लेडी राबिन्सन क्रूसो की उडान
क्षमा शर्मा
गरमी की तासीर कुछ कम हो गई थी। त्वचा पर ठंड की हलकी-हलकी सरसराहट महसूस हो रही थी। ऐसा लगता था कि हाथ-पाँवों पर चींटियाँ चल रही हैं।
माही ने फेसबुक पर अपनी सहेली रेवा की एक पोस्ट देखी थी। रेवा ने लिखा था-वह अपने खेत में खडी है। खेतों में बाजरे की फसल लहलहा रही है। तोतों के झुंड के झुंड बाजरे की बालियों में चोंच गडाकर खा रहे हैं। भगाते हैं, तो फिर आ जाते हैं। कोई खतरा हो तो टें-टें करके ऊपर ही उडते रहते हैं। उसके चारों ओर हरे-भरे खेत नजर आ रहे थे। दूर एक सफेद गाडी भी दिखाई दे रही थी। क्या पता वह रेवा की ही हो। रेवा को ड्राइविंग का भी कितना शौक है। चाहे पाँच किलोमीटर जाना हो या पाँच हजार, वह अकेली ही निकल पडती है। कहती है कि रात में जब सारी दुनिया सो रही होती है, तो वह कार इतनी तेज दौडाती है कि सडकें अपने पीछे भागती लगती हैं। मगर उसे खेती में भी दिलचस्पी है, माही को पहली बार पता चला है। कभी उसने बताया जो नहीं।
उसे रेवा की तसवीरें देखकर आश्चर्य हुआ है। यह रेवा भी क्या-क्या कर लेती है। नौकरी कर लेती है। अपने मकान के किराएदारों को भी संभाल लेती है। न जाने कैसे। कोई किराएदार कब्जा कर ले तो क्या करेगी। बच्चे के पास होस्टल में जब-तब लम्बी ड्राइव करके जाती रहती है। और अब उसने खेत भी खरीद लिए। खेती-किसानी क्या इतनी आसान है।
रेवा को फोन मिलाते माही उससे अधिक उत्साह से भरी थी। उसने पूछा- तू कैसे करती है। क्या खुद ट्रैक्टर चलाती है, निराई, गुडाई, बुवाई, कटाई सब कैसे करती है।
रेवा हँसी नहीं, मगर माही ने उसकी खिलखिलाहट को महसूस किया, जैसे कह रही हो कि इतनी आसानी से सब बता दूंगी तो रेवा कैसी।
उसने कहा-देखो भाई, कोई करना चाहे तो सब कुछ कर ही सकता है। वैसे जो काम तुम पूछ रही हो, वे सब करने के लिए दूसरे हैं। हर काम, हर एक के वश का भी नहीं। जिसका काम उसी को साझे। हाँ, खुद खडे होकर जरूर करवाना पडता है।
-इतना टाइम कैसे मिलता है। मैं तो नौकरी कर लूँ और घर ही देख लूँ, इसी में टाँय-टाँय फिस्स हो जाती है। रात को सोते वक्त लगता है कि जोड-जोड पिरा रहा है।
-टाइम का क्या है, यों पूरे दिन खाली बिस्तर तोडते रहो तो भी टाइम नहीं है। वैसे लगातार बिजी रहने के बावजूद टाइम निकल आता है। बस उसे मैनेज ही तो करना पडता है, जो इतना मुश्किल भी नहीं।
बॉय गाड, भगवान की कसम खाकर कह रही हूँ, मुझे तो यकीन नहीं आ रहा कि तुझ जैसी साफ्ट और नखरैल ये सब भी कर सकती है। तुझे सलाम करने और प्यारी-सी पप्पी देने को मन कर रहा है। वैसे ये तुझे खेत लेने की क्या पडी थी। कब खरीदे, कभी बताया भी नहीं। लेडी अमिताभ बच्चन बनने की तमन्ना थी क्या-कहती हुई माही खुद ही जोर से हँसी।
अमिताभ तो बूढा हो गया, बीसवीं सदी में ही। यह तो इक्कीसवीं का क्वार्टर आने वाला है, डियर। और खेत खरीदने का क्या है, जब चाहे खरीद लो। जेब में माल होना चाहिए। वैसे चार, साढे चार साल हुए होंगे। हिमाचल में जो घर था न, उसे बेचा। वहाँ कोई जाता-आता था नहीं। खडा-खडा खंडहर हो रहा था। कभी पिताजी ने उसे बहुत चाव से बनवाया था। सोचा थोडे ही होगा कि वहाँ कोई रहने वाला भी नहीं बचेगा। सब घरों के साथ ऐसा ही होता है। वे एक न दिन बेचने के लिए ही बनाए जाते हैं। सोचा कि उसका पैसा ऐसी जगह लगाऊँ, जहाँ कुछ हरियाली देखने को मिले । न सही हिमाचल, यहाँ उसकी थोडी- सी याद ताजा हो सके। इसके अलावा यह अहसास भी कि मैं भी खेत की मालकिन हूँ। मेरे पास भी इस धरती का छोटा सा टुकडा है। औरतें कहाँ होती हैं, खेतों की मालकिन। वे खेतों पर रात-दिन हाड तोडती हैं, मगर मालकिन नहीं बनतीं। मैंने सोचा, क्यों न मैं भई ऐसा कर दिखाऊं।
-अरे यार वो वाला घर जिसके आमने-सामने बर्फीली चोटियाँ थीं। सेब के पेड थे। दिखाई थीं, तूने वो फोटो। घर क्या था, महल था, महल। कितना सुंदर, एकदम-से ड्रीम हाउस। बेच क्यों दिया। किसी और के पास होता तो रिसोर्ट बनाता। घर का घर अपने पास रहता और कमाई अलग से।
हाँ यार, लेकिन मगर रिसोर्ट क्या ऐसे ही चल जाते हैं। इतना ह्यूमन रिसोर्स चाहिए, पता है न। मैं अकेली कब तक दौडती। वहाँ रहना भी पडता। अब शरीर में पहाड चढने की हिम्मत भी कहाँ बची।
खैर छोड, खेत खरीदने के बारे में पहले बताती तो कभी मैं भी तेरे साथ चलती। देखती तो सही कि अपनी काबिल दोस्त क्या-क्या कर सकती है। अब जब जाए, तो बताना। अगर फ्री हुई तो तेरे साथ जरूर चलूँगी। देखूं तो कि तू किसान बनकर कैसी लगती है। मैं तो सोच रही हूँ कि तू गाडी इतने फर्राटे से चलाती है, एक दिन ट्रेक्टर भी चलाने लगेगी। वो तो भला हो फेसबुक का कि तेरे फोटो देख लिए, वरना तू शायद अपने आप तो कभी बताती ही नहीं। वैसे क्या-क्या उगा चुकी अब तक। चार साल में चार फसलें तो ले ही चुकी होगी।- माही को लग रहा था कि ज्यादा से ज्यादा बातें एक ही बार में जान ले।
-नहीं, अभी तो यह दूसरी ही है।
-अच्छा, आगे क्या-क्या उगाना चाहती है।
-मटर, बाजरा, मक्का, धनिया और अरहर।
-ये तो पाँच हो जाएँगी। खैर, जब ये फसलें हो जाएंगी, तो इनका क्या करेगी। अगर बेचनी हों तो कहाँ जाएगी।
-मंडी में और कहाँ । पहली भी तो वहीं बेचने गई थी।
-तू चली जाती है वहाँ। डर नहीं लगता।
-डर किस बात का।
अरे यू नो, आ मीन,ये मंडी में खरीद-फरोख्त का इलाका तो आदमियों का ही है। हंड्रेड परसेंट मेल बेसिन। औरतें तो मंडी में नहीं आती होंगी न। माही ने अकल का गुणा-भाग करते हुए कहा।
आदमी-औरत क्या। मेरा काम है, मैं नहीं करूँगी तो और कौन करेगा। दो-चार औरतें दिखाई देती भी हैं वहाँ। अब औरतों से क्या बचा। वैसे भी जब तक डरो, तभी तक डर लगता है। डरो तो डर पीछे ही भागता रहता है। इसलिए हमेशा उससे लडते रहना पडता है।- रेवा ने कहा।
तो तू क्या खेतों पर रोज जाती है। -माही के सवालों का अंत नहीं था। रेवा ने उबासी भरी। उबासी की आवाज माही को कुछ तेज लगी।
-नहीं हफ्ते में एक दिन। कभी-कभी दो बार भी। और भी काम तो हैं। खेतों में ही बैठी रहूँगी तो बाकी सारे काम कौन करेगा।
-पूरे दिन वहाँ रहती है।
हाँ कभी-कभी। काम पर डिपेंड करता है। कई बार तो जब सवेरे वहाँ ट्रैक्टर वगैरहा चलवाना होता है, या फसल की कटाई, तो रात को वहाँ की कोठरी में ही सो भी जाती हूँ।
-तूने वहाँ कोठरी भी बनवा रखी है। क्या-क्या कर रखा है। मॉय गाड। कितनी आगे का सोचती है।
-और क्या, यही सोचकर बनवाई थी कि कभी रुकना पडे तो क्या करूँगी। वहाँ छोटी-सी किचनेट भी है। खाने-पीने का भी इंतजाम है। पानी के लिए हैंडपंप है, तो आर ओ भी। कोठरी क्या, वन रूम सैट है पूरा।
-यार तू ग्रेट है। लव यू, मिस यू।
फोन खत्म होने के बाद,रेवा की बातें सुनकर माही सोचने लगी कि कैसे वह अकेली वहाँ सो जाती होगी। घबराहट नहीं होती होगी। मान लो कोई अकेली जान कर आ जाए। रेप कर दे या जान से मार दे। गाँव में तो ये खबरें बडी जल्दी फैलती हैं कि कौन, कब, कहाँ से गया, कहाँ आया, किसके साथ है, कितने लोग हैं ।
अकेला है या अकेली। वह भी औरत। माँ कहती थी कि गाँव की टिटहरी नए आदमी को देखकर चिल्ला-चिल्लाकर बता देती थी कि कोई आया। क्या मालूम टिटहरी अब ऐसा करती है कि नहीं। हो सकता है कि नए जमाने के साथ टिटहरी की आदतें भी बदल गई हों।
फिर रेवा मंडी में भाव-ताव करती होगी। कैसे। वहाँ लोग इससे कैसे पेश आते होंगे। कैसी तिरछी-तिरछी आँखों से बहन जी कहकर मजाक उडाते होंगे। कितने सवाल थे, जो रेवा से पूछने से रह गए थे।
ऐसे ही एक दिन....
मदर डेयरी पर सब्जी तुलवाकर निकल रही थी माही कि उसकी नजर कई क्रेटस पर पडी। उनमें मुरझाए हुए बैंगन, पिलपिले टमाटर, सूखा-सर्रा धनिया, मूली, कटे-फटे आलू, काला पडा लौकी, पत्ता गोभी आदि रखे थे। उसने मदर डेयरी वाले शर्मा से पूछा -ये किसलिए। गाय, बकरी के लिए।
वह हँसा- अजी गाय, बकरी, यहाँ कहाँ । किसी काम से रखे हैं।
-ये खराब सब्जियाँ किसी काम से। माने।
शर्मा को पूछना अच्छा नहीं लगा। बोला-अजी, आपको सिर्फ गाय-बकरियाँ ही क्यों दीखती हैं। यहाँ कौन-सी गाय-बकरी। दिखेंगी तो एम सी डी वाले पकड ले जाएंगे। ये तो होटल वालों के लिए हैं।
होटल वालों के लिए। वो क्या करेंगे इन खराब सब्जियों का। -माही ने यह जानते हुए भी कि वह जवाब नहीं देना चाहता, पूछा।
वे नहीं करेंगे, करेंगी तो आप, उन्हें पैसे देकर।
- मैं इन खराब सब्जियों के पैसे क्यों दूंगी भला।
ऐसे कि आप जब वहाँ खाने जाएँगी, तो इन्हें खूब स्वाद से खाएँगी। पकने, चटपटे मसाले पडने और तेल में डूबने के बाद इनका क्या पता चलेगा कि ताजा थीं, या सडी हुई। हमें फेंकनी पडें, उसके बदले कुछ पैसे मिल जाएँ तो क्या बुरा। हमने भी तो खरीदी ही थीं, नहीं बिकीं, यह अलग बात है।
झुरझुरी- सी हुई माही को। होटलों में ये सब्जियाँ पकती हैं। बाप रे। जी मिचलाने-सा लगा । और ये शर्मा कितना धूर्त है। देखने में कितना सीधा-सादा लगता है। हरामखोर।
रेवा को पता है ये कि जिन सब्जियों को वह इतनी मेहनत से उगाएगी, होटल में जाने पर हो सकता है,उसे भी ऐसी ही क्रेट में पडी सब्जियाँ खानी पडें, खाने के बहुत-से पैसे और टिप भी देनी पडे। और खाने के स्वाद की तारीफ भी करनी पडे। मगर जो माही को मालूम पडा है, क्या वह रेवा को नहीं पता होगा। आजकल सबको, सब पता होता है।
मदर डेयरी वाला शर्मा भी क्या गजब है। अब तक माही समझ पाई है कि उसके तीन शौक हैं- एक गप्पें मारना, दूसरा हमेशा शिकायत करना और तीसरा जब देखो तब, अपने रंग उडे खडखडिया स्कूटर पर इधर से उधर घूमना। जब मिले तो पहले नम्बर के शौक यानी कि हर बात की शिकायत-आज नींद नहीं आई, कल तोलने वाल लडका भाग गया। मदर डेयरी वाले जबर्दस्ती वे सब्जियाँ भी पकडाते हैं, जो यहाँ नहीं बिकती हैं। मन किया तो एक दिन सब कुछ छोड-छाडकर चला जाऊँगा। पत्नी एक नम्बर की निकम्मी है, सारे दिन खाती और सोती रहती है। जब तक जगती है, तबियत खराब है, तबियत खराब है, चिल्लाती है। सारे रिश्तेदार निखत हैं, संसार में किसी का भरोसा नहीं करना चाहिए, लोग हम पर कम तोलने का इल्जाम लगाते हैं, अरे भाई जो चीजें नहीं बिकतीं उनका खर्चा कहाँ से निकालें, अगर कम न तोलें। ग्राहकों की जेब से हाथ डालकर तो निकालेंगे नहीं न। उसकी शिकायतें और गप्पें एक साथ हो जाती हैं। माही अकसर देखती है कि बहुत- से ग्राहक ऐसे भी हैं, जो सब्जी एक खरीदते हैं, वहाँ पडी कुर्सियों और बाहर की स्लैब पर बैठकर दो घंटे बिता देते हैं। अपने-अपने ज्ञान के पिटारे खोलते हैं। एक के पिटारे का ढक्कन जैसे ही खुलता है, दूसरे के पिटारे में नाग फुंफकारने लगता है। वे सब नाग में बदल जाते हैं। लेकिन क्या एक नाग दूसरे को डसता है। वे तो अकसर ऐसा ही करते रहते हैं।
एक दिन, वहाँ मदर डेयरी पर, माही ने सूखी मौसमी देखते हुए कहा -फ्रेश मौसमी नहीं हैं। ये तो पीली पडी हैं। सूख भी गई हैं।
आज नहीं लाया मैडमजी। आप देख तो रही हो। पडी-पडी सूख जाती हैं। लाकर क्या करूं, कितना पैसा बर्बाद होता है।- शर्मा ने मूली के पत्तों को बाहर फेंकते हुए कहा। सामने से एक भूरी गाय दौडी आई । उस दिन तो यह कह रहा था कि यहाँ गाय कहाँ।
अचानक माही को रेवा याद आ गई। वह कितना कुछ करती है, अकेली। तो ये क्यों नहीं कर सकता। माही का, दूसरों की फ्री में मदद करने का उपदेशक का भाव जाग उठा। शब्द थे कि तीखी कटारों की तरह झरने लगे। बोली-वैसे आप चाहें, तो बहुत कुछ कर सकते हैं।
-जैसे।
आफ बाहर इतनी खाली जमीन है। यहाँ एक जूस कार्नर ही खुलवा दीजिए। जो मौसमी, सेब, अंगूर, संतरे नहीं बिकते, उनका जूस बेचें, तो कुछ खराब भी नहीं होगा और लोगों को ताजा जूस भी मिलेगा। सवेरे- शाम आफ यहाँ इतनी भीड रहती है, जितने ग्राहक यहाँ सब्जी खरीदने आते हैं, उनमें से आधे भी अगर जूस पीने लगे तो खराब होना तो क्या, एक भी फल नहीं बचेगा और इनकम भी होगी।
शर्मा ठहाका लगाकर हंसा-जी, बात तो आप ठीक कह रही हैं। बताइए क्या- क्या और कर सकता हूँ।
करने को तो बहुत कुछ है। हम चाहें तो क्या नहीं कर सकते। बस टाइम को मैनेज करना पडता है। -माही ने रेवा की बात दोहराई। और खुद को कुछ अलग बात कहने वाली समझा।
क्या, क्या, बताएँ तो सही मैडमजी। ऐसे अपनी समझ में नहीं आता।- उसके सुर में कुछ तंज-सा था।
मैं अकसर देखती हूँ कि आफ यहाँ बहुत- से टमाटर खराब हो जाते हैं। बाहर पडे-पडे लोगों के पैरों के नीचे आते हैं। उनका सॉस, चटनी बनवा सकते हैं। इतनी गोभी पडी-पडी सडती है। क्यों न उसे साफ कराकर, कटवाकर बेचा करें। हाथों हाथ बिक जाएगी। आजकल सब्जी काटने के मुकाबले अगर कटी सब्जी मिल जाए, तो लोग उसे ही खरीदते हैं। उसे सुखाकर भी बेच सकते हैं।
गोभी-गाजर, शलगम, मूली का अचार भी बनवा सकते हैं। गाजर, टमाटर, पुदीना, लौकी का जूस भी बिक सकता है। और चाहें तो जूस कार्नर के साथ एक ढाबा भी खोल लीजिए। फिर देखिए इतनी कमाई होगी कि आप तो दिन भर रुपए ही गिनते रहा करेंगे।
सही कह रही हैं मैडमजी।- कहता हुआ शर्मा कुछ देर को खामोश हो माही की तरफ देखता रहा। फिर फ्रिज में से जूस का पैक निकाल, मुँह से लगाता बोला- मगर इन सारे कामों के लिए कितने आदमी चाहिए, यह पता है आपको।
माही ने जो पढा था, दोहराया-जी बहुत से काम करेंगे, तो अकेले तो कर नहीं लेंगे। लोग तो चाहिए ही। अच्छा है, आप पैसे कमाएंगे तो और लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
शर्मा बोला- देखो जी, लोगों को काम देना, मेरा नहीं सरकार का काम है। पता चला रोजगार दिया और खुद बर्बाद हो गया। या तो लूट ले गए या मार गए। मुझे कौन सा इलेक्शन लडना है। यहाँ तो मैं अकेला हूँ। एक बीबी है जो हमेशा बीमार रहती है। लौंडे को हमारी तरफ झांकने की फुरसत नहीं। वह अपनी औरत के साथ मस्त है। अकेला क्या-क्या कर लूं। कोई काम करने वाला लडका भी यहाँ जल्दी रहने को तैयार नहीं होता। आप तो आजकल के लडकों को जानती हैं। कमाई बोरी भर चाहिए और काम धेले का नहीं। कहते हैं कि कौन यहाँ चार बजे आकर सब्जी का हिसाब-किताब करेगा। अब अकेला मैं, और आप बता रही हैं हजार काम।
माही अपना सा मुँह लेकर वापस लौटने लगी, तो उसे सुनाई पडा-चली आती हैं ज्ञान बघारने। कभी तीन बजे उठकर भागना पडे तो पता चले। यहाँ तो रोज की बात है। दूसरों को देने के लिए सबके पास बहुत अकल है।
सुनकर बुरा लगा माही को। सोचने लगी- क्या जरूरत थी, कुछ कहने की। किसी के फायदे की सोचो तो उसे बुरा क्यों लगता है, आजकल। माँ कहती थी न -गधाए दई नोन की रोडी, गधा कहे मेरी आँखें फोडी। फिर लगा कि अगर वह यह कर रही होती, तो वाकई वही सब करती जो कह रही है। और ये शर्मा रात, दिन चाय पीते गप्पें लडाता है, टाइम खोटा करता है,चाहे तो ये सब कर नहीं सकता। मगर अब वही नहीं करना चाहता, तो माही सलाह देने वाली होती भी कौन है। काजी जी क्यों लटे सहर के अंदेसे से।
***
महीना भर तो हो ही गया होगा-
रेवा से जब से बात हुई है, तब से लगातार माही इसी सोच में पडी है कि काश उसके पास भी पाँच बीघा खेत होता। रेवा के पास कितना है, वह पूछना ही भूल गई। लेकिन अगर उसके पास पाँच बीघा हो, तो कितना मजा आए। लेकिन आए कहाँ से। घर में खेत तो क्या, इतनी भी जगह नहीं कि कुछ गमले भी रख ले। वह इसी सोच में डूबी रही कई दिन तक।
एक दिन जब भाई उससे मिलने आए और तेज गरमी के कारण दोपहर में उन्हें वापस न जाने दिया, तो शाम को उसने भाई से कहा कि जीवन में उसकी एक ही इच्छा पूरी नहीं हुई।
भाई ने पूछा-कौन सी।
-काश, मेरे पास पाँच बीघा खेत होता।
भाई इतनी जोर से हंसे कि ठहाका गूँजता रहा, पंखा भी जैसे फर-फर भूल उनका ठहाका सुनने को रुक गया। उनकी हँसी की प्रतिध्वनियाँ देर तक सुनती रही माही। उन्होंने कहा-तो तू क्या करती। नौकरी छोडकर, खेत में फांवडा चलाती। सिर पर पटका बांधकर खेत जोतती।
-हाँ, फाँवडा भी चलाती और ट्रैक्टर भी ।
अच्छा, तू तो कहीं की पहलवान हो गई लगती है, मूसटी कहीं की। लेकिन मूर्खी, दूर के ढोल बडे सुहावने लगते हैं। खेती- किसानी में इतना ही कुछ रखा होता, तो किसान इतने परेशान न होते। खबरें नहीं पढती कि किसान सही दाम न मिलने पर आलू, प्याज, टमाटर, सडकों पर फेंक देते हैं। मर भी जाते हैं।
सभी किसान तो परेशान नहीं होते। बहुत- से लोग तो इन दिनों मल्टीनेशनल का जाब छोडकर किसानी कर रहे हैं। जिस जमीन में कुछ नहीं होता था, वहाँ से लाखों कमा रहे हैं। दूसरों को रोजगार भी दे रहे हैं, नेचर के करीब भी रहते हैं। मैं ऐसा सोच रही हूँ, तो क्या गलत। जरूरी है कि सब जिंदगी भर बस नौकरी के ही पीछे पडे रहें। मैं भी कुछ नया क्यों नहीं कर सकती।
नया क्या, तू तो बहुत कुछ नया कर सकती है, किसने रोका है, मगर समझ में नहीं आता कि ये शहरी लोगों को नेचर के करीब रहना इतना रोमांटिक क्यों लगता है। गाँव में दो-चार दिन को टूरिस्ट बनकर आना और वो-वो चिल्लाना । नेचर जब परेशान करती है, उजाडती है, वह याद नहीं रहता।ङ्क्तभाई ने मुस्कुराते हुए कहा।
-जैसे।
-जैसे क्या, देखती नहीं कि कभी अच्छा मानसून न होने से सूखा पड जाता है, फसल खराब हो जाती है। कभी बाढ आ जाती है। हजारों लोग बेघर-बार होकर भूखे मरते हैं, फसलें उजड जाती हैं। कभी टिड्डियाँ हमला बोल देती हैं। यह सब फिल्मों और सीरियल्स में ही अच्छा लगता है। गाना भी कि मेरे देश की धरती सोना उगले।
आप इतने निगेटिव क्यों हैं। बचपन में खुद भी तो गाँव में रहे हैं। अब भी जाते रहते हैं।- माही ने नाराजगी से कहा। उसकी आँखों में काली तितलियाँ तैर रही थीं। वे तितलियाँ, आँखों से पार जाकर, हरे-भरे लहलहाते खेतों के स्वप्न देख रही थीं।
-इसीलिए तो बता पा रहा हूँ कि खेती की क्या मुश्किलें होती हैं। दूर से सब बहुत अच्छा लगता है। खेती करना कोई मनोजकुमार की फिल्म नहीं है जिसमें देश की धरती सोना उगलती है। और किसान हल कंधे पर रककर गाना गाते हैं। न ही कोई चलो गाँव की ओर वाली कविता या कहानी है।
फिर कुछ देर बाद बोले- वैसे मान ले पाँच बीघा खेत तेरे पास हों भी तो क्या करेगी।
-मैं क्या करूंगी। मैं उस पाँच बीघा से जल्दी ही पाँच सौ बीघा बना लूंगी।
अच्छा, कोई जादू की छडी मिल जाएगी। या कि किसी जिन्न या परी की मदद लेगी- भाई ने मुसकराते हुए उसका मजाक उडाया।
आपकी यही बात पसंद नहीं। कोई नया काम शुरू करने की कहो भर कि इतना तेज ब्रेक मारते हैं कि सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। खेती के जरिए किस्मत को जादू की छडी से नहीं मेहनत से मल्टी टास्किंग से बदलूंगी। -कहते हुए माही ने कुछ इस तरह से हाथ हिलाया कि हाथ में हंसिया लेकर कुछ काट रही हो।
-भाई वाह। मुझे भी तो बता क्या-क्या करेगी।
-बताऊँगी, बताऊँगी। समय आने दीजिए।
भाई के जाने के बाद माही अगले दिन की तैयारी करने लगी। कल दफ्तर जाने के लिए क्या पहनेगी, पर्स में पैसे रखे। चप्पल और मैचिंग ईयर रिंग्स भी निकाले। लेकिन दिमाग में पाँच बीघा खेत छाया था।
उस रात उसे मालूम है वह सोई नहीं थी। जागते-जागते ही सपना देख रही थी। पता नहीं कब कैसे, बिना किसी बस, ट्रेन, साइकिल, कार के गाँव जा पहुँची थी। उसे इस तरह आया देखकर, सब चकित थे। जब उन्हें पता चला कि माही पाँच बीघा खेत खरीदने आई है, तो वे सब उसे आँखें फाडकर देखने लगे। रिश्ते की चाची ने कहा-लली, आजकल याँ कोई अपनी जमीन बेचवो ना चाहे। सब चाहवें हैं कि एक दिन जब याँ ते हाई वे निकरेगो, तौ बिना कछू करै-धरै करोडपति बन जांगे।
-तो क्या हाई वे निकलने वाला है।
-हाँ सुनतैं, एक दिन अखबार में छपो ओ। टी वी पै ऊ बताए रए।
तो फिर-माही सोच में पड गई। लेकिन जब आ ही गई है, तो देखे तो सही कहाँ कैसी जमीन मिलती है।
तलैया के पास की एक जमीन खाली थी। जिसमें बारहों महीने पानी भरा रहता था। किनारे कीकर का एक सूखा पेड खडा था। सत्यानाशी के छोटे-छोटे पौधे भी थे।
साथ खडे चचेरे भाई ने बताया था कि यहाँ तो पहले मिट्टी की भराई करानी पडेगी। वरना तो कुछ होने से रहा। खर्चा भी बहुत आएगा।
आगे एक जगह दिखी भी तो पता चला कि उसे तो किसी सेठ ने पहले ही खरीद लिया है। इन सेठों की निगाह से क्या कुछ भी नहीं बचता।
लौटी तो उदास थी माही। क्या सचमुच वह कुछ नहीं कर सकती। लेकिन मन था कि मानने को तैयार नहीं था। सोचने लगी कि अगर जमीन मिल जाए तो क्या-क्या करेगी। उसने अपनी नोटबुक उठाई और लिखने लगी। खेत की बाड काँटेदार तारों की नहीं करोंदे के पौधों से बनाएगी। काँटे होने से न जानवर खाएँगे, न अंदर घुसकर फसल उजाडेंगे। करोंदें बेचकर कमाई भी होगी। करोंदे तोडने में काफी समय भी लगेगा। कुछ बेच देगी, कुछ का अचार, चटनी और जैम बनवाएगी। इस तरह गाँव की औरतों को भी कुछ काम मिलेगा। खेतों के किनारे आम, अमरूद और नीबू लगाएगी। इनसे भी अचार, सास, शर्बत आदि बनवाएगी। इन्हें बनवाने के लिए जगह भी चाहिए। तो अपने लिए जो कमरे बनाएगी, उनकी छत पर इस काम के लिए वर्कशाप खोल सकती है। वहीं मसाले आदि भी सूख जाया करेंगे। मगर इन चीजों को बेचने के लिए बाजार भी चाहिए। वैसे तो आन लाइन भी बेच देगी, आरगेनिक नाम पर। घर के बने अचारों की बहुत माँग है। बाकी लोकल दुकानदारों से सम्पर्क भी कर सकती है। यही नहीं, खेत अगर सडक के पास हुए, तो वहाँ इन्हें बेचने के लिए एक दुकान भी बना सकती है। खेतों में जो सब्जी उगाएगी, उन्हें भी बेचेगी। खबरें आती हैं कि गाँव वाले खुद ही सब्जी नहीं खा पाते हैं। लोकल मार्केट में किन सब्जियों की माँग ज्यादा रहती है, उसका पता करेगी। वही सब्जियाँ अपने खेतों में उगाएगी। इन्हीं के पत्तों, डंठलों से कम्पोस्ट खाद भी बना लेगी। नो पेस्टीसाइडस। मगर सिंचाई का क्या होगा। ट्यूबवैल लगाना पडेगा। टयूबवैल की जगह क्यों न रेन वाटर हार्वेस्टिंग के लिए एक छोटा तालाब बना ले। उसमें कमल ककडी और सिंघाडे उगाएगी। थोडी बहुत मछलियाँ भी पाल लेगी, जो तालाब को साफ करती रहेंगी। वेजीटेरियन है, इसलिए मछलियाँ कभी बेचेगी नहीं। बल्कि मछलियों के नाम रखेगी और उन्हें नामों से पुकारा करेगी। जब वे अपने नाम को पहचानने लगेंगी, तो दौडी आया करेंगी। उन्हें दाना खिलाया करेगी। खेतों की बुवाई, जुताई का इंतजाम भी करना पडेगा। एक- दो बीघे में अनाज भी उगाएगी।
माही ने देखा कि उसके प्लान तो खत्म ही नहीं हो रहे । भाई इसे पढें तो कहेंगे कि करके देख ले। कर सके तो अच्छा है। जानती है कि उनके बोलने में कितना अविश्वास छिपा होगा।
मगर मदर डेयरी के शर्मा की तरह अकेली खुद क्या-क्या करेगी। कितने लोग चाहिए होंगे। फिर चोरी, चंगारी, काम न करेंगे, तो क्या करेगी। गाँव में तो लोग दुश्मनी किसी भी बात पर मान लेंगे। अकेली देखकर तो पता नहीं क्या करेंगे। तभी माही ने सुना-
गाँव के चाचा कह रहे थे- डीजल खत्म हो गया है, बिजली है नहीं। ट्रेक्टर वाले की टांग टूट गई है। दूसरे को बुलाऊं तो दुश्मनी मोल लूं। कैसे होगी सिंचाई, जुताई। मन करता है कि इस खेती- बाडी में लात मारकर जोगी हो जाऊं। रात दिन हाड तोडो, हाथ में कुछ न आए। फिर कभी बिजली नहीं है, कभी पानी नहीं है। खेत पर काम करने के लिए आदमी का नाम कहीं नहीं दिखता। सबको शहरों में न जाने क्या दिखाई देता है कि उधर ही भागते हैं।
लेकिन जिस गाँव में थोडी देर तक माही बैठी थी क्या यह वही गाँव था, जिसके बारे में भाई बताया करते थे। उनके बचपन का गाँव। यहाँ तो दूर तक खेत दिखाई भी नहीं पडते । जिधर देखो बस घर ही घर। घरों में वाशिंग मशीनों, फ्रिज और टी वी का शोर। कोल्ड ड्रिंक्स के रैपर्स से सडकों के किनारे भरे पडे थे। चूल्हा तो अब कहीं था ही नहीं। पक्के बहुमंजिला मकान, पारदर्शी शीशों से जगमग थे। ये कैसा गाँव था। हर लडका शाहरुख और रणबीर सिंह, और लडकियाँ आलिया और श्रध्दा कपूर से कम नहीं।
माही जिस गाँव का उद्धार करने की सोच रही थी, उसका पता तो दूर-दूर तक नहीं था।
माही ने देखा, घडी में दो बजे थे। रात है। कल आफिस के लिए कैसे उठेगी या कि ट्रैक्टर दफ्तर के भीतर चलाएगी। पता नहीं, वह कब सो गई। सवेरे उसकी नोटबुक का भी कहीं पता नहीं चला।
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माही ने फेसबुक पर अपनी सहेली रेवा की एक पोस्ट देखी थी। रेवा ने लिखा था-वह अपने खेत में खडी है। खेतों में बाजरे की फसल लहलहा रही है। तोतों के झुंड के झुंड बाजरे की बालियों में चोंच गडाकर खा रहे हैं। भगाते हैं, तो फिर आ जाते हैं। कोई खतरा हो तो टें-टें करके ऊपर ही उडते रहते हैं। उसके चारों ओर हरे-भरे खेत नजर आ रहे थे। दूर एक सफेद गाडी भी दिखाई दे रही थी। क्या पता वह रेवा की ही हो। रेवा को ड्राइविंग का भी कितना शौक है। चाहे पाँच किलोमीटर जाना हो या पाँच हजार, वह अकेली ही निकल पडती है। कहती है कि रात में जब सारी दुनिया सो रही होती है, तो वह कार इतनी तेज दौडाती है कि सडकें अपने पीछे भागती लगती हैं। मगर उसे खेती में भी दिलचस्पी है, माही को पहली बार पता चला है। कभी उसने बताया जो नहीं।
उसे रेवा की तसवीरें देखकर आश्चर्य हुआ है। यह रेवा भी क्या-क्या कर लेती है। नौकरी कर लेती है। अपने मकान के किराएदारों को भी संभाल लेती है। न जाने कैसे। कोई किराएदार कब्जा कर ले तो क्या करेगी। बच्चे के पास होस्टल में जब-तब लम्बी ड्राइव करके जाती रहती है। और अब उसने खेत भी खरीद लिए। खेती-किसानी क्या इतनी आसान है।
रेवा को फोन मिलाते माही उससे अधिक उत्साह से भरी थी। उसने पूछा- तू कैसे करती है। क्या खुद ट्रैक्टर चलाती है, निराई, गुडाई, बुवाई, कटाई सब कैसे करती है।
रेवा हँसी नहीं, मगर माही ने उसकी खिलखिलाहट को महसूस किया, जैसे कह रही हो कि इतनी आसानी से सब बता दूंगी तो रेवा कैसी।
उसने कहा-देखो भाई, कोई करना चाहे तो सब कुछ कर ही सकता है। वैसे जो काम तुम पूछ रही हो, वे सब करने के लिए दूसरे हैं। हर काम, हर एक के वश का भी नहीं। जिसका काम उसी को साझे। हाँ, खुद खडे होकर जरूर करवाना पडता है।
-इतना टाइम कैसे मिलता है। मैं तो नौकरी कर लूँ और घर ही देख लूँ, इसी में टाँय-टाँय फिस्स हो जाती है। रात को सोते वक्त लगता है कि जोड-जोड पिरा रहा है।
-टाइम का क्या है, यों पूरे दिन खाली बिस्तर तोडते रहो तो भी टाइम नहीं है। वैसे लगातार बिजी रहने के बावजूद टाइम निकल आता है। बस उसे मैनेज ही तो करना पडता है, जो इतना मुश्किल भी नहीं।
बॉय गाड, भगवान की कसम खाकर कह रही हूँ, मुझे तो यकीन नहीं आ रहा कि तुझ जैसी साफ्ट और नखरैल ये सब भी कर सकती है। तुझे सलाम करने और प्यारी-सी पप्पी देने को मन कर रहा है। वैसे ये तुझे खेत लेने की क्या पडी थी। कब खरीदे, कभी बताया भी नहीं। लेडी अमिताभ बच्चन बनने की तमन्ना थी क्या-कहती हुई माही खुद ही जोर से हँसी।
अमिताभ तो बूढा हो गया, बीसवीं सदी में ही। यह तो इक्कीसवीं का क्वार्टर आने वाला है, डियर। और खेत खरीदने का क्या है, जब चाहे खरीद लो। जेब में माल होना चाहिए। वैसे चार, साढे चार साल हुए होंगे। हिमाचल में जो घर था न, उसे बेचा। वहाँ कोई जाता-आता था नहीं। खडा-खडा खंडहर हो रहा था। कभी पिताजी ने उसे बहुत चाव से बनवाया था। सोचा थोडे ही होगा कि वहाँ कोई रहने वाला भी नहीं बचेगा। सब घरों के साथ ऐसा ही होता है। वे एक न दिन बेचने के लिए ही बनाए जाते हैं। सोचा कि उसका पैसा ऐसी जगह लगाऊँ, जहाँ कुछ हरियाली देखने को मिले । न सही हिमाचल, यहाँ उसकी थोडी- सी याद ताजा हो सके। इसके अलावा यह अहसास भी कि मैं भी खेत की मालकिन हूँ। मेरे पास भी इस धरती का छोटा सा टुकडा है। औरतें कहाँ होती हैं, खेतों की मालकिन। वे खेतों पर रात-दिन हाड तोडती हैं, मगर मालकिन नहीं बनतीं। मैंने सोचा, क्यों न मैं भई ऐसा कर दिखाऊं।
-अरे यार वो वाला घर जिसके आमने-सामने बर्फीली चोटियाँ थीं। सेब के पेड थे। दिखाई थीं, तूने वो फोटो। घर क्या था, महल था, महल। कितना सुंदर, एकदम-से ड्रीम हाउस। बेच क्यों दिया। किसी और के पास होता तो रिसोर्ट बनाता। घर का घर अपने पास रहता और कमाई अलग से।
हाँ यार, लेकिन मगर रिसोर्ट क्या ऐसे ही चल जाते हैं। इतना ह्यूमन रिसोर्स चाहिए, पता है न। मैं अकेली कब तक दौडती। वहाँ रहना भी पडता। अब शरीर में पहाड चढने की हिम्मत भी कहाँ बची।
खैर छोड, खेत खरीदने के बारे में पहले बताती तो कभी मैं भी तेरे साथ चलती। देखती तो सही कि अपनी काबिल दोस्त क्या-क्या कर सकती है। अब जब जाए, तो बताना। अगर फ्री हुई तो तेरे साथ जरूर चलूँगी। देखूं तो कि तू किसान बनकर कैसी लगती है। मैं तो सोच रही हूँ कि तू गाडी इतने फर्राटे से चलाती है, एक दिन ट्रेक्टर भी चलाने लगेगी। वो तो भला हो फेसबुक का कि तेरे फोटो देख लिए, वरना तू शायद अपने आप तो कभी बताती ही नहीं। वैसे क्या-क्या उगा चुकी अब तक। चार साल में चार फसलें तो ले ही चुकी होगी।- माही को लग रहा था कि ज्यादा से ज्यादा बातें एक ही बार में जान ले।
-नहीं, अभी तो यह दूसरी ही है।
-अच्छा, आगे क्या-क्या उगाना चाहती है।
-मटर, बाजरा, मक्का, धनिया और अरहर।
-ये तो पाँच हो जाएँगी। खैर, जब ये फसलें हो जाएंगी, तो इनका क्या करेगी। अगर बेचनी हों तो कहाँ जाएगी।
-मंडी में और कहाँ । पहली भी तो वहीं बेचने गई थी।
-तू चली जाती है वहाँ। डर नहीं लगता।
-डर किस बात का।
अरे यू नो, आ मीन,ये मंडी में खरीद-फरोख्त का इलाका तो आदमियों का ही है। हंड्रेड परसेंट मेल बेसिन। औरतें तो मंडी में नहीं आती होंगी न। माही ने अकल का गुणा-भाग करते हुए कहा।
आदमी-औरत क्या। मेरा काम है, मैं नहीं करूँगी तो और कौन करेगा। दो-चार औरतें दिखाई देती भी हैं वहाँ। अब औरतों से क्या बचा। वैसे भी जब तक डरो, तभी तक डर लगता है। डरो तो डर पीछे ही भागता रहता है। इसलिए हमेशा उससे लडते रहना पडता है।- रेवा ने कहा।
तो तू क्या खेतों पर रोज जाती है। -माही के सवालों का अंत नहीं था। रेवा ने उबासी भरी। उबासी की आवाज माही को कुछ तेज लगी।
-नहीं हफ्ते में एक दिन। कभी-कभी दो बार भी। और भी काम तो हैं। खेतों में ही बैठी रहूँगी तो बाकी सारे काम कौन करेगा।
-पूरे दिन वहाँ रहती है।
हाँ कभी-कभी। काम पर डिपेंड करता है। कई बार तो जब सवेरे वहाँ ट्रैक्टर वगैरहा चलवाना होता है, या फसल की कटाई, तो रात को वहाँ की कोठरी में ही सो भी जाती हूँ।
-तूने वहाँ कोठरी भी बनवा रखी है। क्या-क्या कर रखा है। मॉय गाड। कितनी आगे का सोचती है।
-और क्या, यही सोचकर बनवाई थी कि कभी रुकना पडे तो क्या करूँगी। वहाँ छोटी-सी किचनेट भी है। खाने-पीने का भी इंतजाम है। पानी के लिए हैंडपंप है, तो आर ओ भी। कोठरी क्या, वन रूम सैट है पूरा।
-यार तू ग्रेट है। लव यू, मिस यू।
फोन खत्म होने के बाद,रेवा की बातें सुनकर माही सोचने लगी कि कैसे वह अकेली वहाँ सो जाती होगी। घबराहट नहीं होती होगी। मान लो कोई अकेली जान कर आ जाए। रेप कर दे या जान से मार दे। गाँव में तो ये खबरें बडी जल्दी फैलती हैं कि कौन, कब, कहाँ से गया, कहाँ आया, किसके साथ है, कितने लोग हैं ।
अकेला है या अकेली। वह भी औरत। माँ कहती थी कि गाँव की टिटहरी नए आदमी को देखकर चिल्ला-चिल्लाकर बता देती थी कि कोई आया। क्या मालूम टिटहरी अब ऐसा करती है कि नहीं। हो सकता है कि नए जमाने के साथ टिटहरी की आदतें भी बदल गई हों।
फिर रेवा मंडी में भाव-ताव करती होगी। कैसे। वहाँ लोग इससे कैसे पेश आते होंगे। कैसी तिरछी-तिरछी आँखों से बहन जी कहकर मजाक उडाते होंगे। कितने सवाल थे, जो रेवा से पूछने से रह गए थे।
ऐसे ही एक दिन....
मदर डेयरी पर सब्जी तुलवाकर निकल रही थी माही कि उसकी नजर कई क्रेटस पर पडी। उनमें मुरझाए हुए बैंगन, पिलपिले टमाटर, सूखा-सर्रा धनिया, मूली, कटे-फटे आलू, काला पडा लौकी, पत्ता गोभी आदि रखे थे। उसने मदर डेयरी वाले शर्मा से पूछा -ये किसलिए। गाय, बकरी के लिए।
वह हँसा- अजी गाय, बकरी, यहाँ कहाँ । किसी काम से रखे हैं।
-ये खराब सब्जियाँ किसी काम से। माने।
शर्मा को पूछना अच्छा नहीं लगा। बोला-अजी, आपको सिर्फ गाय-बकरियाँ ही क्यों दीखती हैं। यहाँ कौन-सी गाय-बकरी। दिखेंगी तो एम सी डी वाले पकड ले जाएंगे। ये तो होटल वालों के लिए हैं।
होटल वालों के लिए। वो क्या करेंगे इन खराब सब्जियों का। -माही ने यह जानते हुए भी कि वह जवाब नहीं देना चाहता, पूछा।
वे नहीं करेंगे, करेंगी तो आप, उन्हें पैसे देकर।
- मैं इन खराब सब्जियों के पैसे क्यों दूंगी भला।
ऐसे कि आप जब वहाँ खाने जाएँगी, तो इन्हें खूब स्वाद से खाएँगी। पकने, चटपटे मसाले पडने और तेल में डूबने के बाद इनका क्या पता चलेगा कि ताजा थीं, या सडी हुई। हमें फेंकनी पडें, उसके बदले कुछ पैसे मिल जाएँ तो क्या बुरा। हमने भी तो खरीदी ही थीं, नहीं बिकीं, यह अलग बात है।
झुरझुरी- सी हुई माही को। होटलों में ये सब्जियाँ पकती हैं। बाप रे। जी मिचलाने-सा लगा । और ये शर्मा कितना धूर्त है। देखने में कितना सीधा-सादा लगता है। हरामखोर।
रेवा को पता है ये कि जिन सब्जियों को वह इतनी मेहनत से उगाएगी, होटल में जाने पर हो सकता है,उसे भी ऐसी ही क्रेट में पडी सब्जियाँ खानी पडें, खाने के बहुत-से पैसे और टिप भी देनी पडे। और खाने के स्वाद की तारीफ भी करनी पडे। मगर जो माही को मालूम पडा है, क्या वह रेवा को नहीं पता होगा। आजकल सबको, सब पता होता है।
मदर डेयरी वाला शर्मा भी क्या गजब है। अब तक माही समझ पाई है कि उसके तीन शौक हैं- एक गप्पें मारना, दूसरा हमेशा शिकायत करना और तीसरा जब देखो तब, अपने रंग उडे खडखडिया स्कूटर पर इधर से उधर घूमना। जब मिले तो पहले नम्बर के शौक यानी कि हर बात की शिकायत-आज नींद नहीं आई, कल तोलने वाल लडका भाग गया। मदर डेयरी वाले जबर्दस्ती वे सब्जियाँ भी पकडाते हैं, जो यहाँ नहीं बिकती हैं। मन किया तो एक दिन सब कुछ छोड-छाडकर चला जाऊँगा। पत्नी एक नम्बर की निकम्मी है, सारे दिन खाती और सोती रहती है। जब तक जगती है, तबियत खराब है, तबियत खराब है, चिल्लाती है। सारे रिश्तेदार निखत हैं, संसार में किसी का भरोसा नहीं करना चाहिए, लोग हम पर कम तोलने का इल्जाम लगाते हैं, अरे भाई जो चीजें नहीं बिकतीं उनका खर्चा कहाँ से निकालें, अगर कम न तोलें। ग्राहकों की जेब से हाथ डालकर तो निकालेंगे नहीं न। उसकी शिकायतें और गप्पें एक साथ हो जाती हैं। माही अकसर देखती है कि बहुत- से ग्राहक ऐसे भी हैं, जो सब्जी एक खरीदते हैं, वहाँ पडी कुर्सियों और बाहर की स्लैब पर बैठकर दो घंटे बिता देते हैं। अपने-अपने ज्ञान के पिटारे खोलते हैं। एक के पिटारे का ढक्कन जैसे ही खुलता है, दूसरे के पिटारे में नाग फुंफकारने लगता है। वे सब नाग में बदल जाते हैं। लेकिन क्या एक नाग दूसरे को डसता है। वे तो अकसर ऐसा ही करते रहते हैं।
एक दिन, वहाँ मदर डेयरी पर, माही ने सूखी मौसमी देखते हुए कहा -फ्रेश मौसमी नहीं हैं। ये तो पीली पडी हैं। सूख भी गई हैं।
आज नहीं लाया मैडमजी। आप देख तो रही हो। पडी-पडी सूख जाती हैं। लाकर क्या करूं, कितना पैसा बर्बाद होता है।- शर्मा ने मूली के पत्तों को बाहर फेंकते हुए कहा। सामने से एक भूरी गाय दौडी आई । उस दिन तो यह कह रहा था कि यहाँ गाय कहाँ।
अचानक माही को रेवा याद आ गई। वह कितना कुछ करती है, अकेली। तो ये क्यों नहीं कर सकता। माही का, दूसरों की फ्री में मदद करने का उपदेशक का भाव जाग उठा। शब्द थे कि तीखी कटारों की तरह झरने लगे। बोली-वैसे आप चाहें, तो बहुत कुछ कर सकते हैं।
-जैसे।
आफ बाहर इतनी खाली जमीन है। यहाँ एक जूस कार्नर ही खुलवा दीजिए। जो मौसमी, सेब, अंगूर, संतरे नहीं बिकते, उनका जूस बेचें, तो कुछ खराब भी नहीं होगा और लोगों को ताजा जूस भी मिलेगा। सवेरे- शाम आफ यहाँ इतनी भीड रहती है, जितने ग्राहक यहाँ सब्जी खरीदने आते हैं, उनमें से आधे भी अगर जूस पीने लगे तो खराब होना तो क्या, एक भी फल नहीं बचेगा और इनकम भी होगी।
शर्मा ठहाका लगाकर हंसा-जी, बात तो आप ठीक कह रही हैं। बताइए क्या- क्या और कर सकता हूँ।
करने को तो बहुत कुछ है। हम चाहें तो क्या नहीं कर सकते। बस टाइम को मैनेज करना पडता है। -माही ने रेवा की बात दोहराई। और खुद को कुछ अलग बात कहने वाली समझा।
क्या, क्या, बताएँ तो सही मैडमजी। ऐसे अपनी समझ में नहीं आता।- उसके सुर में कुछ तंज-सा था।
मैं अकसर देखती हूँ कि आफ यहाँ बहुत- से टमाटर खराब हो जाते हैं। बाहर पडे-पडे लोगों के पैरों के नीचे आते हैं। उनका सॉस, चटनी बनवा सकते हैं। इतनी गोभी पडी-पडी सडती है। क्यों न उसे साफ कराकर, कटवाकर बेचा करें। हाथों हाथ बिक जाएगी। आजकल सब्जी काटने के मुकाबले अगर कटी सब्जी मिल जाए, तो लोग उसे ही खरीदते हैं। उसे सुखाकर भी बेच सकते हैं।
गोभी-गाजर, शलगम, मूली का अचार भी बनवा सकते हैं। गाजर, टमाटर, पुदीना, लौकी का जूस भी बिक सकता है। और चाहें तो जूस कार्नर के साथ एक ढाबा भी खोल लीजिए। फिर देखिए इतनी कमाई होगी कि आप तो दिन भर रुपए ही गिनते रहा करेंगे।
सही कह रही हैं मैडमजी।- कहता हुआ शर्मा कुछ देर को खामोश हो माही की तरफ देखता रहा। फिर फ्रिज में से जूस का पैक निकाल, मुँह से लगाता बोला- मगर इन सारे कामों के लिए कितने आदमी चाहिए, यह पता है आपको।
माही ने जो पढा था, दोहराया-जी बहुत से काम करेंगे, तो अकेले तो कर नहीं लेंगे। लोग तो चाहिए ही। अच्छा है, आप पैसे कमाएंगे तो और लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
शर्मा बोला- देखो जी, लोगों को काम देना, मेरा नहीं सरकार का काम है। पता चला रोजगार दिया और खुद बर्बाद हो गया। या तो लूट ले गए या मार गए। मुझे कौन सा इलेक्शन लडना है। यहाँ तो मैं अकेला हूँ। एक बीबी है जो हमेशा बीमार रहती है। लौंडे को हमारी तरफ झांकने की फुरसत नहीं। वह अपनी औरत के साथ मस्त है। अकेला क्या-क्या कर लूं। कोई काम करने वाला लडका भी यहाँ जल्दी रहने को तैयार नहीं होता। आप तो आजकल के लडकों को जानती हैं। कमाई बोरी भर चाहिए और काम धेले का नहीं। कहते हैं कि कौन यहाँ चार बजे आकर सब्जी का हिसाब-किताब करेगा। अब अकेला मैं, और आप बता रही हैं हजार काम।
माही अपना सा मुँह लेकर वापस लौटने लगी, तो उसे सुनाई पडा-चली आती हैं ज्ञान बघारने। कभी तीन बजे उठकर भागना पडे तो पता चले। यहाँ तो रोज की बात है। दूसरों को देने के लिए सबके पास बहुत अकल है।
सुनकर बुरा लगा माही को। सोचने लगी- क्या जरूरत थी, कुछ कहने की। किसी के फायदे की सोचो तो उसे बुरा क्यों लगता है, आजकल। माँ कहती थी न -गधाए दई नोन की रोडी, गधा कहे मेरी आँखें फोडी। फिर लगा कि अगर वह यह कर रही होती, तो वाकई वही सब करती जो कह रही है। और ये शर्मा रात, दिन चाय पीते गप्पें लडाता है, टाइम खोटा करता है,चाहे तो ये सब कर नहीं सकता। मगर अब वही नहीं करना चाहता, तो माही सलाह देने वाली होती भी कौन है। काजी जी क्यों लटे सहर के अंदेसे से।
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महीना भर तो हो ही गया होगा-
रेवा से जब से बात हुई है, तब से लगातार माही इसी सोच में पडी है कि काश उसके पास भी पाँच बीघा खेत होता। रेवा के पास कितना है, वह पूछना ही भूल गई। लेकिन अगर उसके पास पाँच बीघा हो, तो कितना मजा आए। लेकिन आए कहाँ से। घर में खेत तो क्या, इतनी भी जगह नहीं कि कुछ गमले भी रख ले। वह इसी सोच में डूबी रही कई दिन तक।
एक दिन जब भाई उससे मिलने आए और तेज गरमी के कारण दोपहर में उन्हें वापस न जाने दिया, तो शाम को उसने भाई से कहा कि जीवन में उसकी एक ही इच्छा पूरी नहीं हुई।
भाई ने पूछा-कौन सी।
-काश, मेरे पास पाँच बीघा खेत होता।
भाई इतनी जोर से हंसे कि ठहाका गूँजता रहा, पंखा भी जैसे फर-फर भूल उनका ठहाका सुनने को रुक गया। उनकी हँसी की प्रतिध्वनियाँ देर तक सुनती रही माही। उन्होंने कहा-तो तू क्या करती। नौकरी छोडकर, खेत में फांवडा चलाती। सिर पर पटका बांधकर खेत जोतती।
-हाँ, फाँवडा भी चलाती और ट्रैक्टर भी ।
अच्छा, तू तो कहीं की पहलवान हो गई लगती है, मूसटी कहीं की। लेकिन मूर्खी, दूर के ढोल बडे सुहावने लगते हैं। खेती- किसानी में इतना ही कुछ रखा होता, तो किसान इतने परेशान न होते। खबरें नहीं पढती कि किसान सही दाम न मिलने पर आलू, प्याज, टमाटर, सडकों पर फेंक देते हैं। मर भी जाते हैं।
सभी किसान तो परेशान नहीं होते। बहुत- से लोग तो इन दिनों मल्टीनेशनल का जाब छोडकर किसानी कर रहे हैं। जिस जमीन में कुछ नहीं होता था, वहाँ से लाखों कमा रहे हैं। दूसरों को रोजगार भी दे रहे हैं, नेचर के करीब भी रहते हैं। मैं ऐसा सोच रही हूँ, तो क्या गलत। जरूरी है कि सब जिंदगी भर बस नौकरी के ही पीछे पडे रहें। मैं भी कुछ नया क्यों नहीं कर सकती।
नया क्या, तू तो बहुत कुछ नया कर सकती है, किसने रोका है, मगर समझ में नहीं आता कि ये शहरी लोगों को नेचर के करीब रहना इतना रोमांटिक क्यों लगता है। गाँव में दो-चार दिन को टूरिस्ट बनकर आना और वो-वो चिल्लाना । नेचर जब परेशान करती है, उजाडती है, वह याद नहीं रहता।ङ्क्तभाई ने मुस्कुराते हुए कहा।
-जैसे।
-जैसे क्या, देखती नहीं कि कभी अच्छा मानसून न होने से सूखा पड जाता है, फसल खराब हो जाती है। कभी बाढ आ जाती है। हजारों लोग बेघर-बार होकर भूखे मरते हैं, फसलें उजड जाती हैं। कभी टिड्डियाँ हमला बोल देती हैं। यह सब फिल्मों और सीरियल्स में ही अच्छा लगता है। गाना भी कि मेरे देश की धरती सोना उगले।
आप इतने निगेटिव क्यों हैं। बचपन में खुद भी तो गाँव में रहे हैं। अब भी जाते रहते हैं।- माही ने नाराजगी से कहा। उसकी आँखों में काली तितलियाँ तैर रही थीं। वे तितलियाँ, आँखों से पार जाकर, हरे-भरे लहलहाते खेतों के स्वप्न देख रही थीं।
-इसीलिए तो बता पा रहा हूँ कि खेती की क्या मुश्किलें होती हैं। दूर से सब बहुत अच्छा लगता है। खेती करना कोई मनोजकुमार की फिल्म नहीं है जिसमें देश की धरती सोना उगलती है। और किसान हल कंधे पर रककर गाना गाते हैं। न ही कोई चलो गाँव की ओर वाली कविता या कहानी है।
फिर कुछ देर बाद बोले- वैसे मान ले पाँच बीघा खेत तेरे पास हों भी तो क्या करेगी।
-मैं क्या करूंगी। मैं उस पाँच बीघा से जल्दी ही पाँच सौ बीघा बना लूंगी।
अच्छा, कोई जादू की छडी मिल जाएगी। या कि किसी जिन्न या परी की मदद लेगी- भाई ने मुसकराते हुए उसका मजाक उडाया।
आपकी यही बात पसंद नहीं। कोई नया काम शुरू करने की कहो भर कि इतना तेज ब्रेक मारते हैं कि सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। खेती के जरिए किस्मत को जादू की छडी से नहीं मेहनत से मल्टी टास्किंग से बदलूंगी। -कहते हुए माही ने कुछ इस तरह से हाथ हिलाया कि हाथ में हंसिया लेकर कुछ काट रही हो।
-भाई वाह। मुझे भी तो बता क्या-क्या करेगी।
-बताऊँगी, बताऊँगी। समय आने दीजिए।
भाई के जाने के बाद माही अगले दिन की तैयारी करने लगी। कल दफ्तर जाने के लिए क्या पहनेगी, पर्स में पैसे रखे। चप्पल और मैचिंग ईयर रिंग्स भी निकाले। लेकिन दिमाग में पाँच बीघा खेत छाया था।
उस रात उसे मालूम है वह सोई नहीं थी। जागते-जागते ही सपना देख रही थी। पता नहीं कब कैसे, बिना किसी बस, ट्रेन, साइकिल, कार के गाँव जा पहुँची थी। उसे इस तरह आया देखकर, सब चकित थे। जब उन्हें पता चला कि माही पाँच बीघा खेत खरीदने आई है, तो वे सब उसे आँखें फाडकर देखने लगे। रिश्ते की चाची ने कहा-लली, आजकल याँ कोई अपनी जमीन बेचवो ना चाहे। सब चाहवें हैं कि एक दिन जब याँ ते हाई वे निकरेगो, तौ बिना कछू करै-धरै करोडपति बन जांगे।
-तो क्या हाई वे निकलने वाला है।
-हाँ सुनतैं, एक दिन अखबार में छपो ओ। टी वी पै ऊ बताए रए।
तो फिर-माही सोच में पड गई। लेकिन जब आ ही गई है, तो देखे तो सही कहाँ कैसी जमीन मिलती है।
तलैया के पास की एक जमीन खाली थी। जिसमें बारहों महीने पानी भरा रहता था। किनारे कीकर का एक सूखा पेड खडा था। सत्यानाशी के छोटे-छोटे पौधे भी थे।
साथ खडे चचेरे भाई ने बताया था कि यहाँ तो पहले मिट्टी की भराई करानी पडेगी। वरना तो कुछ होने से रहा। खर्चा भी बहुत आएगा।
आगे एक जगह दिखी भी तो पता चला कि उसे तो किसी सेठ ने पहले ही खरीद लिया है। इन सेठों की निगाह से क्या कुछ भी नहीं बचता।
लौटी तो उदास थी माही। क्या सचमुच वह कुछ नहीं कर सकती। लेकिन मन था कि मानने को तैयार नहीं था। सोचने लगी कि अगर जमीन मिल जाए तो क्या-क्या करेगी। उसने अपनी नोटबुक उठाई और लिखने लगी। खेत की बाड काँटेदार तारों की नहीं करोंदे के पौधों से बनाएगी। काँटे होने से न जानवर खाएँगे, न अंदर घुसकर फसल उजाडेंगे। करोंदें बेचकर कमाई भी होगी। करोंदे तोडने में काफी समय भी लगेगा। कुछ बेच देगी, कुछ का अचार, चटनी और जैम बनवाएगी। इस तरह गाँव की औरतों को भी कुछ काम मिलेगा। खेतों के किनारे आम, अमरूद और नीबू लगाएगी। इनसे भी अचार, सास, शर्बत आदि बनवाएगी। इन्हें बनवाने के लिए जगह भी चाहिए। तो अपने लिए जो कमरे बनाएगी, उनकी छत पर इस काम के लिए वर्कशाप खोल सकती है। वहीं मसाले आदि भी सूख जाया करेंगे। मगर इन चीजों को बेचने के लिए बाजार भी चाहिए। वैसे तो आन लाइन भी बेच देगी, आरगेनिक नाम पर। घर के बने अचारों की बहुत माँग है। बाकी लोकल दुकानदारों से सम्पर्क भी कर सकती है। यही नहीं, खेत अगर सडक के पास हुए, तो वहाँ इन्हें बेचने के लिए एक दुकान भी बना सकती है। खेतों में जो सब्जी उगाएगी, उन्हें भी बेचेगी। खबरें आती हैं कि गाँव वाले खुद ही सब्जी नहीं खा पाते हैं। लोकल मार्केट में किन सब्जियों की माँग ज्यादा रहती है, उसका पता करेगी। वही सब्जियाँ अपने खेतों में उगाएगी। इन्हीं के पत्तों, डंठलों से कम्पोस्ट खाद भी बना लेगी। नो पेस्टीसाइडस। मगर सिंचाई का क्या होगा। ट्यूबवैल लगाना पडेगा। टयूबवैल की जगह क्यों न रेन वाटर हार्वेस्टिंग के लिए एक छोटा तालाब बना ले। उसमें कमल ककडी और सिंघाडे उगाएगी। थोडी बहुत मछलियाँ भी पाल लेगी, जो तालाब को साफ करती रहेंगी। वेजीटेरियन है, इसलिए मछलियाँ कभी बेचेगी नहीं। बल्कि मछलियों के नाम रखेगी और उन्हें नामों से पुकारा करेगी। जब वे अपने नाम को पहचानने लगेंगी, तो दौडी आया करेंगी। उन्हें दाना खिलाया करेगी। खेतों की बुवाई, जुताई का इंतजाम भी करना पडेगा। एक- दो बीघे में अनाज भी उगाएगी।
माही ने देखा कि उसके प्लान तो खत्म ही नहीं हो रहे । भाई इसे पढें तो कहेंगे कि करके देख ले। कर सके तो अच्छा है। जानती है कि उनके बोलने में कितना अविश्वास छिपा होगा।
मगर मदर डेयरी के शर्मा की तरह अकेली खुद क्या-क्या करेगी। कितने लोग चाहिए होंगे। फिर चोरी, चंगारी, काम न करेंगे, तो क्या करेगी। गाँव में तो लोग दुश्मनी किसी भी बात पर मान लेंगे। अकेली देखकर तो पता नहीं क्या करेंगे। तभी माही ने सुना-
गाँव के चाचा कह रहे थे- डीजल खत्म हो गया है, बिजली है नहीं। ट्रेक्टर वाले की टांग टूट गई है। दूसरे को बुलाऊं तो दुश्मनी मोल लूं। कैसे होगी सिंचाई, जुताई। मन करता है कि इस खेती- बाडी में लात मारकर जोगी हो जाऊं। रात दिन हाड तोडो, हाथ में कुछ न आए। फिर कभी बिजली नहीं है, कभी पानी नहीं है। खेत पर काम करने के लिए आदमी का नाम कहीं नहीं दिखता। सबको शहरों में न जाने क्या दिखाई देता है कि उधर ही भागते हैं।
लेकिन जिस गाँव में थोडी देर तक माही बैठी थी क्या यह वही गाँव था, जिसके बारे में भाई बताया करते थे। उनके बचपन का गाँव। यहाँ तो दूर तक खेत दिखाई भी नहीं पडते । जिधर देखो बस घर ही घर। घरों में वाशिंग मशीनों, फ्रिज और टी वी का शोर। कोल्ड ड्रिंक्स के रैपर्स से सडकों के किनारे भरे पडे थे। चूल्हा तो अब कहीं था ही नहीं। पक्के बहुमंजिला मकान, पारदर्शी शीशों से जगमग थे। ये कैसा गाँव था। हर लडका शाहरुख और रणबीर सिंह, और लडकियाँ आलिया और श्रध्दा कपूर से कम नहीं।
माही जिस गाँव का उद्धार करने की सोच रही थी, उसका पता तो दूर-दूर तक नहीं था।
माही ने देखा, घडी में दो बजे थे। रात है। कल आफिस के लिए कैसे उठेगी या कि ट्रैक्टर दफ्तर के भीतर चलाएगी। पता नहीं, वह कब सो गई। सवेरे उसकी नोटबुक का भी कहीं पता नहीं चला।
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