अमिताभ चौधरी की कविताएँ
अमिताभ चौधरी
1. पीडा का अन्त नहीं
पीडा का अन्त नहीं है, प्रिये!
वह देखो -
एक नवजात की किलक सुनकर
बाँझ स्त्री के स्तनों में दूध उतर आया है।
देखो प्रिये - दूध के दाब से फटते स्तनों को
वह अपने हाथों से
चुआ रही है।
अपनी रिक्त गोद में वह कितने बच्चे खिला रही है?
- देखो!
2. नावें सूख गई हैं
तैरते-तैरते
नावें सूख गई हैं।
सारा काठ उतर गया है।
*देखो!*
किंतु, तुमने केवल नदी की शान्ति/
उन्माद और
आन्दोलन देखे हैं -
नदी के प्रतिबिम्ब में मुख देखकर
तुमने केवल
जल की आर्द्र-ध्वनियाँ कंठ की हैं।
*ऐसे, एक वृक्ष की काया काटना अच्छा बात नहीं है, व्यक्ति!*
3. ओ मेरी प्रभुता
ओ मेरी प्रभुता!
तुम कहाँ जगलों में रह गई।
मैं कहाँ नगरों में खो गया।
धरती के ऊपर आकाश इतना क्या हो गया कि
एक कविता में भटकता हुआ आहत मैं कि
मैं दुःख के लिए रो सकता हूँ -
घास-फूस तक जाकर
मैं तुम्हारे लिए पृष्ठ हो सकता हूँ
यदि निरक्षर
तुम मुझे पढती हुई मिलो -
मैं नग्न हो सकता हूँ
कि मैंने वस्त्र पहने हैं, इसलिए
तुम मुझे अश्लील कहो ...
4. मैं ने अँधेरा देखा
रात भर मैं ने अँधेरा देखा -
निष्प्रभ उजाले को कोख देता
केवल अँधेरा।
पलकें उठाने व गिराने को एकसार करता यह समय
प्रतिबिम्ब झाँकने के लिए कितना उपयुक्त है?
कि
मैं केवल स्पर्श करके अपना मुख
देख सकता हूँ।
मैं समझता हूँ *जैसे मैं समझता हूँ* -
पानी प्रतिबिम्ब की काया से
मुझे मेरा मुख दिखाकर
झील की तहें लोका लेता है
कि
मेरे समक्ष गहराई का अभिप्राय प्रकट हो,-
अँधेरे-सा स्पष्ट
और
निष्कलुष।
*पानी - समय जैसा पारदर्शी पानी। ...*
5. शुष्क जल की कल्पना में
शुष्क जल की कल्पना में
आर्द्र काठ की इच्छा से
मैं तहों-की-तहों डूबा हूँ।
मुझे तैरती नावों से प्रयोजन है- नहीं है।
मेरी साँस के बुलबुले
तुम्हारे हाथ आते हैं तो अच्छी बात है।-
मेरी देह तुम्हारी नाव को छूती है
तो छूने दो- मत छूने दो!
मिट्टी पर ढेर हुई मछली की दो आँखों के
एक बिन्दु पर मेरी भौंहों का बीच है,
इसी को यथार्थ समझकर
तुम मेरी टोह लेना - नहीं लेना!!
***
सम्पर्क - गाँव थिरपाली छोटी, तहसील राजगढ, जिला चुरू - ३३१३०५
amitabhchaudhar375@gmail.com
पीडा का अन्त नहीं है, प्रिये!
वह देखो -
एक नवजात की किलक सुनकर
बाँझ स्त्री के स्तनों में दूध उतर आया है।
देखो प्रिये - दूध के दाब से फटते स्तनों को
वह अपने हाथों से
चुआ रही है।
अपनी रिक्त गोद में वह कितने बच्चे खिला रही है?
- देखो!
2. नावें सूख गई हैं
तैरते-तैरते
नावें सूख गई हैं।
सारा काठ उतर गया है।
*देखो!*
किंतु, तुमने केवल नदी की शान्ति/
उन्माद और
आन्दोलन देखे हैं -
नदी के प्रतिबिम्ब में मुख देखकर
तुमने केवल
जल की आर्द्र-ध्वनियाँ कंठ की हैं।
*ऐसे, एक वृक्ष की काया काटना अच्छा बात नहीं है, व्यक्ति!*
3. ओ मेरी प्रभुता
ओ मेरी प्रभुता!
तुम कहाँ जगलों में रह गई।
मैं कहाँ नगरों में खो गया।
धरती के ऊपर आकाश इतना क्या हो गया कि
एक कविता में भटकता हुआ आहत मैं कि
मैं दुःख के लिए रो सकता हूँ -
घास-फूस तक जाकर
मैं तुम्हारे लिए पृष्ठ हो सकता हूँ
यदि निरक्षर
तुम मुझे पढती हुई मिलो -
मैं नग्न हो सकता हूँ
कि मैंने वस्त्र पहने हैं, इसलिए
तुम मुझे अश्लील कहो ...
4. मैं ने अँधेरा देखा
रात भर मैं ने अँधेरा देखा -
निष्प्रभ उजाले को कोख देता
केवल अँधेरा।
पलकें उठाने व गिराने को एकसार करता यह समय
प्रतिबिम्ब झाँकने के लिए कितना उपयुक्त है?
कि
मैं केवल स्पर्श करके अपना मुख
देख सकता हूँ।
मैं समझता हूँ *जैसे मैं समझता हूँ* -
पानी प्रतिबिम्ब की काया से
मुझे मेरा मुख दिखाकर
झील की तहें लोका लेता है
कि
मेरे समक्ष गहराई का अभिप्राय प्रकट हो,-
अँधेरे-सा स्पष्ट
और
निष्कलुष।
*पानी - समय जैसा पारदर्शी पानी। ...*
5. शुष्क जल की कल्पना में
शुष्क जल की कल्पना में
आर्द्र काठ की इच्छा से
मैं तहों-की-तहों डूबा हूँ।
मुझे तैरती नावों से प्रयोजन है- नहीं है।
मेरी साँस के बुलबुले
तुम्हारे हाथ आते हैं तो अच्छी बात है।-
मेरी देह तुम्हारी नाव को छूती है
तो छूने दो- मत छूने दो!
मिट्टी पर ढेर हुई मछली की दो आँखों के
एक बिन्दु पर मेरी भौंहों का बीच है,
इसी को यथार्थ समझकर
तुम मेरी टोह लेना - नहीं लेना!!
***
सम्पर्क - गाँव थिरपाली छोटी, तहसील राजगढ, जिला चुरू - ३३१३०५
amitabhchaudhar375@gmail.com