र ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने राजनीति, प्रेम, विवाह, संस्कृति, स्त्री, परिवार, वृद्धपन आदि अनेक विषयों पर लिखा है। परिवार उनके अधिकतर उपन्यासों में केन्द्र में है और उन्होंने उसके बदलते स्वरूप के साथ कई परिप्रेक्ष्यों को भी दर्शाया है। हिन्दी उपन्यास में इससे पहले परिवार को इतने बदले हुए स्वरूप, ऐसे विस्तार में और ऐसे प्रभावशाली ढंग से कम देखने के मिलते हैं।
गोविन्द मिश्र का उपन्यास साहित्य लेखन इन 50 वर्षों के कालखण्ड में लेखन के मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में हो रहे आन्तरिक एवं बाह्य परिवर्तन को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं नैतिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं जो भारतीय परिवार के उन चार प्रकारों का चित्रण दर्शाते हैं।
1. स्वतन्त्रता से पूर्व परिवार - वह अपना चेहरा, उतरती हुई धूप और पाँच आँगनों वाला घर
2. स्वतन्त्रता के समय परिवार - हुजूर दरबार और धीर समीरे
3. स्वातंर्त्र्योत्तर परिवार- तुम्हारी रोशनी में, कोहरे में कैद रंग, लाल पीली जमीन
4. परिवार का समकालीन रूप - धूल पौधों पर, शाम की झिलमिल, और खिलाफत।
1969 ई. में उनका पहला उपन्यास वह अपना चेहरा प्रकाशित हुआ जिसने साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। उन्होंने वह अपना चेहरा’ (1969 ई.), उतरती हुई धूप (1971 ई.), लाल पीली जमीन (1976 ई.), हुजूर दरबार (1981 ई.), तुम्हारी रोशनी में (1985 ई.), धीरे समीरे (1988 ई.), पाँच आँगनों वाला घर (1995 ई.), फूल ईमारतें और बंदर (2000 ई.), कोहरे में कैद रंग (2004 ई.), धूल पौधों पर (2008 ई.), अरण्य तन्त्र (2013 ई.), शाम की झिलमिल (2017 ई.), और खिलाफत (2018 ई.) मिलाकर कुल तेरह उपन्यास लिखे हैं। उपन्यासों के अतिरिक्त गोविन्द मिश्र ने दस से ऊपर कहानी संग्रह, यात्रा वृत्तांत, निबंध संग्रह के साथ-साथ कविता, बाल साहित्य और संस्मरण भी लिखे हैं। गोविन्द मिश्र निरंतर मानवीय संवेदना के नये भाव स्तरों को कथ्याधार बनाकर आगे बढे हैं। एक उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति का आधार उनकी विविधता को जाता है। गोविन्द मिश्र के प्रत्येक उपन्यास का विषय और परिवेश अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों से बिल्कुल भिन्न होता है। इसलिए उन्हें किसी एक परिपाटी में बाँधना मुश्किल है। यहाँ तक कि उनकी भाषा में उनके पूर्ववर्ती उपन्यासों से बिल्कुल भिन्न होती है और यह किसी भी साहित्यकार की व्यापकता के दर्शाता है। कम ही साहित्यकार ऐसे होंगे जिन्होंने एक ही समय और परिवेश में एक जैसे लगने वाले यथार्थ को कई स्तरों और कोणों से देखा-समझा हो। उपन्यास के रूप में गोविन्द मिश्र की एक खासियत यह भी है कि भिन्न तरह के यथार्थ और वर्णन के बावजूद उनका यथार्थ-बोध अपनी संस्थान में एक संवेदनात्मक अन्तर सूत्र बनाए रखता है। मूलतः गोविन्द मिश्र एक प्रयोगधर्मी उपन्यासकार हैं।
गोविन्द मिश्र ने अपने अधिकतर उपन्यासों में परिवार के विविध रंगों को उकेरा है। पाँच आँगनों वाला घर में भारतीय परिवार की संपूर्ण अवधारणा केंद्र में है, तो धूल पौधों पर में आज के समय में एकल परिवार के टूटने और परिवार में स्त्री की बदलती भूमिका को प्रस्तुत किया गया है। तुम्हारी रोशनी में, धीर समीरे, कोहरे में कैद रंग, शाम की झिलमिल, आदि में भी गोविन्द मिश्र का परिवार संबंधी चिंतन मुखरित हुआ है। परिवार संबंधी उनके उपन्यास जैसे पाँच आँगनों वाला घर, कोहरे में कैद रंग, धीर-समीरे, धूल पौधों पर आदि का समापन व्यक्ति के अकेलेपन के साथ होता है, परंतु यहाँ व्यक्ति का यह अकेलापन, द्वन्द्व, कुण्ठा, निराशा, आदि भावों से ग्रस्त न होकर, मूलतः भारतीय परिवार की पारंपरिक मूल्यगत सकारात्मकता को ही स्थापित करता है।
उतरती हुई धूप (1971 ई.) गोविन्द मिश्र का दूसरा उपन्यास है। यह उपन्यास दो भागों में विभाजित है। पहला भाग कॉलेज के मध्यवर्गीय युगल अरविन्द और वह (युवती) के मध्य प्रेम प्रसंगों पर आधारित है, तो दूसरा भाग दस साल बाद की कहानी को प्रस्तुत करता है। जब वह की शादी हो चुकी होती है और अरविन्द की मुलाकात उससे फिर होती है। उपन्यास में परिवार संबंधी सूत्र कम दिखते हैं। लेकिन जितना दिखता है वह कहीं न कहीं परिवार में विवाह पूर्व प्रेम संबंधों से उत्पन्न तनाव को सघन रूप से संकेतित करता है।
उतरती हुई धूप की नायिका अरविन्द से प्रेम करती है, लेकिन माता-पिता के कारण वह खुद को अरविंद से विवाह करने के लिए तैयार नहीं कर पाती, उससे मार-पीटकर शादी कर डाली जाए ... कहाँ जाएगी। बाद में माँ बाप भी ठीक हो जाएँंगे ... पर तब वह न रहेगी। अपनी खुशी के लिए उसने इतनों को ठेस पहुँचाई यही उसे जीने नहीं देगा।1 वह की शादी हाती है, लेकिन अरविंद के साथ नायिका का प्रेम संबंध खत्म होने के कगार पर आ जाता है। चन्द्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, भारतीय परिवेश में विवाह पूर्व संबंध की किंवदन्तियाँ जिस वेग से फैलती हैं उसके कारण विवाह बँधन को कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार कर जीवन जीने की प्रामाणिक चेष्टा करने वाली वह लडकी बिखर जाती है ... टूट जाती है। एक बच्चे का आधार और पुनः पढाई कर जीवन को अलग आकार देने की आकांक्षा। इनके फलस्वरूप वह पी.एच.डी. कर रही है।2 विवाह के उपरांत वह की जिन्दगी में परिवर्तन आते हैं और उसे तरह-तरह की यातना से गुजरना पडता है। उसे प्रताडित किया जाता है, सास और पति के द्वारा उसे यातना दी जाती हैं। जब अरविंद उसके शादी के बाद पूछता है कि उसके हाथ पर दाग कैसे पड गए हैं, तब वह कहती है, क्या बताऊँ! वह सिसक रही थी इन लोगों ने क्या दुर्गति की है मेरी ... क्या-क्या कलंक लगाए ...।3 उपन्यास परिवर में विषम विवाह की यातना को दर्शाते हुए एक स्त्री के अभिशप्त जीवन को दर्शाता है।
गोविन्द मिश्र का तीसरा उपन्यास लाल पीली जमीन (1976 ई.) कस्बाई सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में व्याप्त हिंसा, भय, अपमान, शोषण और काम-कुण्ठा के विविध संदर्भों को चित्रित करता है। उपन्यास के केन्द्र में केशव नामक लडका है जो पूरी सामाजिक परिस्थिति को देखता है, परन्तु कर कुछ नहीं पाता। यह कुछ न कर पाने की छटपटाहट उपन्यास के आरंभ से लेकर अंत तक है। चाहे वह केशव के पिता जैसे ईमानदार पात्र की हो या फिर सुरेश जैसे गुण्डे की ही क्यों न हो। वस्तुतः सभी पात्रों में एक बैचेनी है, पूरा उपन्यास व्यक्ति और परिवार की विवशता, भय और लाचारी के चित्र को मूर्त्तता प्रदान करता है।
लाल पीली जमीन के केन्द्र में हिंसा है, परन्तु उपन्यास कस्बाई परिवार की पीडा और विस्थापन के दंश को अधिक व्यक्त करता है और इस संदर्भ के कई प्रश्नों को खडा करता है। उपन्यास के केन्द्र में केशव का परिवार है जिसके माध्यम से स्त्री को अपमान, बच्चों के भविष्य और अभिभावक की छटपटाहट और उनकी असहायता को दर्शाया गया है। उपन्यास के आरंभ में ही यह वाक्य, तुम्हारे खानदान में यह हमेशा से होता आया है, तुम्हारे चाचा ने अपनी बहू को जलते हुए चैलों से मारा और मार-मारकर भगा दिया।4 स्पष्ट करता है कि यह समस्या कब से चली आ रही है। जहाँ परिवार में स्त्री का मतलब ही उसका शोषण करना, उसे मारना-पीटना हो, वहाँ किसी आत्मीयता की कल्पना करना बेमानी है। पंडित का अपनी बीवी के बारे में कहना, कुछ नहीं... औरत जात है, ससुरी छिनार।5 कस्बाई परिवेश में स्त्री-पुरूष के संबंधों के स्तर को दर्शा देता है। उपन्यास में उन परिवारों की कहानी भी है। जहाँ जवान लडकी का विवाह उससे बीस वर्ष अधिक उम्र वाले व्यक्ति से करा दिया जाता है। मालती का विवाह सर्वेश की चौथी पत्नी के रूप में होता है, मालती को लगता है कि वह एक दिन में ही बूढी हो गई।
चंद्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, लाल पीली जमीन की लडकियाँ अपने यौवन को भोग ही नहीं सकती थीं, यह दर्दनाक तथ्य लगभग हर नारी प्रमाणित कर देती है। 6 वस्तुतः इसका मुख्य कारण परिवार के मुखिया पुरुष का स्त्रियों के महत्त्व को नकारना है। लक्ष्मण की माँ मालती के विवाह के खिलाफ थी, लेकिन लक्ष्मण के दद्दा के आगे किसी की नहीं चलती। औरत को समाज में गाय माना जाता है जिसे जिधर चाहे हाँक दिया और चाहे जिस खूँटे से बाँध दिया। भारतीय परिवार में स्त्री की विषम स्थिति और असहायता का चित्रण इस उपन्यास में हिंसा के परिवेश में और अधिक यथार्थपरक हो गया है।
हुजूर दरबार (1981 ई.) गोविन्द मिश्र द्वारा लिखित चौथा उपन्यास है। उपन्यास के केन्द्र में स्वतंत्रता के पूर्व के रियासती दरबार और स्वतंत्रता के पश्चात उसके देश के नए रूप में विलय होने की कथा है। उपन्यास की प्रमुख घटनाओं का संबंध रियासत से है और उपन्यास के अधिकतर पात्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रियासत से संबंधित हैं। हुजूर दरबार में मुख्य रूप से राजनीतिक परिवेश का चित्रण है जो रियासती और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न दाँव पेंचों को प्रदर्शित करता है। इसके अलावा हुजूर दरबार भारतीय परिवार के दो प्रमुख चित्रों को उपस्थित करता है। पहला, रियासती अर्थात् सामंतवादी परिवार जिसके केन्द्र में महाराज रूद्रप्रताप सिंह है और दूसरा वह परिवार जो राजदरबार के संरक्षण में पला बढा है जिसके केन्द्र में हरीश है। स्वतंत्रता के पूर्व के सामंतवादी परिवार के रहन-सहन, उनकी मानसिकता को यथार्थवादी तरीके से दर्शाया गया है, तो वहीं हरीश के परिवार के द्वारा उन लोगों की स्थिति को दर्शाया गया है जो सामंती परिवार की गुलामी को ही अपना जीवन का लक्ष्य मानते हैं।
हुजूर दरबार महाराजा रूद्रप्रताप सिंह द्वारा सामंती परिवार के विलासमयी चित्र को दर्शाने के साथ-साथ उस परिवार की जटिलताओं को भी रेखांकित करता है। रूद्रप्रताप सिंह उस भारतीय आदर्श परिवार का प्रतिनिधित्व नहीं करते जिनकी केवल एक पत्नी हो, बल्कि सामंती व्यवस्था से प्रभावित है, इसलिए उनकी तीन पत्नियाँ होती हैं पहली रानी अर्थात् राजगढ सरकार, दूसरी चरखारी सरकार और तीसरी नेपाल सरकार। इसके अतिरिक्त राजाओं के अवैध संबंध को भी दर्शाया गया है जैसे रूद्रप्रताप सिंह और राधाबाई का प्रेम-संबंध, उनका और सुधा का संबंध, सिर्री राजा के पिता और भीलनी के संबंध, आदि। चंद्रकांत बांदिवडेकर लिखते हैं, खानदानी राजाशाही की लंपटता खून में प्रवाहित होने के कारण जिस स्त्री पर मन आ गए, उसे प्राप्त करके और कुछ दिन पास में रखकर पूर्णतः भूल जाना और राजघराने की अन्य दासियों के साथ संबंध रखना रूद्रप्रताप की लत है।7 वहीं हरीश का परिवार है जो इस राजदरबार पर पूर्णतः आश्रित है। हरीश के पिता और यहाँ तक कि उसके दादा भी राजदरबार की पराधीनता को स्वीकार करते हुए मठ की देखभाल करते हैं। यह पराधीनता केवल कार्य के स्तर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक स्तर पर भी है, सिवा हरीश और उसके माँ को छोडकर। हरीश के पिता इसलिए उपन्यास के अंत में हरीश को राजदरबार के खत्म हो जाने पर भी हरीश को उन्हीं सामंती परिवार के लोगों की तरफ ढकेलते हुए कहते हैं, महाराज नेपाल सरकार के लिए एक कपडे की बडी मील खुलवा रहे हैं ... माँ साहिबा की भी यही इच्छा थी कि तुम उसी मील में लग जाओ। 8 यह मुख्य रूप से निम्नमध्यवर्गीय परिवार की समझौतावादी नियति को दर्शाता है। वह जिस परिवेश के दबाव में रहता हैं उसी से समझौता करना चाहता है। वह परिस्थिति से लडने के बजाय एडजस्ट होने की कोशिश अधिक करता है। इससे हरीश का जीवन प्रभावित होता है।
गोविन्द मिश्र का पाँचवा उपन्यास तुम्हारी रोशनी में (1985 ई.) आधुनिक स्त्री की अस्मिता को भारतीय परिवार के केन्द्र में रखकर उसके द्वन्द्व की कथा है। कथा के केन्द्र में तीन पात्र हैं - सुवर्णा, उसका पति रमेश और उसका दोस्त अनन्त। सुवर्णा एक सुन्दर, पढी-लिखी, सम्पन्न घर की आधुनिक महिला है। अपनी अस्मिता की पहचान के लिए वह जिस पुरूष में कुछ विशेष दिखा... उसके करीब हो जाती है। इसमें वह अपने दाम्पत्य जीवन के लिए कोई खतरा महसूस नहीं करती क्योंकि उसने अपनी सीमा-रेखा भी तय कर रखी है। सब उसके सिर्फ दोस्त ही हो सकते हैं। वह प्रेम भी नहीं महसूस कर पाती। कस्बे से आया अनंत महानगर की इस आत्मविश्वास से भरी सफल महिला में प्रेम महसूसने की कुव्वत विकसित करता है, लेकिन तभी सुवर्णा का उसके पति के साथ विरोध शुरू हो जाता है - अनंत को लेकर नहीं, सुवर्णा के एक दूसरे रोस्त श्याम को लेकर। यहाँ से चल पडता है सुवर्णा का भीतरी संघर्ष।
गोविन्द मिश्र का छठवाँ उपन्यास धीर-समीरे (1988 ई.) ब्रज की पैंतालिस दिन की यात्रा पर आधारित है। इसी यात्रा के माध्यम से उन्होंने भारतीय परंपरा, संस्कृति, धर्म और परिवेश से साक्षात्कार कराया है। धीर-समीरे भारतीय परंपरा और संस्कृति के साथ-साथ वर्तमान परिदृश्य में आधुनिकता और उसमें व्यस्त जीवन को भी इस यात्रा के माध्यम से दिखाता है। धीर समीरे के कथा के केन्द्र में सुनन्दा है, जो ब्रज की यात्रा पर जाती है अपने खोए हुए बेटे किशोर को ढूँढने के लिए। उपन्यास ब्रज की यात्रा में सुनन्दा, सत्येन्द्र, मंजुला बैन, नरेन्द्र, नंदन, आदि पात्रों की तरह विभिन्न प्रान्त से आए भारतीयों के सुख-दुःख, विचार, भावना, मानसिक द्वन्द्व, संवेदना और संघर्ष को चित्रित करते हुए भारतीय समाज की जीवनयात्रा को विभिन्न स्तर पर बिम्बित करता है।
धीर-समीरे भारतीय समाज के साथ भारतीय परिवार की विभिन्न स्थितियों और परिवर्तनों को प्रस्तुत करता है। उपन्यास के अधिकांश पात्र किसी न किसी रूप में परिवार से जुडे हुए हैं। कुछ अपने परिवार के साथ आते हैं, तो कुछ परिवार को छोडकर। गोविन्द मिश्र ने प्रस्तुत उपन्यास में भी अधिकांश चरित्रों की कहानी को उसके परिवार के संदर्भ में चित्रित किया है। धीर-समीरे परिवार की उन समस्याओं से साक्षात्कार कराता है जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं। यह समस्या स्त्री, पुरूष, वृद्ध, बच्चे सभी को समेटे हुए हैं। धीरे- समीरे पुरानी पीढी के समक्ष नयी पीढी और पुरूष के समक्ष स्त्री को रखते हुए परिवारों के परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय परिवार की विविध चुनौतियों को सामने रखता है।
पाँच आँगनों वाला घर (1995 ई.) गोविन्द मिश्र का सातवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास की कथा 1940 ई. के आस से शुरू होकर 1990 ई. तक के कालखण्ड तक फैली हुई है। इन पचास वर्षों के कालखण्ड में लेखक ने मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में हो रहे आंतरिक एवं बाह्य परिवर्तन को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं नैतिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास तीन भागों में विभाजित है और इन तीनों भागों में गोविन्द मिश्र ने भारतीय परिवार के उन तीन पीढियों का चित्रण किया है जो यह दर्शाती है कि भारतीय परिवार समय के साथ किन परिस्थितियों के चलते परिवर्तित हो रहा है।
पाँच आँगनों वाला घर उपन्यास मुख्य रूप से संयुक्त परिवार से एकल परिवार में परिवर्तित होने की गाथा है। उपन्यास का आरम्भ बडी अम्मा अर्थात् जोगेश्वर के परिवार से होता है। जोगेश्वरी के चार लडके हैं, मुंशी राधेलाल, घनश्याम, बाँके और सन्नी। मुंशी राधेलाल सबसे बडे हैं और वकील होने के कारण घर का सारा भार उन्हीं पर है। उनकी पत्नी शांतिदेवी मोहल्ले की सबसे सुन्दर स्त्री है। दूसरे नंबर पर घनश्याम हैं जिनकी पत्नी घर में रामनगर वाली कहलाती है, तीसरे में बाँके हैं, जिनकी पत्नी नइकी चाची के रूप में प्रसिद्ध है और चौथे सन्नी अविवाहित हैं। ये सभी परिवार और उनके बाल-बच्चे बनारस के पाँच आँगनों वाला घर में रहते हैं। घर का यह आँगन सभी को जोडे रखता है। परिवार इतना बडा है कि गोविन्द मिश्र लिखते हैं, बच्चों की छोटी-मोटी भीड एक आँगन से दूसरे आँगन दौडती रहती है। माँ-बाप को अपने बच्चे जरूर मालूम हो, लेकिन बच्चों को बडे होने तक यह पता न चलता कि उनके माँ-बाप कौन है?9 यह भारतीय समाज में परिवार की उस एकता और सौहार्द को दर्शता है जहाँ परिवार के सभी सदस्य एक धागे में पिरोये हुए हैं। उपन्यास में संयुक्त परिवार में परिवर्तन का आरंभ तब होता है जब राधेलाल परिवार के छोडकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड जाता है।
गोविन्द मिश्र का नौवाँ उपन्यास कोहरे में कैद रंग (2004 ई.) एक व्यक्ति के माध्यम से समाज मे बिखरे विभिन्न जीवन रंगों को दर्शाता है। संभवतः लेखक का दृष्टिकोण यह है कि समाज के कितने ऐसे अच्छे संभावनाओं से भरे लोग होते हैं जो पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते, जो कोहरे में दबे रहते हैं। उपन्यास में कथानायक अर्थात् अरविन्द के बचपन से लेकर किशोरावस्था और युवावस्था से लेकर प्रौढता तक के जीवन को उकेरा गया है। अरविन्द अपने आँखों से सब कुछ देखता है और वही चलचित्र की तरह पाठक के सामने उपस्थित होता चला जाता है। वस्तुतः जिस सामाजिक रंगों को कोहरे में कैद रंग में दिखाया गया है उनके तल में भारतीय कस्बाई और महानगरीय परिवार है। स्थूल स्तर पर यह उपन्यास एक प्रेम कथा लग सकती है, परन्तु इस उपन्यास का असली प्रयोजन उन संबंधों को बनते-बिगडते हुए दर्शाना है जो परिवार के रूढिगत और नयी अवधारणाओं से साक्षात्कार कराते हैं।
भारतीय परिवार में स्त्री की स्थिति को गोविन्द मिश्र ने उतरती हुई धूप, तुम्हारी रोशनी में, धीर-समीरे जैसे उपन्यासों में आधार बनाया है। कोहरे में कैद रंग में भी वे इससे टकराते हैं, सवाल उठाते हैं, लेकिन यहाँ उनके उत्तर भी देने की कोशिश करते हैं। इक्कीसवीं सदी के परिवार केन्द्रित यह उनका पहला उपन्यास है जिसमें रेवा और टूटू मौसी जैसी आधुनिक भारतीय स्त्रियाँ है। उतरती हुई धूप, लाल पीली जमीन और हुजूर दरबार की महिलाएँ समाज और उसकी रूढियों के आगे बेबस और कमजोर हैं। तुम्हारी रोशनी में की सुवर्णा उनसे आगे की तस्वीर है, पर वह भी परंपरा और आधुनिकता के बीच झूलती नजर आती है। उसे अपने सवालों के उत्तर नहीं मिलते। कोहरे में कैद रंग में रेवा और टूटू मौसी पुराने द्वन्द्वों से उबर चुकी महिलाएँ हैं। परिप्रेक्ष्य देने के लिए गोविन्द मिश्र उपन्यास के पूर्वार्द्ध में अरविन्द का बचपन प्रस्तुत करते हैं, जहाँ सरस्वती और सविता हैं जो करीब-करीब पारंपरिक महिलाओं में ढलने जा रही हैं, लेकिन रेवा के रूप में सरस्वती का विस्तार और सविता का नया रूप हमें देखने को मिलता है। पहले भाग में नानी का चरित्र एक निडर नारी का है जो आत्मनिर्भर है, अपने परिवार को सँभालती है और जो उसके आस-पास हैं, उनकी प्रेरणा स्रोत भी है। पुराने समय के परिवारों में नानी जैसे पात्र अपवाद रूप थे, जो कोहरे में दब कर रह गए, जैसे सरस्वती अपने तमाम अच्छाइयों के बावजूद।
धूल पौधों पर (2008 ई.) गोविन्द मिश्र का दसवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास में गोविन्द मिश्र ने इक्कीसवीं सदी के एकल परिवार में दाम्पत्य संबंध के परिवर्तित स्वरूप को दर्शाया है। उपन्यास के केंद में एक युवती है, जो विमाता के साथ रहती है। उसका भाई सौतेले भाईयों द्वारा मण्डल आन्दोलन की आग में झोंक दिया जाता है। विमाता युवती का विवाह एक निखट्टू से कराकर उससे छुट्टी पा लेती है। ससुराल में युवती अपने पति और सास-ससुर से खुश नहीं रहती और पति द्वारा प्रताडित की जाती है और अन्ततः वह घर छोड देती है। शायद इसलिए कि उसकी व्यथा भारतीय समाज में रह रही हजारों उन लडकियों की व्यथा है जो परिवार द्वारा प्रताडित की जाती हैं।
उपन्यास के केन्द्र में वह (युवती) की संघर्षकथा और उसका प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रेमप्रकाश से प्रेम करना है। इससे पहले भी मिश्र ने कोहरे में कैद रंग में रेवा और तुम्हारी रोशनी में सुवर्णा, रमेश और अनंत के माध्यम से परिवार में पति-पत्नी के बदलते संबंध को दिखाया है, लेकिन धूल पौधों पर में यह संघर्ष केवल पति के साथ नहीं है, सास-ससुर के साथ भी है। संघर्ष के बीच एक बच्चा भी है जिसकी मनोदशा को गंभीर रूप से चित्रित किया गया है। शहरों में होने वाले अनैतिक संबंध, विवाहेतर प्रेम-संबंध, नौकरी की विवशता, आधुनिकीकरण का बढता प्रभाव, भारतीय समाज, विशेषकर पुजारी समाज की रूढियाँ, आदि कई महत्त्वपूर्ण बिंदु भी उपन्यास में उठाए गए हैं, लेकिन यह उपन्यास मुख्यतः युवती और प्रेमप्रकाश की बदलती मनोदशा को रेखांकित करता है। युवती सहारा देने वाले प्रेमप्रकाश से प्रेम करने लगती है, जो उससे उम्र में काफी बडे है और जिनका अपना परिवार है। एक विवाहिता का पर पुरूष से एक अधेड का युवती से प्रेम - दोनों ही भारतीय समाज में निंदनीय है। इसस तरह से ये दोनों पात्र नैतिक दृष्टि से गिरे हुए हैं, पर उपन्यास में उनका उदात्तीकरण होता है और वे पाठकों को स्वीकार्य हो जाते हैं - यह उपन्यास की सफलता है।
धूल पौधों पर में इक्कीसवीं सदी का परिवार है और परिवार में इक्कीसवीं सदी की युवती है। संयुक्त परिवार में अधिकांशतः स्त्री की स्वतंत्रता पर अंकुश रहता था, समय के साथ-साथ उसे अधिकार मिलने लगे और अब वह अपने पैरों पर खडे होकर खुद के और अपने परिवार के बारे में फैसले लेने में सक्षम होने लगी है, लेकिन उसे इसका मूल्य भी चुकाना पडा है और इसके साथ-साथ उसका संघर्ष अपने परिवार से भी होने लगा है।
शाम की झिलमिल (2017 ई.) गोविन्द मिश्र का बारहवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास वृद्धावस्था के अकेलेपन और जिजीविषा के द्वन्द्व और टकराहट को लेकर लिखा गया हिन्दी का संभवतः पहला उपन्यास है। उपन्यास के केन्द्र में कथानायक मैं है, जो कि एक सत्तर वर्षीय वृद्ध है और अपनी पत्नी के मृत्यु के उपरांत शेष जीवन में स्वतंत्रता को जीने की चाह में समाज में निकलता है। शाम की झिलमिल वृद्धों के माध्यम से इक्कीसवीं सदी में परिवार नामक संस्था को नये सिरे से देखने और समझने का प्रयास है। उपन्यास में कथानायक द्वारा दिवंगत हुए व्यक्तियों से वार्तालाप करते हुए दिखाया गया है जो हिन्दी उपन्यास में अभिनव प्रयोग है।
उपन्यास की मुख्य धारा आधुनिक भारतीय परिवार और उसमें वृद्धों की जीवन स्थिति है। भारतीय परिवार में वृद्धों का सम्मान करना और उनकी सेवा करने का विधान है। परंतु समय और परिस्थिति के बदलाव के कारण यह विचारधारा अतीत का हिस्सा बन चुका है। वर्तमान समय में परिवार में वृद्ध महज एक वस्तु के समान रह गये हैं जिसके साथ सिर्फ औपचारिकता की जाती है। भारत में सात करोड से अधिक वृद्ध हैं जो साठ वर्ष से ऊपर के हैं। एकल परिवारों की नवीन जीवन-शैली और उपभोक्तावादी संस्कृति ने आज भारत में वृद्ध को परिवार हाशिए पर धकेल दिया है। उपन्यास में कथानायक मैं और उसके परिवार के बीच ऐसा ही संबंध नजर आता है। कथानायक अर्थात् खुद के गायब हो जाने पर जब वह घर पर पहुँचता है, तो वह महसूस करता है कि घर के लोग उसके गायब हो जाने के कारण नहीं, बल्कि उससे उत्पन्न होने वाली परेशानी को लेकर परेशान थे। कथानायक का दौलत के संदर्भ में अपने बेटे से कहना, उस पर किसकी नजर है ...यह तो नहीं पता है, पर आपकी नजर जरूर उस पर है यह जाहिर हो गया है।10 वर्तमान समय में भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन हुए हैं। संतान जब अपने पैरों पर खडे हो जाते हैं, तब उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत कम होती हैं। इसलिए वह उनकी देखभाल या जरूरतें पूरी अधिकांशतः इसलिए करते हैं, ताकि उनकी दौलत प्राप्त कर सकें। वृद्धाश्रम का तेजी से बढना इस बात का सबूत है कि परिवार में वृद्धों को जिस समय प्रेम, विश्वास, आदि की ज्यादा जरूरत होती है उसी समय वह सबसे अधिक खुद को अशक्त, उपेक्षित और अकेला पाते हैं। शहरों में वैश्वीकरण और तेज गति से चलने वाली जिंदगी के कारण परिवार के सम्बन्ध पीछे छूटते चले जा रहे हैं।
खिलाफत (2018 ई.) गोविंद मिश्र का तेरहवाँ और नवीनतक उपन्यास है यह उपन्यास इस्लाम और उससे जुडे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को वैश्विक स्तर पर उठाता है वह हिन्दी उपन्यास में नवीन होने के साथ-साथ आज के बदलते परिवेश में इंसानियत और उसके सरेआम कत्ल की चुनौती से भी टकराता है। उपन्यास के केन्द्र में इस्लामिक स्टेट की वैश्विक स्तर पर आतंकवादी गतिविधियाँ और सामाजिक प्रतिक्रिया की आशंका से कश्मीर के दो मुस्लिम परिवारों के सदस्यों में हो रहे वैचारिक परिवर्तन और उससे बाहर निकलने की जद्दोजहद है, जिससे आतंकवाद पर आधारित इस आख्यान को मानवीय धरातल मिल गया है।
उपन्यास के केन्द्र में दो कश्मीरी मुस्लिम परिवार एक-दूसरे से परिचित हैं तथा एक के शिया और दूसरे के सुन्नी होने की बात को महत्त्व नहीं देते। बेग साहब का परिवार शिया है। उनकी तीन बेटियाँ हैं, जिनमें आलिया सबसे बडी है। दूसरी तरफ डॉ. आफताब का परिवार है जो सुन्नी है और उनके तीन बेटे और एक बेटी हैं। यूनुस उनका सबसे बडा बेटा है। आलिया और यूनुस बचपन के दोस्त हैं और बडे हो जाने और नौकरी पा लेने के बाद एक दूसरे से निकाह करना चाहते हैं। दोनों परिवारों में आरंभिक आपसी संबंध को देखकर यह बात सरल लगती है, परंतु ऐसा आफताब के परिवार के लोगों के हाथ शियाओं के खून से रंगे हैं। वे यूनुस-आलिया के विवाह के खिलाफ हो जाते हैं।
गोविन्द मिश्र का लक्ष्य आतंकवाद जिसकी जड इस्लामिक स्टेट है, उसके माध्यम से उन्होंने विश्व स्तर पर मुस्लिम परिवार के वैचारिक परिवर्तन तथा उसको लेकर समाज की जाने वाली प्रतित्रिज्या से रूबरू करवाना है। दोनों परिवारों के बीच मतभेद का आरंभ तब होता है, जब यूनुस का छोटा भाई अशरफ इस्लामिक स्टेट में शामिल हो जाता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। इसके साथ ही विश्व स्तर पर सुन्नियों द्वारा शियाओं के मारे जाने के कारण इन दो परिवारों के मध्य विभाजन की रेखा खिंच आती है। इन प्रसंगों के कारण बेग साहब जैसे प्रगतिशील व्यक्ति जो आलिया को नौकरी के लिए दिल्ली भेजते हैं, यूनुस को अपने बेटे के समान मानते हैं और अपने बच्चों को आधुनिक तालीम देते हैं और कहते हैं, मजहब हमारा जाती मामला है, उसकी तालिम घर पर मिलना चाहिए। मैंने वह दी है। मेरी तीनों लडकियों को देख लो ...लेकिन उन्हें बुर्का पहनकर ही बाहर जाने दिया जाए, मैं इसका हिमायती नहीं हूँ।11 उन्हें भी बदलकर रख देता है। आई.एस. की आतंकवादी गतिविधियों ने उन्हें भी समाज और मजहब की रूढियों से बाँधकर रख दिया और उन्हें धीरे-धीरे यूनुस में सुन्नी और आलिया में शिया नजर आने लगे। विश्व स्तर पर सुन्नियों द्वारा शियाओं को खत्म करने की साजिश पग-पग पर उन्हें चुभने लगी और वे जो यूनुस और आलिया की नजदीकियों को बडे ही स्वाभाविक रूप से देखते थे, उनके निकाह के लिए तैयार भी हो जाते, वे अब उस परिवार से सम्पर्क रखने के ही खिलाफ हो जाते हैं।
निष्कर्ष :
गोविन्द मिश्र के सम्पूर्ण उपन्यास साहित्य से गुजरने पर हम पाते हैं कि इनका रचनाकार इस तथ्य से भली-भाँति परिचित था कि परिवार जैसी संस्था के वैशिष्ट्य को उपन्यास जितना बेहतर एवं उदारता से अपने कलेवर में समेट सकता है, उतनी साहित्य की अन्य विधाएँ नहीं।
श्री मिश्र के तेरह उपन्यासों के चार तरह के परिवारों में वर्गीकरण करके देखें, तो पता लगता है कि मिश्र का उपन्यासकार शिल्प का आग्रही नहीं है और न ही वह किसी अनावश्यक प्रयोगों की राह पर बढता-जूझता अन्वेषी। वह जीवन को जीवन की तरह देखने, समझने और अभिव्यक्त करने वाला सहज रचनाकार है, जिसकी यात्रा उतनी ही सहज है, जितने की उनके पात्र और भाषा। उनकी भाषा जीवन की जडों से स्पंदित होकर हमें रस, संवेदना और सर्जनात्मकता से सम्पन्न कर देती है। यह जरूर है कि उनके व्यक्तित्व पर जैनेन्द्र कुमार का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है, पर आप यह नहीं कह सकते कि वे जैनेन्द्र की प्रभाव परिधि में से आगे नहीं बढ पाते। उनका रचनाकार आत्मीयता के द्वीपों की राह पर निकला वह नाविक है जो अंततः संघर्ष करते-करते अपने लक्ष्य को प्राप्त करता जाता है।
भारतीयता, समन्वय और बोध के विविध आयामों का एकत्व ही उनके समस्त उपन्यास लेखन का वह मूल सत्त्व है, जिस पर उनके रचनाकार का विराट संसार खडा है। वे किसी वर्ग विशेष या विषय टाईप विशेष के चरित्र रचने वाले रचनाकार नहीं है। वे तो जीवन को पूरी समग्रता से, भारतीय दृष्टि से ग्रहण करने वाले रचनाकार हैं। उनका परिवार पश्चिमी आँधी में लिपटता जा रहा भारतीय परिवार है, जिसे वे आत्मिक ऊर्जा के अक्षय स्रोत से बचाना चाहते हैं। वे उस आँधी का वर्णन पूरे मनोयोग से कर रहें हैं, पर उनके पात्र/चरित्र अपनी भारतीय दृष्टि से ही जीवनपथ पर आगे बढते हैं।
अस्तु, गोविन्द मिश्र का रचनाकार परम्परा से रस ग्रहण कर आगे बढने वाला रचनाकार है। उनके समस्त सृजन का मूल है, मनुष्य और मनुष्यता। वे इसे सर्वोपरि मानते हैं। क्योंकि इन्हीं की नींव पर सारा समाज खडा है और आगे भी खडा रहेगा। रही बात उनके लेखन में घर की उपस्थिति की, तो हमने देख ही लिया कि कैसे चार प्रकार के घरों में समस्त स्वातन्त्र्योत्तर जीवन को निबद्ध करते है और न केवल निबद्ध करते हैं, हमें परिवार संस्था की खूबियों-खामियों से भी गुजारते हैं।
संदर्भ :
1. गोविन्द मिश्र, उतरती हुई धूप, पृ. 37
2. चन्द्रकांत बांदिवडेकर, गोविन्द मिश्र का औपन्यासिक संसार, पृ. 20
3. गोविन्द मिश्र, उतरती हुई धूप, पृ. 59
4. गोविन्द मिश्र, लाल पीली जमीन, चुनी हुई रचनाएँ-भाग-1, पृ. 95
5. गोविन्द मिश्र, लाल पीली जमीन, चुनी हुई रचनाएँ-भाग-1, पृ. 130
6. (संपा.) चंद्रकांत बांदिवडेकर, गोविन्द मिश्रः सर्जन के आयाम, पृ. 98
7. (संपा.) रामजी तिवारी, आकलन गोविन्द मिश्र, पृ. 80
8. गोविन्द मिश्र, हुजूर दरबार, पृ. 208
9. गोविन्द मिश्र, पाँच आँगनों वाला घर, पृ. 10
10. गोविन्द मिश्र, शाम की झिलमिल, पृ. 29
11. गोविन्द मिश्र, खिलाफत, पृ. 11
मकान नं. 10, अशोक विहार, सोफिया स्कूल के पास, जयपुर रोड,
बीकानेर (राजस्थान) 334001