यह कैसा समय है
सत्यनारायण
यह क्या हुआ? क्या मैं कभी भी किसी भी समय फोन पर बात नहीं कर सकता? वे कुछ दोस्त क्या हुए? अब चिट्ठियाँ बंद। फोन बंद। फेसबुक या व्हाटसअप पर कुछ ऐसी तस्वीरें जो मुझ उदास कर जाती है कि इस खतरनाक समय में भी ये कैसी खुशनुमा सेल्फियों में व्यस्त हैं। एक दोस्त को कहा तो उसका उत्तर था- तुम तो सदा के दुखी हो। नये साल पर भी ऐसी बातें?
2 जनवरी, 2018
मुझे जाल समेटना है। इस शहर से। खुद से। छोटी-छोटी लालसाओं से। घनीभूत होती स्मृतियों से।
४ जनवरी, २०१८
संघर्ष जितना बडा होगा उसकी कीमत भी उतनी ही बडी होगी। - मलयज
९ जनवरी, २०१८
सम्बन्धों के लटूमना नहीं चाहिए। वह चलें जितने चलें। सफर की तरह सम्बन्ध भी रह रहकर छूटते जाते हैं। सबकी अपनी एक सीमा होती है। फिर नये बनाते हैं, फिर टूट जाते हैं या फिर घिस जाते हैं ओर इसी तरह आयु भी छीझती रहती है।
११ जनवरी, २०१८
अमीर हो या गरीब दुख से कभी पूरा विच्छेद नहीं हो पाता। पीडा हरेक के कोने में बैठी होती है।
१५ जनवरी, २०१८
मेरे चौतरफ कितने तो चेहरे हैं। अपने/ पराये/ इन सबके बीच मैं कहाँ हूँ? फुटपाथ पर ठहरी एक हँसी। रेल में लौटते वक्त मिले एक सहयात्री। नौकरी में इतने बरसों साथ रहे सहकर्ती। पडोसी जिनको छोडकर जाना है। सदा के लिए। स्मृतियों की खूंटियों पर कौन कितने दिन टिक पाता है। फिर धूल की एक परत। फिर कुछ चेहरे जो शायद अब अंतिम हों। मेरे चौतरफ घुमते मिलते चेहर की एक भीड। इन सबके बीच रूकना पडता कितने दिन और ठेल पाऊंगा।
२४ जनवरी, २०१८
यह कैसा समय है? किसान अपनी धरती की पकड से दूर होते जा रहे हैं। जिसने एक बार धरती छोड दी, लौटता नहीं और जो वहाँ है उसके सामने उसे छोडने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। कयोंकि उसके चौतरफ ऐसे घेरे बनते जा रहे हैं जहाँ वह अपनी धरती पर से पकड ढीली कर छोडने के लिए बाध्य है।
यह ऐसा समय है जहाँ चीजों अपने निर्मम रूप में सामने हैं। सत्ता और पूँजी मनुष्य के जीने की सरल राह के सामने अवरोध की तरह खडे हैं।
लोग एकऐसी अंधी गली में खडे हैं, जहाँ उन्हें उनके साये से दूर किया जा रहा है, क्योंकि तभी तो वे उन पर राज करेंगे। और लोग भटकते रहेंगे या स्वयं मरने के लिए अभिशप्त।
आफ चौरफ कांटों की बाड हो और लगे कि यहाँ से निकलने का मतलब लहुलूहान होना है। कांटों की बाड। तब आफ पास क्या बचता है, सिवाय इसके कि एक कांटे को निकालने का सुख आफ समूचे जीवन मैं फैल जाता है और दुख जाने कहाँ लोप हो जाता है।
१५ मार्च, २०१८
एक जागरूक लेखक अपने समय से टकराता है। वह अपने समय से कटकर नहीं रह सकता। समाज को जाने बिना लेखन नहीं किया जा सकता है। एक लेखक के लिए यह जानना आवश्यक है कि उसके आसपास क्या हो रहा है। उसके पहले कया लिखा जा चुका है।
- गु*ंटर ग्रास २० मार्च, २०१८
मेरा लिखना पीडा की मुक्ति की छटपटाहट है। वह चाहे खुद की हो या दूसरे की। १५ अप्रेल, २०१८
दिन भर भटकता रहा। जयपुर में एक ऐसा नया ठीया जहाँ आकर शाम की चाय पीता हूँ। एक विशाल दरख्त के नीचे चाय की थडी। वहाँ बैठे रहते हैं बेरोजगार और उक्ताये युवक। ड्राईवर-कंडक्टर। एक पागल सा व्यक्ति फैंके हुए चाय के कागज के कपों को उठाकर डस्टबिन मं डाल रहा था। कहाँ ठहरा हुआ है वह। गौर से देखा तो मुकलाती मूंछों वाला गबरू जवान। चाय के कम के साथ कहीं कुछ टूटा-बिखरा होगा उसके भीतर जो वहीं ठहर गया हमेशा के लिए।
३० अप्रेल, २०१८
एक अकेले व्यक्ति और संन्यासी के अकेलेपन में ... अंतर है- एक अकेला व्यक्ति दूसरों से अलग होकर अपने में रहता है, एक संन्यासी अपनेपन में युक्त होकर सृष्टि में जीता है। - निर्मल वर्मा
१५ अक्टूबर, २०१८
केवल आदिवासी ही सीधा प्रकृति के साथ रहता है। उसका सहचर। खुले घर। बिना किवाडो के। एक हल्की सी झड जिसे हवा पानी छेडखानी कर जब तक गिराते ढहाते रहते है। बेरोक-टोक। इतना उघडा संसार कि छुपाने को कुछ नहीं। क्या वे योगी नहीं है? आदिकाल से अब तक धरती को थामे धरती पुत्र।
२२ मार्च, २०१९
स्मृति की एक ऐसी तस्बीर है जो कभी धुँधली नहीं पडती। एक ऐसा घाव जो जरा-सी हवा से भालभक्त (हरा) हो उठता है। पिछले कुछ दिनों से रोज यही हो रहा है। मैं भागता रहता हूँ यहाँ से वहाँ। कितनी तो स्मृतियाँ रह रहकर हरी हो उठती हैं। क्या यह बढती उम्र का असर है या मैं वहीं हूँ बढती उम्र के बावजूद।
२० मार्च, २०१९
वे शर्मीले, कायर, सज्जन तथा एक अच्छे इंसान थे, लेकिन उनकी लिखी पुस्तकें बहुत कठोर तथा दर्दनाक थी, उन्होंने अदृश्य राक्षसों से भरी एक ऐसी दुनिया देखी थी जहाँ ये राक्षस दीन-हीन मनुष्यों पर हमला कर के उन्हें नष्ट कर देते थे, वे बहुत स्पष्ट दृष्टा थे, जीवित रह सकने के लिए जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान थे, लेकिन जिंदा रह सकने के लिए बहुत कमजोर थे। लेकिन उनकी यह कमजोरी उन उदार तथा श्रेष्ठी लोगों जैसी थी, जो भय, गलतफहमिया, अनुदारता तथा असत्य से लडने में समर्थ होते हैं, जो शुरू में ही अपनी कमजोरी को स्वीकार कर लेते हैं, उसके सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं और इस प्रकार विजयी व्यक्ति को भी शर्मिन्दा कर देते हैं। वे अपने साथी लोगों को इस प्रकार समझ सकें, जो केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव है जो अकेला रहा हो। - मिलेना (काफ्का के बारे में)
२३ अप्रेल, २०१९
कालीबंगा। चार हजार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष। मोहन जोदडो और हडप्पा से भी पुराने। मिट्टी के भाँत-भाँत के बर्तन भाँडे, चूडियाँ। टीलों पर अनगिनत ठिकरियाँ। कहते हैं सरस्वती इधर से ही बहती थी। मैं उस जीवन को खोजता रहा जो इन ठीकरी बने बर्तनों के बीच था। बच गई कुछ चूडियाँ। श्रृंगार के अन्य उपकरण। रसोई के बर्तन। बच्चों के खिलौना बैलगाडियाँ और एक कंकाल। पता नहीं कौन रहा होगा इस शरीर में। यदि वह इतने हजार साल बाद फिर उठ खडा हो इसी शरीर में, उसी समय के साथ तो? सोचकर मैं थरथरा उठा।
११ अगस्त, २०१९
समूचे वातावरण में एक ठंडी उदासी। मुझे औचक सुबह उठते ही वे मित्र याद आए जो इस दुनिया से एक एककर चले गए। वे क्यों आए थे और क्या-क्या करके चले गये। और मैं? क्या कुछ कर पाया? कब और कैसे जाना होगा? आज ही का दिन था। लवलीन भी चली गई। रघुनंदन के बाद एक ऐसा संताप जिसकी छाया से घिरा मन में अवसाद की परत। बचपन के गहरे दोस्त भँवर का अस्पताल में ऑपरेशन की दहशत से मर जाना। रामकरण रैगर के साथ के दिन, हालांकि सुखद स्मृतियाँ नहीं हैं पर मन में एक खरोंच है उसके असमय जाने की। वे कौन लोग होते होंगे जिनका अपना बहुत अपना औचक चला जाता है यह दुनिया छोडकर। वे कैसे तो जीते होंगे शेष जीवन, एक पीडा के साथ जो उनके समूचे जीवन में फैल जाती है।
६ जनवरी, २०२०
रिटायर हुए पाँच वर्ष हो गए। अभी तक मैं कहीं का नहीं हो पाया। न जयपुर न जोधपुर न गाँव। किताबों की गठरियाँ कुछ जयपुर में पडी हैं जिन्हें खोलने लगता हूँ कि जोधपुर आ जाता हूँ। थोडे दिन बाद फिर जयपुर। मुझ से ज्यादा मेरे अपने लोगों को चिंता रहती है कि कहाँ रहूँगा? दोनों जगह क्यों नहीं? और कहीं भी क्यों? जबाब देते थक जाता हूँ। और फिर अपनी वही कुफा। जिसके लिए माधव कहता था कि सर आपका ओरा यही है। कहीं भी क्यों, यहीं क्यों नहीं। मैं चाहते हुए भी कह नहीं पाता कि असल में जगह नहीं यह मेरे ही भीतर पता नहीं कौनसी-कौनसी बेचैनी है जो मुझे ज्यादा दिन एक जगह टिकने नहीं देती। इसी ठहराव के लिए मैं सोलह वर्ष की उम्र से भटक रहा हूँ।
८ जनवरी, २०२०
चौतरफ सिर्फ सन्नाटा। कई दिन हो गये घर से बाहर निकले। एक अकेला। ऊपर एकदम सफ्फाक नीला आसमान। मैं जानता हूँ इन दीवारों के बीच और कुछ देखने की मेरी इच्छा की पूर्ति संभव नहीं। इसलिए नीचे आकाश में ही रोज कुछ बदलाव ढूँढने की कोशिश करता हूँ। सब दिशाएँ एक-सी पर इस विस्तृत नीले आसमान में कुछ ऐसा है जो मन के भीतर गोते लगाते रहने की आं.... की ऐसी कुंजी देता है कि आप भी वैसे ही हो जाते है। रिरम, अनन्त विस्तार में डूबते, उतरते। किसी भी लालसा से परे। अब तक की कोई अटक, कोई फांस यहाँ आकर विलीन हो जाती है। इन दिनों मैं कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ।
१३ अप्रेल, २०२०
चूल्हे की शक्ल में चार पाँच ईंटें। उनके बीच बिखरी राख। दो-चार सूखी लकडियाँ। कुछ फटे कपडे लत्ते जो एक दरख्त पर टंगे हुए थे। इसी पर उनकी छोटी सी गृहस्थी टंगी रहती थी। जब तक वे शाम को काम से नहीं लौट आते थे। घूँघट से झाँकती आँखे। छोटे बच्चों की किलकारियाँ। चार-पाँच पुरुष। उनका यहाँ पर यही घर था..... के पास फुटपाथ पर।
उन अजनबी लोगों की जिन्दगी के बारे में सोचते हुए बराबर जीवन के बारे में सोच रहा हूँ। जहाँ से आए थे वे, सिर्फ रोटी के लिए। इतना सा ही तो चाहिए होगा। यदि यहाँ के हैं वहीं मिल जाती, तो यहाँ आते ही क्यों? अब ? कहाँ होंगे? क्या घर पहुँच गए होंगे या रास्ते में। रह रहकर उनकी आँखे जो अभी भी मेरे भीतर टंगी हुई है।
एक बुढिया जिसका सडक के बीच डिवाइडर ही आसरा था। उसी के साथ एक बच्ची जिसका हाथ फैला रहता था कुछ माँगते हुए। उसकी आँखों की जगह हथेलियाँ मेरे सामने है। अपने घर लौटते लोगों के बीच होती हुए एक अधेड स्त्री। पागल सा एक लडका जो बदहवास तुरन्त पहुँच जाना चाहता था अपने घर। पता नहीं कहाँ से आया था, थोडी दूर चलता और हाँफ जाता।
इस तपती दुपहर वे रह रहकर मेरे जेहन में डूब उतरा रहे है। मैं खुद बीच-बीच में हताश हो उठता हूँ। उनको लिखना चाहता हूँ, पर जब उनकी जिंदगियाँ मेरे भीतर खुलती हैं, तो डर जाता हूँ।
१९ अप्रेल, २०२०
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सम्पर्क - 72/5 शक्ति कॉलोनी,
रातानाडा, जोधपुर
मो. ९४१४१३२३०१
2 जनवरी, 2018
मुझे जाल समेटना है। इस शहर से। खुद से। छोटी-छोटी लालसाओं से। घनीभूत होती स्मृतियों से।
४ जनवरी, २०१८
संघर्ष जितना बडा होगा उसकी कीमत भी उतनी ही बडी होगी। - मलयज
९ जनवरी, २०१८
सम्बन्धों के लटूमना नहीं चाहिए। वह चलें जितने चलें। सफर की तरह सम्बन्ध भी रह रहकर छूटते जाते हैं। सबकी अपनी एक सीमा होती है। फिर नये बनाते हैं, फिर टूट जाते हैं या फिर घिस जाते हैं ओर इसी तरह आयु भी छीझती रहती है।
११ जनवरी, २०१८
अमीर हो या गरीब दुख से कभी पूरा विच्छेद नहीं हो पाता। पीडा हरेक के कोने में बैठी होती है।
१५ जनवरी, २०१८
मेरे चौतरफ कितने तो चेहरे हैं। अपने/ पराये/ इन सबके बीच मैं कहाँ हूँ? फुटपाथ पर ठहरी एक हँसी। रेल में लौटते वक्त मिले एक सहयात्री। नौकरी में इतने बरसों साथ रहे सहकर्ती। पडोसी जिनको छोडकर जाना है। सदा के लिए। स्मृतियों की खूंटियों पर कौन कितने दिन टिक पाता है। फिर धूल की एक परत। फिर कुछ चेहरे जो शायद अब अंतिम हों। मेरे चौतरफ घुमते मिलते चेहर की एक भीड। इन सबके बीच रूकना पडता कितने दिन और ठेल पाऊंगा।
२४ जनवरी, २०१८
यह कैसा समय है? किसान अपनी धरती की पकड से दूर होते जा रहे हैं। जिसने एक बार धरती छोड दी, लौटता नहीं और जो वहाँ है उसके सामने उसे छोडने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। कयोंकि उसके चौतरफ ऐसे घेरे बनते जा रहे हैं जहाँ वह अपनी धरती पर से पकड ढीली कर छोडने के लिए बाध्य है।
यह ऐसा समय है जहाँ चीजों अपने निर्मम रूप में सामने हैं। सत्ता और पूँजी मनुष्य के जीने की सरल राह के सामने अवरोध की तरह खडे हैं।
लोग एकऐसी अंधी गली में खडे हैं, जहाँ उन्हें उनके साये से दूर किया जा रहा है, क्योंकि तभी तो वे उन पर राज करेंगे। और लोग भटकते रहेंगे या स्वयं मरने के लिए अभिशप्त।
आफ चौरफ कांटों की बाड हो और लगे कि यहाँ से निकलने का मतलब लहुलूहान होना है। कांटों की बाड। तब आफ पास क्या बचता है, सिवाय इसके कि एक कांटे को निकालने का सुख आफ समूचे जीवन मैं फैल जाता है और दुख जाने कहाँ लोप हो जाता है।
१५ मार्च, २०१८
एक जागरूक लेखक अपने समय से टकराता है। वह अपने समय से कटकर नहीं रह सकता। समाज को जाने बिना लेखन नहीं किया जा सकता है। एक लेखक के लिए यह जानना आवश्यक है कि उसके आसपास क्या हो रहा है। उसके पहले कया लिखा जा चुका है।
- गु*ंटर ग्रास २० मार्च, २०१८
मेरा लिखना पीडा की मुक्ति की छटपटाहट है। वह चाहे खुद की हो या दूसरे की। १५ अप्रेल, २०१८
दिन भर भटकता रहा। जयपुर में एक ऐसा नया ठीया जहाँ आकर शाम की चाय पीता हूँ। एक विशाल दरख्त के नीचे चाय की थडी। वहाँ बैठे रहते हैं बेरोजगार और उक्ताये युवक। ड्राईवर-कंडक्टर। एक पागल सा व्यक्ति फैंके हुए चाय के कागज के कपों को उठाकर डस्टबिन मं डाल रहा था। कहाँ ठहरा हुआ है वह। गौर से देखा तो मुकलाती मूंछों वाला गबरू जवान। चाय के कम के साथ कहीं कुछ टूटा-बिखरा होगा उसके भीतर जो वहीं ठहर गया हमेशा के लिए।
३० अप्रेल, २०१८
एक अकेले व्यक्ति और संन्यासी के अकेलेपन में ... अंतर है- एक अकेला व्यक्ति दूसरों से अलग होकर अपने में रहता है, एक संन्यासी अपनेपन में युक्त होकर सृष्टि में जीता है। - निर्मल वर्मा
१५ अक्टूबर, २०१८
केवल आदिवासी ही सीधा प्रकृति के साथ रहता है। उसका सहचर। खुले घर। बिना किवाडो के। एक हल्की सी झड जिसे हवा पानी छेडखानी कर जब तक गिराते ढहाते रहते है। बेरोक-टोक। इतना उघडा संसार कि छुपाने को कुछ नहीं। क्या वे योगी नहीं है? आदिकाल से अब तक धरती को थामे धरती पुत्र।
२२ मार्च, २०१९
स्मृति की एक ऐसी तस्बीर है जो कभी धुँधली नहीं पडती। एक ऐसा घाव जो जरा-सी हवा से भालभक्त (हरा) हो उठता है। पिछले कुछ दिनों से रोज यही हो रहा है। मैं भागता रहता हूँ यहाँ से वहाँ। कितनी तो स्मृतियाँ रह रहकर हरी हो उठती हैं। क्या यह बढती उम्र का असर है या मैं वहीं हूँ बढती उम्र के बावजूद।
२० मार्च, २०१९
वे शर्मीले, कायर, सज्जन तथा एक अच्छे इंसान थे, लेकिन उनकी लिखी पुस्तकें बहुत कठोर तथा दर्दनाक थी, उन्होंने अदृश्य राक्षसों से भरी एक ऐसी दुनिया देखी थी जहाँ ये राक्षस दीन-हीन मनुष्यों पर हमला कर के उन्हें नष्ट कर देते थे, वे बहुत स्पष्ट दृष्टा थे, जीवित रह सकने के लिए जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान थे, लेकिन जिंदा रह सकने के लिए बहुत कमजोर थे। लेकिन उनकी यह कमजोरी उन उदार तथा श्रेष्ठी लोगों जैसी थी, जो भय, गलतफहमिया, अनुदारता तथा असत्य से लडने में समर्थ होते हैं, जो शुरू में ही अपनी कमजोरी को स्वीकार कर लेते हैं, उसके सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं और इस प्रकार विजयी व्यक्ति को भी शर्मिन्दा कर देते हैं। वे अपने साथी लोगों को इस प्रकार समझ सकें, जो केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव है जो अकेला रहा हो। - मिलेना (काफ्का के बारे में)
२३ अप्रेल, २०१९
कालीबंगा। चार हजार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष। मोहन जोदडो और हडप्पा से भी पुराने। मिट्टी के भाँत-भाँत के बर्तन भाँडे, चूडियाँ। टीलों पर अनगिनत ठिकरियाँ। कहते हैं सरस्वती इधर से ही बहती थी। मैं उस जीवन को खोजता रहा जो इन ठीकरी बने बर्तनों के बीच था। बच गई कुछ चूडियाँ। श्रृंगार के अन्य उपकरण। रसोई के बर्तन। बच्चों के खिलौना बैलगाडियाँ और एक कंकाल। पता नहीं कौन रहा होगा इस शरीर में। यदि वह इतने हजार साल बाद फिर उठ खडा हो इसी शरीर में, उसी समय के साथ तो? सोचकर मैं थरथरा उठा।
११ अगस्त, २०१९
समूचे वातावरण में एक ठंडी उदासी। मुझे औचक सुबह उठते ही वे मित्र याद आए जो इस दुनिया से एक एककर चले गए। वे क्यों आए थे और क्या-क्या करके चले गये। और मैं? क्या कुछ कर पाया? कब और कैसे जाना होगा? आज ही का दिन था। लवलीन भी चली गई। रघुनंदन के बाद एक ऐसा संताप जिसकी छाया से घिरा मन में अवसाद की परत। बचपन के गहरे दोस्त भँवर का अस्पताल में ऑपरेशन की दहशत से मर जाना। रामकरण रैगर के साथ के दिन, हालांकि सुखद स्मृतियाँ नहीं हैं पर मन में एक खरोंच है उसके असमय जाने की। वे कौन लोग होते होंगे जिनका अपना बहुत अपना औचक चला जाता है यह दुनिया छोडकर। वे कैसे तो जीते होंगे शेष जीवन, एक पीडा के साथ जो उनके समूचे जीवन में फैल जाती है।
६ जनवरी, २०२०
रिटायर हुए पाँच वर्ष हो गए। अभी तक मैं कहीं का नहीं हो पाया। न जयपुर न जोधपुर न गाँव। किताबों की गठरियाँ कुछ जयपुर में पडी हैं जिन्हें खोलने लगता हूँ कि जोधपुर आ जाता हूँ। थोडे दिन बाद फिर जयपुर। मुझ से ज्यादा मेरे अपने लोगों को चिंता रहती है कि कहाँ रहूँगा? दोनों जगह क्यों नहीं? और कहीं भी क्यों? जबाब देते थक जाता हूँ। और फिर अपनी वही कुफा। जिसके लिए माधव कहता था कि सर आपका ओरा यही है। कहीं भी क्यों, यहीं क्यों नहीं। मैं चाहते हुए भी कह नहीं पाता कि असल में जगह नहीं यह मेरे ही भीतर पता नहीं कौनसी-कौनसी बेचैनी है जो मुझे ज्यादा दिन एक जगह टिकने नहीं देती। इसी ठहराव के लिए मैं सोलह वर्ष की उम्र से भटक रहा हूँ।
८ जनवरी, २०२०
चौतरफ सिर्फ सन्नाटा। कई दिन हो गये घर से बाहर निकले। एक अकेला। ऊपर एकदम सफ्फाक नीला आसमान। मैं जानता हूँ इन दीवारों के बीच और कुछ देखने की मेरी इच्छा की पूर्ति संभव नहीं। इसलिए नीचे आकाश में ही रोज कुछ बदलाव ढूँढने की कोशिश करता हूँ। सब दिशाएँ एक-सी पर इस विस्तृत नीले आसमान में कुछ ऐसा है जो मन के भीतर गोते लगाते रहने की आं.... की ऐसी कुंजी देता है कि आप भी वैसे ही हो जाते है। रिरम, अनन्त विस्तार में डूबते, उतरते। किसी भी लालसा से परे। अब तक की कोई अटक, कोई फांस यहाँ आकर विलीन हो जाती है। इन दिनों मैं कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ।
१३ अप्रेल, २०२०
चूल्हे की शक्ल में चार पाँच ईंटें। उनके बीच बिखरी राख। दो-चार सूखी लकडियाँ। कुछ फटे कपडे लत्ते जो एक दरख्त पर टंगे हुए थे। इसी पर उनकी छोटी सी गृहस्थी टंगी रहती थी। जब तक वे शाम को काम से नहीं लौट आते थे। घूँघट से झाँकती आँखे। छोटे बच्चों की किलकारियाँ। चार-पाँच पुरुष। उनका यहाँ पर यही घर था..... के पास फुटपाथ पर।
उन अजनबी लोगों की जिन्दगी के बारे में सोचते हुए बराबर जीवन के बारे में सोच रहा हूँ। जहाँ से आए थे वे, सिर्फ रोटी के लिए। इतना सा ही तो चाहिए होगा। यदि यहाँ के हैं वहीं मिल जाती, तो यहाँ आते ही क्यों? अब ? कहाँ होंगे? क्या घर पहुँच गए होंगे या रास्ते में। रह रहकर उनकी आँखे जो अभी भी मेरे भीतर टंगी हुई है।
एक बुढिया जिसका सडक के बीच डिवाइडर ही आसरा था। उसी के साथ एक बच्ची जिसका हाथ फैला रहता था कुछ माँगते हुए। उसकी आँखों की जगह हथेलियाँ मेरे सामने है। अपने घर लौटते लोगों के बीच होती हुए एक अधेड स्त्री। पागल सा एक लडका जो बदहवास तुरन्त पहुँच जाना चाहता था अपने घर। पता नहीं कहाँ से आया था, थोडी दूर चलता और हाँफ जाता।
इस तपती दुपहर वे रह रहकर मेरे जेहन में डूब उतरा रहे है। मैं खुद बीच-बीच में हताश हो उठता हूँ। उनको लिखना चाहता हूँ, पर जब उनकी जिंदगियाँ मेरे भीतर खुलती हैं, तो डर जाता हूँ।
१९ अप्रेल, २०२०
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सम्पर्क - 72/5 शक्ति कॉलोनी,
रातानाडा, जोधपुर
मो. ९४१४१३२३०१