सावित्री दीदी की याद आती है, आती रहेगी
डॉ. पद्मजा शर्मा
वह एक खूबसूरत सुहाती, भीगी- भीगी-सी शाम थी। मिट्टी, सडक, गलियाँ, रास्ते,घर, दूब सब में खुशनुमा नमी थी। पेड, पौधे धुले, खिले- खिले खडे थे,तब जब मैं डॉ सावित्री डागा के घर पहुँची। मैं प्यार से उन्हें दीदी कहा करती थी। अंतर प्रांतीय कुमार परिषद, जोधपुर उनकी कविता की किताब मिटकर बनूँ हजार का विमोचन कार्यक्रम करवा रही थी। यह उनकी चौबीसवीं पच्चीसवीं किताब रही होगी।
उसी के सिलसिले में मैं उनसे मिलने गयी थी। देर तक मैं दीदी की बातें सुनती रही, वे अपने मन को खोलती रहीं। असल में मुझे लगता है कि बुजुर्ग आदमी की बातें इत्मीनान से जरूर सुननी चाहिए क्योंकि उनकी बातें सुनने के लिए किसी के पास समय नहीं होता।जबकि बताने को उनके पास बहुत कुछ होता है।
वे प्रश्न करती रहीं- कार्यक्रम कौनसे हॉल में करोगी? कौनसे हॉल में गर्मी कम रहेगी? क्या अतिथियों के बैठने की जगह पंखे की सुविधा है ?टेबल फैन है या सीलिंग फैन है? मैं गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती। आजकल ऑपरेशन के बाद तबियत ठीक नहीं रहती। पहले भी कहाँ ठीक रहती थी। सीढियाँ नहीं चढ सकती। पर चढना पडता है। क्या करें जीवन काट रहे हैं। अब समय नहीं है। मैंने कहा दीदी आफ पास खूब समय है। आप तो मुझे यह बताइए कि आपका सपना क्या है अब? अब आप क्या कहना चाहती हैं हमें या अपने लोगों से? कुछ देर की चुप्पी के बाद बोलीं-चाहती हूँ सब काम सलटा जाऊँ। लिखा सारा छप जाए, तो चैन आ जाए। अभी भी कम से कम सात आठ किताबों का मैटर रखा है। स्वास्थ्य साथ नहीं देता- कभी मैं भी तुम्हारी तरह बहुत भागती थी। ऊर्जावान थी. बहुत छपती थी- बहुत भागी। बहुत लिखा पर अब टाँगों ने ही नहीं, तन ने ही नहीं, मन ने भी साथ देना बंद कर दिया है। भूल जाती हूँ याद रखने की चीजों को और भूलने की बातें रह रहकर याद आती हैं। लेखन का शुरूआती दौर, लेखन, प्रकाशन, मंच, इनाम, प्रशंसा, पढाई, संपादन, कभी महादेवी को पत्र, कभी पंत को पत्र, कभी इनसे भूमिका लिखवा रही हूँ, कभी इनसे मिलने जा रही हूँ। गोष्ठियाँ, कार्यक्रम काम ही काम। इनके नाम पर मदन डागा भवन बनवाया। पुस्तकालय- वाचनालय खुलवाया। पर विश्वास करो आज एक भी व्यक्ति नहीं मिलता,जो इसे समय से खोल -बंद कर सके-कोई साहित्य प्रेमी है ही नहीं। लगता है लोगों का साहित्य की ओर झुकाव कम होता जा रहा है. बाजार ने सब लील लिया। साहित्य के लिए जगह ही नहीं छोडी। शब्द पढने में रूचि, न सुनने में। शोर, शोर, शोर। चारों तरफ शोर। जाने शोर से कब मुक्ति मिलेगी।
मुझमें इतनी शक्ति है नहीं है कि साहित्य भवन में जाऊँ। ऊपर आना जाना, सीढियों से चढना -उतरना मुश्किल है। फिर भी जब -तब आती जाती हूँ। रेलिंग पकड -पकडकर। नाम, हँसी, खुशी, प्रेम, विवाह, प्रेम ही प्रेम, लेखन ही लेखन, बस लगता था जिंदगी यूँ ही इसी रफ्तार से चलती चली जाएगी। आगे बढती चली जाएगी। न बुढापा आएगा, न जवानी जाएगी। जोश से भरपूर होगा,यह जीवन। पर तवे पर गिरी पानी की बूँद की तरह वह वक्त खत्म हो गया कभी का, पता ही नहीं चला। लगा जैसे कोई सपना था, टूट गया। कोई ख्वाब था, अधूरा रह गया। अब तो जीवन किसी की यादों के सहारे कट रहा है। बोझ लग रहा है, पर ढोना तो पडेगा, जब तक साँस है।
मैंने धीरे से कहा -दीदी,आफ लेखन पर महादेवी के लेखन का प्रभाव है। वे बोलीं -हाँ, मेरे लेखन पर महादेवी के लेखन का प्रभाव है। पर धीरे- धीरे मैं उस छायावादी प्रभाव से मुक्त होती चली गयी। आदमी समाज में रहते हुए सदा सिर्फ अपने बारे में ही,अपने सुख दुःख के बारे में ही नहीं सोच सकता। नहीं लिख सकता।अपने पडौसी, अपने देश,वहाँ की राजनीति, वहाँ का समाज, वहाँ का वातावरण,सब पर नजर पडती है, सबसे प्रभावित होता है. उनसे दूर ज्यादा समय तक नहीं रह सकता। मैं भी नहीं रही। आज तो आप मेरे साहित्य,कविता को जनवाद की श्रेणी में डाल सकते हैं। देखिए हर कविता में मेरी वैयक्तिक बातें कहाँ हैं,सीधे -सीधे। पर अगर आप यह सोचते हैं कि उनमें मैं हूँ ही नहीं तो ठीक नहीं रहेगा।मेरा अपना संघर्ष, मेरे अपने ख्वाब कहाँ ले जाऊँगी। मैं उन्हें किसी न किसी रूप में शब्दों में ही पिरोऊँगी। मन की बात, आदमी किससे करे। कहाँ करे। किसी के पास समय ही नहीं है।बीमारियों ने डेरा डाल लिया है शरीर में. हो सकता है यह कार्यक्रम जीवन का अंतिम कार्यक्रम हो।आखिर कितना जिएगा आदमी। कितनी पीडा झेलेगा आदमी।इस बिस्तर पर पडी रहती हूँ। पडी पडी कुछ पढ लेती हूँ। बैठकर यहीं कुछ लिख लेती हूँ. संभावना का कार्यक्रम होता है तो यहीं से सब लोगों से फोन पर बात कर लेती हूँ। फोन करती हूँ, तब पता चलता है कितने आदमी बीमार हैं. कितने चले गए. कितने दुखी हैं। कितने आएँगे। कितने नहीं आएँगे। कितने उदास हैं। सबकी दुनिया में कुछ न कुछ चलता ही रहती है. देखो अशोक कैसे चला गया, छोटी-सी उम्र में ही। साथ के लोग एक एक कर जा रहे हैं।
पूरे दिन क्या सोचती हैं और क्या करती रहती हैं? पूछने पर कहने लगीं-जिंदगी रीत रही है। पर मन है कि दुनिया से मोह छूटता ही नहीं। यह कर लूँ। यह पढ लूँ। इसको बुला लूँ। उससे बात कर लूँ, यह कार्यक्रम करवा लूँ। कुछ-कुछ इच्छाएँ, सपने अब भी पलते रहते हैं। जीते जी आदमी की मुक्ति नहीं है। जीवन अपने आप में एक जेल है, पर यह जेल है कितनी मायावी, कितनी मोहक, इसकी मोहनी के आगे सब छोटा हो जाता है.
मैं योगा करती हूँ। दवा लेती हूँ। खाना बनाती हूँ। सोती -जागती हूँ खयाल रखती हूँ पर कभी कभी मन उचाट हो जाता है। बूते से ज्यादा काम कर लेती हूँ, तब तबियत बिगड जाती है। बच्चे डाँटते हैं। सुन लेती हूँ। क्या करूँ, सब काम करने पडते हैं। जब तक हूँ तब तक तो करती रहूंगी। मेरे बाद का मैं क्या जानूँ।
दीदी ने अपनी किताबों की अलमारी पर नजर डालते हुए कहा -मैं जानती हूँ बहुत दूर तक साहित्य में नहीं जा सकी। पर जहाँ भी हूँ मैं आज खुश हूँ। कम से कम मैंने महिलाओं में साहित्य संस्कार तो डाला। संभावना पहली साहित्यिक संस्था है महिलाओं की। यह अपने आप में सुकून देने वाली बात है। कोई कहता है- मैं मीरां हूँ। कोई कहता है मैं महादेवी हूँ। पर मैं क्या हूँ वक्त ही बताएगा। मेरा लेखन ही तय करेगा मेरे होने न होने को।
बाहर अन्धेरा घना हो गया था दीदी ने रोशनी की। हम नागचम्पा के पास खडे थे। (दीदी की सुपुत्री डॉ मनीषा डागा ने बताया कि यह नागचंपा मम्मी के दिल के बहुत करीब थी। बडी बहन डॉ कविता डागा का तो पता नहीं मगर मेरे जन्म से भी पहले की है।) उसके बहुत सारे फूल नीचे धरती पर फैल गए थे। मैंने अपने पाँव तले आए एक फूल को उठा लिया। दीदी कहने लगीं -तुम्हारी ही तरह मैं भी फूलों को पाँवों में नहीं आने देती थी. पर अब कहाँ हिम्मत,फूलों के लिए झुकने की, खुद के लिए ही मुश्किल होती है। और माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा गुनगुनाने लगीं- मुझे तोड लेना वनमाली/उस पथ पर देना तुम फेंक
मुझे नरेश मेहता याद आए, वे कहते हैं जब भी कोई फूल /पैरों के नीचे आ जाता है /लगता है कोई मन्त्र दब गया है /चींटी के आहत होते ही संहिता की हत्या -सी लगता है।
सावित्री दीदी फिर कहने लगीं -तुम्हें देखकर मन खुश हो जाता है पद्मजा। तुम जयशंकर प्रसाद की श्रद्धा हो। जब -जब तुम्हें देखती हूँ तब -तब वही याद आती है। तब मैं हँसकर कहती-दीदी, कभी इतनी खूबसूरत बातें लिखकर दीजिएगा। मैं अपनी किसी किताब पर छपवाऊँगी उन्हें। तो कहने लगीं जरूर लिखूँगी। तुम्हें मैं जरूर लिखूँगी। फिर बोली तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर हैं, बोलती हैं। मैंने कहा बहुत रोती हैं ये। तो तपाक से बोली- तभी तो तुम उजली-उजली रहती हो। दुःख आदमी को सरल-सुन्दर बनाता है। अधिक मानवीय बनाता है। अगर ये आँसू तुम्हें सुन्दर बनाते हैं,अच्छा बनाते हैं तो क्या बुरे हैं। हर संवेदनशील आदमी की आँखें सदा भरी ही रहती हैं। वह किसी का दुःख जो नहीं देख सकता। इसलिए वह दुःख पाता है। दुःख आदमी को और अच्छा आदमी बनाता है।मुझे अज्ञेय की ये काव्य पंक्तियाँ याद आईं,भले ये इस मानसिकता के साथ पूरी तरह से मेल न खा रही हों -
दुःख/ सबको माँजता है/ और -/ चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना/ वह न जाने,किन्तु/ जिनको माँजता है/ उन्हें यह सीख देता है कि/ सबको मुक्त रखें।
माना कि लेखिका डॉ. सावित्री डागा को बारिश और फूलों से खासा लगाव था, मिटकर बनूँ हजार पुस्तक में बहुत सारे दोहे प्रकृति को लेकर ही हैं, पर देश की मौजूदा हालात से भी आप बाखबर थीं। रुमानियत से बाहर निकलकर यहाँ आप आमजन के दुःख दर्द को साझा करती हैं. मिटकर बनूँ हजार के दोहों के विषय में आप स्वयं कहती हैं कि सामाजिक विषमताओं का संत्रास अधिकांश दोहों की मूल संवेदना है। आफ अनुभव संसार से उपजी ये सूक्तियाँ इसका प्रमाण हैं - देश आज जंगल बना,थूहर ही मुस्काय /बच गए चंद गुलाब जो,बिन पानी मुरझाय / या कि जीवन दे इक बूँद सा,मिटकर बनूँ हजार /दिखूं,छिपूँ हर हाल में,मिले जगत का प्यार। या सारी चाहें छोडकर मांगूं इक वरदान/ दवा बनूँ उनके लिए जो पीडित इंसान।
एक बार संभावना के अंतर्महाविद्यालय युवा कविता पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में डॉ. सावित्री डागा ने कहा था साहित्य महिलाओं के लिए तपस्या है .और यह तपस्या उन्हें करते रहना चाहिए। और दीदी पिछले लगभग छह दशक से यह तपस्या कर रही थीं। आपकी अब तक दो दर्जन किताबें प्रकाश में आ चुकी हैं। लगभग एक दर्जन किताबों का आपने सम्पादन किया है। आपकी कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियाँ हैं - अमिट निशानी,सन्दर्भों से कटे हुए,क्या फर्क पडता है,अपना अपना मोक्ष, आधे संसार की आत्मकथा,बूँद बूँद में सागर,समय में हम,अग्नि कुसुम।एक कहानी संग्रह है- सपनों का पिंजरा। निबंध संग्रह है -सार्थकता की तलाश-1977 में आपने आंध्र के तूफान पीडितों के सहायतार्थ किताब संपादित की।
59 में पहली पुस्तक अमिट निशानी छपी, जिसकी भूमिका पंतजी ने लिखी। इस गीत और मुक्तक की पुस्तक पर छायावादी प्रभाव साफ दिखता है। सावित्रीजी ने इसमें महादेवी जी की दीपशिखा से प्रेरित प्रभावित होकर तीन चित्र भी कविताओं के भावों के अनुरूप दिए हैं। इस पुस्तक पर सम्मतियाँ हैं निराला की, दिनकर की, रामकुमार वर्मा की, सुमित्रा कुमारी सिन्हा की।
संभावना संस्था की संस्थापक,जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की अध्यक्ष रह चुकी डॉ. सावित्री डागा को राजस्थान तथा राजस्थान के बाहर की अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों के साथ ही 1977 में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ने कविता के सर्वोच्च पुरस्कार, हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने साहित्य भारती की उपाधि से सम्मानित किया है। आपको जनार्दनराय नागर सम्मान से भी अलंकृत किया गया है।आपने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पत्रवाचन व काव्य पाठ किए। आपकी कविताओं पर शोध कार्य भी हो चुका है। आपकी रचनाएँ देश-विदेश की लगभग साठ पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। आपने नेहरू पार्क में डॉ. मदन डागा साहित्य भवन का निर्माण करवाया पुस्तकालय- वाचनालय भी खुलवाया।
आप कई तरह की बीमारियों से घिरी हुई होने पर भी लेखन से दूर नहीं जा पाती थीं। बिस्तर पर किताबें, कलम और पन्ने बिखरे ही रहते थे। अपने अच्छे-बुरे, अँधेरे-उजले समय को कलम और कविता के साथ ही बिताया। और 80 की उम्र में आप अपने सारे सपनों, चिंताओं सृजन के साथ हमसे दूर चली गई सदा-सदा के लिए। आप भावी पीढी के लिए सतरंगे शॉल-सी सुन्दर कविता रचना चाहती थीं। और बुनना चाहती थीं हजार -हजार सपने। ऐसी चाहत रखने वाली, सपना देखने वाली कवयित्री की बहुत याद आती है।
उस दिन मैं उनकी आँखों से ओझल न हो गयी, तब तक वे मुझे अपने घर के दरवाजे के पास खडी देखती रहीं। नागचम्पा के पास जैसे दूसरी नागचम्पा खडी हो। क्या पता था कि किसी दिन यह नागचम्पा नहीं रहेगी। असल नागचम्पा अब भी दरवाजे पर फूल बिखराती है, लेकिन उनको प्यार से सहलाने वाली, निहारने वाली अस्ल की भी अस्ल नागचम्पा अब नहीं रही। जोधपुर खाली -खाली लगता है। कोई जब यह कहता है कि -अरे इतनी गर्मी में आई हो कुछ ठंडा पीकर जाना पडेगा- तब सावित्री दीदी की याद आती है, आती रहेगी।
***
सम्पर्क - 15-बी,पंचवटी कॉलोनी,
सेनापति भवन के पास, जोधपुर
(राजस्थान) 342011
ई मेल - padmjasharma@gmail.com
मो. -9414721619
उसी के सिलसिले में मैं उनसे मिलने गयी थी। देर तक मैं दीदी की बातें सुनती रही, वे अपने मन को खोलती रहीं। असल में मुझे लगता है कि बुजुर्ग आदमी की बातें इत्मीनान से जरूर सुननी चाहिए क्योंकि उनकी बातें सुनने के लिए किसी के पास समय नहीं होता।जबकि बताने को उनके पास बहुत कुछ होता है।
वे प्रश्न करती रहीं- कार्यक्रम कौनसे हॉल में करोगी? कौनसे हॉल में गर्मी कम रहेगी? क्या अतिथियों के बैठने की जगह पंखे की सुविधा है ?टेबल फैन है या सीलिंग फैन है? मैं गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती। आजकल ऑपरेशन के बाद तबियत ठीक नहीं रहती। पहले भी कहाँ ठीक रहती थी। सीढियाँ नहीं चढ सकती। पर चढना पडता है। क्या करें जीवन काट रहे हैं। अब समय नहीं है। मैंने कहा दीदी आफ पास खूब समय है। आप तो मुझे यह बताइए कि आपका सपना क्या है अब? अब आप क्या कहना चाहती हैं हमें या अपने लोगों से? कुछ देर की चुप्पी के बाद बोलीं-चाहती हूँ सब काम सलटा जाऊँ। लिखा सारा छप जाए, तो चैन आ जाए। अभी भी कम से कम सात आठ किताबों का मैटर रखा है। स्वास्थ्य साथ नहीं देता- कभी मैं भी तुम्हारी तरह बहुत भागती थी। ऊर्जावान थी. बहुत छपती थी- बहुत भागी। बहुत लिखा पर अब टाँगों ने ही नहीं, तन ने ही नहीं, मन ने भी साथ देना बंद कर दिया है। भूल जाती हूँ याद रखने की चीजों को और भूलने की बातें रह रहकर याद आती हैं। लेखन का शुरूआती दौर, लेखन, प्रकाशन, मंच, इनाम, प्रशंसा, पढाई, संपादन, कभी महादेवी को पत्र, कभी पंत को पत्र, कभी इनसे भूमिका लिखवा रही हूँ, कभी इनसे मिलने जा रही हूँ। गोष्ठियाँ, कार्यक्रम काम ही काम। इनके नाम पर मदन डागा भवन बनवाया। पुस्तकालय- वाचनालय खुलवाया। पर विश्वास करो आज एक भी व्यक्ति नहीं मिलता,जो इसे समय से खोल -बंद कर सके-कोई साहित्य प्रेमी है ही नहीं। लगता है लोगों का साहित्य की ओर झुकाव कम होता जा रहा है. बाजार ने सब लील लिया। साहित्य के लिए जगह ही नहीं छोडी। शब्द पढने में रूचि, न सुनने में। शोर, शोर, शोर। चारों तरफ शोर। जाने शोर से कब मुक्ति मिलेगी।
मुझमें इतनी शक्ति है नहीं है कि साहित्य भवन में जाऊँ। ऊपर आना जाना, सीढियों से चढना -उतरना मुश्किल है। फिर भी जब -तब आती जाती हूँ। रेलिंग पकड -पकडकर। नाम, हँसी, खुशी, प्रेम, विवाह, प्रेम ही प्रेम, लेखन ही लेखन, बस लगता था जिंदगी यूँ ही इसी रफ्तार से चलती चली जाएगी। आगे बढती चली जाएगी। न बुढापा आएगा, न जवानी जाएगी। जोश से भरपूर होगा,यह जीवन। पर तवे पर गिरी पानी की बूँद की तरह वह वक्त खत्म हो गया कभी का, पता ही नहीं चला। लगा जैसे कोई सपना था, टूट गया। कोई ख्वाब था, अधूरा रह गया। अब तो जीवन किसी की यादों के सहारे कट रहा है। बोझ लग रहा है, पर ढोना तो पडेगा, जब तक साँस है।
मैंने धीरे से कहा -दीदी,आफ लेखन पर महादेवी के लेखन का प्रभाव है। वे बोलीं -हाँ, मेरे लेखन पर महादेवी के लेखन का प्रभाव है। पर धीरे- धीरे मैं उस छायावादी प्रभाव से मुक्त होती चली गयी। आदमी समाज में रहते हुए सदा सिर्फ अपने बारे में ही,अपने सुख दुःख के बारे में ही नहीं सोच सकता। नहीं लिख सकता।अपने पडौसी, अपने देश,वहाँ की राजनीति, वहाँ का समाज, वहाँ का वातावरण,सब पर नजर पडती है, सबसे प्रभावित होता है. उनसे दूर ज्यादा समय तक नहीं रह सकता। मैं भी नहीं रही। आज तो आप मेरे साहित्य,कविता को जनवाद की श्रेणी में डाल सकते हैं। देखिए हर कविता में मेरी वैयक्तिक बातें कहाँ हैं,सीधे -सीधे। पर अगर आप यह सोचते हैं कि उनमें मैं हूँ ही नहीं तो ठीक नहीं रहेगा।मेरा अपना संघर्ष, मेरे अपने ख्वाब कहाँ ले जाऊँगी। मैं उन्हें किसी न किसी रूप में शब्दों में ही पिरोऊँगी। मन की बात, आदमी किससे करे। कहाँ करे। किसी के पास समय ही नहीं है।बीमारियों ने डेरा डाल लिया है शरीर में. हो सकता है यह कार्यक्रम जीवन का अंतिम कार्यक्रम हो।आखिर कितना जिएगा आदमी। कितनी पीडा झेलेगा आदमी।इस बिस्तर पर पडी रहती हूँ। पडी पडी कुछ पढ लेती हूँ। बैठकर यहीं कुछ लिख लेती हूँ. संभावना का कार्यक्रम होता है तो यहीं से सब लोगों से फोन पर बात कर लेती हूँ। फोन करती हूँ, तब पता चलता है कितने आदमी बीमार हैं. कितने चले गए. कितने दुखी हैं। कितने आएँगे। कितने नहीं आएँगे। कितने उदास हैं। सबकी दुनिया में कुछ न कुछ चलता ही रहती है. देखो अशोक कैसे चला गया, छोटी-सी उम्र में ही। साथ के लोग एक एक कर जा रहे हैं।
पूरे दिन क्या सोचती हैं और क्या करती रहती हैं? पूछने पर कहने लगीं-जिंदगी रीत रही है। पर मन है कि दुनिया से मोह छूटता ही नहीं। यह कर लूँ। यह पढ लूँ। इसको बुला लूँ। उससे बात कर लूँ, यह कार्यक्रम करवा लूँ। कुछ-कुछ इच्छाएँ, सपने अब भी पलते रहते हैं। जीते जी आदमी की मुक्ति नहीं है। जीवन अपने आप में एक जेल है, पर यह जेल है कितनी मायावी, कितनी मोहक, इसकी मोहनी के आगे सब छोटा हो जाता है.
मैं योगा करती हूँ। दवा लेती हूँ। खाना बनाती हूँ। सोती -जागती हूँ खयाल रखती हूँ पर कभी कभी मन उचाट हो जाता है। बूते से ज्यादा काम कर लेती हूँ, तब तबियत बिगड जाती है। बच्चे डाँटते हैं। सुन लेती हूँ। क्या करूँ, सब काम करने पडते हैं। जब तक हूँ तब तक तो करती रहूंगी। मेरे बाद का मैं क्या जानूँ।
दीदी ने अपनी किताबों की अलमारी पर नजर डालते हुए कहा -मैं जानती हूँ बहुत दूर तक साहित्य में नहीं जा सकी। पर जहाँ भी हूँ मैं आज खुश हूँ। कम से कम मैंने महिलाओं में साहित्य संस्कार तो डाला। संभावना पहली साहित्यिक संस्था है महिलाओं की। यह अपने आप में सुकून देने वाली बात है। कोई कहता है- मैं मीरां हूँ। कोई कहता है मैं महादेवी हूँ। पर मैं क्या हूँ वक्त ही बताएगा। मेरा लेखन ही तय करेगा मेरे होने न होने को।
बाहर अन्धेरा घना हो गया था दीदी ने रोशनी की। हम नागचम्पा के पास खडे थे। (दीदी की सुपुत्री डॉ मनीषा डागा ने बताया कि यह नागचंपा मम्मी के दिल के बहुत करीब थी। बडी बहन डॉ कविता डागा का तो पता नहीं मगर मेरे जन्म से भी पहले की है।) उसके बहुत सारे फूल नीचे धरती पर फैल गए थे। मैंने अपने पाँव तले आए एक फूल को उठा लिया। दीदी कहने लगीं -तुम्हारी ही तरह मैं भी फूलों को पाँवों में नहीं आने देती थी. पर अब कहाँ हिम्मत,फूलों के लिए झुकने की, खुद के लिए ही मुश्किल होती है। और माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा गुनगुनाने लगीं- मुझे तोड लेना वनमाली/उस पथ पर देना तुम फेंक
मुझे नरेश मेहता याद आए, वे कहते हैं जब भी कोई फूल /पैरों के नीचे आ जाता है /लगता है कोई मन्त्र दब गया है /चींटी के आहत होते ही संहिता की हत्या -सी लगता है।
सावित्री दीदी फिर कहने लगीं -तुम्हें देखकर मन खुश हो जाता है पद्मजा। तुम जयशंकर प्रसाद की श्रद्धा हो। जब -जब तुम्हें देखती हूँ तब -तब वही याद आती है। तब मैं हँसकर कहती-दीदी, कभी इतनी खूबसूरत बातें लिखकर दीजिएगा। मैं अपनी किसी किताब पर छपवाऊँगी उन्हें। तो कहने लगीं जरूर लिखूँगी। तुम्हें मैं जरूर लिखूँगी। फिर बोली तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर हैं, बोलती हैं। मैंने कहा बहुत रोती हैं ये। तो तपाक से बोली- तभी तो तुम उजली-उजली रहती हो। दुःख आदमी को सरल-सुन्दर बनाता है। अधिक मानवीय बनाता है। अगर ये आँसू तुम्हें सुन्दर बनाते हैं,अच्छा बनाते हैं तो क्या बुरे हैं। हर संवेदनशील आदमी की आँखें सदा भरी ही रहती हैं। वह किसी का दुःख जो नहीं देख सकता। इसलिए वह दुःख पाता है। दुःख आदमी को और अच्छा आदमी बनाता है।मुझे अज्ञेय की ये काव्य पंक्तियाँ याद आईं,भले ये इस मानसिकता के साथ पूरी तरह से मेल न खा रही हों -
दुःख/ सबको माँजता है/ और -/ चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना/ वह न जाने,किन्तु/ जिनको माँजता है/ उन्हें यह सीख देता है कि/ सबको मुक्त रखें।
माना कि लेखिका डॉ. सावित्री डागा को बारिश और फूलों से खासा लगाव था, मिटकर बनूँ हजार पुस्तक में बहुत सारे दोहे प्रकृति को लेकर ही हैं, पर देश की मौजूदा हालात से भी आप बाखबर थीं। रुमानियत से बाहर निकलकर यहाँ आप आमजन के दुःख दर्द को साझा करती हैं. मिटकर बनूँ हजार के दोहों के विषय में आप स्वयं कहती हैं कि सामाजिक विषमताओं का संत्रास अधिकांश दोहों की मूल संवेदना है। आफ अनुभव संसार से उपजी ये सूक्तियाँ इसका प्रमाण हैं - देश आज जंगल बना,थूहर ही मुस्काय /बच गए चंद गुलाब जो,बिन पानी मुरझाय / या कि जीवन दे इक बूँद सा,मिटकर बनूँ हजार /दिखूं,छिपूँ हर हाल में,मिले जगत का प्यार। या सारी चाहें छोडकर मांगूं इक वरदान/ दवा बनूँ उनके लिए जो पीडित इंसान।
एक बार संभावना के अंतर्महाविद्यालय युवा कविता पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में डॉ. सावित्री डागा ने कहा था साहित्य महिलाओं के लिए तपस्या है .और यह तपस्या उन्हें करते रहना चाहिए। और दीदी पिछले लगभग छह दशक से यह तपस्या कर रही थीं। आपकी अब तक दो दर्जन किताबें प्रकाश में आ चुकी हैं। लगभग एक दर्जन किताबों का आपने सम्पादन किया है। आपकी कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियाँ हैं - अमिट निशानी,सन्दर्भों से कटे हुए,क्या फर्क पडता है,अपना अपना मोक्ष, आधे संसार की आत्मकथा,बूँद बूँद में सागर,समय में हम,अग्नि कुसुम।एक कहानी संग्रह है- सपनों का पिंजरा। निबंध संग्रह है -सार्थकता की तलाश-1977 में आपने आंध्र के तूफान पीडितों के सहायतार्थ किताब संपादित की।
59 में पहली पुस्तक अमिट निशानी छपी, जिसकी भूमिका पंतजी ने लिखी। इस गीत और मुक्तक की पुस्तक पर छायावादी प्रभाव साफ दिखता है। सावित्रीजी ने इसमें महादेवी जी की दीपशिखा से प्रेरित प्रभावित होकर तीन चित्र भी कविताओं के भावों के अनुरूप दिए हैं। इस पुस्तक पर सम्मतियाँ हैं निराला की, दिनकर की, रामकुमार वर्मा की, सुमित्रा कुमारी सिन्हा की।
संभावना संस्था की संस्थापक,जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की अध्यक्ष रह चुकी डॉ. सावित्री डागा को राजस्थान तथा राजस्थान के बाहर की अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों के साथ ही 1977 में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ने कविता के सर्वोच्च पुरस्कार, हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने साहित्य भारती की उपाधि से सम्मानित किया है। आपको जनार्दनराय नागर सम्मान से भी अलंकृत किया गया है।आपने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पत्रवाचन व काव्य पाठ किए। आपकी कविताओं पर शोध कार्य भी हो चुका है। आपकी रचनाएँ देश-विदेश की लगभग साठ पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। आपने नेहरू पार्क में डॉ. मदन डागा साहित्य भवन का निर्माण करवाया पुस्तकालय- वाचनालय भी खुलवाया।
आप कई तरह की बीमारियों से घिरी हुई होने पर भी लेखन से दूर नहीं जा पाती थीं। बिस्तर पर किताबें, कलम और पन्ने बिखरे ही रहते थे। अपने अच्छे-बुरे, अँधेरे-उजले समय को कलम और कविता के साथ ही बिताया। और 80 की उम्र में आप अपने सारे सपनों, चिंताओं सृजन के साथ हमसे दूर चली गई सदा-सदा के लिए। आप भावी पीढी के लिए सतरंगे शॉल-सी सुन्दर कविता रचना चाहती थीं। और बुनना चाहती थीं हजार -हजार सपने। ऐसी चाहत रखने वाली, सपना देखने वाली कवयित्री की बहुत याद आती है।
उस दिन मैं उनकी आँखों से ओझल न हो गयी, तब तक वे मुझे अपने घर के दरवाजे के पास खडी देखती रहीं। नागचम्पा के पास जैसे दूसरी नागचम्पा खडी हो। क्या पता था कि किसी दिन यह नागचम्पा नहीं रहेगी। असल नागचम्पा अब भी दरवाजे पर फूल बिखराती है, लेकिन उनको प्यार से सहलाने वाली, निहारने वाली अस्ल की भी अस्ल नागचम्पा अब नहीं रही। जोधपुर खाली -खाली लगता है। कोई जब यह कहता है कि -अरे इतनी गर्मी में आई हो कुछ ठंडा पीकर जाना पडेगा- तब सावित्री दीदी की याद आती है, आती रहेगी।
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सम्पर्क - 15-बी,पंचवटी कॉलोनी,
सेनापति भवन के पास, जोधपुर
(राजस्थान) 342011
ई मेल - padmjasharma@gmail.com
मो. -9414721619