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अलविदा कलावन्त विजयशंकर

अमित कल्ला
पिछले दिनों क कला सम्पदा एवं वैचारिकी पत्रिका के संपादक और संवेदनशील निर्मल चित्त कवि श्री विजयशंकर इस संसार से हमेशा के लिए अलविदा हो गये, उनकी मृत्यु भी उनकी ही किसी कविता- सी रही, जो अपने आप में औचक और रहस्यात्मक थी, विजयशंकर अपने पैतृक निवास नागपुर से दिल्ली के लिए निकले थे और वहाँ पहुचने के साथ ही निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
आज मैंने बहुत-सा उजाला देखा, हे स्थगित ईश्वर और नमस्ते तथा अन्य कविताएँ उनके ये तीनों काव्य संग्रह काफी महत्वपूर्ण हैं।
कलावृत न्यास और राष्ट्रिय वर्ण पट सम्मान से सम्मानित विजयशंकर विभिन्न कलाओं को एकीकृत रूप से देखते समझते रहे, वे हमेशा ही उनके बीच के आपसी अंतर संबंधों की पुरजोर पैरवी किया करते थे, जिसके मुत्तालिक देश भर में उन्होंने कला संवाद की एक अभिन्न श्रृंखला को बरसों बरस मुकम्मल ढंग से चलाया और कई युवा कलाकारों को प्रेरणा देकर इस वैचारिक मुहिम का हिस्सा बनाया।
कवि नंदकिशोर आचार्य, डॉ श्री लाल मोहता, रमेश थानवी, स्व. संजीव मिश्र, शिल्पकार हिम्मत शाह, चित्रकार शैल चोयल,शब्बीर हसन काजी, विद्यासागर उपाध्याय, चिन्मय मेहता स्व. वीरबाला भावसार, स्व. कोमल कोठारी, प्रकाश परिमल, हेमंत शेष, आर.बी गौतम, रणवीर सिंह, शिवकुमार गाँधी, हिमांशु व्यास, मोना सरदार डूडी, राजाराम भादू, ओम थानवी समेत अनेक कला मर्मग्य और साहित्यकार उनसे निरंतर संफ में रहे।
उन्होंने क पत्रिका में प्रदेश की कला और कलाकारों पर केंद्रित एक विशेष अंक भी संयोजित कर उसे प्रकाशित किया, इसके अलावा पिछले समय में उन्होंने गाँधी, टैगोर लोहिया के विचारों और आलेखों को छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जिन्हें वे निशुल्क वितरित किया करते थे, साहित्य और भाषा अनुवाद को लेकर भी उनमें काफी सजकता रही, उर्वरक भूमि शीर्षक से एक अखबार भी वे सम्पादित कर रहे थे, जिसके लिए देश के विभिन्न राज्यों में अपने बूते ही अनुवाद की कार्यशालाएँ आयोजित करते रहे दरअसल भारतीय स्टेट बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद अप्रतिम शिल्पी निर्मल वर्मा की प्रेरणा से वे पूर्णतया साहित्य और ललित कलाओं के संवर्धन के इस अतुलनीय काम में जुट गए। वे न केवल एक उम्दा लेखक थे बल्कि एक संवेदनशील जिंदादिल और बेहतरीन इंसान भी थे, सही अर्थों में भरेपूरे बडे आदमी थे, मनुष्यता के आयामों की ऊँचाई को छूने वाले...
यकीनन हम सब ने किसी ना किसी रूप में कितना कुछ पाया है, अपने चित्रकार मित्र विजेंद्र एस विज के शब्दों में कहूँ, तो विजय शंकर चले गए!
मैंने / तुमने / इसने / उसने / हमने / इन्होंने / उन्होंने किसी ने.. कुछ भी नहीं किया उनके लिए ... असल में उन्होंने उम्मीदें नहीं रखीं किसी से.. वहीं साहित्यकार राजाराम भादू ने विजयशंकर को एक रागी-ऋषि के रूप में संबोधित किया फिलवक्त इतना ही कहना चाहूँगा कि देह के इतर भी इस जीवन में हमें कई कई जन्म लेने पडते हैं, जहाँ एक जन्म मैने विजयशंकर जी से पाया था, ओर तो क्या कहूँ....
- अमित कल्ला