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आस्तीक वाजपेयी की कविताएँ

आस्तीक वाजपेयी
पूर्वज
वे खाना नहीं खाते,
वे पानी नहीं पीते
निर्लज्ज मनुष्यों को अपनी खोखली ताकत का इस्तेमाल करते हुए देखते हैं।
हम दोनों को निरन्तर विफल होते हुए देखते हैं।
पता नहीं क्या सोचते हैं।
और अकेलापन बारिश बनकर बहता है,
पेड हरे हो जाते हैं।
आसमान ताजा और उम्मीदें प्रस्फुटित होती हैं।
मेरी बेटी भागकर अपनी माँ के पास जाती है।
बुन्देलखण्ड में गर्मी बहुत *यादा पडती है।
ताऊ-ताई वह कहने से बचते हैं जो सबको पता है
वह इकलौता सच है।
सच कुछ नहीं है जब तक उसे बाँटा न जाये।
फूफा मन्दिर में घुमाते हैं और लगता है कि वहाँ देवता होंगे।
देवता तो यह दुनिया छोडकर भाग चुके हैं।
बेटी अपनी दादा की गोद को भागती है।
दोनों बच्चे कहीं नहीं भागते।
उनका दादा नहीं, दादी नहीं,
दूध पिलाने वाली माँ नहीं
हर बार किसी से प्रतिस्पर्धा में पीछे आने के बाद,
मैं गेंदे के फूलों को देखता था।
वह हर बार की तरह होते थे।
बेटी कूदती है डोलची में से।
हम दोनों गेंदों के बीच बैठकर अपने आप को भूल जाते हैं।
सारे बच्चे विफल होकर माँ के पास रोते हैं
हम अपनी ही विफलताओं से बात करते हैं।
पिता की मेज पर तस्वीर ही माँ बन जाती है।
वह न जिन्दा है, न मृत है, वह है।
दोनों अकेले बैठे और दूसरे लोगों के सपनों की
गुलामी करते
मेरी बेटी रोकर माँ के पास भागती है।
हम उग्र होते हुए और समझते नहीं,
लडकियों से प्यार करते हुए और अस्वीकृत होते हुए,
सपने देखते हुए और उन्हें दफनाते हुए।
अन्त में यह जानते कि हम नालायक हैं
और लायक केवल भ्रमित होते हैं।
मेरे दादा अपने छोटे हाथों से मुझे वैसे ही उठाना
चाहते हैं जैसे मेरे पिता मेरी बेटी को।
मेरी दादी बोलती है मत उठाओ
यह जानते हुए कि वे बहुत साल पहले गुजर चुके हैं,
और उठा नहीं सकते।
हम माँ की तरफ भागते हैं जैसे बेटी भागती है।
माँ अदृश्य हाथों से उठा नहीं पाती।
अकेले दोनों दीवारें देखते हैं,
खाली कमरों में चीखते हैं,
सपने देखते हैं,
माँ के अभाव में कविता लिखते हैं।


पहली बार
अगर केवल एक बार हम बच्चे हो जाते
और एक बार फिर से सब पहली बार हो पाता।
एक बार मैं पहली बार लिखने बैठता
तो पता चलता कि उतना कठिन नहीं होता जितना लगता था, शायद
क्योंकि अच्छा भी नहीं होता।
पहली बार दोस्त के साथ शराब पीता तो यह समझकर
दोस्त छूट जायेंगे, शराब नहीं छूटेगी।
पहली बार डर जाता और कायरता में चालाकी करता तो
यह समझकर कि झूठ मनुष्य केवल खुद से बोलता है
दूसरों से झूठ बोलना असम्भव है क्योंकि दूसरे
सुनते ही नहीं।
पहली बार बारिश में भीगता तो याद कर कि यह बादल
हमेशा खुशी के समय नहीं करते।
तुम्हारी आँखें, भूरी, काली, हरी या नीली
मुझे पता ही नहीं है।
कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि देख पाता।
पहली बार शाम को खेलता तो याद रख के
कि बचपन ही छूट जाता है खेल छूटने की आड में।
पहली बार किसी लडकी का हाथ पकडता तो
यह याद रख के कि यह आखिरी लडकी हो सकती है।
पहली बार गर्मी की रात को बिजली कटने पर
सो नहीं पाता तो सोचता पसीने से ज्यादा फिऋ भी
रात में जगा सकती है।
पहली बार अपने पिता से लडता तो याद कर कि
हर बेटा पिता ही बन जाता है।
पहली बार यह कर सकता हूँ।
तुम्हें पकडकर अपने सामने खडा कर लेता हूँ।
बूढा हो रहा हूँ, बच्ची हो गयी है।
तुम्हारी आँखें काली या नीली या भूरी या हरी या
लाल न जानते हुए आश्चर्यचकित हो जाता हूँ।
पहली बार कर सकता हूँ यह।
हर बार
उनमें देखता हूँ काली, भूरी, नीली, हरी और कहता हूँ
मैं ...।
खिलौने
छोटा पांडा फर्श पर गिरा हुआ है।
लाल दरी बिछी हुई है।
मैं बच्चा बन गया हूँ।
मैं अपनी बीवी के साथ बेटी के लिए
खिलौने खरीद रहा हूँ।
तीस साल पहले मेरे पिता को समझ नहीं आ रहा,
मेरे लिए क्या खिलौने खरीदे जायें?
खिलौने किसी पिता को समझ में नहीं आते।
हर बच्चे के लिये उसका पिता खिलौना होता है,
जैसे समय खिलौना होता है, जैसे अपेक्षाएँ खिलौना होती हैं
मेरी बेटी चलने की कोशिश कर रही है।
अश्वत्थामा बच्चों को मार रहा है।
बच्चों को ही जिन्दा रहना है। उनकी ही कल्पना ब्रह्माण्ड है
मेरे पिता आज तक मेरे लिये खिलौने ढूँढ रहे हैं
जैसे मैं तीस साल बाद भी बेटी के लिये
खिलौने ढूँढता रहूँगा।
हर पिता, जब उसे समझ में आता है, वह पर्याप्त
खिलौना नहीं है, बच्चों के लिये खिलौने ढूँढता है।
जैसे पत्नी, चींटी के लिये ओस
जैसे घास, टिड्डे के लिये रास्ता
जैसे पेड, गाय के लिये छाँव
जैसे पहाड, याक के लिये रास्ता
जैसे आसमान, चील के लिये अदृश्य जंगल
जैसे ब्रह्माण्ड, पृथ्वी के लिये धुरी
वैसे ही पिता अपनी बेटी को देखता है और उससे पूछता है,
‘तुझे क्या चाहिये?’

सम्पर्क - सी-1102, संगिनी गार्डेनिया, जहाँगीरपुरा, दाँडी रोड, सूरत - ३९५०००५ (गुजरात)
मो. 6359906398