एक सिरफिरे पाठक के नोट्स
गोपाल माथुर
उस दिन फेसबुक पर स्मृतियों का स्मगलर का मुख्य पृष्ठ देख कर मन गहरे विस्मय से भर गया. विस्मय के अनेक कारण थे, जिसमें सर्वोपरि था किताब का प्रकाशित होना, जिसकी हम मित्रों को शिवदत्तजी ने हवा तक नहीं लगने दी थी. यह तो हमें पता था कि वे अन्तिम अरण्य और लाल टीन की छत पर काम कर रहे हैं, लेकिन इन दो किताबों से पहले उन्होंने कब एक चिथडा सुख पर अपना काम न सिर्फ पूरा कर लिया, वरन उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करवा दिया, हमें इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी.
लेकिन विस्मय से भी बडी थी वह खुशी, जो मुझे किताब के प्रकाशन की सूचना से हुई. किस मित्र को नहीं होगी! यह खुशी किसी नायाब खजाने को सहसा पा जाने से किसी सूरत में कम नहीं थी. मैं किसी भी प्रकार किताब को तुरंत पाना चाह रहा था, लेकिन तब वह अपने प्रकाशनगृह से खुले संसार में आने की जद्दोजहद में लगी हुई थी. प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प शेष था भी नहीं.
समय आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गति से व्यतीत होता रहा और अन्ततः यह किताब मेरे हाथों में आ ही गई. वह 3 अप्रेल, 2018 का दिन था और शहर था जोधपुर. यह निर्मल वर्माजी का जन्म दिन भी है. मैं और देवल साहब इस किताब उनसे लेने के लिए ही जोधपुर गए थे. मालचन्द तिवारीजी और कैलाश कबीरजी की उपस्थिति में इस किताब का पहला स्पर्श नसीब हुआ.
सबसे पहले अपना घ्यान आकर्षित किया मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित निर्मल वर्मा के चित्र ने. वही बेधती आँखें, वही उदासी, वही अकेलापन..... उनकी कहानियों के अतिरिक्त भी उनमें कितना कुछ है, जो बाँधे रखता है. संभव है कि इसका कारण यह हो कि जब हम किसी से जुडते हैं तो बहुधा उसकी प्रत्येक चीज से जुडते चले जाते हैं.
फिर निःसंदेह किताब का शीर्षक अलग सा लगा- स्मृतियों का स्मगलर ! शीर्षक के सिराहने लिखा था- एक चिथडा दुख का अघोर पाठकीय अवगाहन. इस शीर्षक और इसके ऊपर लिखी इस पंक्ति का क्या अर्थ हो सकता है ! क्या निर्मल जी स्वयं अपनी स्मृतियों के स्मगलर हो सकते हैं? नहीं, इस शीर्षक का इतना हल्का अर्थ तो हो नहीं सकता. तो फिर ये किसकी स्मृतियाँ हैं और स्मगलर कौन है?
याद आया कि निर्मलजी की कहानियाँ और उपन्यास पढते समय अनेक बार यह अहसास होता है कि जो कुछ उन्होंने लिखा है, चाहे वे घटनाएँ हों, अनुभूतियाँ हों या संवेदनाएँ, हमेशा अपनी जानी पहचानी महसूस होती हैं. हम गहरे आश्चर्य में भर जाते हैं कि हमारी निजी, नितान्त व्यक्तिगत अनुभूतियों का निर्मलजी को पता कैसे चल गया? क्या उन्होंने हमारी स्मृतियों की स्मगलिंग की है? इन अर्थों में देखा जाए, तो निर्मल जी हमारी स्मृतियों के स्मगलर सिद्ध होते हैं. यह मेरा आकलन भर है, जो गलत भी हो सकता है. सतही अर्थों में देखा जाए, तो निर्मलजी ने स्मृतियों का स्मगलर शब्द समूह का अपने उपन्यास एक चिथडा सुख में एक जगह प्रयोग भी किया है, अतः किताब का शीर्षक वहाँ से भी लिया हुआ भी हो सकता है. काश ! कि यह दूसरी बात गलत सिद्ध हो!
फिर प्रश्न उठा कि यह अघोर पाठकीय अवगाहन क्या होता है? जहाँ अघोर के शाब्दिक अर्थ हैं- अप्रबल, कोमल, विनम्र, शिव और सौम्य, वहीं अवगाहन शब्द डूबना या गहराई से सोचने के लिए प्रयुक्त होता है. क्या डूबना कोमल या विनम्र हो सकता है! डूबने की यह कैसी क्रिया है, जो विनम्र होती है! मुझे ऐसा लगता है कि शायद शिवदत्त जी का आशय अघोरीय अवगाहन से रहा होगा. वैसे तो अघोरी शब्द का शाब्दिक अर्थ घिनौना होता है, किन्तु व्यंजना में इसका एक अर्थ उस व्यक्ति से भी लगाया जा सकता है, जो घर संसार सब कुछ त्याग कर साधना में लीन हो जाए. तो क्या शिवदत्त जी ने कोई साधना सम्पन्न की है? यह रहस्य किताब पढ कर ही सुलझाया जा सकता है.
शिवदत्तजी स्वयं को एक चिथडा सुख के वाचक की तरह प्रस्तुत करते हैं. इसका सीधा-सा अर्थ यह निकलता है कि वे लेखक नहीं हैं, बल्कि स्वयं को इस उपन्यास के पाठक की तरह मानते हैं, जिन्होंने डूब कर इस उपन्यास पर मनन, विमर्श, संवाद और शोध किया है. यह पुस्तक एक प्रकार से उनकी पाठकीय अनुभूतियों और विश्लेषणों का दस्तावेज बन कर सामने आई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि यह अपने तरह की अनूठी पुस्तक है, संभवतः हिन्दी साहित्य की एकमात्र पुस्तक, जिसमें एक पाठक का अपने प्रिय उपन्यास पर इतनी विहंगम दृष्टि डाली है. उन्होंने न सिर्फ एक चिथडा सुख की पंक्ति दर पंक्ति, वरन् अनेक स्थानों पर शब्द दर शब्द उन गूढार्थों का निकष पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है, जिनसे प्रायः पाठक अछूते रह जाते हैं. शिवदत्तजी के ये व्याख्याएँ एक चिथडा सुख की एक ऐसी दुनिया उजागर करती हैं, जहाँ उनसे पहले कोई पाठक नहीं पहुँच सका है.
अपनी अनुभूतियाँ पाठकों तक पहुँचाने की प्रक्रिया ने उन्हें एक खालिस पाठक से लेखक में रूपान्तरित कर दिया है. भले ह वे स्वयं को वाचक की तरह स्वीकार करें, पर वाचक को भी अपनी प्रतिक्रियाएँ अन्य पाठकों तक पहुँचाने के लिए अन्ततः आना तो भाषा के पास ही पडता है, और भाषा की मदद से अपने अनुभव लिखने का काम एक लेखक ही कर सकता है, वाचक नहीं. तो मित्र, आप मानें या न मानें, लेखक तो आप हो ही गए हैं.
हालांकि यह प्रश्न भी मुँह बाये खडा होता है कि कोई पाठक क्यों किसी दूसरे पाठक के चश्में से यह उपन्यास पढना चाहेगा? प्रत्येक पाठक को अपना पाठ ही सबसे अलग और बेहतर महसूस होता है, लेकिन यदि इस किताब को पढा गया, तो निश्चय ही पाठकों को महसूस होगा कि उन्हें इस उपन्यास को समझने के लिए एक नई दृष्टि मिली है.
पुस्तक के मूल पाठ को पढने से पहले दो भूमिकाएँ अपना विशेष महत्व रखती हैं. पहली मालचन्द तिवारीजी की भूमिका है, जो एक प्राक्कथन की तरह हमारे सम्मुख आती है. वे शिवदत्तजी की किताब को अतिंम रूप देने में उनके प्रमुख सलाहकार रहे हैं. प्रत्येक पंक्ति मालजी की निगाहों से गुजरी है और परिष्कृत हुई है. उन्होंने स्वीकार किया है कि शिवदत्तजी का यह काम अपने में अनूठा है, जो आज से पहले कभी किसी ने नहीं किया है.
दूसरी भूमिका में शिवदत्तजी स्वयं प्रकट होते हैं और अपने प्रिय लेखक के प्रति अपनी वंदनीय स्तुति प्रस्तुत करते हैं. चूँकि वे मेरे अनन्य मित्र हैं, इसलिए मैं जानता हूँ कि निर्मलजी का उनके जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है. आज वे जैसे हैं, जो हैं, उसके पीछे निर्मलजी का साहित्य, उनके रचे पात्र, उनके अनुभव, उनकी दृष्टि, उनके एकान्त आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उनके अपने निर्माण में स्मृतियों को महत्त्व, खरौंचते दुःख तथा अन्य अनगिनित निर्मलीय संवेदनाओं का वृहद स्थान रहा है. निर्मलजी की लिखी प्रत्येक पंक्ति को उन्होंने ईश्वरीय प्रसाद की तरह ग्रहण किया है. बार बार उनके उपन्यासों और कहानियों का पारायण शिवदत्तजी के अन्तस में इतना गहरा बैठ चुका है कि वे निर्मलजी की लिखी पंक्तियों के वे अर्थ खोल सकने में समर्थ हो सकें हैं, जो सामान्यतः किसी पाठक की पकड में नहीं आ सकते. और शिवदत्तजी का यही उद्घाटन इस किताब को विशिष्ट बनाता है. अपनी किताब में शिवदत्तजी इंगित करते चलते हैं कि कहाँ निर्मल जी ने प्राणविहीन वस्तुओं का मानवीकरण करते चलते हैं, कहाँ वे प्रकृति को एक जीवित पात्र की तरह प्रस्तुत करते हैं, कहाँ वे शब्दों से परे जाकर अनुभव की चैखट पर माथा रगड कर सत्य के अद्भुत स्वरूपों को प्रकट करते चलते हैं.......
ऐसा विलक्षण कार्य कोई सिरफिरा पाठक ही कर सकता है. शिवदत्तजी एक ऐसे ही पाठक के रूप में उभर कर सामने आते हैं. वे निर्मलजी की लिखी प्रत्येक पंक्ति के सत्य को यूँ खोलते हैं, जैसे कोई सिद्धहस्त मूर्तिकार अनगढ पत्थर में छिपी खूबसूरत मूर्ति देख लेता है और कुछ औजारों की सहायता से उस मूर्ति को सब लोगों के सामने प्रकट भी कर देता है. शिवदत्त जी के औजार शब्द हैं, भाषा है, भाव हैं, जो निर्मलजी को शब्द-दर-शब्द, पंक्ति-दर-पंक्ति उकेरते चले जाते हैं. सालों साल की उनकी तपस्या अन्ततः इस किताब के प्रतिफल रूप में हमारे सामने आती है.
उदाहरण के लिए शिवदत्तजी अपनी किताब स्मृतियों का स्मगलर के पृष्ठ संख्या 44 पर एक चिथडा सुख का एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं- किसी अकेले घर में घूमना, जब उसके मालिक साथ न हों, एक अनाथ-सी वीरानी ले आता है. एक सूखी सी प्यास गले में कुडकने लगी.
इन पंक्तियों के अर्थ खोलते हुए वे कहते हैं- क्या वीरानी के भी कोई नाथ, मालिक होते हैं. घर के मालिक दूसरे कमरे में मौजूद हैं, तो क्या इसका मतलब घर सनाथ है, सिर्फ वीरानी अनाथ है. मुझे तो लगता है, यह वीरानी मुन्नू के भीतर है, जहाँ जब उसकी इच्छा इरा के साथ होने की हुमगी होगी...... और वह होना नहीं हुआ..... साथ ही यह भी बोध होता है कि पूरी दिल्ली में मुन्नू के निकट कोई है, तो सिर्फ इरा.......
कहीं-कहीं शिवदत्तजी उलझ भी जाते हैं. पृष्ठ संख्या 118 पर वे निर्मलजी की एक पंक्ति कोट करते हैं - वे दिन नहीं थे. वह मेरी उम्र थी, डैरी ने कहा, उम्र बीत भी जाती है, तो भी उसे ढोना पडता है.
शिवदत्तजी लिखते हैं - मैं इसे कैसे समझूँ ? व्यक्ति-देह का - जैसे निर्मलजी ने डिसेक्शन कर दिया हो, ताकि उसके गुण-धर्म को काउन्ट किया जा सके. अभी सीमित स्तर का परीक्षण है. सिर्फ दिन और उम्र का आकलन किया जा रहा हो. जिन्दगी की संभावनाओं को शायद वे जानबूझ कर परीक्षण अंदाज कर रहे हैं या उन्हें पहले से ही आश्वस्ति हो कि जो कि है ही नहीं, जिसके होने की संभावना ही अभी अजन्मा है, उसका कैसा आकलन !
पृष्ठ संख्या 135 पर वे कहते हैं कि मैं शब्दों को पकडता ही नहीं हूँ, उन्हें खाता हूँ, चबाता हूँ, भकोसता हूँ, उनका खून पीता हूँ. ओढता हूँ, बिछाता हूँ. उनसे लिपट कर सोता हूँ. शब्दों के साथ ऐसा व्यवहार करने वाले संभवतः वे अकेले पाठक हैं.
ये शिवदत्तजी के अपने पाठकीय अनुभव हैं, जिन्हें उन्होंने इस किताब में शब्द दिए हैं. महत्त्वपूर्ण यह भी है कि शिवदत्त जी ऐसा कोई मुगालता नहीं पालते कि इस किताब की कोई साहित्यिक उपादेयता हो. वे इसे इस उपन्यास की समीक्षा अथवा आलोचना मानने से इन्कार करते हैं. शिवदत्त जी के अर्थ उनके नितान्त व्यक्तिगत अनुभवों के सागर में से मोती से उभर कर सामने आए हैं, जिसके लिए वे किसी भी कचहरी में जाने की आवश्यकता से इन्कार करते हैं. वे इस किताब को साहित्यिक स्वीकृति-अस्वीकृति से परे जाकर अपने लिखे को महज एक पाठक का अनुरागात्मक गान मानते हैं. यह तो मैं भी नहीं जानता कि इस किताब को साहित्य की किस विधा में माना जाएगा, लेकिन जिस किसी में भी माना जाए, इससे इसका महत्व किसी सूरत में कम नहीं हो जाता. यह किताब साहित्यिक शोध के उच्चतम शिखर पर दिखाई देती है. आने वाले समय में यह किताब एक श्रेष्ठ रेफरेन्स बुक की तरह स्वीकार की जाएगी, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है.
***
पुस्तक का नाम : स्मृतियों का स्मगलर
(एक चिथडा सुख का अघोर पाठकीय अवगाहन)
लेखक : शिवदत्त
प्रकाशन : सर्जना, बीकानेर
वर्ष : २०२०
मूल्य : रु. 280.00
***
सम्पर्क - जी-111, जी ब्लॉक,
माकडवाली रोड, अजमेर,
३०५००४ मोबाइल 9829182320
लेकिन विस्मय से भी बडी थी वह खुशी, जो मुझे किताब के प्रकाशन की सूचना से हुई. किस मित्र को नहीं होगी! यह खुशी किसी नायाब खजाने को सहसा पा जाने से किसी सूरत में कम नहीं थी. मैं किसी भी प्रकार किताब को तुरंत पाना चाह रहा था, लेकिन तब वह अपने प्रकाशनगृह से खुले संसार में आने की जद्दोजहद में लगी हुई थी. प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प शेष था भी नहीं.
समय आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गति से व्यतीत होता रहा और अन्ततः यह किताब मेरे हाथों में आ ही गई. वह 3 अप्रेल, 2018 का दिन था और शहर था जोधपुर. यह निर्मल वर्माजी का जन्म दिन भी है. मैं और देवल साहब इस किताब उनसे लेने के लिए ही जोधपुर गए थे. मालचन्द तिवारीजी और कैलाश कबीरजी की उपस्थिति में इस किताब का पहला स्पर्श नसीब हुआ.
सबसे पहले अपना घ्यान आकर्षित किया मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित निर्मल वर्मा के चित्र ने. वही बेधती आँखें, वही उदासी, वही अकेलापन..... उनकी कहानियों के अतिरिक्त भी उनमें कितना कुछ है, जो बाँधे रखता है. संभव है कि इसका कारण यह हो कि जब हम किसी से जुडते हैं तो बहुधा उसकी प्रत्येक चीज से जुडते चले जाते हैं.
फिर निःसंदेह किताब का शीर्षक अलग सा लगा- स्मृतियों का स्मगलर ! शीर्षक के सिराहने लिखा था- एक चिथडा दुख का अघोर पाठकीय अवगाहन. इस शीर्षक और इसके ऊपर लिखी इस पंक्ति का क्या अर्थ हो सकता है ! क्या निर्मल जी स्वयं अपनी स्मृतियों के स्मगलर हो सकते हैं? नहीं, इस शीर्षक का इतना हल्का अर्थ तो हो नहीं सकता. तो फिर ये किसकी स्मृतियाँ हैं और स्मगलर कौन है?
याद आया कि निर्मलजी की कहानियाँ और उपन्यास पढते समय अनेक बार यह अहसास होता है कि जो कुछ उन्होंने लिखा है, चाहे वे घटनाएँ हों, अनुभूतियाँ हों या संवेदनाएँ, हमेशा अपनी जानी पहचानी महसूस होती हैं. हम गहरे आश्चर्य में भर जाते हैं कि हमारी निजी, नितान्त व्यक्तिगत अनुभूतियों का निर्मलजी को पता कैसे चल गया? क्या उन्होंने हमारी स्मृतियों की स्मगलिंग की है? इन अर्थों में देखा जाए, तो निर्मल जी हमारी स्मृतियों के स्मगलर सिद्ध होते हैं. यह मेरा आकलन भर है, जो गलत भी हो सकता है. सतही अर्थों में देखा जाए, तो निर्मलजी ने स्मृतियों का स्मगलर शब्द समूह का अपने उपन्यास एक चिथडा सुख में एक जगह प्रयोग भी किया है, अतः किताब का शीर्षक वहाँ से भी लिया हुआ भी हो सकता है. काश ! कि यह दूसरी बात गलत सिद्ध हो!
फिर प्रश्न उठा कि यह अघोर पाठकीय अवगाहन क्या होता है? जहाँ अघोर के शाब्दिक अर्थ हैं- अप्रबल, कोमल, विनम्र, शिव और सौम्य, वहीं अवगाहन शब्द डूबना या गहराई से सोचने के लिए प्रयुक्त होता है. क्या डूबना कोमल या विनम्र हो सकता है! डूबने की यह कैसी क्रिया है, जो विनम्र होती है! मुझे ऐसा लगता है कि शायद शिवदत्त जी का आशय अघोरीय अवगाहन से रहा होगा. वैसे तो अघोरी शब्द का शाब्दिक अर्थ घिनौना होता है, किन्तु व्यंजना में इसका एक अर्थ उस व्यक्ति से भी लगाया जा सकता है, जो घर संसार सब कुछ त्याग कर साधना में लीन हो जाए. तो क्या शिवदत्त जी ने कोई साधना सम्पन्न की है? यह रहस्य किताब पढ कर ही सुलझाया जा सकता है.
शिवदत्तजी स्वयं को एक चिथडा सुख के वाचक की तरह प्रस्तुत करते हैं. इसका सीधा-सा अर्थ यह निकलता है कि वे लेखक नहीं हैं, बल्कि स्वयं को इस उपन्यास के पाठक की तरह मानते हैं, जिन्होंने डूब कर इस उपन्यास पर मनन, विमर्श, संवाद और शोध किया है. यह पुस्तक एक प्रकार से उनकी पाठकीय अनुभूतियों और विश्लेषणों का दस्तावेज बन कर सामने आई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि यह अपने तरह की अनूठी पुस्तक है, संभवतः हिन्दी साहित्य की एकमात्र पुस्तक, जिसमें एक पाठक का अपने प्रिय उपन्यास पर इतनी विहंगम दृष्टि डाली है. उन्होंने न सिर्फ एक चिथडा सुख की पंक्ति दर पंक्ति, वरन् अनेक स्थानों पर शब्द दर शब्द उन गूढार्थों का निकष पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है, जिनसे प्रायः पाठक अछूते रह जाते हैं. शिवदत्तजी के ये व्याख्याएँ एक चिथडा सुख की एक ऐसी दुनिया उजागर करती हैं, जहाँ उनसे पहले कोई पाठक नहीं पहुँच सका है.
अपनी अनुभूतियाँ पाठकों तक पहुँचाने की प्रक्रिया ने उन्हें एक खालिस पाठक से लेखक में रूपान्तरित कर दिया है. भले ह वे स्वयं को वाचक की तरह स्वीकार करें, पर वाचक को भी अपनी प्रतिक्रियाएँ अन्य पाठकों तक पहुँचाने के लिए अन्ततः आना तो भाषा के पास ही पडता है, और भाषा की मदद से अपने अनुभव लिखने का काम एक लेखक ही कर सकता है, वाचक नहीं. तो मित्र, आप मानें या न मानें, लेखक तो आप हो ही गए हैं.
हालांकि यह प्रश्न भी मुँह बाये खडा होता है कि कोई पाठक क्यों किसी दूसरे पाठक के चश्में से यह उपन्यास पढना चाहेगा? प्रत्येक पाठक को अपना पाठ ही सबसे अलग और बेहतर महसूस होता है, लेकिन यदि इस किताब को पढा गया, तो निश्चय ही पाठकों को महसूस होगा कि उन्हें इस उपन्यास को समझने के लिए एक नई दृष्टि मिली है.
पुस्तक के मूल पाठ को पढने से पहले दो भूमिकाएँ अपना विशेष महत्व रखती हैं. पहली मालचन्द तिवारीजी की भूमिका है, जो एक प्राक्कथन की तरह हमारे सम्मुख आती है. वे शिवदत्तजी की किताब को अतिंम रूप देने में उनके प्रमुख सलाहकार रहे हैं. प्रत्येक पंक्ति मालजी की निगाहों से गुजरी है और परिष्कृत हुई है. उन्होंने स्वीकार किया है कि शिवदत्तजी का यह काम अपने में अनूठा है, जो आज से पहले कभी किसी ने नहीं किया है.
दूसरी भूमिका में शिवदत्तजी स्वयं प्रकट होते हैं और अपने प्रिय लेखक के प्रति अपनी वंदनीय स्तुति प्रस्तुत करते हैं. चूँकि वे मेरे अनन्य मित्र हैं, इसलिए मैं जानता हूँ कि निर्मलजी का उनके जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है. आज वे जैसे हैं, जो हैं, उसके पीछे निर्मलजी का साहित्य, उनके रचे पात्र, उनके अनुभव, उनकी दृष्टि, उनके एकान्त आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उनके अपने निर्माण में स्मृतियों को महत्त्व, खरौंचते दुःख तथा अन्य अनगिनित निर्मलीय संवेदनाओं का वृहद स्थान रहा है. निर्मलजी की लिखी प्रत्येक पंक्ति को उन्होंने ईश्वरीय प्रसाद की तरह ग्रहण किया है. बार बार उनके उपन्यासों और कहानियों का पारायण शिवदत्तजी के अन्तस में इतना गहरा बैठ चुका है कि वे निर्मलजी की लिखी पंक्तियों के वे अर्थ खोल सकने में समर्थ हो सकें हैं, जो सामान्यतः किसी पाठक की पकड में नहीं आ सकते. और शिवदत्तजी का यही उद्घाटन इस किताब को विशिष्ट बनाता है. अपनी किताब में शिवदत्तजी इंगित करते चलते हैं कि कहाँ निर्मल जी ने प्राणविहीन वस्तुओं का मानवीकरण करते चलते हैं, कहाँ वे प्रकृति को एक जीवित पात्र की तरह प्रस्तुत करते हैं, कहाँ वे शब्दों से परे जाकर अनुभव की चैखट पर माथा रगड कर सत्य के अद्भुत स्वरूपों को प्रकट करते चलते हैं.......
ऐसा विलक्षण कार्य कोई सिरफिरा पाठक ही कर सकता है. शिवदत्तजी एक ऐसे ही पाठक के रूप में उभर कर सामने आते हैं. वे निर्मलजी की लिखी प्रत्येक पंक्ति के सत्य को यूँ खोलते हैं, जैसे कोई सिद्धहस्त मूर्तिकार अनगढ पत्थर में छिपी खूबसूरत मूर्ति देख लेता है और कुछ औजारों की सहायता से उस मूर्ति को सब लोगों के सामने प्रकट भी कर देता है. शिवदत्त जी के औजार शब्द हैं, भाषा है, भाव हैं, जो निर्मलजी को शब्द-दर-शब्द, पंक्ति-दर-पंक्ति उकेरते चले जाते हैं. सालों साल की उनकी तपस्या अन्ततः इस किताब के प्रतिफल रूप में हमारे सामने आती है.
उदाहरण के लिए शिवदत्तजी अपनी किताब स्मृतियों का स्मगलर के पृष्ठ संख्या 44 पर एक चिथडा सुख का एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं- किसी अकेले घर में घूमना, जब उसके मालिक साथ न हों, एक अनाथ-सी वीरानी ले आता है. एक सूखी सी प्यास गले में कुडकने लगी.
इन पंक्तियों के अर्थ खोलते हुए वे कहते हैं- क्या वीरानी के भी कोई नाथ, मालिक होते हैं. घर के मालिक दूसरे कमरे में मौजूद हैं, तो क्या इसका मतलब घर सनाथ है, सिर्फ वीरानी अनाथ है. मुझे तो लगता है, यह वीरानी मुन्नू के भीतर है, जहाँ जब उसकी इच्छा इरा के साथ होने की हुमगी होगी...... और वह होना नहीं हुआ..... साथ ही यह भी बोध होता है कि पूरी दिल्ली में मुन्नू के निकट कोई है, तो सिर्फ इरा.......
कहीं-कहीं शिवदत्तजी उलझ भी जाते हैं. पृष्ठ संख्या 118 पर वे निर्मलजी की एक पंक्ति कोट करते हैं - वे दिन नहीं थे. वह मेरी उम्र थी, डैरी ने कहा, उम्र बीत भी जाती है, तो भी उसे ढोना पडता है.
शिवदत्तजी लिखते हैं - मैं इसे कैसे समझूँ ? व्यक्ति-देह का - जैसे निर्मलजी ने डिसेक्शन कर दिया हो, ताकि उसके गुण-धर्म को काउन्ट किया जा सके. अभी सीमित स्तर का परीक्षण है. सिर्फ दिन और उम्र का आकलन किया जा रहा हो. जिन्दगी की संभावनाओं को शायद वे जानबूझ कर परीक्षण अंदाज कर रहे हैं या उन्हें पहले से ही आश्वस्ति हो कि जो कि है ही नहीं, जिसके होने की संभावना ही अभी अजन्मा है, उसका कैसा आकलन !
पृष्ठ संख्या 135 पर वे कहते हैं कि मैं शब्दों को पकडता ही नहीं हूँ, उन्हें खाता हूँ, चबाता हूँ, भकोसता हूँ, उनका खून पीता हूँ. ओढता हूँ, बिछाता हूँ. उनसे लिपट कर सोता हूँ. शब्दों के साथ ऐसा व्यवहार करने वाले संभवतः वे अकेले पाठक हैं.
ये शिवदत्तजी के अपने पाठकीय अनुभव हैं, जिन्हें उन्होंने इस किताब में शब्द दिए हैं. महत्त्वपूर्ण यह भी है कि शिवदत्त जी ऐसा कोई मुगालता नहीं पालते कि इस किताब की कोई साहित्यिक उपादेयता हो. वे इसे इस उपन्यास की समीक्षा अथवा आलोचना मानने से इन्कार करते हैं. शिवदत्त जी के अर्थ उनके नितान्त व्यक्तिगत अनुभवों के सागर में से मोती से उभर कर सामने आए हैं, जिसके लिए वे किसी भी कचहरी में जाने की आवश्यकता से इन्कार करते हैं. वे इस किताब को साहित्यिक स्वीकृति-अस्वीकृति से परे जाकर अपने लिखे को महज एक पाठक का अनुरागात्मक गान मानते हैं. यह तो मैं भी नहीं जानता कि इस किताब को साहित्य की किस विधा में माना जाएगा, लेकिन जिस किसी में भी माना जाए, इससे इसका महत्व किसी सूरत में कम नहीं हो जाता. यह किताब साहित्यिक शोध के उच्चतम शिखर पर दिखाई देती है. आने वाले समय में यह किताब एक श्रेष्ठ रेफरेन्स बुक की तरह स्वीकार की जाएगी, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है.
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पुस्तक का नाम : स्मृतियों का स्मगलर
(एक चिथडा सुख का अघोर पाठकीय अवगाहन)
लेखक : शिवदत्त
प्रकाशन : सर्जना, बीकानेर
वर्ष : २०२०
मूल्य : रु. 280.00
***
सम्पर्क - जी-111, जी ब्लॉक,
माकडवाली रोड, अजमेर,
३०५००४ मोबाइल 9829182320