प्रतिरोध साहित्य का मूल स्वर है
हरिओम
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है। मतलब समाज जैसा है उसे वैसा ही दिखाने वाला लेखन साहित्य है। बचपन से हम यही सुनते आ रहे हैं। क्या वाकई साहित्य समाज का दर्पण है या उससे कुछ कम ज्यादा है? क्या साहित्यकार एक तटस्थ रिपोर्टर की तरह समाज से चरित्र-घटनाएं-परिस्थितियां उठाता है और उसे अपनी लेखन कला से रोचक अंदा*ा में पाठकों के सामने पेश करके अपना *ाम्मा पूरा कर लेता है? हम जैसे-जैसे समझदार होते हैं इस परिभाषा की सीमाएं हमें दिखने लगती हैं। हम जब साहित्य पढ रहे होते हैं तो हम उसमें अखबारी लेखन नहीं ढूंढ रहे होते हैं। हम कुछ और तलाश रहे होते हैं। यह कुछ और क्या है? एक *ामाने में यह मनोरंजन था। काव्य-शास्त्र में काव्य-रस की बात कही गई है। काव्य-सौन्दर्य और काव्य-सौष्ठव की बात कही गई है। बहुत दिनों तक हम काव्य में रस-छंद-अलंकार का सौन्दर्य खोजते हुए उसके महत्त्व का मूल्यांकन करते थे। बाद में पाठकों के साथ रचनाकारों को भी लगने लगा कि सिर्फ मनोरंजन से साहित्य अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाता। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था कि केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। यह वह दौर था जब कवि-साहित्यकार आम जनता के हितों की बौद्धिक नुमाइंदगी करता था। पाठक साहित्यकार पर पूरी तरह भरोसा करता था और उसके बताए हुए मार्ग पर चलने को तैयार रहता था। यह आ*ाादी की लडाई का दौर था जब राष्ट्रप्रेमी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ साहित्य के मोर्चे पर अंग्रे*ा सरकार से लोहा लेने के लिए सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक चेतना के पुनर्निर्माण का दौर चल रहा था जिसमें सामाजिक कुरीतियों और सार्वजनिक-निजी जीवन में नैतिक प्रतिमानों पर चर्चाएँ चला करती थीं। साहित्यकार भी संत महात्माओं की तरह समाज को बेहतर बनाने के लिए अच्छी-अच्छी बातें किया करता था। उसके लेखन में सदाचार, आपसी सौहार्द, स्त्रियों का सम्मान, सामाजिक कुरीतियों पर चोट और मानवीय और देश-समाज प्रेम की चर्चा रहती थी। मुझे लगता है कि यह भक्ति साहित्य के मर्म का बाह्य जीवन में विस्तार था। भक्ति साहित्य जहाँ परमात्म के सम्मुख आत्म का समर्पण करने के साथ ही मन की शुचिता और उच्चता को ईश प्राप्ति के लिए आवश्यक मानता था वहीं आधुनिक युग के शुरुआती दौर में साहित्यकारों ने समाज को बेहतर बनाने के लिए मानवीय नैतिक सूत्र बताने-समझाने शुरू किये। लेकिन पाठक और लेखक दोनों को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि साहित्यकार की भूमिका मनोरंजक, सुधारक और उपदेशक से कहीं अलग है। यह भूमिका क्या है? पहली बार उस भूमिका को स्पष्ट करते हुए महान हिंदी कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा कि साहित्य समाज के आगे आगे चलने वाली मशाल है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि साहित्य में रोशनी होती है जो हमें अंधेरों से बाहर निकलने में मदद करती है। उसमें ऊष्मा भी होती है जो ठंडेपन की विरोधी है। मतलब साहित्य में पाठक को सहज करने, आत्मीय बनाने की खूबी होती है। दूसरी बात यह कि साहित्यकार कोई महात्मा या सुधारक नहीं होता वह समाज के बीच रहकर आम जन के साथ अंधेरों से लडने के लिए साहित्य की मशाल लेकर चलता है। साहित्य पाठक के सुख-दुःख के साथ एक संवेदनशील रिश्ता बनाता है जिससे पाठक का मन साहित्यकार के मन से जुड जाता है और साहित्यकार का सत्य पाठक को अपना सत्य जान पडने लगता है। अब अगर इस मशाल रूपी बिम्ब को लें तो हमें ध्यान रखना होगा कि मशाल में रोशनी अपने आप नहीं आती। उसके लिए काफी संघर्ष, साहस और धैर्य की *ारूरत होती है। हिंदी के मशहूर शायर दुष्यंत का एक शेर है कि एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो! इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। मतलब मशाल के लिए तेल और बाती भी *ारूरी है लेकिन सबसे *यादा *ारूरी है चिंगारी और उसे ढूँढने वाले जुझारू लोग। यह चिंगारी क्या है? यह ज्ञान और संवेदना की चिंगारी है। यह समाज और उसके यथार्थ को समझने की इच्छा और समझ सकने की दृष्टि है। यह इच्छा या ज*बा आसानी से नहीं मिलता। और न ही यह दृष्टि आसानी से मिलती है। सत्य को समझना एक बात है और उसकी सामाजिकता का मूल्यांकन दूसरी बात और समाज की बेहतरी के लिए किसी वैकल्पिक सत्य का निर्माण तीसरी बात। साहित्य ये तीनों कार्य करने की कोशिश करता है। कबीर दास लिखते हैं कि जिन ढूँढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा बूडन डरा रहा किनारे बैठ। मतलब सत्य की पडताल गहराई तक उतरकर ही मुमकिन है और इसमें डूबने का, कुछ हासिल न होने का खतरा भी शामिल है। इसमें कहीं और बह-भटक जाने की आशंका भी बनी ही रहती है और बिना गहरे पहुंचे जल्दबा*ाी और हडबडी में ऊपर निकल आने की सम्भावना भी रहती है। साहित्यकारों में भी ये सभी बातें दिखती हैं। कथ्य के मर्म तक पहुँचने को लेकर एक जल्दबा*ाी या हडबडी अक्सर लेखक में मिलती है लेकिन तमाम लेखक ऐसे हैं जो इन खतरों को पहले ही भांप लेते हैं और किनारे बैठकर ही सत्य के अन्वेषण का दावा करते रहते हैं। शायद यही वजह है कि समाज को मशाल लेकर दिशा दिखाने जैसा काम विरले साहित्यकार ही अपने लेखन से कर पाते हैं और वो लेखक आधुनिक भावबोध के उदय के बाद से हिंदी साहित्य में उँगलियों पर गिने जा सकने वाले हैं। कबीर दास का एक और दोहा मुझे इस सन्दर्भ में याद आ रहा है- साधो ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे थोथा देहि उडाय। साहित्यकार भी कबीर का यही साधो है जो सार तत्त्व की खोज में रहता है और सृजन और कथ्य-विमर्श के बीच आने वाले थोथे की बारीक पहचान रखता है और उसे छोडने में देर नहीं करता।
साहित्य लेखन बौद्धिक विमर्श के बाकी अनुशासनों से इस मामले में भिन्न है कि इसमें मानवीय संवेदना एक *ारूरी तत्त्व है। हालाँकि सिर्फ संवेदनशील होने से उपयोगी साहित्य की रचना संभव नहीं है। संवेदन के साथ देश-काल और परिस्थिति का ज्ञान होना भी *ारूरी है। देश-काल सिर्फ वर्तमान की खिडकी से समझ में नहीं आता, इसके लिए विधा-विशेष की रचना परंपरा का ज्ञान होना आवश्यक है। इतिहास में सबकुछ होता है लेकिन साहित्यकार अपनी संवेदना और समझ के अनुसार उस रचना परंपरा का चयन करता है जो उसके हिसाब से उसके लेखन की अभीष्ट दिशा को तय करे। यही वजह है कि साहित्य में इतने खेमे हैं। कोई रस-छंद-अलंकार-राग-रंग-भाषा के पीछे पडा है तो कोई कथ्य और शिल्प के। कुछ लोग अभिजन, सामंती, पुरुष और पूँजी सत्ता समर्थक मूल्यों के पक्ष में सृजन कर रहे हैं तो कई दूसरे दबे-कुचले, शोषित, वंचित तबके के हक में। अब एक पाठक की हैसियत से हमें यह देखना होगा कि हम किस तरह का साहित्य चाहते हैं। क्यूंकि यह सिर्फ साहित्य का सवाल नहीं है। यह समाज का मानवीय सभ्यता का भी सवाल है। अगर हम चाहते हैं कि समाज में अन्याय-अत्याचार, सामाजिक आर्थिक गैर -बराबरी और लैंगिक असमानता का पोषण करने वाले विचार और वैसी संवेदना बनी रहे तो निश्चित ही हमें इससे मुक्ति की चेतना रखने वाला साहित्य पसंद नहीं आएगा और हम उसे खारिज करने के लिए किसी भी किस्म का बौद्धिक उपक्रम करेंगे। इसलिए जो कुछ भी लिखा गया है उसे सामाजिक कसौटी पर खरा भी उतरना होगा। अब सवाल यह है कि यह कसौटी क्या होगी? समाज का कौन सा तबका इसे अपने मानदंडों पर कसेगा? क्या आलोचक जो कहे वही सही साहित्य है या पाठक जिसे बताए? लोकोपयोगी साहित्य और लोकप्रिय साहित्य अलग-अलग हो सकता है और दोनों कई मामलों में एक भी हो सकते हैं। जैसे प्रेमचंद का साहित्य लोकोपयोगी भी है और लोकप्रिय भी। जैसे हमारे भक्त कवियों का साहित्य समाज को दिशा भी देता है और समाज में लोकप्रिय भी है। लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी हो सकता। हमारे दौर के तमाम ऐसे कथित लेखक-कवि जो बडे मशहूर हैं उनके पास बताने सुनाने को एक भी रचना नहीं या उनका लिखा कुछ भी ऐसा नहीं जो सामाजिक उपयोगिता और कालजीविता की कसौटी पर खरा उतरेगा। तो वह कसौटी फिर क्या होगी?
अच्छा साहित्य सबसे पहले तो मनुष्यता के पैमाने पर खरा उतरता है। मानवीय मूल्य पहली कसौटी है जो साहित्य को खरा बनाती है। बल्ली सिंह चीमा का एक शेर है कि तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो। आदमी की ओर हो तुम, या कि आदमखोर हो। टैगोर कहते थे कि शबार ऊपरे मानुष सत्यम। तहार ऊपरे कछु नाहीं। दूसरी बात है कि सामाजिक यथार्थ की जो समझ लेखक के पास है वह अन्याय अत्याचार शोषण गैर-बराबरी से लडने में उसकी कितनी मददगार है। क्या उसके पास किसी ऐसे वैकल्पिक समाज के निर्माण का सपना है जहाँ इस सब की जगह न हो? जहाँ मानवीय प्रेम सबसे ऊपर हो। क्या कारण है कि *ाोरदार साहित्य की रचना पिछडे और गरीब समाजों में *यादा मुमकिन हो पाती है क्यूंकि उसकी विषयवस्तु का केन्द्र संघर्ष और प्रतिरोध होता है? चाहे प्रेमचंद का गोदान हो या रेणु का मैला आंचल। कविताओं में मुक्तिबोध की अँधेरे में को रख सकते हैं। नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह से होते हुए वीरेन डंगवाल तक कविताओं में हमें क्या मिलता है? जब हम गोरख पाण्डेय के गीत पढते हैं तो हम क्या यह बहस करते हैं कि यह नवगीत हैं या नई कविता? इन सभी रचनाकारों के सन्दर्भ में हम यह देखते हैं कि ये रचनाएं पूरी दमदारी से मनुष्यता के पक्ष में खडी हैं और अन्यायी-अत्याचारी-शोषक वर्ग और उसकी मानसिकता का बेलाग-लपेट प्रतिरोध करती हैं। इन रचनाओं में दुनिया समाज की बारीक समझ तो है ही साथ में समाज के आखिरी पायदान पर खडे हुए इंसान का दर्द समझने-महसूस करने वाली संवेदना भी है।
दुनिया के किसी भी देश का महान साहित्य उठाकर देखा जाय तो यह देखने को मिलेगा कि वहां शक्ति केन्द्रों के प्रतिरोध का स्वर सर्वाधिक मुखर है। बडे साहित्य का काम पाठक का दिल बहलाना नहीं है, न ही एक उपदेशक की तरह उसकी समस्यायों और मुसीबतों का सहज समाधान सुझाना है। वह तो बस पाठक के मन में कुछ सवाल, थोडी बेचैनी और सामाजिक मानवीय सत्य तक पहुँचने की प्रबल इच्छाशक्ति पैदा करता है। यही वह रौशनी है जिसके सहारे मनुष्य अपनी समस्यायों का हल खुद ढूंढता है। गंभीर और लोकोपयोगी साहित्य पाठक या समाज के हिस्से भी कुछ काम छोडता है। यह पाठक की *ाम्मेदारी बनती है कि वह गंभीर साहित्य के अनुशीलन के लिए अपनी बौद्धिक संवेदना को समृद्ध करे। अगर सत्य इतनी आसानी से समझ में आ जाता या संप्रभु वर्ग के वर्चस्व को पुष्ट करने वाली चेतना का जाल हरेक शोषित-पीडित व्यक्ति के पल्ले पड जाता तो अब तक यह विश्व शोषण अन्याय से मुक्त हो चुका होता। इसलिए हमें साहित्य के नाम पर प्रवचनों और हर समस्या के समाधान हेतु बौद्धिक जडी-बूटी सुझाने वाले लेखकों से सावधान रहने की *ारूरत है। वह साहित्य श्रेष्ठ है जो हमें अपने साथ अँधेरी ताकतों के जाल से बाहर ले जाने में सक्षम है। जो दूर से हमें हमारी मुक्ति के उपाय बता रहा हो वह साहित्य नहीं है। बौद्धिक छलावा है। इसलिए अच्छा साहित्य अपने पाठक से एक आत्मीय रिश्ता भी बनाता है। पाठक रचनाओं के *ारिए लेखक पर भरोसा करने लगता है। पाठक का यह भरोसा लेखक को आसानी से हासिल नहीं होता। उसे सृजन के कठिन निकष पर खरा उतरना होता है। कई बार समझ में न आने पर भी साहित्य हमें अपनी तरफ खेंचता है और जैसे जैसे उसका अर्थ हम पर खुलता जाता है हमारी ज्ञानात्मक संवेदना और समृद्ध होती जाती है। भक्तिकाल के कबीर और आधुनिक काल के मुक्तिबोध का साहित्य कुछ ऐसा ही है। अपने अनुभव से एक और बात मैं कहना चाहता हूँ और वह यह है कि अगर किसी रचना को पढने के बाद हम संतुष्ट या तृप्त होते हैं या हमें हमारे सारे सवालों का जवाब मिल जाता है तो हमें समझना चाहिए कि वह रचना अपने उद्देश्य में सफल नहीं रही या उस लेखक के पास कहने बताने को कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। उलटे अगर रचना अंत में हमें बेचैन छोड देती है, हमारे जेहन में कुछ सवाल छोड जाती है,अगर हम काफी दिनों तक उस रचना को भूल नहीं पाते हैं या कहिये कि संगत सन्दर्भों में वह रचना हमें याद आती है तो समझिये कि लेखक का काम हो गया।
गंभीर साहित्यकार के पास बेहतर दुनिया का एक सपना होता है। अगर वह अपने परिवेश और समाज से संतुष्ट है तो फिर उसे साहित्य सृजन की क्या आवश्यकता है? साहित्य दरअस्ल लेखक के इसी सपने को साकार करने की दिशा में किया गया सतत रचनात्मक उपक्रम है। साहित्य कोई एकान्तिक साधना नहीं है। यह समाज के बीच रहते हुए सामाजिक यथार्थ से जूझने और उसके बरक्स एक वैकल्पिक यथार्थ रचने की रचनात्मक कोशिश है। साहित्य संवेदना और ज्ञान के स्तर पर लगातार चलने वाले संघर्ष का नाम है जिसका मकसद सबसे पहले और आखिर में तिरस्कृत, वंचित, मूढ, शोषित जन की आखों में खुशहाल भविष्य की उम्मीद जगाना है। मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए विभिन्न मोर्चों पर चलने वाले संघर्षों में मुक्तिकामी जनसमुदाय को शामिल करना है। साहित्य सिर्फ किस्सा-कहानी, काव्य, गीत, उपन्यास, व्यंग्य, नाटक आदि नहीं है। उससे कहीं आगे बहुत कुछ है इसलिए साहित्य सृजन को रूप विधानों, शिल्पों और कथन शैलियों में बांटकर हम कुछ खास हासिल नहीं करते। यह बाँटना साहित्य सृजन के व्यवस्थित अध्ययन के लिए *ारूरी हो सकता है लेकिन इससे अगर हम गद्य-पद्य, कविता-गीत, कहानी-उपन्यास का द्वंद्व पैदा करने की कोशिश करेंगे तो यह किसी भी रचनाकार के साहित्यिक अवदान के मूल्यांकन का सही तरीका नहीं होगा। प्रतिरोध के जिस स्वर की मैं बात कर रहा हूँ वह भक्ति काल से ही हिंदी साहित्य में मुखर हुआ। यह बंधनों और कुरीतियों में जकडे हुए मन की आ*ाादी का एक रचनात्मक कालखंड था जिसकी भावभूमि आध्यात्मिक थी लेकिन विमर्श यहाँ भी मनुष्य और उसकी दुनियावी तकलीफों के इर्द-गिर्द ही बना रहा। भक्ति साहित्य आन्दोलन की अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियां थीं जिस ओर जाने का अवसर यहाँ नहीं लेकिन अगर हम कबीर, तुलसी, मीरा और जायसी आदि के लेखकीय सरोकार देखें तो हमें समझ में आयेगा कि वे कौन सी दुनिया का सृजन करना चाह रहे थे। यह स्वर रीतिकालीन कवियों में एकदम फीका पड गया था। सत्ता दरबारों ने उनकी रचनाशीलता को बाँध दिया था। उनका सृजन आत्मकेंद्रित और सत्ता-शौर्य की प्रशंसा और उसके मनोरंजन के लिए रह गया था। इसलिए काव्य-कला मानदंडों पर उच्च कोटि का साहित्य होने के बावजूद यह लोकोपयोगी नहीं हो सका। हर दौर के साहित्य में यह प्रतिरोध का स्वर ही किसी खास रचनाकार को बडा बनाता है। छायावाद में यह स्वर महादेवी, प्रसाद से निराला तक आते आते काफी मुखर हो उठता है। बाद के साहित्य - गद्य और पद्य दोनों में अगर हम देखें कि कौनसा-सा लेखक हमें अपनी ओर खींचता है, तो हम देखेंगे कि मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता-प्रतिष्ठानों के विरोध में खडे लेखक का साहित्य हमें पसंद आता है और साहित्य का इतिहास भी ऐसे ही लेखन को महत्त्वपूर्ण मानता है। साहित्य में प्रतिरोध का स्वर किसी नारे की तरह नहीं आता। यह कलात्मक अंदा*ा में पाठक के मन में उतरता है। यह प्रतिरोधी चेतना पाठक की समझदारी को मांजती-विकसित करती चलती है। अच्छा साहित्य हमेशा सपाटबयानी या उद्घोषणा-मूलक होने से बचता है। यह किसी विचारधारा के प्रचार के लिए नहीं लिखा जाता। यह निजी या सीमित मानवीय सत्य और संवेदना को सार्वजनिक और व्यापक भावभूमि तक पहुँचाने का कलात्मक कौशल है। इस तरह हम देखते हैं कि स्त्रीवादी आन्दोलन हो या दलित चेतना के रचनात्मक उभार से निकला हुआ साहित्य - सब के सब किसी न किसी स्तर पर अन्याय-अत्याचार-प्रभुता के विरोध के चलते सामने आये और अभी भी सक्रिय हैं। साहित्य सिर्फ हमें समाज का अक्स नहीं दिखाता, एक ऐसे समाज के निर्माण का स्वप्न लेकर भी चलता है जहाँ मानवीय संवेदना और लोकोपयोगी ज्ञान से संपृक्त मनुष्य रहते हों और इस तरह के साहित्य से जुडकर हम साहित्यकार के उस सपने से भी जुड जाते हैं।
साहित्य लेखन बौद्धिक विमर्श के बाकी अनुशासनों से इस मामले में भिन्न है कि इसमें मानवीय संवेदना एक *ारूरी तत्त्व है। हालाँकि सिर्फ संवेदनशील होने से उपयोगी साहित्य की रचना संभव नहीं है। संवेदन के साथ देश-काल और परिस्थिति का ज्ञान होना भी *ारूरी है। देश-काल सिर्फ वर्तमान की खिडकी से समझ में नहीं आता, इसके लिए विधा-विशेष की रचना परंपरा का ज्ञान होना आवश्यक है। इतिहास में सबकुछ होता है लेकिन साहित्यकार अपनी संवेदना और समझ के अनुसार उस रचना परंपरा का चयन करता है जो उसके हिसाब से उसके लेखन की अभीष्ट दिशा को तय करे। यही वजह है कि साहित्य में इतने खेमे हैं। कोई रस-छंद-अलंकार-राग-रंग-भाषा के पीछे पडा है तो कोई कथ्य और शिल्प के। कुछ लोग अभिजन, सामंती, पुरुष और पूँजी सत्ता समर्थक मूल्यों के पक्ष में सृजन कर रहे हैं तो कई दूसरे दबे-कुचले, शोषित, वंचित तबके के हक में। अब एक पाठक की हैसियत से हमें यह देखना होगा कि हम किस तरह का साहित्य चाहते हैं। क्यूंकि यह सिर्फ साहित्य का सवाल नहीं है। यह समाज का मानवीय सभ्यता का भी सवाल है। अगर हम चाहते हैं कि समाज में अन्याय-अत्याचार, सामाजिक आर्थिक गैर -बराबरी और लैंगिक असमानता का पोषण करने वाले विचार और वैसी संवेदना बनी रहे तो निश्चित ही हमें इससे मुक्ति की चेतना रखने वाला साहित्य पसंद नहीं आएगा और हम उसे खारिज करने के लिए किसी भी किस्म का बौद्धिक उपक्रम करेंगे। इसलिए जो कुछ भी लिखा गया है उसे सामाजिक कसौटी पर खरा भी उतरना होगा। अब सवाल यह है कि यह कसौटी क्या होगी? समाज का कौन सा तबका इसे अपने मानदंडों पर कसेगा? क्या आलोचक जो कहे वही सही साहित्य है या पाठक जिसे बताए? लोकोपयोगी साहित्य और लोकप्रिय साहित्य अलग-अलग हो सकता है और दोनों कई मामलों में एक भी हो सकते हैं। जैसे प्रेमचंद का साहित्य लोकोपयोगी भी है और लोकप्रिय भी। जैसे हमारे भक्त कवियों का साहित्य समाज को दिशा भी देता है और समाज में लोकप्रिय भी है। लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी हो सकता। हमारे दौर के तमाम ऐसे कथित लेखक-कवि जो बडे मशहूर हैं उनके पास बताने सुनाने को एक भी रचना नहीं या उनका लिखा कुछ भी ऐसा नहीं जो सामाजिक उपयोगिता और कालजीविता की कसौटी पर खरा उतरेगा। तो वह कसौटी फिर क्या होगी?
अच्छा साहित्य सबसे पहले तो मनुष्यता के पैमाने पर खरा उतरता है। मानवीय मूल्य पहली कसौटी है जो साहित्य को खरा बनाती है। बल्ली सिंह चीमा का एक शेर है कि तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो। आदमी की ओर हो तुम, या कि आदमखोर हो। टैगोर कहते थे कि शबार ऊपरे मानुष सत्यम। तहार ऊपरे कछु नाहीं। दूसरी बात है कि सामाजिक यथार्थ की जो समझ लेखक के पास है वह अन्याय अत्याचार शोषण गैर-बराबरी से लडने में उसकी कितनी मददगार है। क्या उसके पास किसी ऐसे वैकल्पिक समाज के निर्माण का सपना है जहाँ इस सब की जगह न हो? जहाँ मानवीय प्रेम सबसे ऊपर हो। क्या कारण है कि *ाोरदार साहित्य की रचना पिछडे और गरीब समाजों में *यादा मुमकिन हो पाती है क्यूंकि उसकी विषयवस्तु का केन्द्र संघर्ष और प्रतिरोध होता है? चाहे प्रेमचंद का गोदान हो या रेणु का मैला आंचल। कविताओं में मुक्तिबोध की अँधेरे में को रख सकते हैं। नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह से होते हुए वीरेन डंगवाल तक कविताओं में हमें क्या मिलता है? जब हम गोरख पाण्डेय के गीत पढते हैं तो हम क्या यह बहस करते हैं कि यह नवगीत हैं या नई कविता? इन सभी रचनाकारों के सन्दर्भ में हम यह देखते हैं कि ये रचनाएं पूरी दमदारी से मनुष्यता के पक्ष में खडी हैं और अन्यायी-अत्याचारी-शोषक वर्ग और उसकी मानसिकता का बेलाग-लपेट प्रतिरोध करती हैं। इन रचनाओं में दुनिया समाज की बारीक समझ तो है ही साथ में समाज के आखिरी पायदान पर खडे हुए इंसान का दर्द समझने-महसूस करने वाली संवेदना भी है।
दुनिया के किसी भी देश का महान साहित्य उठाकर देखा जाय तो यह देखने को मिलेगा कि वहां शक्ति केन्द्रों के प्रतिरोध का स्वर सर्वाधिक मुखर है। बडे साहित्य का काम पाठक का दिल बहलाना नहीं है, न ही एक उपदेशक की तरह उसकी समस्यायों और मुसीबतों का सहज समाधान सुझाना है। वह तो बस पाठक के मन में कुछ सवाल, थोडी बेचैनी और सामाजिक मानवीय सत्य तक पहुँचने की प्रबल इच्छाशक्ति पैदा करता है। यही वह रौशनी है जिसके सहारे मनुष्य अपनी समस्यायों का हल खुद ढूंढता है। गंभीर और लोकोपयोगी साहित्य पाठक या समाज के हिस्से भी कुछ काम छोडता है। यह पाठक की *ाम्मेदारी बनती है कि वह गंभीर साहित्य के अनुशीलन के लिए अपनी बौद्धिक संवेदना को समृद्ध करे। अगर सत्य इतनी आसानी से समझ में आ जाता या संप्रभु वर्ग के वर्चस्व को पुष्ट करने वाली चेतना का जाल हरेक शोषित-पीडित व्यक्ति के पल्ले पड जाता तो अब तक यह विश्व शोषण अन्याय से मुक्त हो चुका होता। इसलिए हमें साहित्य के नाम पर प्रवचनों और हर समस्या के समाधान हेतु बौद्धिक जडी-बूटी सुझाने वाले लेखकों से सावधान रहने की *ारूरत है। वह साहित्य श्रेष्ठ है जो हमें अपने साथ अँधेरी ताकतों के जाल से बाहर ले जाने में सक्षम है। जो दूर से हमें हमारी मुक्ति के उपाय बता रहा हो वह साहित्य नहीं है। बौद्धिक छलावा है। इसलिए अच्छा साहित्य अपने पाठक से एक आत्मीय रिश्ता भी बनाता है। पाठक रचनाओं के *ारिए लेखक पर भरोसा करने लगता है। पाठक का यह भरोसा लेखक को आसानी से हासिल नहीं होता। उसे सृजन के कठिन निकष पर खरा उतरना होता है। कई बार समझ में न आने पर भी साहित्य हमें अपनी तरफ खेंचता है और जैसे जैसे उसका अर्थ हम पर खुलता जाता है हमारी ज्ञानात्मक संवेदना और समृद्ध होती जाती है। भक्तिकाल के कबीर और आधुनिक काल के मुक्तिबोध का साहित्य कुछ ऐसा ही है। अपने अनुभव से एक और बात मैं कहना चाहता हूँ और वह यह है कि अगर किसी रचना को पढने के बाद हम संतुष्ट या तृप्त होते हैं या हमें हमारे सारे सवालों का जवाब मिल जाता है तो हमें समझना चाहिए कि वह रचना अपने उद्देश्य में सफल नहीं रही या उस लेखक के पास कहने बताने को कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। उलटे अगर रचना अंत में हमें बेचैन छोड देती है, हमारे जेहन में कुछ सवाल छोड जाती है,अगर हम काफी दिनों तक उस रचना को भूल नहीं पाते हैं या कहिये कि संगत सन्दर्भों में वह रचना हमें याद आती है तो समझिये कि लेखक का काम हो गया।
गंभीर साहित्यकार के पास बेहतर दुनिया का एक सपना होता है। अगर वह अपने परिवेश और समाज से संतुष्ट है तो फिर उसे साहित्य सृजन की क्या आवश्यकता है? साहित्य दरअस्ल लेखक के इसी सपने को साकार करने की दिशा में किया गया सतत रचनात्मक उपक्रम है। साहित्य कोई एकान्तिक साधना नहीं है। यह समाज के बीच रहते हुए सामाजिक यथार्थ से जूझने और उसके बरक्स एक वैकल्पिक यथार्थ रचने की रचनात्मक कोशिश है। साहित्य संवेदना और ज्ञान के स्तर पर लगातार चलने वाले संघर्ष का नाम है जिसका मकसद सबसे पहले और आखिर में तिरस्कृत, वंचित, मूढ, शोषित जन की आखों में खुशहाल भविष्य की उम्मीद जगाना है। मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए विभिन्न मोर्चों पर चलने वाले संघर्षों में मुक्तिकामी जनसमुदाय को शामिल करना है। साहित्य सिर्फ किस्सा-कहानी, काव्य, गीत, उपन्यास, व्यंग्य, नाटक आदि नहीं है। उससे कहीं आगे बहुत कुछ है इसलिए साहित्य सृजन को रूप विधानों, शिल्पों और कथन शैलियों में बांटकर हम कुछ खास हासिल नहीं करते। यह बाँटना साहित्य सृजन के व्यवस्थित अध्ययन के लिए *ारूरी हो सकता है लेकिन इससे अगर हम गद्य-पद्य, कविता-गीत, कहानी-उपन्यास का द्वंद्व पैदा करने की कोशिश करेंगे तो यह किसी भी रचनाकार के साहित्यिक अवदान के मूल्यांकन का सही तरीका नहीं होगा। प्रतिरोध के जिस स्वर की मैं बात कर रहा हूँ वह भक्ति काल से ही हिंदी साहित्य में मुखर हुआ। यह बंधनों और कुरीतियों में जकडे हुए मन की आ*ाादी का एक रचनात्मक कालखंड था जिसकी भावभूमि आध्यात्मिक थी लेकिन विमर्श यहाँ भी मनुष्य और उसकी दुनियावी तकलीफों के इर्द-गिर्द ही बना रहा। भक्ति साहित्य आन्दोलन की अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियां थीं जिस ओर जाने का अवसर यहाँ नहीं लेकिन अगर हम कबीर, तुलसी, मीरा और जायसी आदि के लेखकीय सरोकार देखें तो हमें समझ में आयेगा कि वे कौन सी दुनिया का सृजन करना चाह रहे थे। यह स्वर रीतिकालीन कवियों में एकदम फीका पड गया था। सत्ता दरबारों ने उनकी रचनाशीलता को बाँध दिया था। उनका सृजन आत्मकेंद्रित और सत्ता-शौर्य की प्रशंसा और उसके मनोरंजन के लिए रह गया था। इसलिए काव्य-कला मानदंडों पर उच्च कोटि का साहित्य होने के बावजूद यह लोकोपयोगी नहीं हो सका। हर दौर के साहित्य में यह प्रतिरोध का स्वर ही किसी खास रचनाकार को बडा बनाता है। छायावाद में यह स्वर महादेवी, प्रसाद से निराला तक आते आते काफी मुखर हो उठता है। बाद के साहित्य - गद्य और पद्य दोनों में अगर हम देखें कि कौनसा-सा लेखक हमें अपनी ओर खींचता है, तो हम देखेंगे कि मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता-प्रतिष्ठानों के विरोध में खडे लेखक का साहित्य हमें पसंद आता है और साहित्य का इतिहास भी ऐसे ही लेखन को महत्त्वपूर्ण मानता है। साहित्य में प्रतिरोध का स्वर किसी नारे की तरह नहीं आता। यह कलात्मक अंदा*ा में पाठक के मन में उतरता है। यह प्रतिरोधी चेतना पाठक की समझदारी को मांजती-विकसित करती चलती है। अच्छा साहित्य हमेशा सपाटबयानी या उद्घोषणा-मूलक होने से बचता है। यह किसी विचारधारा के प्रचार के लिए नहीं लिखा जाता। यह निजी या सीमित मानवीय सत्य और संवेदना को सार्वजनिक और व्यापक भावभूमि तक पहुँचाने का कलात्मक कौशल है। इस तरह हम देखते हैं कि स्त्रीवादी आन्दोलन हो या दलित चेतना के रचनात्मक उभार से निकला हुआ साहित्य - सब के सब किसी न किसी स्तर पर अन्याय-अत्याचार-प्रभुता के विरोध के चलते सामने आये और अभी भी सक्रिय हैं। साहित्य सिर्फ हमें समाज का अक्स नहीं दिखाता, एक ऐसे समाज के निर्माण का स्वप्न लेकर भी चलता है जहाँ मानवीय संवेदना और लोकोपयोगी ज्ञान से संपृक्त मनुष्य रहते हों और इस तरह के साहित्य से जुडकर हम साहित्यकार के उस सपने से भी जुड जाते हैं।