पधारो कवि के देस!
डॉ. रेणु व्यास
आप राजस्थान को देखना चाहते हैं, तो शीर्षक पढते हुए आप गलत जगह पहुँच गए हैं। फिर आप राजस्थान टूरि*म डेवलपमेंट कोर्पोरेशन का रंगीन ब्रोशर ही पलटिए। अगर आप राजस्थान को जानना चाहते हैं, तो विनोद पदरज का नया संग्रह देस आपकी आकांक्षा की पूर्ति करेगा। बिंब कविता का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है, पर यहाँ तो पूरा संग्रह स्केच और फोटोग्राफ से सजी एलबम है जिसमें प्रकृति के चित्र हैं और जनजीवन के भी।
तुम कहाँ से आए हो कवि
किन रस्तों की धूल है तुम्हारे पाँवों में
किन कुओं का जल पिया है तुमने
किन पेडों के नीचे सुस्ताए हो
.............
किनके दुख में डूब डूब तुम भीग गये
किनके सुख में खिल खिल आये हो
सबकी गंध बसी है कविवर कविताओं में
जिनसे वे जानी पहचानी जाती हैं
(पृष्ठ सं. 70)
कविता कवि के जीवनानुभवों से ही बनती है, यह कविवर विनोद पदरज की कविता के लिए भी सत्य है। विनोद पदरज ऐसे कवि हैं जो कविता में ही देखते हैं, कविता में ही सुनते हैं। वरना अंग्रेजी के वी के आकार में उडते प्रवासी पक्षियों के समूह में स्त्रियाँ, नये पठोरे, लंबी उडान के अनुभवी अग्रणी आदि को, यानी उस समूह के भीतर के पूरे समाज को कौन देख सकता है! जैसा विनोद पदरज यात्री कविता में देखते हैं। चींटी के पग नेउर बाजे, सो भी साहिब सुनता है। कबीर के साहिब की तरह कवि भी सुन लेता है अपने मृतक साथी को ले जाते हुए चींटों का रोना, रोना कविता में। कविता की यह भाषा तब की है जब भाषा भी ईजाद नहीं हुई होगी। एक मंथर-मंथर बहती धारा की तरह हैं, इस संग्रह में कविताएँ। यहाँ प्रकृति के चित्र और जनजीवन एक-दूसरे में घुलमिल गए हैं।
पेडों से कवि का पुराना नाता है। यहाँ कजर् में डूबे किसानों की आत्महत्याओं से शोकमग्न, शर्मिंदा वे नतशीश पेड हैं जो 1857 में उन्नतभाल तने खडे थे। पेड कविता में सारा परिवार ही पेडनुमा है। माँ वह पेड है जिसके सारे पत्ते एकसाथ झड जाते हैं और कोंपलें भी फूटती हैं, एकसाथ। पिता वह पेड हैं, एकसाथ कुछ भी नहीं होता जिसमें। जिनके पत्ते झरते रहते हैं चुपचाप और कोंपलें फूटती रहती हैं चुपचाप। कवि खुद पलाश है जिसके पत्ते झर जाने पर वह फूलों से भर जाता है और फूल झर जाने पर पत्तों से। (पृष्ठ सं. 104) बाबा सौ पेडों का नाम लेते थे और बारिश हो जाती थी। जुलाई संवाद कविता में बारिश के कई प्रकार अपने नाम के साथ दजर् हैं- चिरपिड चिरपिड, चिडीमूतणा, पछेवडा निचोड, मूसलाधार, झिरमिर-झिरमिर, झड आदि।
विनोद पदरज एक गहरी पारिवारिकता के कवि हैं। यहाँ ससुराल से लौटी बेटी है। ससुराल न भेजे जाने की विनती करती दस साल बडी बहन की करुण कथा है, जो ससुराल भेजी गई और लौटकर नहीं आई। पिता पर कई कविताएँ इस संग्रह में हैं। पिता और पुत्र में पुल बनती माँ पर भी कविताएँ हैं। सच है -
पुत्र कहाँ जानते हैं पिता को
पिता को भी माँ ही जानती है
(पृष्ठ सं. 68)
भाषा कविता में माँ में छिपी वह अल्हड किशोरी नजर आती है जो मायके की सीमा से ही ससुराल की आरोपित ढूँढाडी को छोडकर सहज रूप से ब्रज बोलने लगती है। यहाँ वह दुनिया देखी माँ भी है जो किसी की आश्रित नहीं रहना चाहती और तीन बेटों को पूरा खेत न देकर चौथा हिस्सा खुद रखती है। एक दूसरी माँ है जो शहर में बसे बेटों से यह सुनते-सुनते कि माँ का मन गाँव में ही लगता है खुद भी यही कहने लगती है। लीर से बँधी टूटी बद्दियों वाली चप्पल पहने और डोरे से बँधा टूटी डंडी वाला चश्मा लागाए एक और माँ है जो शहर में बसे तीन जीवित बेटों के होते ढाई साल की उम्र में गुजर गए बेटे को याद करती है। विनोद पदरज की कविताओं में माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी हैं, पर इनके भीतर और इन रिश्तों के इतर एक स्त्री भी है। कवि देखता है कि इन सारे रिश्तों में भी स्त्री के होने के लिए व्रत-उपवास-मन्नत का कोई प्रसंग नहीं, वे अनचाही ही आई हैं संसार में। कवि कहता भी है कि माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी को जानना; माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी को जानना है, स्त्री को नहीं।
स्त्री को जानने के लिए
स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है
..............
मैं जब भी किसी स्त्री के पास जाता हूँ
अपना आधा अंश छोडकर जाता हूँ
तब जाकर स्त्री की हल्की-सी झलक पाता हूँ (पृष्ठ सं. 54)
यह जो हल्की सी झलक मिली है कवि को, उसमें लावणी करते हुए मेड पर ही सो गई स्त्री है जिस पर एक बबूल तिरछा होकर छाया पहुँचाने की कोशिश कर रहा है। यह बबूल कवि स्वयं है। खिल खिल गए बबूल। पहाड, समुद्र और मरुस्थल को अपने में समेटे स्त्रीबोधक संज्ञा वाली विस्तृत धरती से लेकर पति से मार खाती, अपने कलेजे के टुकडे को पीटती और छाती से भींचती स्त्री, मैली कुचैली जर्जर ओढनियों में सत्तर पार की वृद्धाओं के गीतों तक में स्त्री के दुख ही दुख हैं। सौन्दर्य कविता में अभिव्यक्त स्त्री का दुख अपने आधे परुष अंश को छोडकर ही समझा जा सकता है -
हम पहाड का सौन्दर्य देखते हैं
पहाड का दुख नहीं
हम समुद्र का सौन्दर्य देखते हैं
समुद्र का दुख नहीं
हम मरुस्थल का सौन्दर्य देखते हैं
मरुस्थल का दुख नहीं
हम स्त्री का सौन्दर्य देखते हैं
जो पहाड है
समुद्र है
मरुस्थल है
(पृष्ठ सं. 33)
कवि को इस बात पर भी आपत्ति है कि आदमी खुद को इश्क कहे यानी रूह और औरत को हुस्न यानी जिस्म। समाज का, परिवार का सदियों पुराना चित्र है - एक आदमी लेटा है खाट पर, एक औरत बैठी है नीचे, उसे पंखा झलती हुई। कवि इसे पलटना चाहता है पर इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती इस समाज में कि औरत लेटी है खाट पर और आदमी बैठा हो नीचे जमीन पर, पंखा झलता। चित्र बनाते-बनाते ही वह कवि के वश में नहीं रहता, वही सदियों पुराना चित्र हो जाता है -
मैं उन दोनों को खाट पर बिठाता हूँ
और हँसते खिलखिलाते सुख-दुख की बतियाते
बारी बारी से पंखा झलते दिखाता हूँ
पर चित्र पूरा होने से पहले ही
आदमी धकिया कर औरत को उतार देता है
और बेहयाई से खाट पर पसर जाता है
औरत मन मारकर पंखा झलती है
जमीन पर बैठी हुई।
(पृष्ठ सं. 50)
कुलधरा में भी यह सदियों पुराना चित्र आज के संदर्भों के साथ मौजूद है।
मिरगाँ भूमिजा है
राहगीर को पानी पिलाती हमारी अस्मिता
कितने सालम सिंह उस पर आँख गडाये बैठे हैं
कि उकट रहे हैं गाँव
उकट रहे हैं देश
उकट रही हैं कुलधराएँ
(पृष्ठ सं. 83)
ऊँटसवार की यात्रा की मंजिल, ऊँट की भी मंजल है, एक स्त्री का स्नेहभरा स्पर्श, यात्रा कविता में -
तीसरे पहर फिर चलूँगा
सूर्य शिथिल होने पर
शाम तक पहुँच जाऊँगा
वहाँ
जहाँ का ऊँट को भी इंतजार है
कि कोई चूडों वाली
उसे चारा नीरेगी पानी पिलाएगी थपथपाएगी
प्यार से।
(पृष्ठ सं. 114)
यही प्यार-भरा स्त्री-स्पर्श विनोद पदरज की कविता का शिल्प है। जो जोडा कविता से प्रतीक रूप में समझा जा सकता है। घण चलाना पुरुषोचित काम है और आकार देना स्त्री *यादा जानती है, फिर भी लुहार-लुहारिन को इसके उलट भूमिका निभाते देख, कवि का अनुमानित स्पष्टीकरण है कि -
कुछ चीजों को आकार देने के लिए प्रहार में
मुलामियत जरूरी है
गर पुरुष भी घण चलाए तो
उसे स्त्री की तरह चलाना होगा
(पृष्ठ सं. 116-117)
ऐसा ही एक मुलायम किंतु असरदार प्रहार करती कविता है- नंदिनी गाय। जिस गाय में प्राण बसते हों, उसे कोस भर लाना-ले जाना कितना खतरनाक है किसी के लिए, यदि उसके दाढी हो -
..... दाढी कटा लूँ
धोती कुर्ता पहन लूँ
रामनामी ओढ लूँ तिलक लगा लूँ
आधार कार्ड रख लूँ जेब में
गौशाला के चन्दे की रसीदें
तब निकलूँ - सडक के रास्ते
..........
फिर भी डर लग रहा है
धुकधुकी हो रही है
रीढ सिहर रही है
बार-बार बच्चों का खयाल आ रहा है
जबकि जाना आना मात्र एक कोस है
और अपना ही देस है।
(पृष्ठ सं. 22-23)
आज तो आधार कार्ड भी नाकाफी है, यह सिद्ध करने के लिए कि यह अपना ही देस है। सचमुच यह अपना वह हजारों साला साझा तहजीब का देश नहीं है। यह तो एक नया ही राष्ट्र बनाने की कोशिश है, नफरत, हिंसा और उन्माद से भरी।
पत्र शीर्षक से क्षणिकाओं की एक श्रृंखला है, पुस्तक में। कवि के ही शब्दों में - आँसुओं से भीगा पत्र/ पीडा का महाकाव्य है (पृष्ठ सं. 125) आज जब पत्र बीते जमाने की चीज हो गए हैं और आँसुओं का स्थान इमोजी ने ले लिया है, तब इन लघु कविताओं के साथ गुजरा हुआ जमाना याद आ जाता है। एक व्यंजना भरी पत्र कविता मेरी बात को मुकम्मल करने के लिए मौजूँ है -
मैं डेड लेटर ऑफिस हूँ
मुझमें पडे हैं कई ऐसे पत्र
जिन पर पाने वाले और
भेजने वाले का पता नहीं
मैं उन्हें ठीये पर पहुँचाना चाहता हूँ
आप कहते हैं कविता लिखता हूँ
(पृष्ठ सं. 124-125)
पुस्तक का नाम : देस, विनोद पदरज (कविता संग्रह)
प्रकाशन : बोधि प्रकाशन, जयपुर,
संस्करण : 2019,
पृष्ठ संख्या : 128,
मूल्य : 150
***
सम्पर्क - ए-85-बी, शिवशक्ति नगर,
मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर,
email- renuvyas00@gmail.com
तुम कहाँ से आए हो कवि
किन रस्तों की धूल है तुम्हारे पाँवों में
किन कुओं का जल पिया है तुमने
किन पेडों के नीचे सुस्ताए हो
.............
किनके दुख में डूब डूब तुम भीग गये
किनके सुख में खिल खिल आये हो
सबकी गंध बसी है कविवर कविताओं में
जिनसे वे जानी पहचानी जाती हैं
(पृष्ठ सं. 70)
कविता कवि के जीवनानुभवों से ही बनती है, यह कविवर विनोद पदरज की कविता के लिए भी सत्य है। विनोद पदरज ऐसे कवि हैं जो कविता में ही देखते हैं, कविता में ही सुनते हैं। वरना अंग्रेजी के वी के आकार में उडते प्रवासी पक्षियों के समूह में स्त्रियाँ, नये पठोरे, लंबी उडान के अनुभवी अग्रणी आदि को, यानी उस समूह के भीतर के पूरे समाज को कौन देख सकता है! जैसा विनोद पदरज यात्री कविता में देखते हैं। चींटी के पग नेउर बाजे, सो भी साहिब सुनता है। कबीर के साहिब की तरह कवि भी सुन लेता है अपने मृतक साथी को ले जाते हुए चींटों का रोना, रोना कविता में। कविता की यह भाषा तब की है जब भाषा भी ईजाद नहीं हुई होगी। एक मंथर-मंथर बहती धारा की तरह हैं, इस संग्रह में कविताएँ। यहाँ प्रकृति के चित्र और जनजीवन एक-दूसरे में घुलमिल गए हैं।
पेडों से कवि का पुराना नाता है। यहाँ कजर् में डूबे किसानों की आत्महत्याओं से शोकमग्न, शर्मिंदा वे नतशीश पेड हैं जो 1857 में उन्नतभाल तने खडे थे। पेड कविता में सारा परिवार ही पेडनुमा है। माँ वह पेड है जिसके सारे पत्ते एकसाथ झड जाते हैं और कोंपलें भी फूटती हैं, एकसाथ। पिता वह पेड हैं, एकसाथ कुछ भी नहीं होता जिसमें। जिनके पत्ते झरते रहते हैं चुपचाप और कोंपलें फूटती रहती हैं चुपचाप। कवि खुद पलाश है जिसके पत्ते झर जाने पर वह फूलों से भर जाता है और फूल झर जाने पर पत्तों से। (पृष्ठ सं. 104) बाबा सौ पेडों का नाम लेते थे और बारिश हो जाती थी। जुलाई संवाद कविता में बारिश के कई प्रकार अपने नाम के साथ दजर् हैं- चिरपिड चिरपिड, चिडीमूतणा, पछेवडा निचोड, मूसलाधार, झिरमिर-झिरमिर, झड आदि।
विनोद पदरज एक गहरी पारिवारिकता के कवि हैं। यहाँ ससुराल से लौटी बेटी है। ससुराल न भेजे जाने की विनती करती दस साल बडी बहन की करुण कथा है, जो ससुराल भेजी गई और लौटकर नहीं आई। पिता पर कई कविताएँ इस संग्रह में हैं। पिता और पुत्र में पुल बनती माँ पर भी कविताएँ हैं। सच है -
पुत्र कहाँ जानते हैं पिता को
पिता को भी माँ ही जानती है
(पृष्ठ सं. 68)
भाषा कविता में माँ में छिपी वह अल्हड किशोरी नजर आती है जो मायके की सीमा से ही ससुराल की आरोपित ढूँढाडी को छोडकर सहज रूप से ब्रज बोलने लगती है। यहाँ वह दुनिया देखी माँ भी है जो किसी की आश्रित नहीं रहना चाहती और तीन बेटों को पूरा खेत न देकर चौथा हिस्सा खुद रखती है। एक दूसरी माँ है जो शहर में बसे बेटों से यह सुनते-सुनते कि माँ का मन गाँव में ही लगता है खुद भी यही कहने लगती है। लीर से बँधी टूटी बद्दियों वाली चप्पल पहने और डोरे से बँधा टूटी डंडी वाला चश्मा लागाए एक और माँ है जो शहर में बसे तीन जीवित बेटों के होते ढाई साल की उम्र में गुजर गए बेटे को याद करती है। विनोद पदरज की कविताओं में माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी हैं, पर इनके भीतर और इन रिश्तों के इतर एक स्त्री भी है। कवि देखता है कि इन सारे रिश्तों में भी स्त्री के होने के लिए व्रत-उपवास-मन्नत का कोई प्रसंग नहीं, वे अनचाही ही आई हैं संसार में। कवि कहता भी है कि माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी को जानना; माँ, बहन, बुआ, बेटी, पत्नी को जानना है, स्त्री को नहीं।
स्त्री को जानने के लिए
स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है
..............
मैं जब भी किसी स्त्री के पास जाता हूँ
अपना आधा अंश छोडकर जाता हूँ
तब जाकर स्त्री की हल्की-सी झलक पाता हूँ (पृष्ठ सं. 54)
यह जो हल्की सी झलक मिली है कवि को, उसमें लावणी करते हुए मेड पर ही सो गई स्त्री है जिस पर एक बबूल तिरछा होकर छाया पहुँचाने की कोशिश कर रहा है। यह बबूल कवि स्वयं है। खिल खिल गए बबूल। पहाड, समुद्र और मरुस्थल को अपने में समेटे स्त्रीबोधक संज्ञा वाली विस्तृत धरती से लेकर पति से मार खाती, अपने कलेजे के टुकडे को पीटती और छाती से भींचती स्त्री, मैली कुचैली जर्जर ओढनियों में सत्तर पार की वृद्धाओं के गीतों तक में स्त्री के दुख ही दुख हैं। सौन्दर्य कविता में अभिव्यक्त स्त्री का दुख अपने आधे परुष अंश को छोडकर ही समझा जा सकता है -
हम पहाड का सौन्दर्य देखते हैं
पहाड का दुख नहीं
हम समुद्र का सौन्दर्य देखते हैं
समुद्र का दुख नहीं
हम मरुस्थल का सौन्दर्य देखते हैं
मरुस्थल का दुख नहीं
हम स्त्री का सौन्दर्य देखते हैं
जो पहाड है
समुद्र है
मरुस्थल है
(पृष्ठ सं. 33)
कवि को इस बात पर भी आपत्ति है कि आदमी खुद को इश्क कहे यानी रूह और औरत को हुस्न यानी जिस्म। समाज का, परिवार का सदियों पुराना चित्र है - एक आदमी लेटा है खाट पर, एक औरत बैठी है नीचे, उसे पंखा झलती हुई। कवि इसे पलटना चाहता है पर इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती इस समाज में कि औरत लेटी है खाट पर और आदमी बैठा हो नीचे जमीन पर, पंखा झलता। चित्र बनाते-बनाते ही वह कवि के वश में नहीं रहता, वही सदियों पुराना चित्र हो जाता है -
मैं उन दोनों को खाट पर बिठाता हूँ
और हँसते खिलखिलाते सुख-दुख की बतियाते
बारी बारी से पंखा झलते दिखाता हूँ
पर चित्र पूरा होने से पहले ही
आदमी धकिया कर औरत को उतार देता है
और बेहयाई से खाट पर पसर जाता है
औरत मन मारकर पंखा झलती है
जमीन पर बैठी हुई।
(पृष्ठ सं. 50)
कुलधरा में भी यह सदियों पुराना चित्र आज के संदर्भों के साथ मौजूद है।
मिरगाँ भूमिजा है
राहगीर को पानी पिलाती हमारी अस्मिता
कितने सालम सिंह उस पर आँख गडाये बैठे हैं
कि उकट रहे हैं गाँव
उकट रहे हैं देश
उकट रही हैं कुलधराएँ
(पृष्ठ सं. 83)
ऊँटसवार की यात्रा की मंजिल, ऊँट की भी मंजल है, एक स्त्री का स्नेहभरा स्पर्श, यात्रा कविता में -
तीसरे पहर फिर चलूँगा
सूर्य शिथिल होने पर
शाम तक पहुँच जाऊँगा
वहाँ
जहाँ का ऊँट को भी इंतजार है
कि कोई चूडों वाली
उसे चारा नीरेगी पानी पिलाएगी थपथपाएगी
प्यार से।
(पृष्ठ सं. 114)
यही प्यार-भरा स्त्री-स्पर्श विनोद पदरज की कविता का शिल्प है। जो जोडा कविता से प्रतीक रूप में समझा जा सकता है। घण चलाना पुरुषोचित काम है और आकार देना स्त्री *यादा जानती है, फिर भी लुहार-लुहारिन को इसके उलट भूमिका निभाते देख, कवि का अनुमानित स्पष्टीकरण है कि -
कुछ चीजों को आकार देने के लिए प्रहार में
मुलामियत जरूरी है
गर पुरुष भी घण चलाए तो
उसे स्त्री की तरह चलाना होगा
(पृष्ठ सं. 116-117)
ऐसा ही एक मुलायम किंतु असरदार प्रहार करती कविता है- नंदिनी गाय। जिस गाय में प्राण बसते हों, उसे कोस भर लाना-ले जाना कितना खतरनाक है किसी के लिए, यदि उसके दाढी हो -
..... दाढी कटा लूँ
धोती कुर्ता पहन लूँ
रामनामी ओढ लूँ तिलक लगा लूँ
आधार कार्ड रख लूँ जेब में
गौशाला के चन्दे की रसीदें
तब निकलूँ - सडक के रास्ते
..........
फिर भी डर लग रहा है
धुकधुकी हो रही है
रीढ सिहर रही है
बार-बार बच्चों का खयाल आ रहा है
जबकि जाना आना मात्र एक कोस है
और अपना ही देस है।
(पृष्ठ सं. 22-23)
आज तो आधार कार्ड भी नाकाफी है, यह सिद्ध करने के लिए कि यह अपना ही देस है। सचमुच यह अपना वह हजारों साला साझा तहजीब का देश नहीं है। यह तो एक नया ही राष्ट्र बनाने की कोशिश है, नफरत, हिंसा और उन्माद से भरी।
पत्र शीर्षक से क्षणिकाओं की एक श्रृंखला है, पुस्तक में। कवि के ही शब्दों में - आँसुओं से भीगा पत्र/ पीडा का महाकाव्य है (पृष्ठ सं. 125) आज जब पत्र बीते जमाने की चीज हो गए हैं और आँसुओं का स्थान इमोजी ने ले लिया है, तब इन लघु कविताओं के साथ गुजरा हुआ जमाना याद आ जाता है। एक व्यंजना भरी पत्र कविता मेरी बात को मुकम्मल करने के लिए मौजूँ है -
मैं डेड लेटर ऑफिस हूँ
मुझमें पडे हैं कई ऐसे पत्र
जिन पर पाने वाले और
भेजने वाले का पता नहीं
मैं उन्हें ठीये पर पहुँचाना चाहता हूँ
आप कहते हैं कविता लिखता हूँ
(पृष्ठ सं. 124-125)
पुस्तक का नाम : देस, विनोद पदरज (कविता संग्रह)
प्रकाशन : बोधि प्रकाशन, जयपुर,
संस्करण : 2019,
पृष्ठ संख्या : 128,
मूल्य : 150
***
सम्पर्क - ए-85-बी, शिवशक्ति नगर,
मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर,
email- renuvyas00@gmail.com