विनोबा : अनूठे अनुभव का आनन्द
ब्रजरतन जोशी
तुम्हारे लिए कौनसा विशेषण काम में लाऊँ, यह मुझे नहीं सूझता। तुम्हारा प्रेम और चरित्र मुझे मोह में डूबो देता है। तुम्हारी परीक्षा करने में मैं असमर्थ हूँ। तुमने जो अपनी परीक्षा की है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ और तुम्हारे लिए पिता का पद ग्रहण करता हूँ।
-मो.क.गाँधी
सत्य, प्रेम और करूणा की जीवन्त मिशाल विनोबा का असल नाम विनायक नरहरि भावे था। विनोबा गाँधीजी द्वारा दिया गया नाम है। आजाद भारत के इतिहास में वे एक विरल विचारक के रूप में सुख्यात थे। जिनका मौलिक चिन्तन ज्ञान के लगभग समस्त उपलब्ध अनुशासनों की अपनी दृष्टि से पुर्नव्याख्या करता है। गाँधीजी ने उनकी अहिंसक कर्म साधना से प्रभावित होकर ही उन्हें प्रथम सत्याग्रही घोषित किया था। लोक में उनके लिए अनेक उपाधियाँ प्रचलन में थीं- आचार्य, ऋषि, बाबा और संत। वस्तुतः विनोबा इन सभी का संगम थे। वे एक ऐसे नवाचारी शिक्षक थे जिन्होंने अपने चिन्तन और मनन से पकी दृष्टि और विचार का आलोक देकर अज्ञान के घटाटोप को दूर करने की हर सम्भव कोशिश की। गाँधी के बाद अगर भारतीय जनता ने किसी एक व्यक्तित्व पर पूर्ण विश्वास किया, तो वे विनोबा भावे थे।
विनोबा का असर अखिल भारतीय जनमानस पर था। इसके पीछे उनका वैज्ञानिक सोच और गणितज्ञ होना भी था। अपने आचरण एवं व्यवहार में विरक्त और अलिप्त रहने वाले विनोबा ने मनुष्य संस्कृति के व्याकरण और गणित को अपने आत्मज्ञान से भली-भाँति समझा था। इसलिए उन्होंने मनुष्य जाति को भूदान जैसी अनूठी योजना की व्यवहारिक परिकल्पना दी। क्या भूमि की समस्या केवल भारत की समस्या है? गहराई से देखें, तो सम्पूर्ण मनुष्य समाज इस समस्या से निरन्तर जूझ रहा है। निरन्तर जूझती इस सभ्यता को जहाँ गाँधी ने सत्याग्रह दिया, तो विनोबा ने भूदान। दरअस्ल भूदान एक तरह से प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षकता की ओर उठा एक मजबूत कदम है।
विनोबा साहित्य से गुजरना अनूठे अनुभव की आनन्द यात्रा से गुजरना है। अनेक भाषाओं, अनुशासनों और अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के चलते वे किसी भी विचार की तलस्पर्शी गहराई में जाते हैं और फिर अपने अनुभव से, एक सफल गोताखोर की तरह अद्भुत मोती हमारे लिए लेकर आते हैं। अपने सरल और सहज जीवन से उन्होंने यह समझाने की बेहतरीन कोशिश की कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, अहिंसा, करूणा और प्रेम की ताकत से उसे अपने अनुकूल, सुखद बनाया जा सकता है। उनकी देह जितनी दुबली-पतली थी, उनके विचार उतने ही ठोस और तीक्ष्ण। इसलिए वे एक मर्मस्पर्शी वक्ता के रूप में भी समादरित हुए। वे संस्कृत, उर्दू, फारसी, हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगु, कन्नड, मलियाली, अंग्रेजी, जर्मनी आदि कईं-कईं भाषाओं के गहरे जानकार थे। विविध ज्ञान परम्पराओं के इस अनूठे नायक की विनोदी वृत्ति भी जगजाहिर थी।
वे इस अर्थ में गाँधीजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे क्योंकि उन्होंने गाँधीजी की रखी नींव पर न केवल नवनिर्माण ही किया वरन् गाँधी दृष्टि को अपने मौलिक चिन्तन से नवोन्मेष भी दिया। इसलिए अकादेमिक क्षेत्र में उन्हें नवगाँधीवादी विचारक के रूप में भी जाना जाता है। वे विश्वविचारकों की उस परम्परा के अग्रणी नागरिक थे जो यह मानती है कि हमें दूसरों के श्रम पर नहीं, स्वयं के श्रम पर जीवन का भव्य भवन खडा करना चाहिए। आधारभूत सुविधाओं के मामले में वे सदैव यह कहते थे कि जब ईश्वर ने वर्षा देते हुए यह नहीं देखा कि कौन पात्र-अपात्र है, साँस के लिए हवा सबको बराबर दी, तो हमें भी किसी की आधारभूत सुविधाओं में व्यवधान नहीं डालना चाहिए, बल्कि इस राह में आ रही बाधाओं का उन्मूलन करना चाहिए।
वे साहित्य की शक्ति को परमेश्वर की शक्ति से कम नहीं आँकते थे। वे कहते हैं - ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे संसार में तो नहीं है, पर साहित्य के संसार में है। ....साहित्यिक तो आकाश में, पाताल में और धरती पर गंगा की धारा देखते हैं। इस तरह वे गंगा की तीन-तीन धाराएँ देखते हैं। लेकिन ईश्वर की सृष्टि में गंगा की एक ही धारा है, जो हिमालय से निकलती है और गंगासागर में लीन हो जाती है। इसलिए साहित्यिकों के पास बहुत शक्ति पडी है।
वे कवि को क्रांतदर्शी मानते है। उनके यहाँ क्रांतदर्शी से तात्पर्य है कि वह कवि जिसे उस पार भी दिखता है। उनका मानना है कि ऐसा साहित्यिक अपने को किसी घेरे में बद्ध नहीं करता। साहित्य की महिमा के विषय में वे लिखते है- साहित्यिक किसी सम्प्रदाय के नहीं होते। साहित्यिकों का लक्षण ही यह है कि वे सम्प्रदायातीत होते हैं। जो समुदाय में बद्ध है, वे चिरन्तन साहित्यिक नहीं होते हैं, वे तो तात्कालीक साहित्यिक होते हैं। चिरन्तन साहित्यिक तो वे होते हैं जो सब पंथ, सम्प्रदाय वगैरह से भिन्न होते है, परे होते है।
उनके विचार विश्व में जीवन पाथेय के सूक्ष्म से लेकर विराट तक का कोई ऐसा कोना नहीं है जिसमें उनकी आवाजाही न हो। अध्यात्म, धर्म, आत्मज्ञान, विज्ञान, सर्वोदय, साहित्य, स्त्री शक्ति, गो-सेवा, प्राकृतिक चिकित्सा, लोकनीति, भूदान आदि वे सब जीवन आयाम शामिल हैं, जो जीवन को जीवन बनाते हैं और जिनसे जीवन का गणित और व्याकरण समृद्ध होता है। यह निश्छल प्रेम की प्रतिमूर्ति विनोबा ही कह सकते थे कि - डाकू कोई गैर नहीं है असली डाकू है हमारी संग्रहवृत्ति। इसलिए वे कहते हैं कि - हमें सदैव ही सबके लिए अपना द्वार खुला रखना चाहिए। यह उनकी निर्भयता ही थी कि वे बीहड में भी उसी शांति और विश्वास के साथ चले जाते थे, जितना किसी धार्मिक सभा में।
उनके अपूर्व ज्ञान खासकर साहित्य चिन्तन से गुजरने के लिए हमें श्री नन्दकिशोर आचार्य द्वारा सम्पादित पुस्तक विनोबा के उद्धरण से जरूर गुजरना चाहिए। विनोबा के साहित्य चिन्तन को जानने के लिए यह एक जरूरी किताब है।
वे साहित्य को सकलानुभूति मानते हैं, साहित्य के भविष्य को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है क्योंकि उनका उद्भट चिन्तक जानता है कि संस्कृति कि यह अविराम यात्रा जिसमें आज धर्म और राजनीति आगीवान है, कल इनका स्थान आत्मज्ञान और विज्ञान लेगा। उनका मानना है कि आत्मज्ञान और विज्ञान को जोडने में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। अतः साहित्य के भविष्य को लेकर किसी संशय की आवश्यकता नहीं है।
अहिंसा उनकी नीति रही और समन्वय उनका मार्ग। वे सबका उदय चाहते थे। यानी उनकी दृष्टि में कोई भी किसी कारण से वंचित न रहे। वे वंचितों के सहयात्री थे, सहभागी थे।
इस विकराल दौर में हमारे नवोन्मेषी अभिभावक असमय ही हमसे बिछड गए हैं- रंगमंच के पर्याय इब्राहीम अल्काजी, संगीत मार्तण्ड पं.जसराज और हमारी अपनी मरूधरा के प्रज्ञापुत्र डॉ. मुकुंद लाठ। प्रो. दयाकृष्ण, दार्शनिक यशदेव शल्य और प्रो. मुकुंद लाठ एक ऐसी त्रयी के रूप में जाने जाते हैं जो भारतीय परम्परा में मौलिक चिन्तन के पर्याय रहे हैं।
पद्मश्री लाठ भारतीय परम्परा के प्रतिभावान विचारक हैं। वे दर्शन की प्रतिष्ठित पत्रिका उन्मीलन के सम्पादन से भी जुडे रहे। उन्होंने इस पत्रिका में निरन्तर दर्शन पर अपने कई महत्त्वपूर्ण आलेख लिखे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दी को केवल भाव की नहीं ज्ञान और विचार की भाषा के रूप में भी जाना जाए। अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने निरन्तर इस हेतु प्रयत्न किये।
मधुमती का यह अंक आचार्य मुकुंद लाठ को समर्पित है। मधुमती अपने इस अल्प प्रयास के माध्यम से उनके विराट कर्तृत्व को आफ सामने रखने का प्रयास कर रही है। इस हेतु अल्प समय में वांछित सहयोग के लिए सभी लेखकों का हृदय से आभार।
इस अंक की एक खास उपलब्धि है आचार्य मुकुन्द लाठ की अप्रकाशित सामग्री का प्रकाशन। इस हेतु हम कवि-संपादक श्री पीयूष दईया के आभारी हैं जिन्होंने हमें अर्थव भूमिका एवं मुकुन्द लाठ द्वारा किया गया पृथ्वीसूक्त का हिन्दी रूपान्तरण एवं स्वयं लाठ के बनाए रेखांकन उपलब्ध कराए।
इसके अतिरिक्त इस अंक में हमारे समय के मूर्धन्य कवि कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, इब्राहीम अल्काजी, नामवर सिंह के साथ प्रख्यात कवि, संपादक, विचारक उदयन वाजपेयी के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास के अंश के अलावा संस्मरण, कहानियाँ, कविताएँ और समीक्षाओं के साथ नियमित सामग्री है।
कोरोना महामारी का प्रचण्ड प्रकोप जारी है। अतः इस मुश्किल समय में स्वाध्याय को साधें और स्वयं को मजबूत बनाएँ, स्वस्थ बनाएँ और सुरक्षित रहें। सरकार द्वारा जनस्वास्थ्य हेतु समय-समय पर जारी निर्देशों की पूर्ण पालना करें। शिवकामनाओं के साथ-
-मो.क.गाँधी
सत्य, प्रेम और करूणा की जीवन्त मिशाल विनोबा का असल नाम विनायक नरहरि भावे था। विनोबा गाँधीजी द्वारा दिया गया नाम है। आजाद भारत के इतिहास में वे एक विरल विचारक के रूप में सुख्यात थे। जिनका मौलिक चिन्तन ज्ञान के लगभग समस्त उपलब्ध अनुशासनों की अपनी दृष्टि से पुर्नव्याख्या करता है। गाँधीजी ने उनकी अहिंसक कर्म साधना से प्रभावित होकर ही उन्हें प्रथम सत्याग्रही घोषित किया था। लोक में उनके लिए अनेक उपाधियाँ प्रचलन में थीं- आचार्य, ऋषि, बाबा और संत। वस्तुतः विनोबा इन सभी का संगम थे। वे एक ऐसे नवाचारी शिक्षक थे जिन्होंने अपने चिन्तन और मनन से पकी दृष्टि और विचार का आलोक देकर अज्ञान के घटाटोप को दूर करने की हर सम्भव कोशिश की। गाँधी के बाद अगर भारतीय जनता ने किसी एक व्यक्तित्व पर पूर्ण विश्वास किया, तो वे विनोबा भावे थे।
विनोबा का असर अखिल भारतीय जनमानस पर था। इसके पीछे उनका वैज्ञानिक सोच और गणितज्ञ होना भी था। अपने आचरण एवं व्यवहार में विरक्त और अलिप्त रहने वाले विनोबा ने मनुष्य संस्कृति के व्याकरण और गणित को अपने आत्मज्ञान से भली-भाँति समझा था। इसलिए उन्होंने मनुष्य जाति को भूदान जैसी अनूठी योजना की व्यवहारिक परिकल्पना दी। क्या भूमि की समस्या केवल भारत की समस्या है? गहराई से देखें, तो सम्पूर्ण मनुष्य समाज इस समस्या से निरन्तर जूझ रहा है। निरन्तर जूझती इस सभ्यता को जहाँ गाँधी ने सत्याग्रह दिया, तो विनोबा ने भूदान। दरअस्ल भूदान एक तरह से प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षकता की ओर उठा एक मजबूत कदम है।
विनोबा साहित्य से गुजरना अनूठे अनुभव की आनन्द यात्रा से गुजरना है। अनेक भाषाओं, अनुशासनों और अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के चलते वे किसी भी विचार की तलस्पर्शी गहराई में जाते हैं और फिर अपने अनुभव से, एक सफल गोताखोर की तरह अद्भुत मोती हमारे लिए लेकर आते हैं। अपने सरल और सहज जीवन से उन्होंने यह समझाने की बेहतरीन कोशिश की कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, अहिंसा, करूणा और प्रेम की ताकत से उसे अपने अनुकूल, सुखद बनाया जा सकता है। उनकी देह जितनी दुबली-पतली थी, उनके विचार उतने ही ठोस और तीक्ष्ण। इसलिए वे एक मर्मस्पर्शी वक्ता के रूप में भी समादरित हुए। वे संस्कृत, उर्दू, फारसी, हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगु, कन्नड, मलियाली, अंग्रेजी, जर्मनी आदि कईं-कईं भाषाओं के गहरे जानकार थे। विविध ज्ञान परम्पराओं के इस अनूठे नायक की विनोदी वृत्ति भी जगजाहिर थी।
वे इस अर्थ में गाँधीजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे क्योंकि उन्होंने गाँधीजी की रखी नींव पर न केवल नवनिर्माण ही किया वरन् गाँधी दृष्टि को अपने मौलिक चिन्तन से नवोन्मेष भी दिया। इसलिए अकादेमिक क्षेत्र में उन्हें नवगाँधीवादी विचारक के रूप में भी जाना जाता है। वे विश्वविचारकों की उस परम्परा के अग्रणी नागरिक थे जो यह मानती है कि हमें दूसरों के श्रम पर नहीं, स्वयं के श्रम पर जीवन का भव्य भवन खडा करना चाहिए। आधारभूत सुविधाओं के मामले में वे सदैव यह कहते थे कि जब ईश्वर ने वर्षा देते हुए यह नहीं देखा कि कौन पात्र-अपात्र है, साँस के लिए हवा सबको बराबर दी, तो हमें भी किसी की आधारभूत सुविधाओं में व्यवधान नहीं डालना चाहिए, बल्कि इस राह में आ रही बाधाओं का उन्मूलन करना चाहिए।
वे साहित्य की शक्ति को परमेश्वर की शक्ति से कम नहीं आँकते थे। वे कहते हैं - ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे संसार में तो नहीं है, पर साहित्य के संसार में है। ....साहित्यिक तो आकाश में, पाताल में और धरती पर गंगा की धारा देखते हैं। इस तरह वे गंगा की तीन-तीन धाराएँ देखते हैं। लेकिन ईश्वर की सृष्टि में गंगा की एक ही धारा है, जो हिमालय से निकलती है और गंगासागर में लीन हो जाती है। इसलिए साहित्यिकों के पास बहुत शक्ति पडी है।
वे कवि को क्रांतदर्शी मानते है। उनके यहाँ क्रांतदर्शी से तात्पर्य है कि वह कवि जिसे उस पार भी दिखता है। उनका मानना है कि ऐसा साहित्यिक अपने को किसी घेरे में बद्ध नहीं करता। साहित्य की महिमा के विषय में वे लिखते है- साहित्यिक किसी सम्प्रदाय के नहीं होते। साहित्यिकों का लक्षण ही यह है कि वे सम्प्रदायातीत होते हैं। जो समुदाय में बद्ध है, वे चिरन्तन साहित्यिक नहीं होते हैं, वे तो तात्कालीक साहित्यिक होते हैं। चिरन्तन साहित्यिक तो वे होते हैं जो सब पंथ, सम्प्रदाय वगैरह से भिन्न होते है, परे होते है।
उनके विचार विश्व में जीवन पाथेय के सूक्ष्म से लेकर विराट तक का कोई ऐसा कोना नहीं है जिसमें उनकी आवाजाही न हो। अध्यात्म, धर्म, आत्मज्ञान, विज्ञान, सर्वोदय, साहित्य, स्त्री शक्ति, गो-सेवा, प्राकृतिक चिकित्सा, लोकनीति, भूदान आदि वे सब जीवन आयाम शामिल हैं, जो जीवन को जीवन बनाते हैं और जिनसे जीवन का गणित और व्याकरण समृद्ध होता है। यह निश्छल प्रेम की प्रतिमूर्ति विनोबा ही कह सकते थे कि - डाकू कोई गैर नहीं है असली डाकू है हमारी संग्रहवृत्ति। इसलिए वे कहते हैं कि - हमें सदैव ही सबके लिए अपना द्वार खुला रखना चाहिए। यह उनकी निर्भयता ही थी कि वे बीहड में भी उसी शांति और विश्वास के साथ चले जाते थे, जितना किसी धार्मिक सभा में।
उनके अपूर्व ज्ञान खासकर साहित्य चिन्तन से गुजरने के लिए हमें श्री नन्दकिशोर आचार्य द्वारा सम्पादित पुस्तक विनोबा के उद्धरण से जरूर गुजरना चाहिए। विनोबा के साहित्य चिन्तन को जानने के लिए यह एक जरूरी किताब है।
वे साहित्य को सकलानुभूति मानते हैं, साहित्य के भविष्य को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है क्योंकि उनका उद्भट चिन्तक जानता है कि संस्कृति कि यह अविराम यात्रा जिसमें आज धर्म और राजनीति आगीवान है, कल इनका स्थान आत्मज्ञान और विज्ञान लेगा। उनका मानना है कि आत्मज्ञान और विज्ञान को जोडने में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। अतः साहित्य के भविष्य को लेकर किसी संशय की आवश्यकता नहीं है।
अहिंसा उनकी नीति रही और समन्वय उनका मार्ग। वे सबका उदय चाहते थे। यानी उनकी दृष्टि में कोई भी किसी कारण से वंचित न रहे। वे वंचितों के सहयात्री थे, सहभागी थे।
इस विकराल दौर में हमारे नवोन्मेषी अभिभावक असमय ही हमसे बिछड गए हैं- रंगमंच के पर्याय इब्राहीम अल्काजी, संगीत मार्तण्ड पं.जसराज और हमारी अपनी मरूधरा के प्रज्ञापुत्र डॉ. मुकुंद लाठ। प्रो. दयाकृष्ण, दार्शनिक यशदेव शल्य और प्रो. मुकुंद लाठ एक ऐसी त्रयी के रूप में जाने जाते हैं जो भारतीय परम्परा में मौलिक चिन्तन के पर्याय रहे हैं।
पद्मश्री लाठ भारतीय परम्परा के प्रतिभावान विचारक हैं। वे दर्शन की प्रतिष्ठित पत्रिका उन्मीलन के सम्पादन से भी जुडे रहे। उन्होंने इस पत्रिका में निरन्तर दर्शन पर अपने कई महत्त्वपूर्ण आलेख लिखे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दी को केवल भाव की नहीं ज्ञान और विचार की भाषा के रूप में भी जाना जाए। अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने निरन्तर इस हेतु प्रयत्न किये।
मधुमती का यह अंक आचार्य मुकुंद लाठ को समर्पित है। मधुमती अपने इस अल्प प्रयास के माध्यम से उनके विराट कर्तृत्व को आफ सामने रखने का प्रयास कर रही है। इस हेतु अल्प समय में वांछित सहयोग के लिए सभी लेखकों का हृदय से आभार।
इस अंक की एक खास उपलब्धि है आचार्य मुकुन्द लाठ की अप्रकाशित सामग्री का प्रकाशन। इस हेतु हम कवि-संपादक श्री पीयूष दईया के आभारी हैं जिन्होंने हमें अर्थव भूमिका एवं मुकुन्द लाठ द्वारा किया गया पृथ्वीसूक्त का हिन्दी रूपान्तरण एवं स्वयं लाठ के बनाए रेखांकन उपलब्ध कराए।
इसके अतिरिक्त इस अंक में हमारे समय के मूर्धन्य कवि कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, इब्राहीम अल्काजी, नामवर सिंह के साथ प्रख्यात कवि, संपादक, विचारक उदयन वाजपेयी के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास के अंश के अलावा संस्मरण, कहानियाँ, कविताएँ और समीक्षाओं के साथ नियमित सामग्री है।
कोरोना महामारी का प्रचण्ड प्रकोप जारी है। अतः इस मुश्किल समय में स्वाध्याय को साधें और स्वयं को मजबूत बनाएँ, स्वस्थ बनाएँ और सुरक्षित रहें। सरकार द्वारा जनस्वास्थ्य हेतु समय-समय पर जारी निर्देशों की पूर्ण पालना करें। शिवकामनाओं के साथ-