इस्लाम-दोस्त (ख्वाजा अहमद अब्बास)
अभिषेक सक्सेना
आपको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। मानवता सागर के समान है; यदि सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो पूरा सागर गंदा नहीं हो जाता।
- महात्मा गाँधी
जूहू बीच की एक यादगार शाम थी। संध्या वंदन में गाँधीजी का साथ देने लिए दस हजार लोग इकट्ठे हुए थे। गाँधीजी पूरे मनोयोग से, तल्लीन होकर अपने आश्रमवासियों द्वारा गाई जा रही विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाओं को सुन रहे थे।
वहाँ मौजूद सारे लोग संस्कृत के मंत्रों और तुलसीकृत भजनों से बखूबी परिचित थे। तभी एकाएक शाम की मंथर हवा में एक अपरिचित व नई धुन घुल गई। एक गजायमान धुन; मधुर, शान्ति व प्रेरणादायक। बिस्मिल्ला-हिर्-रह्मा-निर्-रहीम- अल्लाह के नाम से शुरु जो मेहरबान और रहमतवाला है। अल्हम्दु- लिल्लाहे-रब्बिल-आलमीन, अर्रह-मान-उर-रहीम ओ मालिक-ए-यौम-इद-दीन....- सब खूबियाँ अल्लाह की हैं, जो मालिक है, सारे जहान वालों का, जो रहमदिल है और इंसाफ वाले दिन का मालिक है।
मौजूद भीड में से बमुश्किल एक प्रतिशत लोग ही समझ पाए कि अभी पाक कुरान की कोई आयत पढी जा रही थी और यह भी कि गाँधीजी अपनी प्रार्थना को तब तक पूरा नहीं मानते थे जब तक कि इस्लाम के धर्मग्रन्थों से कुछ आयते न पढ ली जाएँ। चंद लोग जो समझ पाए, उनमें से भी शायद ही किसी ने इस वाकिये की अहमियत पर क्षण भर विचार किया हो!
यह कैसे मुमकिन है कि जिस इंसान पर मजहबी कट्टरपंथी अक्सर मुस्लिमों और इस्लाम का दुश्मन होने की तोहमत लगाते हों, वह कुरान की आयतों में प्रेरणा पाता है?
09 अगस्त की उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह जब पुलिस उन्हें ले जा रही थी, उन्होंने अपनी प्रार्थनाओं के लिए समय माँगा। इन प्रार्थनाओं में भी कुरान की आयतें थीं। वे अपने साथ आधा दर्जन से भी कम किताब ले गए। पवित्र कुरान भी इनमें से एक थी।
क्या यह सब महज आडम्बर है या फिर मुस्लिमों को तसल्ली देने के लिए एक राजनेता की तरकीब? इसका जवाब है- बिल्कुल नहीं। गाँधीजी की इस्लाम में रुचि और इसके प्रति आदर पचासियों बरस पुराना है, उनके राजनीतिक नेतृत्व से कहीं अधिक पुराना। उनकी पूरी जिन्दगी में शायद ही ऐसा कोई वक्त आया हो, जब उन्होंने मुस्लिम दोस्तों व सहकर्मियों की मेहमान नवाजी, भरोसे और प्यार का लुत्फ ना उठाया हो। उनकी धार्मिकता के बारे में भले ही कुछ कहा जा सकता है, परन्तु कोई उसके पक्षपाती और कट्टर होने का आरोप नहीं लगा सकता।
अपनी आत्मकथा में गाँधीजी ने लिखा है कि कैसे लडकपन में ही उन पर हिन्दू धर्म की विभिन्न शाखाओं और उसके जैसे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता के बीज पड गए थे। उनके पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र थे, जो अपने धर्म के बारे में बातचीत करते रहते थे और वे उन्हें हमेशा सम्मान और रुचि से सुनते थे। मुझे भी अक्सर ऐसी चर्चा के दौरान वहाँ मौजूद रहने का मौका मिलता था। यही सारी चीजों ने मिलकर मेरे मन में सभी मतों के प्रति सहिष्णुता का भाव पैदा किया।
धर्म का वास्तविक अन्वेषण और समझ तो उनको निःसन्देह बाद में ही आयी। परन्तु दिलचस्प बात यह है कि धर्म को जानने-समझने की भावना का जन्म संयोगवश उम्र के उसी पडाव पर हुआ जब मुस्लिमों से उनकी अंतरंग मित्रता हुई। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि उस समय के एक होनहार वकील गाँधीजी ने एक मुस्लिम व्यापारी अब्दुल्ला सेठ के आमंत्रण पर ही दक्षिण अफ्रीका प्रस्थान किया था।
अब्दुल्ला सेठ और उनके मार्फत इस्लाम से हुई पहली मुलाकात का बयान करते हुए गाँधीजी ने कहा, उन्हें (अब्दुल्ला सेठ) इस्लाम पर फक्र था और इस्लामिक दर्शन पर चर्चा करना पसन्द था। उन्हें अरबी नहीं आती थी, परन्तु पाक कुरान और इस्लामिक साहित्य की अच्छी जानकारी थी। उनके पास ढेरों दृष्टांत हमेशा तैयार रहते। उनके सम्पर्क ने मुझे इस्लाम का अच्छा-खासा व्यवहारिक ज्ञान दिया। जब हम एक-दूसरे के और करीब आए, तो हमने अक्सर धार्मिक विषयों पर लम्बी चर्चायें कीं।
दक्षिण अफ्रीका में अपने लम्बे प्रवास के दौरान गाँधीजी ने न केवल उपनिषदों और हिन्दू धर्म ग्रन्थों व उनकी टीकाओं का सम्यक अध्ययन-चिंतन बल्कि ईसाई धर्म, इस्लाम और पारसी धर्मग्रन्थों का गहन शोध करके धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया। अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, इस सब से हिन्दू धर्म के प्रति उनका आदर और बढ गया और मुझे इसकी सुन्दरता दिखनी प्रारम्भ हो गई। परन्तु वे कट्टर और एक विशिष्ट मताग्रही होने से बचे रहे। वे कहते भी हैं, हालांकि ये मुझे दूसरे धर्मों के प्रति पूर्वाग्रही नहीं बनाता। उन्होंने महान धर्मों के प्रवर्त्तर्कों के जीवन का विशद अध्ययन किया खासतौर पर इस्लाम के पैगम्बर का। वे कहते हैं, ये पुस्तकें ही मुहम्मद को मेरी दृष्टि में लायीं। यह देखने वाली बात है कि ज्यों-ज्यों धर्म में उनकी रुचि बढी त्यों-त्यों उनकी सहिष्णुता और मानवता भी बढी और उन्होंने अपने जन्मजात धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों में भी श्रद्धा पैदा की। उनके शब्दों में, अध्ययन ने मुझमें आत्मावलोकन की प्रवृत्ति को उद्दीप्त किया और अध्ययन में जो भी श्रेष्ठ व आकर्षक लगे उसे व्यवहार में उतारने की आदत विकसित की। इस प्रकार धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से उनका एक धर्मांध और क्षुद्रमना हिन्दू नहीं बल्कि एक व्यावहारिक मानवतावादी व्यक्तित्व उभरा जिसने धर्म के गहनतम व अत्यन्त सार्वभौमिक मनोवेगों से विश्वास और प्रेरणा प्राप्त की और पंथ, जाति या रंग निरपेक्ष होकर मानवता की भरपूर सेवा की।
इसलिए यह बिलकुल भी आश्चर्य की बात नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका में एक हिन्दू वकील ने इतने कम समय में पूरे भारतीय समुदाय- जिसमें एक बडी व प्रभावी संख्या मुस्लिमों की थी, का प्रेम और विश्वास अर्जित किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में औपचाारिक रूप से शामिल होने से पहले ही गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मुस्लिम मित्रों व सहकर्मियों, खासतौर पर दादा अब्दुल्ला के सहयोग से इसके समकक्ष नटाल भारतीय कांग्रेस शुरू कर दी थी। सच कहा जाए तो अफ्रीका में अपने लम्बे प्रवास के दौरान भारतीय समुदाय के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए गाँधीजी का संघर्ष वास्तव में मुस्लिमों के पक्ष में संघर्ष था क्योंकि भारतीय समुदाय में एक बडी संख्या मुस्लिमों की थी। उनकी सारी गतिविधियाँ धार्मिक समबद्धताओं या सामाजिक और आर्थिक स्तर से परे समस्त भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए थीं। उनके नेतृत्व में नटाल भारतीय कांग्रेस एक गैर-साम्प्रदायिक एवं लोकतान्त्रिक संगठन था जो गिरमिटिया मजदूरों के अधिकारों के लिए भी उतनी ही ताकत से लड रहा था जितनी की व्यापारियों के अधिकारों के लिए।
भारत लौटने पर उन्होंने तुर्की के प्रश्न पर प्राधिकारियों से तीव्र संघर्ष में लगे भारतीय मुस्लिम नेताओं से आपसी सम्बन्ध और दोस्ताना सम्पर्क स्थापित करने का कोई भी मौका नहीं गँवाया। इसी समय उन्होंने अली बन्धुओं, हाकिम अजमल खान, मौलाना अब्दुल बारी, अब्दुल माजिद ख्वाजा, शोएब कुरैशी, डॉ. अंसारी, मजरूल हक एवं अन्य से दोस्ती की। जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, मुझे अच्छे मुसलमानों से दोस्ती की चाहत थी और उनके विशुद्धतम और सबसे देशभक्त प्रतिनिधियों से मिलकर मुस्लिम मन को समझने को उत्सुक था। इसलिए उनसे अन्तरंग दोस्ती के लिए उनके साथ कहीं भी जाने में मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई।
आगामी कुछ वर्षों के दौरान गाँधीजी खिलाफत आंदोलन में दिलो-जान से लग गए; अली बन्धु कांग्रेस के मजबूत स्तम्भ बन गए और वे तीनों ही उनकी यात्राओं में अविभाज्य साथी बनकर अपने करोडों देशवासियों के बीच हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिशाल के रूप में प्रतिष्ठापित हुए। यह वाकई बहुत आश्चर्यजनक है कि किस सम्पूर्णता से उन्होंने स्वयं मुस्लिमों की भावनाओं और आकांक्षाओं को पहचाना और भाईचारे की एक ऐसी लहर पैदा की कि हिन्दुओं को भी मस्जिदों में मुसलमानों के जलसों में तकरीर के लिए बुलाया जाने लगा।
वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि दोस्तों और आलोचकों ने खिलाफत के प्रश्न को लेकर मेरे रवैये की आलोचना की। इस आलोचना के बावजूद मेरा मानना है कि मेरे पास अपने रवैये पर पुनर्विचार करने या मुस्लिमों का साथ देने के लिए खेद प्रकट करने की कोई वजह नहीं है। दुबारा ऐसा अवसर आने पर मुझे ऐसा ही रवैया अपनाना चाहिए।’’
वायसराय को लिखे पत्र में गाँधीजी ने खिलाफत आन्दोलन को अपने समर्थन के कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया है, मैं चाहता हूँ कि आप महामहिम के मंत्रिगणों से मुस्लिम प्रान्तों के विषय में निश्चित आश्वासन देने का निवेदन करें। यकीनन आप जानते हैं कि हर भारतीय मुसलमान को उनमें गहरी दिलचस्पी है। हिन्दू होने के नाते मैं उनकी समस्या के प्रति उदासीन नहीं हो सकता। उनके दुख हमारे दुख होंगे ही।
यह भी याद रखा जाना चाहिए कि गाँधीजी ने दृढता से इस मुद्दे को हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच सौदेबाजी की वजह बनने से रोका था, यदि खिलाफत के प्रश्न का कोई न्यायोचित और वैध आधार है- मैं मानता हूँ कि है- और सरकार ने वास्तव में घोर अन्याय किया है, तो हिन्दुओं को मुसलमान भाइयों की खिलाफत अन्याय के प्रतिकार की माँग के समर्थन में मुसलमानों के साथ देना ही होगा। इस सम्बन्ध में गाय के प्रश्न को बीच में लाना या इस मौके पर खिलाफत प्रश्न पर मुस्लिमों के समर्थन में खडे होने के एवज में गौ-हत्या बंद करने की शर्त रखना अनुचित होगा।
कोकनाडा में आयोजित कांग्रेस के सन् 1923 के अधिवेशन में मौलाना मुहम्मद अली का यादगार अध्यक्षीय भाषण अल्लाह ओ अकबर (खदा महान है।) से शुरू और महात्मा गाँधी की जय से खत्म हुआ था। इस भाषण में मौलाना ने गाँधीजी, जो उस वक्त जेल में थे को मर्मभेदी आदरांजलि दीः
हमें अपने महान् मुखिया की कभी इतनी जरूरत नहीं थी जितनी की आज है... यद्यपि महात्मा गाँधीजी के बन्दीकरण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार आदमी को उम्मीद थी कि उसे जिंदा जला दो- यह चिल्लाकर वह गाँधी के उस विचार को मार सकेगा जिसे महात्मा ने सारे देश में संचारित किया था, मैं यकीनन यह मानता हूँ कि यह जिंदा रहेगा ठीक वैसे ही जैसे महात्मा जिन्दा हैं... दोस्तों केवल एक है जो आपकी रहनुमाई कर सकता है, वही जिसने अमृतसर, कलकत्ता, नागपुर और अहमदाबाद में आपकी रहनुमाई की, भले ही कांग्रेस के हर अधिवेशन में चुना हुआ अपना अलग अध्यक्ष था। हमारा प्रधान सेनापति दुश्मन के हाथों युद्धबन्दी है, और हमारे बीच उसकी कमी को पूरा करने वाला कोई नहीं है... पीडा के माध्यम से आत्म-शुद्धि; सरकार की जिम्मेदारियों के लिए नैतिक तैयारी; आत्मानुशासन, स्वराज की पूर्व शर्त- यह महात्मा का मत और दृढ विश्वास था; हम में से वे सौभाग्यशाली जो उस महान वर्ष में जीवित थे जिसमें अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन आयोजित हुआ, इस बात के गवाह है कि उन्होंने कैसे मानवजाति के एक बडे जनसमूह के विचारों, भावनाओं और कर्मों में इतनी तेजी से परिवर्तन लाया है।
यह वही भाषण था जिसमें मौलाना मुहम्मद अली ने जिाहिर किया था कि वह निष्ठावान हिन्दू, महात्मा गाँधी, इस्लाम के निमित्त वकालत करते हुए जेल चला गया। और यह भी कि खिलाफत आंदोलन के निस्वार्थ नेतृत्व के दौरान उनके कार्य स्वभावतया उदार और परोपकारी थे। मैं चाहता हूँ कि महात्मा गाँधी के आज के कुछ- नहीं ज्यादातर- अत्यधिक मुखर परम्परावादियों ने मुहम्मद अली की आदरांजलि को पढा होगा और खुद से यह सवाल पूछा होगा के वे कहाँ थे और क्या कर रहे थे जब एक निष्ठावान हिन्दू इस्लाम के निमित्त वकालत करते हुए जेल चला गया।
उस निष्ठावान हिन्दू ने हिन्दी धर्म को कभी भी अपने मानवतावाद में दखल देने की इजाजत नहीं दी, उनका धर्म किसी एक मत विशेष तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसमें समस्त महान् आदर्शों का सम्मिलन था जो किसी भी सच्चे धर्म के आधार हैं- यह उनकी प्रार्थनाओं से भी परिलक्षित होता है। इसलिए यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि एक निष्ठावन हिन्दू ने कैसे अपनी घनिष्टतम् मित्रमण्डली एवं राजनीतिक सहयोगियों में अली बन्धु, इमाम बवाजिर, अब्बास तैयबजी, डॉ. अंसारी, हकीम अजमल खान, मौलाना ए. बारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे निष्ठावान मुस्लिमों को जोडा। वास्तव में यह भी अद्भुत है कि वास्तविक मजहबी विचार वाले मुसलमान उस समय भी गाँधीजी के करीबी बने रहे जब कि इस्लाम खतरे में हैं चिल्लाने वाले केवल नाम के मुसलमान विशुद्ध राजनैतिक कारणों से मुसलमानों को गाँधीजी, कांग्रेस और स्वतन्त्रता संग्राम में अलग-थलग करने का प्रयास कर रहे थे। राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार करने के लिए गाँधी जी ने एक प्रसिद्ध मुस्लिम शिक्षाविद डॉ. जिाकिर हुसैन को चुना। और अपने अन्तिम बीस वर्षों दौरान उन्होंने कोई भी बडा निर्णय मरहूम डॉ. अंसारी या मौलाना अबुल कलाम आजिाद के मशविरे के बिना नहीं लिया।
गाँधीजी हमेशा की तरह इस्लाम और मुसलमानों के दोस्त बने रहे। वह इंसान जिसने इस्लाम की हिमायत में 1922 में जेल की सजा काटी, वह निःसन्देह मुस्लिमों के वैध हितों को न तो प्रभावित होने देगा और न ही इस्लाम पर जरा-सा भी खतरा आने देगा। कोई ये तो वह इंसान है जो जाति, वर्ण, मजिहब या रंग के क्षुद्र विचारों से ऊपर उठ चुका है। और जिसने अपने धर्म को इन सात शब्दों में समेट दिया हैः
सत्य के सिवा और कोई ईश्वर नहीं!
***
सम्पर्क - राजभाषा प्रकोष्ठ प्रशासनिक भवन,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्यप्रदेश-४७०००३
मो.: 08989889058
- महात्मा गाँधी
जूहू बीच की एक यादगार शाम थी। संध्या वंदन में गाँधीजी का साथ देने लिए दस हजार लोग इकट्ठे हुए थे। गाँधीजी पूरे मनोयोग से, तल्लीन होकर अपने आश्रमवासियों द्वारा गाई जा रही विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाओं को सुन रहे थे।
वहाँ मौजूद सारे लोग संस्कृत के मंत्रों और तुलसीकृत भजनों से बखूबी परिचित थे। तभी एकाएक शाम की मंथर हवा में एक अपरिचित व नई धुन घुल गई। एक गजायमान धुन; मधुर, शान्ति व प्रेरणादायक। बिस्मिल्ला-हिर्-रह्मा-निर्-रहीम- अल्लाह के नाम से शुरु जो मेहरबान और रहमतवाला है। अल्हम्दु- लिल्लाहे-रब्बिल-आलमीन, अर्रह-मान-उर-रहीम ओ मालिक-ए-यौम-इद-दीन....- सब खूबियाँ अल्लाह की हैं, जो मालिक है, सारे जहान वालों का, जो रहमदिल है और इंसाफ वाले दिन का मालिक है।
मौजूद भीड में से बमुश्किल एक प्रतिशत लोग ही समझ पाए कि अभी पाक कुरान की कोई आयत पढी जा रही थी और यह भी कि गाँधीजी अपनी प्रार्थना को तब तक पूरा नहीं मानते थे जब तक कि इस्लाम के धर्मग्रन्थों से कुछ आयते न पढ ली जाएँ। चंद लोग जो समझ पाए, उनमें से भी शायद ही किसी ने इस वाकिये की अहमियत पर क्षण भर विचार किया हो!
यह कैसे मुमकिन है कि जिस इंसान पर मजहबी कट्टरपंथी अक्सर मुस्लिमों और इस्लाम का दुश्मन होने की तोहमत लगाते हों, वह कुरान की आयतों में प्रेरणा पाता है?
09 अगस्त की उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह जब पुलिस उन्हें ले जा रही थी, उन्होंने अपनी प्रार्थनाओं के लिए समय माँगा। इन प्रार्थनाओं में भी कुरान की आयतें थीं। वे अपने साथ आधा दर्जन से भी कम किताब ले गए। पवित्र कुरान भी इनमें से एक थी।
क्या यह सब महज आडम्बर है या फिर मुस्लिमों को तसल्ली देने के लिए एक राजनेता की तरकीब? इसका जवाब है- बिल्कुल नहीं। गाँधीजी की इस्लाम में रुचि और इसके प्रति आदर पचासियों बरस पुराना है, उनके राजनीतिक नेतृत्व से कहीं अधिक पुराना। उनकी पूरी जिन्दगी में शायद ही ऐसा कोई वक्त आया हो, जब उन्होंने मुस्लिम दोस्तों व सहकर्मियों की मेहमान नवाजी, भरोसे और प्यार का लुत्फ ना उठाया हो। उनकी धार्मिकता के बारे में भले ही कुछ कहा जा सकता है, परन्तु कोई उसके पक्षपाती और कट्टर होने का आरोप नहीं लगा सकता।
अपनी आत्मकथा में गाँधीजी ने लिखा है कि कैसे लडकपन में ही उन पर हिन्दू धर्म की विभिन्न शाखाओं और उसके जैसे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता के बीज पड गए थे। उनके पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र थे, जो अपने धर्म के बारे में बातचीत करते रहते थे और वे उन्हें हमेशा सम्मान और रुचि से सुनते थे। मुझे भी अक्सर ऐसी चर्चा के दौरान वहाँ मौजूद रहने का मौका मिलता था। यही सारी चीजों ने मिलकर मेरे मन में सभी मतों के प्रति सहिष्णुता का भाव पैदा किया।
धर्म का वास्तविक अन्वेषण और समझ तो उनको निःसन्देह बाद में ही आयी। परन्तु दिलचस्प बात यह है कि धर्म को जानने-समझने की भावना का जन्म संयोगवश उम्र के उसी पडाव पर हुआ जब मुस्लिमों से उनकी अंतरंग मित्रता हुई। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि उस समय के एक होनहार वकील गाँधीजी ने एक मुस्लिम व्यापारी अब्दुल्ला सेठ के आमंत्रण पर ही दक्षिण अफ्रीका प्रस्थान किया था।
अब्दुल्ला सेठ और उनके मार्फत इस्लाम से हुई पहली मुलाकात का बयान करते हुए गाँधीजी ने कहा, उन्हें (अब्दुल्ला सेठ) इस्लाम पर फक्र था और इस्लामिक दर्शन पर चर्चा करना पसन्द था। उन्हें अरबी नहीं आती थी, परन्तु पाक कुरान और इस्लामिक साहित्य की अच्छी जानकारी थी। उनके पास ढेरों दृष्टांत हमेशा तैयार रहते। उनके सम्पर्क ने मुझे इस्लाम का अच्छा-खासा व्यवहारिक ज्ञान दिया। जब हम एक-दूसरे के और करीब आए, तो हमने अक्सर धार्मिक विषयों पर लम्बी चर्चायें कीं।
दक्षिण अफ्रीका में अपने लम्बे प्रवास के दौरान गाँधीजी ने न केवल उपनिषदों और हिन्दू धर्म ग्रन्थों व उनकी टीकाओं का सम्यक अध्ययन-चिंतन बल्कि ईसाई धर्म, इस्लाम और पारसी धर्मग्रन्थों का गहन शोध करके धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया। अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, इस सब से हिन्दू धर्म के प्रति उनका आदर और बढ गया और मुझे इसकी सुन्दरता दिखनी प्रारम्भ हो गई। परन्तु वे कट्टर और एक विशिष्ट मताग्रही होने से बचे रहे। वे कहते भी हैं, हालांकि ये मुझे दूसरे धर्मों के प्रति पूर्वाग्रही नहीं बनाता। उन्होंने महान धर्मों के प्रवर्त्तर्कों के जीवन का विशद अध्ययन किया खासतौर पर इस्लाम के पैगम्बर का। वे कहते हैं, ये पुस्तकें ही मुहम्मद को मेरी दृष्टि में लायीं। यह देखने वाली बात है कि ज्यों-ज्यों धर्म में उनकी रुचि बढी त्यों-त्यों उनकी सहिष्णुता और मानवता भी बढी और उन्होंने अपने जन्मजात धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों में भी श्रद्धा पैदा की। उनके शब्दों में, अध्ययन ने मुझमें आत्मावलोकन की प्रवृत्ति को उद्दीप्त किया और अध्ययन में जो भी श्रेष्ठ व आकर्षक लगे उसे व्यवहार में उतारने की आदत विकसित की। इस प्रकार धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से उनका एक धर्मांध और क्षुद्रमना हिन्दू नहीं बल्कि एक व्यावहारिक मानवतावादी व्यक्तित्व उभरा जिसने धर्म के गहनतम व अत्यन्त सार्वभौमिक मनोवेगों से विश्वास और प्रेरणा प्राप्त की और पंथ, जाति या रंग निरपेक्ष होकर मानवता की भरपूर सेवा की।
इसलिए यह बिलकुल भी आश्चर्य की बात नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका में एक हिन्दू वकील ने इतने कम समय में पूरे भारतीय समुदाय- जिसमें एक बडी व प्रभावी संख्या मुस्लिमों की थी, का प्रेम और विश्वास अर्जित किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में औपचाारिक रूप से शामिल होने से पहले ही गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मुस्लिम मित्रों व सहकर्मियों, खासतौर पर दादा अब्दुल्ला के सहयोग से इसके समकक्ष नटाल भारतीय कांग्रेस शुरू कर दी थी। सच कहा जाए तो अफ्रीका में अपने लम्बे प्रवास के दौरान भारतीय समुदाय के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए गाँधीजी का संघर्ष वास्तव में मुस्लिमों के पक्ष में संघर्ष था क्योंकि भारतीय समुदाय में एक बडी संख्या मुस्लिमों की थी। उनकी सारी गतिविधियाँ धार्मिक समबद्धताओं या सामाजिक और आर्थिक स्तर से परे समस्त भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए थीं। उनके नेतृत्व में नटाल भारतीय कांग्रेस एक गैर-साम्प्रदायिक एवं लोकतान्त्रिक संगठन था जो गिरमिटिया मजदूरों के अधिकारों के लिए भी उतनी ही ताकत से लड रहा था जितनी की व्यापारियों के अधिकारों के लिए।
भारत लौटने पर उन्होंने तुर्की के प्रश्न पर प्राधिकारियों से तीव्र संघर्ष में लगे भारतीय मुस्लिम नेताओं से आपसी सम्बन्ध और दोस्ताना सम्पर्क स्थापित करने का कोई भी मौका नहीं गँवाया। इसी समय उन्होंने अली बन्धुओं, हाकिम अजमल खान, मौलाना अब्दुल बारी, अब्दुल माजिद ख्वाजा, शोएब कुरैशी, डॉ. अंसारी, मजरूल हक एवं अन्य से दोस्ती की। जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, मुझे अच्छे मुसलमानों से दोस्ती की चाहत थी और उनके विशुद्धतम और सबसे देशभक्त प्रतिनिधियों से मिलकर मुस्लिम मन को समझने को उत्सुक था। इसलिए उनसे अन्तरंग दोस्ती के लिए उनके साथ कहीं भी जाने में मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई।
आगामी कुछ वर्षों के दौरान गाँधीजी खिलाफत आंदोलन में दिलो-जान से लग गए; अली बन्धु कांग्रेस के मजबूत स्तम्भ बन गए और वे तीनों ही उनकी यात्राओं में अविभाज्य साथी बनकर अपने करोडों देशवासियों के बीच हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिशाल के रूप में प्रतिष्ठापित हुए। यह वाकई बहुत आश्चर्यजनक है कि किस सम्पूर्णता से उन्होंने स्वयं मुस्लिमों की भावनाओं और आकांक्षाओं को पहचाना और भाईचारे की एक ऐसी लहर पैदा की कि हिन्दुओं को भी मस्जिदों में मुसलमानों के जलसों में तकरीर के लिए बुलाया जाने लगा।
वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि दोस्तों और आलोचकों ने खिलाफत के प्रश्न को लेकर मेरे रवैये की आलोचना की। इस आलोचना के बावजूद मेरा मानना है कि मेरे पास अपने रवैये पर पुनर्विचार करने या मुस्लिमों का साथ देने के लिए खेद प्रकट करने की कोई वजह नहीं है। दुबारा ऐसा अवसर आने पर मुझे ऐसा ही रवैया अपनाना चाहिए।’’
वायसराय को लिखे पत्र में गाँधीजी ने खिलाफत आन्दोलन को अपने समर्थन के कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया है, मैं चाहता हूँ कि आप महामहिम के मंत्रिगणों से मुस्लिम प्रान्तों के विषय में निश्चित आश्वासन देने का निवेदन करें। यकीनन आप जानते हैं कि हर भारतीय मुसलमान को उनमें गहरी दिलचस्पी है। हिन्दू होने के नाते मैं उनकी समस्या के प्रति उदासीन नहीं हो सकता। उनके दुख हमारे दुख होंगे ही।
यह भी याद रखा जाना चाहिए कि गाँधीजी ने दृढता से इस मुद्दे को हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच सौदेबाजी की वजह बनने से रोका था, यदि खिलाफत के प्रश्न का कोई न्यायोचित और वैध आधार है- मैं मानता हूँ कि है- और सरकार ने वास्तव में घोर अन्याय किया है, तो हिन्दुओं को मुसलमान भाइयों की खिलाफत अन्याय के प्रतिकार की माँग के समर्थन में मुसलमानों के साथ देना ही होगा। इस सम्बन्ध में गाय के प्रश्न को बीच में लाना या इस मौके पर खिलाफत प्रश्न पर मुस्लिमों के समर्थन में खडे होने के एवज में गौ-हत्या बंद करने की शर्त रखना अनुचित होगा।
कोकनाडा में आयोजित कांग्रेस के सन् 1923 के अधिवेशन में मौलाना मुहम्मद अली का यादगार अध्यक्षीय भाषण अल्लाह ओ अकबर (खदा महान है।) से शुरू और महात्मा गाँधी की जय से खत्म हुआ था। इस भाषण में मौलाना ने गाँधीजी, जो उस वक्त जेल में थे को मर्मभेदी आदरांजलि दीः
हमें अपने महान् मुखिया की कभी इतनी जरूरत नहीं थी जितनी की आज है... यद्यपि महात्मा गाँधीजी के बन्दीकरण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार आदमी को उम्मीद थी कि उसे जिंदा जला दो- यह चिल्लाकर वह गाँधी के उस विचार को मार सकेगा जिसे महात्मा ने सारे देश में संचारित किया था, मैं यकीनन यह मानता हूँ कि यह जिंदा रहेगा ठीक वैसे ही जैसे महात्मा जिन्दा हैं... दोस्तों केवल एक है जो आपकी रहनुमाई कर सकता है, वही जिसने अमृतसर, कलकत्ता, नागपुर और अहमदाबाद में आपकी रहनुमाई की, भले ही कांग्रेस के हर अधिवेशन में चुना हुआ अपना अलग अध्यक्ष था। हमारा प्रधान सेनापति दुश्मन के हाथों युद्धबन्दी है, और हमारे बीच उसकी कमी को पूरा करने वाला कोई नहीं है... पीडा के माध्यम से आत्म-शुद्धि; सरकार की जिम्मेदारियों के लिए नैतिक तैयारी; आत्मानुशासन, स्वराज की पूर्व शर्त- यह महात्मा का मत और दृढ विश्वास था; हम में से वे सौभाग्यशाली जो उस महान वर्ष में जीवित थे जिसमें अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन आयोजित हुआ, इस बात के गवाह है कि उन्होंने कैसे मानवजाति के एक बडे जनसमूह के विचारों, भावनाओं और कर्मों में इतनी तेजी से परिवर्तन लाया है।
यह वही भाषण था जिसमें मौलाना मुहम्मद अली ने जिाहिर किया था कि वह निष्ठावान हिन्दू, महात्मा गाँधी, इस्लाम के निमित्त वकालत करते हुए जेल चला गया। और यह भी कि खिलाफत आंदोलन के निस्वार्थ नेतृत्व के दौरान उनके कार्य स्वभावतया उदार और परोपकारी थे। मैं चाहता हूँ कि महात्मा गाँधी के आज के कुछ- नहीं ज्यादातर- अत्यधिक मुखर परम्परावादियों ने मुहम्मद अली की आदरांजलि को पढा होगा और खुद से यह सवाल पूछा होगा के वे कहाँ थे और क्या कर रहे थे जब एक निष्ठावान हिन्दू इस्लाम के निमित्त वकालत करते हुए जेल चला गया।
उस निष्ठावान हिन्दू ने हिन्दी धर्म को कभी भी अपने मानवतावाद में दखल देने की इजाजत नहीं दी, उनका धर्म किसी एक मत विशेष तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसमें समस्त महान् आदर्शों का सम्मिलन था जो किसी भी सच्चे धर्म के आधार हैं- यह उनकी प्रार्थनाओं से भी परिलक्षित होता है। इसलिए यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि एक निष्ठावन हिन्दू ने कैसे अपनी घनिष्टतम् मित्रमण्डली एवं राजनीतिक सहयोगियों में अली बन्धु, इमाम बवाजिर, अब्बास तैयबजी, डॉ. अंसारी, हकीम अजमल खान, मौलाना ए. बारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे निष्ठावान मुस्लिमों को जोडा। वास्तव में यह भी अद्भुत है कि वास्तविक मजहबी विचार वाले मुसलमान उस समय भी गाँधीजी के करीबी बने रहे जब कि इस्लाम खतरे में हैं चिल्लाने वाले केवल नाम के मुसलमान विशुद्ध राजनैतिक कारणों से मुसलमानों को गाँधीजी, कांग्रेस और स्वतन्त्रता संग्राम में अलग-थलग करने का प्रयास कर रहे थे। राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार करने के लिए गाँधी जी ने एक प्रसिद्ध मुस्लिम शिक्षाविद डॉ. जिाकिर हुसैन को चुना। और अपने अन्तिम बीस वर्षों दौरान उन्होंने कोई भी बडा निर्णय मरहूम डॉ. अंसारी या मौलाना अबुल कलाम आजिाद के मशविरे के बिना नहीं लिया।
गाँधीजी हमेशा की तरह इस्लाम और मुसलमानों के दोस्त बने रहे। वह इंसान जिसने इस्लाम की हिमायत में 1922 में जेल की सजा काटी, वह निःसन्देह मुस्लिमों के वैध हितों को न तो प्रभावित होने देगा और न ही इस्लाम पर जरा-सा भी खतरा आने देगा। कोई ये तो वह इंसान है जो जाति, वर्ण, मजिहब या रंग के क्षुद्र विचारों से ऊपर उठ चुका है। और जिसने अपने धर्म को इन सात शब्दों में समेट दिया हैः
सत्य के सिवा और कोई ईश्वर नहीं!
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