चार कविताएँ
संजय अचार्य ‘वरुण’
सच तो यही है
पीड मेरी
तुम्हारे लिए
है फकत दुनियादारी
या दिखावा
है सत्य
नहीं कर सकते
यह दावा
तुम और मैं दोनों ही
क्यों कि-
मेरा जीना है मेरे लिए
और तुम्हारा जीना है
तुम्हारे लिए।
जताता हूं संवेदना
केवल इसलिए कि-
मानना होता है मुझे
खुद को एक इंसान।
ओ निद्रा
नींद !
छोड दो ये हठ
कि चाहिए तुम्हें
आंखों पर
एकछत्र अधिकार।
क्या हुआ जो
आंखों के किसी कोने में
दुबकी हुई पडी हैं
बीते हुए कल की परछाईंयां
जाने क्यों
बिदक जाती हो तुम
उन्हें देखते ही।
याद है तुम्हें
जब कभी
इन काली परछाईंयों की जगह
रहते थे आंखों में
आने वाले कल के
सुनहरे सपने
तब भी तुम
रूठकर चली जाती थी
उन्हें देखते ही।
कब समझोगी
जब तक आंखें हैं तब तक
कुछ न कुछ तो
रहेगा ही इनमें
बीत चुका या आने वाला कल
कोई खौफ
कोई मं*ार
किसी की सूरत
या कुछ भी।
पता है मुझे
जब कुछ न रहेगा इनमें
तभी आओगी तुम
कभी न जाने के लिए
ओ गहरी चिरनिद्रा !
बची तो रहे कविता
दुनिया जैसी एक दुनिया
दिख तो रही है यह
जी रहा हूं
जिसमें मैं।
क्या
वैसी ही
दुनिया है यह
जिसमें जिए होंगे
दादाजी।
क्या उन्होंने भी
किया होगा
महसूस
दुनिया जहान में हो रहे
बदलाव को।
की होगी जिरह
उन्होंने भी
दुनिया के
बदलावों के विरुद्ध
जरूर कहा होगा
भला-बुरा
अपने समय को
लेकिन तय है
नहीं ही लिखी थी
उन्होंने कोई कविता
मेरी तरह।
शायद अच्छा ही किया
कि-
दुनिया के
बदलने के लिए
नहीं बदला
कविता को।
बहने दिया उसे
अपने बहाव से।
सोचा होगा उन्होंने
कि-
क्या रहेगा अंतर
कविता और दुनिया में
जब बदल जाए
कविता भी
दुनिया के बदलने के साथ।
शायद इसीलिए ही
बची तो रही थी
बहुत दिनों तक
कविता में कविता।
पतझड नहीं होता वह
वह
मौसम के लिए
नाराजगी नहीं होती है
पेड की
कि त्याग देता है वह
शाखाओं पर
पहनी हुई
सभी पत्तियां।
तब नहीं खिलता
कोई भी फूल
उसकी टहनियों पर।
देने के लिए
संसार को
उस वक्त
कुछ भी नहीं होता
उसके पास ।
पेड की यह विरक्ति
कहीं इसलिए तो नहीं
कि बतियाना होता है उसे
कुछ दिन
केवल अपने आप से।
हां! वही होता है
यह मौन
जो बोलता है
पेड के
अंदर ही अंदर।
जिसे तुम
कहते हो पतझड
दरअस्ल
वह सिरजना होता है
पेड का
स्वयं को
नये सिरे से।
पीड मेरी
तुम्हारे लिए
है फकत दुनियादारी
या दिखावा
है सत्य
नहीं कर सकते
यह दावा
तुम और मैं दोनों ही
क्यों कि-
मेरा जीना है मेरे लिए
और तुम्हारा जीना है
तुम्हारे लिए।
जताता हूं संवेदना
केवल इसलिए कि-
मानना होता है मुझे
खुद को एक इंसान।
ओ निद्रा
नींद !
छोड दो ये हठ
कि चाहिए तुम्हें
आंखों पर
एकछत्र अधिकार।
क्या हुआ जो
आंखों के किसी कोने में
दुबकी हुई पडी हैं
बीते हुए कल की परछाईंयां
जाने क्यों
बिदक जाती हो तुम
उन्हें देखते ही।
याद है तुम्हें
जब कभी
इन काली परछाईंयों की जगह
रहते थे आंखों में
आने वाले कल के
सुनहरे सपने
तब भी तुम
रूठकर चली जाती थी
उन्हें देखते ही।
कब समझोगी
जब तक आंखें हैं तब तक
कुछ न कुछ तो
रहेगा ही इनमें
बीत चुका या आने वाला कल
कोई खौफ
कोई मं*ार
किसी की सूरत
या कुछ भी।
पता है मुझे
जब कुछ न रहेगा इनमें
तभी आओगी तुम
कभी न जाने के लिए
ओ गहरी चिरनिद्रा !
बची तो रहे कविता
दुनिया जैसी एक दुनिया
दिख तो रही है यह
जी रहा हूं
जिसमें मैं।
क्या
वैसी ही
दुनिया है यह
जिसमें जिए होंगे
दादाजी।
क्या उन्होंने भी
किया होगा
महसूस
दुनिया जहान में हो रहे
बदलाव को।
की होगी जिरह
उन्होंने भी
दुनिया के
बदलावों के विरुद्ध
जरूर कहा होगा
भला-बुरा
अपने समय को
लेकिन तय है
नहीं ही लिखी थी
उन्होंने कोई कविता
मेरी तरह।
शायद अच्छा ही किया
कि-
दुनिया के
बदलने के लिए
नहीं बदला
कविता को।
बहने दिया उसे
अपने बहाव से।
सोचा होगा उन्होंने
कि-
क्या रहेगा अंतर
कविता और दुनिया में
जब बदल जाए
कविता भी
दुनिया के बदलने के साथ।
शायद इसीलिए ही
बची तो रही थी
बहुत दिनों तक
कविता में कविता।
पतझड नहीं होता वह
वह
मौसम के लिए
नाराजगी नहीं होती है
पेड की
कि त्याग देता है वह
शाखाओं पर
पहनी हुई
सभी पत्तियां।
तब नहीं खिलता
कोई भी फूल
उसकी टहनियों पर।
देने के लिए
संसार को
उस वक्त
कुछ भी नहीं होता
उसके पास ।
पेड की यह विरक्ति
कहीं इसलिए तो नहीं
कि बतियाना होता है उसे
कुछ दिन
केवल अपने आप से।
हां! वही होता है
यह मौन
जो बोलता है
पेड के
अंदर ही अंदर।
जिसे तुम
कहते हो पतझड
दरअस्ल
वह सिरजना होता है
पेड का
स्वयं को
नये सिरे से।