विचार का बतरस
जीवन सिंह
संवाद ही एकमात्र माध्यम है जो इस संसार की सामाजिकता का निर्माण करता है। दुनिया की भाषाओं के निर्माण में संवाद की प्रमुख और महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, इस तथ्य से शायद ही कोई असहमत हो। संवाद की जरूरत न होती, तो भाषा भी नहीं होती। भाषा है तो संवाद है और संवाद है तो भाषा है। जब संवाद होता है तब ही ज्ञान भी बढता है। ज्ञान भी एक तरह से व्यक्ति का व्यक्ति से और व्यक्ति से समाज का संवाद भी है। जहाँ संवाद करने के लिए दूसरा कोई सामने नहीं होता, वहाँ व्यक्ति स्वयं से संवाद करता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने पंचवटी नामक खंड काव्य में लक्षमण के मुख से कहलवाया है -कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता, आप आप की सुनता है वह, आप आप से है कहता। हमारे यहाँ लोक में भी अक्सर कहा जाता है कि भाई खाए बिना रह जाउंगो पर कहे बिना नहीं रहूँगो। यह संवाद का करिश्मा ही तो है जिसने दुनिया में ज्ञान-विज्ञान और साहित्य-संस्कृति को विकसित किया। संवाद का कोई एक निश्चित रूप नहीं होता। वह विविध एवं अनेकरूपी होता है। लेकिन यहाँ प्रतिष्ठित कथाकार एवं विचारक डा हेतु भारद्वाज अपनी पिछले दिनों में प्रकाशित संवाद-प्रतिसंवाद पुस्तक में संवादक के दोनों रूपों में आए हैं। वे यहाँ एक प्रश्नकर्ता के रूप में संवाद करते भी हैं और उत्तरदाता के रूप में दूसरे प्रश्नकर्ताओं के प्रश्नों के उत्तर भी देते हैं। यहाँ इकतरफा कार्रवाई नहीं है जैसी कि साक्षात्कारों से सम्बन्धित किताबों में अकसर पढने को मिलती है।
दो तरह के संवाद-प्रतिसंवाद होने से यहाँ उनका स्पष्ट खंड विभाजन होता तो पाठक को सहूलियत तो होती ही, सम्पादन की दृष्टि से भी सही होता। खंड विभाजन यद्यपि नहीं है, किन्तु व्यावहारिक तौर पर पहले संवाद खंड में कुल ग्यारह विद्वानों और विचारकों के साक्षात्कार डॉ. हेतु भारद्वाज ने किए हैं जिनमें जिज्ञासा शमन करने वाली विचार संपदा महाकवि रामधारी सिंह दिनकर से लगाकर सभ्य्ताविद डा फतेह सिंह, साहित्यकार प्रभाकर माचवे, मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब, प्रसिद्ध लोकविद विजय वर्मा, रचनाकार मणि मधुकर इत्यादि की विशेष है जबकि दूसरे खंड में उन्होंने चौदह विद्वान् प्रश्नकर्ताओं के सवालों के जवाब दिए हैं। बहरहाल, अच्छा तो यही होता कि ये दो अलग अलग पुस्तकें होती क्योंकि दोनों संवादों की प्रकृति भिन्न भिन्न है। एक बात और कि जब दो जन एक जगह बैठकर संवाद करते हैं, तो उनकी हैसियत भले ही भिन्न भिन्न हो, किन्तु होता वह भी संवाद -प्रतिसंवाद ही है यद्यपि प्रश्नकर्ता अक्सर स्वयं को सम-स्थिति पर नहीं मानते । इस वजह से अपने समय और व्यक्ति से सम्बन्धित तीखे प्रश्नों से बचा जाता है। इसके बावजूद बातचीत करने वाले की कोशिश रहती है या रहनी चाहिए कि उनकी बातचीत से कुछ ऐसा निकलकर आए कि उससे दोनों को, खासतौर से उत्तरदाता के अन्तरंग और बाह्य को समझने में मदद मिले और उस समय को भी जिसमें वे रहे। सच तो यह है कि आमतौर पर विषम-स्थिति के संवाद-प्रतिसंवाद ही ज्यादा सामने आते हैं। हिंदी में अभी इस तरह का न तो लोकतंत्र आया है और न ही ज्ञानात्मक स्तर की समस्थिति बनी है। इसमें ज्ञान का ही नहीं, वय और अनुभव -सम्मान भी आडे आता है। फिर भी डॉ. हेतु भारद्वाज ने कोशिश की है कि व्यक्ति से उसके सरोकारों औए समय से सम्बन्धित बातें निकलकर आए। इस दृष्टि से सच में ही इस पुस्तक का पहला खंड पाठक की जानकारियों को समृद्ध तो करता ही है, साथ ही उस विरल ज्ञानभूमि से भी परिचित कराता है जिसके अभाव में उसकी जिज्ञासाएँ शमित नहीं हो पाती। हेतु जी की खासियत और उनकी प्रकृति ऐसी है कि वे संवाद में समान स्तर की लय को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं । यह उनके सवालों से जाना जा सकता है। प्रश्नकर्ता के रूप में वे अपनी बात खुलकर कहते हैं और जरूरी सवालों को करने से हिचकते नहीं। क्योंकि संवाद का एक उद्देश्य उत्तरदाता की योग्यता और ज्ञान-क्षेत्र के सभी पहलुओं को सामने लाना भी होता है। मसलन पहले खंड में राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात रामधारीसिंह दिनकर के राष्ट्रकवि होने से सम्बन्धित सवाल के जवाब से इस पुरानी धारणा में बदलाव आए बिना नहीं रहता कि राष्ट्रकवि कोई अलग तरह का दर्जा प्राप्त प्राणी होता है। वे इस धारणा को ही गलत मानते हैं की राष्ट्र कवि दूसरे कवियों से अलग होता है। दिनकर जी का इस मामले में जवाब है जैसे और कवि वैसे ही राष्ट्रकवि। वैसे वे कवि और महाकवि को अलग करते हुए महाकवि और राष्ट्रकवि को एक जैसा ही मानते हुए बतलाते हैं कि वैसे कवि बनना ही मुश्किल है महाकवि या राष्ट्रकवि बनना तो और भी दूर की बात है। इसका मतलब हुआ कि जो महाकवि है वही राष्ट्रकवि भी है। हर महाकवि राष्ट्रकवि है और हर राष्ट्रकवि महाकवि। दिनकर जी सही कहते हैं - राष्ट्रकवि का अर्थ यह नहीं कि जो राष्ट्रीय कविता लिखे वही राष्ट्रकवि। बल्कि राष्ट्रकवि वही हो सकता है, जो देश को समझता हो, देश की संस्कृति को समझता हो। इस बात को दिनकर ही कह सकते थे जिन्होंने देश की संस्कृति को समझने के लिए संस्कृति के चार अध्याय जैसी ऐतिहासिक कृति लिखी और जिसकी भूमिका देश के पहले प्रधानमंत्री और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रमुख सेनानी तथा विचारक जवाहरलाल नेहरु ने लिखी। समझने की बात यह है कि दिनकर जिसे देश की संस्कृति मानते हैं वह समय के साथ बदलती हुई प्रक्रिया से बहुआयामी बनती हुई आधुनिक युग तक आती है। इसी आधार पर वे उसका कोई एक अध्याय नहीं वरन चार अध्याय बतलाते हैं। इस आधार पर उन्होंने वाल्मीकि और कालिदास को भी राष्ट्रकवि माना है। यह सामान्य बात नहीं है। यह इस किताब में संकलित पहला ही इंटरव्यू नहीं है वरन सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय इंटरव्यू है। इसे हेतुजी ने राजस्थान के सीकर जिले से प्रकाशित होने वाली तटस्थ पत्रिका के लिए 1970 ई में लिया गया है। 2010 में छायानट पत्रिका और 2011 में मडई पत्रिका के लिए हेतु जी ने प्रसिद्ध लोकविद विजय वर्मा से की गयी बातचीत विशेष उल्लेखनीय है। 1973 में भारद्वाज ने कोटा में वैदिक विद्या के जानकार डा फतेह सिंह से बातचीत की जिसे अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित कराया। उन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता को आर्य और द्रविड सभ्यता न कहकर वैदिक सभ्यता कहा है। इसमें सबसे पुराना साक्षात्कार तारसप्तक और नयी कविता युग के चर्चित कवि प्रभाकर माचवे से 1967 का है। यह बातचीत बीकानेर से हरीश भादानी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली वातायन में प्रकाशित हुई। इसी तरह से अन्य और कई बातचीत हैं जो अपने समय के मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब तथा अन्य कई साहित्यकारों से की गयी हैं।
दूसरे खंड में डॉ हेतु भारद्वाज की भूमिका बदल गयी है। इनसे अगले चौदह साक्षात्कार स्वयं हेतुजी के हैं जिनमें सवाल करने वाले हैं - अंतर्बोध पत्रिका, डॉ भूप सिंह और सरला भूपेन्द्र, डा सुरेश वर्मा, डा विवेक शंकर, डॉ रमेश रावत, मधुमती पत्रिका, तरसेम गुजराल, राजेन्द्र परदेशी, अखिलेश दत्तात्रेय, शिवशरण कौशिक, वागर्थ पत्रिका, कविता मुखर, नीतू शर्मा और प्रेमकृष्ण शर्मा। इनमें एक-दो को छोडकर अन्य सभी इक्कीसवीं सदी के पिछले दो दशकों में लिए गए हैं इसलिए उनमें किए गए सवालों पर अपने समय की छाप होना स्वाभाविक है। मसलन इक्कीसवीं सदी में बढते बाजार का प्रभाव, बदली हुई पूँजीवादी व्यवस्था का नया संस्करण, उदारवाद और वैश्वीकरण के साहित्यकार की चेतना पर प्रभाव, हेतु का अपना जीवन, सरोकार, विधाएँ, गाँव और शहर, पत्रिकाएँ और उनका सम्पादन, साहित्य की समस्याएँ और चुनौतियाँ, तकनीक और जीवन का रिश्ता, स्त्री और दलित विमर्श, उनकी आत्मस्वीकृतियाँ, पसंदगी, दोस्त, विचारधारा और साहित्य के रिश्ते, हिंदी भाषा से जुडे सवाल आदि विषयों पर खुली और रोचक बातचीत हुई है। इस बातचीत में पाठक की जिज्ञासा और उत्सुकता सतत रूप से बनी रहती है। रोचकता की भी क्षति नहीं होती। संवाद की भाषा में बनावटी जटिलता नहीं है। इनसे पाठक डॉ हेतु भारद्वाज को कितना जान पाता है यह उसकी स्वयं की क्षमता पर निर्भर करता है यद्यपि इसमें कई सवाल ऐसे हैं जिनको कई साक्षात्कार करने वालों ने एक ही तरह से पूछा है। इस वजह से उनके जवाब भी दोहराव से नहीं बच पाते। सम्पादन की स्थिति न होने की वजह से इस तरह के संकलनों में दोष का आ जाना स्वाभाविक होता है। इसके बावजूद इन साक्षात्कारों से पाठक को एक समय सजग लेखक के बारे में बहुत कुछ पढने और सोचने को मिलेगा। इस तरह की किताबों का मूल्य उन शोधकर्ताओं के लिए विशेषतौर से बढ जाता है जो लेखक के जीवन और उसकी संबद्धताओं और प्रतिबद्धता को जानते हुए अपना शोधकर्म गंभीरता से करते हैं।
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पुस्तक का नाम : संवाद-प्रतिसंवाद
लेखक का नाम : हेतु भारद्वाज
प्रकाशक : पंचशील प्रकाशन, जयपुर
प्रकाशन वर्ष : 2021
मूल्य : चार सौ रुपये मात्र
सम्पर्क - 1/14, अरावली विहार, काला कुँआ,
अलवर-३०१००२ (राज.)
मो. ७९७६७९३५४१
दो तरह के संवाद-प्रतिसंवाद होने से यहाँ उनका स्पष्ट खंड विभाजन होता तो पाठक को सहूलियत तो होती ही, सम्पादन की दृष्टि से भी सही होता। खंड विभाजन यद्यपि नहीं है, किन्तु व्यावहारिक तौर पर पहले संवाद खंड में कुल ग्यारह विद्वानों और विचारकों के साक्षात्कार डॉ. हेतु भारद्वाज ने किए हैं जिनमें जिज्ञासा शमन करने वाली विचार संपदा महाकवि रामधारी सिंह दिनकर से लगाकर सभ्य्ताविद डा फतेह सिंह, साहित्यकार प्रभाकर माचवे, मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब, प्रसिद्ध लोकविद विजय वर्मा, रचनाकार मणि मधुकर इत्यादि की विशेष है जबकि दूसरे खंड में उन्होंने चौदह विद्वान् प्रश्नकर्ताओं के सवालों के जवाब दिए हैं। बहरहाल, अच्छा तो यही होता कि ये दो अलग अलग पुस्तकें होती क्योंकि दोनों संवादों की प्रकृति भिन्न भिन्न है। एक बात और कि जब दो जन एक जगह बैठकर संवाद करते हैं, तो उनकी हैसियत भले ही भिन्न भिन्न हो, किन्तु होता वह भी संवाद -प्रतिसंवाद ही है यद्यपि प्रश्नकर्ता अक्सर स्वयं को सम-स्थिति पर नहीं मानते । इस वजह से अपने समय और व्यक्ति से सम्बन्धित तीखे प्रश्नों से बचा जाता है। इसके बावजूद बातचीत करने वाले की कोशिश रहती है या रहनी चाहिए कि उनकी बातचीत से कुछ ऐसा निकलकर आए कि उससे दोनों को, खासतौर से उत्तरदाता के अन्तरंग और बाह्य को समझने में मदद मिले और उस समय को भी जिसमें वे रहे। सच तो यह है कि आमतौर पर विषम-स्थिति के संवाद-प्रतिसंवाद ही ज्यादा सामने आते हैं। हिंदी में अभी इस तरह का न तो लोकतंत्र आया है और न ही ज्ञानात्मक स्तर की समस्थिति बनी है। इसमें ज्ञान का ही नहीं, वय और अनुभव -सम्मान भी आडे आता है। फिर भी डॉ. हेतु भारद्वाज ने कोशिश की है कि व्यक्ति से उसके सरोकारों औए समय से सम्बन्धित बातें निकलकर आए। इस दृष्टि से सच में ही इस पुस्तक का पहला खंड पाठक की जानकारियों को समृद्ध तो करता ही है, साथ ही उस विरल ज्ञानभूमि से भी परिचित कराता है जिसके अभाव में उसकी जिज्ञासाएँ शमित नहीं हो पाती। हेतु जी की खासियत और उनकी प्रकृति ऐसी है कि वे संवाद में समान स्तर की लय को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं । यह उनके सवालों से जाना जा सकता है। प्रश्नकर्ता के रूप में वे अपनी बात खुलकर कहते हैं और जरूरी सवालों को करने से हिचकते नहीं। क्योंकि संवाद का एक उद्देश्य उत्तरदाता की योग्यता और ज्ञान-क्षेत्र के सभी पहलुओं को सामने लाना भी होता है। मसलन पहले खंड में राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात रामधारीसिंह दिनकर के राष्ट्रकवि होने से सम्बन्धित सवाल के जवाब से इस पुरानी धारणा में बदलाव आए बिना नहीं रहता कि राष्ट्रकवि कोई अलग तरह का दर्जा प्राप्त प्राणी होता है। वे इस धारणा को ही गलत मानते हैं की राष्ट्र कवि दूसरे कवियों से अलग होता है। दिनकर जी का इस मामले में जवाब है जैसे और कवि वैसे ही राष्ट्रकवि। वैसे वे कवि और महाकवि को अलग करते हुए महाकवि और राष्ट्रकवि को एक जैसा ही मानते हुए बतलाते हैं कि वैसे कवि बनना ही मुश्किल है महाकवि या राष्ट्रकवि बनना तो और भी दूर की बात है। इसका मतलब हुआ कि जो महाकवि है वही राष्ट्रकवि भी है। हर महाकवि राष्ट्रकवि है और हर राष्ट्रकवि महाकवि। दिनकर जी सही कहते हैं - राष्ट्रकवि का अर्थ यह नहीं कि जो राष्ट्रीय कविता लिखे वही राष्ट्रकवि। बल्कि राष्ट्रकवि वही हो सकता है, जो देश को समझता हो, देश की संस्कृति को समझता हो। इस बात को दिनकर ही कह सकते थे जिन्होंने देश की संस्कृति को समझने के लिए संस्कृति के चार अध्याय जैसी ऐतिहासिक कृति लिखी और जिसकी भूमिका देश के पहले प्रधानमंत्री और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रमुख सेनानी तथा विचारक जवाहरलाल नेहरु ने लिखी। समझने की बात यह है कि दिनकर जिसे देश की संस्कृति मानते हैं वह समय के साथ बदलती हुई प्रक्रिया से बहुआयामी बनती हुई आधुनिक युग तक आती है। इसी आधार पर वे उसका कोई एक अध्याय नहीं वरन चार अध्याय बतलाते हैं। इस आधार पर उन्होंने वाल्मीकि और कालिदास को भी राष्ट्रकवि माना है। यह सामान्य बात नहीं है। यह इस किताब में संकलित पहला ही इंटरव्यू नहीं है वरन सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय इंटरव्यू है। इसे हेतुजी ने राजस्थान के सीकर जिले से प्रकाशित होने वाली तटस्थ पत्रिका के लिए 1970 ई में लिया गया है। 2010 में छायानट पत्रिका और 2011 में मडई पत्रिका के लिए हेतु जी ने प्रसिद्ध लोकविद विजय वर्मा से की गयी बातचीत विशेष उल्लेखनीय है। 1973 में भारद्वाज ने कोटा में वैदिक विद्या के जानकार डा फतेह सिंह से बातचीत की जिसे अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित कराया। उन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता को आर्य और द्रविड सभ्यता न कहकर वैदिक सभ्यता कहा है। इसमें सबसे पुराना साक्षात्कार तारसप्तक और नयी कविता युग के चर्चित कवि प्रभाकर माचवे से 1967 का है। यह बातचीत बीकानेर से हरीश भादानी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली वातायन में प्रकाशित हुई। इसी तरह से अन्य और कई बातचीत हैं जो अपने समय के मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब तथा अन्य कई साहित्यकारों से की गयी हैं।
दूसरे खंड में डॉ हेतु भारद्वाज की भूमिका बदल गयी है। इनसे अगले चौदह साक्षात्कार स्वयं हेतुजी के हैं जिनमें सवाल करने वाले हैं - अंतर्बोध पत्रिका, डॉ भूप सिंह और सरला भूपेन्द्र, डा सुरेश वर्मा, डा विवेक शंकर, डॉ रमेश रावत, मधुमती पत्रिका, तरसेम गुजराल, राजेन्द्र परदेशी, अखिलेश दत्तात्रेय, शिवशरण कौशिक, वागर्थ पत्रिका, कविता मुखर, नीतू शर्मा और प्रेमकृष्ण शर्मा। इनमें एक-दो को छोडकर अन्य सभी इक्कीसवीं सदी के पिछले दो दशकों में लिए गए हैं इसलिए उनमें किए गए सवालों पर अपने समय की छाप होना स्वाभाविक है। मसलन इक्कीसवीं सदी में बढते बाजार का प्रभाव, बदली हुई पूँजीवादी व्यवस्था का नया संस्करण, उदारवाद और वैश्वीकरण के साहित्यकार की चेतना पर प्रभाव, हेतु का अपना जीवन, सरोकार, विधाएँ, गाँव और शहर, पत्रिकाएँ और उनका सम्पादन, साहित्य की समस्याएँ और चुनौतियाँ, तकनीक और जीवन का रिश्ता, स्त्री और दलित विमर्श, उनकी आत्मस्वीकृतियाँ, पसंदगी, दोस्त, विचारधारा और साहित्य के रिश्ते, हिंदी भाषा से जुडे सवाल आदि विषयों पर खुली और रोचक बातचीत हुई है। इस बातचीत में पाठक की जिज्ञासा और उत्सुकता सतत रूप से बनी रहती है। रोचकता की भी क्षति नहीं होती। संवाद की भाषा में बनावटी जटिलता नहीं है। इनसे पाठक डॉ हेतु भारद्वाज को कितना जान पाता है यह उसकी स्वयं की क्षमता पर निर्भर करता है यद्यपि इसमें कई सवाल ऐसे हैं जिनको कई साक्षात्कार करने वालों ने एक ही तरह से पूछा है। इस वजह से उनके जवाब भी दोहराव से नहीं बच पाते। सम्पादन की स्थिति न होने की वजह से इस तरह के संकलनों में दोष का आ जाना स्वाभाविक होता है। इसके बावजूद इन साक्षात्कारों से पाठक को एक समय सजग लेखक के बारे में बहुत कुछ पढने और सोचने को मिलेगा। इस तरह की किताबों का मूल्य उन शोधकर्ताओं के लिए विशेषतौर से बढ जाता है जो लेखक के जीवन और उसकी संबद्धताओं और प्रतिबद्धता को जानते हुए अपना शोधकर्म गंभीरता से करते हैं।
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पुस्तक का नाम : संवाद-प्रतिसंवाद
लेखक का नाम : हेतु भारद्वाज
प्रकाशक : पंचशील प्रकाशन, जयपुर
प्रकाशन वर्ष : 2021
मूल्य : चार सौ रुपये मात्र
सम्पर्क - 1/14, अरावली विहार, काला कुँआ,
अलवर-३०१००२ (राज.)
मो. ७९७६७९३५४१