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मधुमती : रचनात्मक उत्कर्ष के दो वर्ष

कृष्णबिहारी पाठक
(संदर्भ - अप्रैल 2019 से मार्च 2021 के अंक)
सिनेमा और रंगमंच के बीच जैसे संप्रेषण की तात्कालिक सजीवता का अंतर होता है वैसे ही पुस्तक और पत्रिका के बीच भी। पत्रिकाएँ पुस्तकों की अपेक्षा अधिक सजीव होतीं हैं। इनमें पाठक से निरंतर संवाद और तदनुसार रूप और वस्तु के परिशोधन की गुंजाइश बनी रहती है। संप्रेषण के इस अपेक्षाकृत अधिक सजीव माध्यम में संपादक, लेखक और पाठक तीनों को ही चिर-सजग और सतत-गतिशील बने रहना होता है ।
इस प्रकार पत्रिकाओं में उत्कर्ष और नैरंतर्य की चुनौती सदैव बनी रहती है। इसके साथ ही एक पत्रिका के सामने प्रभाव की, दबाव की, संकल्प की, समर्पण और सामर्थ्य की चुनौतियाँ होती हैं।इन चुनौतियों के बीच से ही चयन, सच्चाई, संतुलन, निष्पक्षता और स्पष्टता के दम पर किसी पत्रिका के स्तरीकरण, मानकीकरण, गुणवत्ता, और समुच्चता के सातत्य और उत्कर्ष के निर्वहन का दायित्व पत्रिका के संपादकीय समूह और प्रबंधन पर होता है। और इस दृष्टि से राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती रूप और वस्तु में, प्रस्तुति और संप्रेषण में, विषयों की पूर्णता और विविधता में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य और संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाली प्रथम पंक्ति की अखिल भारतीय चरित्र की साहित्यिक पत्रिका है।
कोरोना जैसी वैश्विक महाआपदा में जब बडे-बडे नाम और संस्थानों की पत्रिकाएँ या तो स्थगित कर दी गईं या बंद हो गईं ऐसे में हम मधुमती को उसी अभिनव ऊर्जा, अदम्य जिजीविषा और जीवट के साथ आपदा से मुस्कुराते हुए सामना करते पाते हैं। उस विकट काल में भी मधुमती अपने नियत समय पर उसी गुणवत्ता के साथ प्रस्तुत होती है यह बडी बात है।
मधुमती के पास विगत साठ वर्षों का गौरवपूर्ण इतिहास तो है ही, इसके साथ ही अद्यतन दो वर्षों का इतिहास विषयों की नवीनता, निकटता, समग्रता और प्रस्तुतीकरण की ताजगी के चलते अपना एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। इन दो वर्षों में संपादक ब्रजरतन जोशी ने अपनी संपादकीय दक्षता के चलते इसे अखिल भारतीय स्तर पर सर्वोत्कृष्ट गुणवत्ता और सार्वजनीन स्वीकार्यता के साथ कलम की स्वायत्तता की पत्रिका बनाने का पुण्य - श्रम किया है।
ज्ञान, गुण समृद्ध और विविधतापूर्ण विषयों का चयन, जागरूकता, कृतिकार के स्थान पर कृति को प्रतिष्ठित करने का ध्येय, मुख्य धारा के साथ साथ अनछुए परंतु महत्त्वपूर्ण विषय, विधा और व्यक्तित्वों पर भी केन्द्रण, पारदर्शिता, साहित्यकारों और पाठकों के विशिष्ट वर्ग के साथ साथ व्यापक वर्ग तक पहुँच, संयोजन पटुता, मानकता, समयबद्ध निर्बाध प्रकाशन,अतीत और भविष्यत के प्रति सावचेत समसामयिकता, डिजिटलाईजेशन, और प्रतिबद्धता आदि इसकी संपादकीय उपलब्धियाँ कही जा सकती हैं।
संपादक में प्रतिबद्धता, सुचिंतित और सुविज्ञ साहित्यिकों में लेखन की ललक और पाठकों में पढने की अधीर जिज्ञासा।... प्रतिबद्धता, ललक, और जिज्ञासा की इस त्रिवेणी को हम मधुमती में पूर्णता के साथ पाते हैं। इसलिए यह बहुत अप्रत्याशित नहीं कि सुधी लेखक इसका हिस्सा बनकर आनंदित होते हैं* तो वंचित होकर क्षुब्ध भी।
मुझे खेद है कि मैं मुकुंदजी पर नहीं लिख पाया। अंक(सितम्बर 2020 ) देखकर यह खेद बढ गया कि मेरा लेख इसमें छपता तो कितना अच्छा होता।... पत्रिका हो तो ऐसी हो जिसमें लिखना, छपना सार्थक लगे। मधुमती लगातार निखरती जा रही है। वह भी इस दुष्काल में। 1
एक अच्छी, सार्थक और सफल पत्रिका कैसी होती है? वह जिसमें लिखना और जिसे पढना सार्थक लगे।वह जिसे संदर्भ ग्रंथ के रूप में देखा जाए।वह जो अपने समय की सभी प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करती हो।वह जिसे पढकर नये नये पाठक और लेखक तैयार होते हो। मधुमती ऐसी ही पत्रिका है। विशेषतः मधुमती के इन दो वर्षों में इन सब विशेषताओं को हम उनके उत्कर्ष पर पाते हैं। इस अर्थ में यह आने वाले कल में भी गौरवपूर्ण साहित्यिक यात्रा की आशा बँधाती है।
मानक, विश्वसनीय और उपयोगितापूर्ण अध्ययन सामग्री के चलते यह विषय विशेषज्ञों, विद्वान पाठकों, अध्येताओं से लेकर साधारण पाठकों तक एक व्यापक वर्ग में व्याप्ति की ओर है। हिंदी भाषा और साहित्य के लिए यह शुभ संकेत है। नियमित अंकों से लेकर विशेषांकों तक प्रत्येक अंक सहेजने योग्य है। इस संदर्भ में सुधी विद्वान फारुख अफरीदी की सम्मति उल्लेखनीय है -
मन करता है कि मधुमती के अंकों को संदर्भ की दृष्टि से संजोकर रखा जाए।2
पत्रिका को संदर्भित करना और सहेजना उसकी गुणवत्ता, मानकता और मौलिकता के प्रति एक सहज प्रतिक्रिया है। मधुमती मौलिकता और गुणवत्ता का आग्रह एक साथ लेकर आगे बढ रही है। मौलिकता, गुणवत्ता, विश्वसनीयताऔर मानकता का यह चतुर्मुख प्रयाण अनुकरणीय है। विद्वान मनीषी जाबिर हुसैन इन विशेषांकों को पत्रिका के उज्ज्वल पक्ष से जोडते हुए कहते हैं-
पत्रिका की स्तरीयता, मानक और कलात्मक प्रस्तुति पहली नजर में ही हर पाठक को आकर्षित करती है। रचनाओं का वैविध्य, भाषा की साफ- सुथरी पहचान और सूक्ष्म संपादकीय दृष्टि इस पत्रिका की प्रमुख विशेषताएँ हैं।... यह पत्रिका अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं को भी राह दिखाती है। यह उसका सबसे उज्ज्वल पक्ष है। 3
पिछले दो वर्षों और तेईस अंकों में मधुमती एक नये ढब में हमारे सामने आती है। यह नया अवतार गुणात्मकता, रचनात्मकता और सकारात्मकता के प्रतिमानीकरण का महकता हुआ दस्तावेज है जिसका लेखक और पाठक जगत के बीच मुक्त हृदय से स्वागत हो रहा है।किसी भी पत्रिका के प्रति पाठक वर्ग में संग्रहणीयता का आग्रह, लेखकों में लेखन - प्रकाशन की साध उस पत्रिका के लिए विशिष्ट गौरव का क्षण होता है। साहित्य के सुधी अध्येता श्री गोपाल माथुर ने इस गौरवपूर्ण क्षण को आत्मीय स्पर्श के साथ सार्थक अभिव्यक्ति दी है। -
अपने अनुभव से कह सकता हूँ हिंदी प्रदेश में आज जिस तरह मधुमती पत्रिका पढी जा रही है, वैसा माहौल इसके साठ साल इतिहास में एक अरसे बाद दिखाई दिया है। वर्तमान संपादक ने आने वाले समय के लिए भी एक रोल मॉडल गढा है, जिस पर चलकर आने वाले संपादक भी अपनी यात्रा सुगमता से कर सकेंगे।4
संपादकीय शुचिता और दूरदृष्टि, नवीनता, निकटता, मौलिकता, परंपरा और प्रयोग का संतुलन, लेखकों और पाठकों से पारदर्शी संवाद, आलोचनाओं के प्रति स्वागत भाव, निरंतर परिष्कार की प्रवृत्ति आदि मधुमती संपादक की उल्लेखनीय विशेषताएँ भी हैं और उपलब्धि भी। पत्रिका की ओर से संपादक का लेखक और पाठकों से संवाद, लेखन में भावनात्मक स्पर्श और आत्मीयता के स्वर भरता है जिनकी श्रुतिमधुर गूँज - अनुगूँज प्रकाशित रचनाओं में स्पष्टतः सुनी जा सकती है। श्री गोपाल माथुर लिखते हैं। -
सबसे ज्यादा अच्छा यह जानकर लगता है कि संपादक लेखकों से सीधा संवाद करते हैं।.. उनकी सक्रियता इस हद तक है कि वे रचना के प्रकाशित होने से पहले तथा बाद में हर प्रगति की सूचना व्यक्तिगत रूप से रचनाकारों को देते हैं। 5
मधुमती सर्वांगपूर्ण गुणवत्ता और व्यापक स्वीकार्यता के साथ हम सब की पत्रिका है, हिन्दी की पत्रिका है, साहित्य और साहित्यकारों की पत्रिका है। प्रगल्भ संपादन और रचनात्मक उत्कर्ष के दो वर्षों ने इसकी मौलिक इबारत गढी है, प्रस्तुतीकरण की नूतन शोभा जडी है। इन दो वर्षों में प्रकाशित साहित्य का स्तंभवार विश्लेषण एक रोचक अनुभव सिद्ध हो सकता है। -
*1* संपादकीय-
मधुमती के संपादकीय रस्म अदायगी अथवा औपचारिकता के निर्वहन के लिए लिखे गए पुरोवाक नहीं है।बंधी - बँधाई लीक पर चलने वाले और रटी रटाई पद्धतियों से आग्रह रखने वाले पाठकों को, संभव है यहां समुचित पथ्य का अभाव मिले, परंतु नये- नये विषयों का ऊर्जस्वित प्रस्तुतीकरण, गंभीरता और रोचकता का आनुपातिक समन्वय और कला, साहित्य, संस्कृति की समन्वित दृष्टि ढूँढने वाले सुधी पाठकों को यहाँ समृद्ध सामग्री मिल सकती है। फरवरी अंक के संवाद निरंतर स्तंभ का यह अंश यहाँ उल्लेखनीय है-
सबसे ज्यादा... प्रीतिकर अनुभव.. हर अंक का संपादकीय रहा। आफ संपादकीय इस वक्त के हमारे सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक विवादों पर गहरी मार्मिक कथा के साथ चिंता और जागरूकता लिए हुए ठहरते - ठिठकें हैं। 6
यह संपादकीय प्रतिबद्धता, सजगता और समग्रता का समन्वित प्रभाव है जो सुधी आलोचकों, विचारकों और पाठकों की सतत प्रतिक्रियाओं से प्रतिबिंबित होता जाता है। संपादन कर्म और उससे उत्पन्न प्रभाव को लेकर लिखीं गई सम्मतियों में शुक्लजी द्वारा साहित्य और साहित्यकारों के निर्माता, सरस्वती के यशस्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को लेकर लिखीं गई ये पंक्तियाँ साझा न कर सका, तो बात अधूरी ही रह जाएगी कि किस प्रकार सृजनात्मकता के उत्कृष्ट आयाम इतिहास के पन्नों पर अमिट इबारत के रूप में लिखे जाते हैं, लिखे जाते रहेंगे। -
हमारा हिन्दी साहित्य पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदी जी ही थे।.. गद्य की भाषा पर द्विवेदी जी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण, जब तक भाषा के लिए शुद्धता आवश्यक समझी जाएगी तब तक बना रहेगा।7
भाषायी संस्कार और व्याकरणिक शुद्धता की चिंताएँ अब पहले जैसी नहीं रहीं। इतने अरसे में भाषा और व्याकरण अपने स्वरूप में पर्याप्त स्थिरता और मानकता पा चुकें हैं। अध्यवसाय की संस्कृति और पढने - लिखने की प्रवृत्तियों से व्यापक जन-मन को जोडने की आवश्यकता अभी बनी हुई है। मधुमती सदृश पत्रिकाएँ इस ओर आशा बँधाती हैं, यह प्रसन्नता की बात है। संपादक के पत्रिका पर पडने वाले प्रभाव को लेकर पंकज पराशर द्वारा लिखी गई टिप्पणी भी यहा उल्लेखनीय है-
संपादक की दृष्टि और प्राथमिकताओं के बदलने के साथ पत्रिका की रचनात्मक गुणवत्ता ही नहीं, तकनीकी गुणवत्ता में भी परिवर्तन आता है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती, राजेन्द्र यादव ने हंस, मनोहर श्याम जोशी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नामवर सिंह ने आलोचना को अपने विजन और कल्पनाशीलता से एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया ..... मधुमती के नये संपादक का इसरार और पत्रिका को लेकर उनकी बहुतेरी योजनाएँ और कल्पनाएँ सुनकर मुझे ऐसा लगा...... जोशी ने फोण्ट से लेकर पत्रिका के ले-आउट डिजायन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया।8
विषय की विविधता के आधार पर इस अवधि के संपादकीय आलेखों को विचार केंद्रित, व्यक्तित्व केन्द्रित, और विधा केन्द्रित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

व्यष्टि से समष्टि तक, आपदा से उत्सव तक विस्तीर्ण यह वैचारिकता कला, साहित्य, सृजन, संस्कृति और विविध सरोकारों की अभिधा को संपूर्ण लाक्षणिकता के साथ अभिव्यंजित करती है। अप्रैल उन्नीस में संपादक की बात शीन काफ निजाम की पंक्तियों से शुरू होती है - मुसाफिर की नजरें बुलंदी पे थीं, मगर रास्ते सब ढलानों के थे। लघु पत्रिकाओं की दशा और दिशा को मध्यनजर रखते हुए मधुमती को अखिल भारतीय चरित्र और सर्वांगपूर्ण उत्कर्ष तक पहुँचाने की प्रतिबद्धता इस आलेख में आसानी से लक्ष्य की जा सकती है। और तब से अब तक अविरत प्रकाशित तेईस अंकों में उस बुलंदी को क्रमशः महसूस किया जा सकता है जिसे मुसाफिर ढलान भरे रास्तों के बीच से निकलकर भी निरंतर लक्ष्य किये हुए था।
डेटावाद और हम में ज्ञान के प्राथमिक और अनिवार्य स्रोत के रूप में डेटा जैसी तकनीकी - वैज्ञानिक शब्दावली का स्पृहणीय साहित्यिक विश्लेषण किसी नीरस तकनीकी विषय में साहित्यिक सरसता की प्रबल संभावनाओं को पुष्ट करता है, तो कोरोना के बाद जीवन में कोरोना काल में स्थगित जीवन,अविरत भय और निराशा के बीच से मंगलाशाओं की स्वस्तिकामना आशावादी जीवन दृष्टि का आवाहन है। वे लिखते हैं-
जीवन अपनी यात्रा पर पुनः चलेगा ही। यह ऊर्जा संचय का काल है ताकि आगे की यात्रा दोगुनी गति से संपन्न हो सके।9
ऊर्जा और गति का समन्वित उत्कर्ष उपलब्ध करना और उसे बनाये रखना यहाँ ध्येय वाक्य बनकर उभरा है। साहित्य केंद्रित विचार, विचार की नवीनता और प्रस्तुति की ताजगी से उल्लेखनीय बन पडे हैं। मौलिकता जीवन का आश्वासन है लेख में वे नवोन्मेष को रचनात्मकता और मौलिकता से जोडकर देखते हैं और बने बनाये साँचों से निकलकर मौलिकता के राजमार्ग से जीवन विकास प्रक्रिया को गति देने का आवाहन करते हैं। संसार और साहित्य में जीवन और अस्तित्व के साथ सार्थक संवाद श्रेष्ठ रचनात्मकता की शर्त के रूप में प्रस्तावित है, तो सृजन और भाषाबोध में अस्तित्व और सृजन की लय पर जीवन धुन के आसिंजन का श्रुति बोध है। माध्यम का अन्वेषण और संस्कारों की नवीनता यहाँ कलात्मक उत्कर्ष की आवश्यक शर्त है।
संस्कृति का स्वभाव में संस्कृति के उत्थान, पतन, नैरंतर्य और समुन्नति के कारकों की सूक्ष्म पडताल है। साहित्य पगडंडी है मार्ग नहीं में श्रेष्ठतम सृजन के प्रति उनकी समादृत दृष्टि प्रशंसनीय है कि वे श्रेष्ठ सृजन को रचनाकार की समृद्धि और सुधी पाठक एवं सामाजिक की पुष्टि से जोडकर देखते हैं। कला पढने की नहीं देखने की विधि है कलाओं के प्रति अनुभव संपन्न दृष्टि विकसित करने का प्रयास है जो वर्तमान भौतिक यांत्रिक जीवन पद्धति में आबद्ध मनुष्य को मशीन से प्रकृति तथा जडत्व से चैतन्य की ओर लौटाता है। विवेक -इतिहास बोध और साहित्य में विवेक को अस्तित्व, इयत्ता और चिंतन की मौलिकता से जोडकर सूचनात्मक ज्ञान पर आश्रित बुद्धिजीवी और मौलिक चिंतन में समर्थ बौद्धिक के बीच के अन्तर को पारदर्शिता से रेखांकित किया गया है।
विधा और रचनाकार में एक ओर लेखक और विधा के अंतर्संबधों पर पसरा मौन चिंता बनकर उभरा है, तो दूसरी ओर विधा की महत्ता और विधा से रचयिता की नाभिनालबद्धता को सफलता और संप्रेषण की कसौटी बताकर विधा के चयन को सृजन प्रक्रिया में केंद्रीय महत्त्व प्रदान किया है। मधुमती के साठवें वर्ष के आठवें अंक में संपादक की बात में दो मुद्दों पर बात की गई है। पहला है-कविता और गद्य जिसमें गद्य - पद्य के भाषायी रूपभेद को क्रमशः चलने और नाचने की क्रियाओं से बिम्बात्मकता प्रदान की गई है। साथ ही एक शुद्ध गद्यकार की तुलना में कवि के हाथों लिखे गए गद्य में अपेक्षाकृत अधिक रस और आस्वादन की सहज प्रवृत्ति लक्ष्य की गई है।
इस लेख का दूसरा महत्त्वपूर्ण शीर्षक है - आयोजन का मर्म जिसमें आयोजन को संस्कृति के संवाहक, स्वस्तिकामी संस्कृति पुरूष के रूप चित्रित करते हुए आयोजन की संघटना को हृदय स्पर्शी चेतनता प्रदान की गई है। समर्थ आलोचक - विचारक राजाराम भादू ने इसे अद्वितीय बताते हुए लिखा है-
यह आयोजन मात्र पर मेरी जानकारी में आया हिंदी का अकेला सैद्धांतिक लेख है।10
मानवीय जीवन और सभ्यता के वर्तमान और भविष्य पर मँडराते संकट की संकटमोचनी शक्ति वे लोक और लोक साहित्य में देखते हैं। असंपृक्त जीवन और लोक साहित्य में वे लोक को अंग्रेजी के फोक और संस्कृत के शास्त्र से स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करते हुए लोक को फोक की तुलना में अधिक जीवंत, परिमार्जित और संस्कारवान तथा शास्त्र की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक अजर-अमर ठहराते हैं।आँगन से अनन्त तक विस्तीर्ण लोक की शक्ति, सत्ता और सामर्थ्य को परिभाषित करता यह संपादकीय विलक्षण है।
व्यक्तित्व आधारित संपादकीय लेखों में एक ओर गाँधी, नेहरू, विनोबा और विवेकानंद जैसे महापुरुष हैं तो दूसरी ओर कवि पंडित प्रदीप, साहित्य पुरुष कृष्ण बलदेव वैद, विदुषी कपिला वात्स्यायन और मनीषी समदोंग रिनपोछे जैसे उज्ज्वल व्यक्तित्व। विशेष बात यह है कि लेखों की भाषा व्यक्तित्व और कृतित्व की आभा के अनुरूप साँचे में ढलती जाती है। रिनपोछेजी के व्यक्तित्व का उद्घाटन उनके शील और सात्विकता के अनुरूप ही सुकुमारता और स्वस्तिभावना से मिश्रित है। संपादकीय भाषायी संरचना में यह बात आसानी से लक्ष्य की जा सकती है कि भाषा वर्ण्य विषय के अनुरूप ही आकार लेती है। वात्स्यायनजी के प्रति श्रद्धाभाव, रिनपोछेजी के प्रति पूज्यबुद्धि गर्भित आदर भाव, और डबरालजी के प्रति आत्मीय स्पर्श लेखन में जीवन के स्वर भर रहे हैं।
रेणु-विद्रोही संत शीर्षक संपादकीय में रेणु की भाषायी संरचना में व्यवहार और सोच की संबद्धता लक्ष्य करते हुए संपादक ने रेणु के भाषायी प्रयोगों में सामाजिक आत्मीयता और सघनता का उद्घाटन अन्तिम पायदान पर खडे व्यक्ति तक संप्रेषण की साध के रुप में किया है। रेणु की रचना प्रक्रिया और संप्रेषण सिद्धि को समझाने की दृष्टि से यह लेख विशेष महत्त्व रखता है।
हिंद स्वराज : विचार का व्यवहार इस अवधि में कृति को केंद्र में लेकर लिखा गया एकमात्र संपादकीय है। हिंद स्वराज की युगीन प्रासंगिकता और प्रयोजनयीता इसमें मजबूती के साथ रूपायित हुई है, परंतु कृति को केंद्र में रखकर लिखे गए संपादकीय लेखों में एकमात्र लेख होना अखरता है।
*2* विशेष स्मरण, संस्मरण और श्रद्धांजलि -
मौलिकता के संधान के साथ साथ संपादकेतर स्तंभों में प्रतिनिधित्व की एक विशिष्ट चयनात्मकता की प्रवृत्ति लक्ष्य की जा सकती है, वह है क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता का आनुपातिक संतुलन साधते हुए देश और प्रदेश के लेखक - साहित्यकारों को समुचित प्रतिनिधित्व देने की प्रवृत्ति। (चित्र-2ए 2बी )


चित्र 2ए का विश्लेषण करने पर मधुमती के सभी स्तम्भों में मिलाकर लिखने वाले रचनाकारों का अनुपात देखें, तो राजस्थान तथा अन्य राज्यों के रचनाकारों को लगभग बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया है। परन्तु चित्र 2क्च को देखें तो अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान से जुडे साहित्यकार, मनीषियों के व्यक्तित्व-कृतित्व को केन्द्र में लेकर किये गये कार्य में अभी एक अन्तराल की पूर्ति किया जाना शेष है।

मधुमती एक ओर राजस्थान से निकलने वाली पत्रिका है तो दूसरी ओर भाषा, साहित्य और संस्कृति की पत्रिका है इसलिए एक ओर राजस्थान से जुडे लेखक - साहित्यकार इसके अपरिहार्य अंग है, तो दूसरी ओर देश भर के सुधी लेखक - साहित्यकार इसकी शोभा बढाते हैं ।
इन तीनों स्तंभों के साथ समीक्षा और लेख सहित पाँचों स्तंभों में दोहरे प्रतिनिधित्व को साधने का आग्रह है। लिखने वाले लेखकों और लेखकों द्वारा विवेचित मनीषियों के व्यक्तित्व - कृतित्व में देश-प्रदेश के समन्वित संतुलन, अनुपात और प्रतिनिधित्व को लक्ष्य किया जा सकता है, यद्यपि स्तम्भों की विविधता, रचनाकारों की बहुलता और रचनाओं की चयनात्मकता की दृष्टि से यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है । (चित्र- 3)

इन पांचों स्तम्भों के अन्तर्गत विवेचित तथा जन्म और कर्म से राजस्थान से जुडाव रखने वाले मनीषियों पर राजस्थान तथा अन्य राज्यों के लेखकों ने आनुपातिक रूप से कितना कार्य किया है इसे चित्र संख्या -4 से समझा जा सकता है।

कला, साहित्य और संस्कृति से जुडे मनीषियों के अमूल्य योगदान की मुग्ध स्वीकृति और उनके अवदान के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन हैं ये तीनों स्तंभ। आत्मीयता का स्पर्श, सुकुमार लेखन और सुकोमल भावाभिव्यंजना इन तीनों स्तंभों को महत्त्वपूर्ण बनाती है। विशेष स्मरण के अंतर्गत राजस्थान की भूमि से जुडे मनीषियों हरीश भादानी, कन्हैयालाल सेठिया, स्वयंप्रकाश, यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, आलमशाह खान, ताराप्रकाश जोशी, प्रभा खेतान, रांगेय राघव और अभिनेता इरफान खान के कलात्मक अवदान का सर्वांगपूर्ण विवेचन है।
अंतरराष्ट्रीय फलक पर जगमगाता भारतीय सितारा इरफान जब अचानक बिना बताये ही सदा के लिए लुप्त हो गया, तो श्रद्धांजलि व्यक्त करने वाली पत्रिकाओं में तथा उस सितारे की आभा और आलोक का पुण्य स्मरण करने वालों में हम मधुमती को सबसे आगे खडी पाते हैं। इरफान को याद करते हुए सुदीप सोहनी लिखते हैं-
केवल चंद सैकिंडों के लिए कैमरा उनके सामने रख दें और इरफान बस कैमरे में झांक भर लें तो भी एक दर्शक के पास रखे आह और वाह के सारे विशेषण कम पड जाएंगे।.. इरफान इस तरह से अपने समय में सिनेमा और अभिनय की दुनिया से बहुत आगे निकल जाते हैं।11
अप्पा से मेरी मुलाकात कभी खत्म नहीं होती रांगेय राघव की पुत्री द्वारा अपने पिता का पूज्यबुद्धि गर्भित स्मरण है। इसमें कैसे एक पुत्री अपने पिता की रचनाओं में पिता के आत्मीय स्पर्श को अनुभव करती है यह कहने की नहीं अनुभव करने की बात है।
और मेरे सबसे करीब थे वे लाखों - लाख शब्द जो अप्पा ने स्वयं रचे थे, जिनसे मैं जिंदगी के विभिन्न पहलुओं पर उनकी दृष्टि देख सकती थी, उनके मन की गहराईयों की थाह ले सकती थी।12
कन्हैयालाल सेठिया के स्मरण में जयश्री सेठिया द्वारा लिखा गया स्मरण भी इसी श्रेणी का आलेख है। सरल विशारद हृदय स्पर्शीलेख में हरीश भादानी के जीवन को अभाव और कष्टों की लंबी कविता के रूप में याद करते हैं तो दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, स्वयंप्रकाश को उत्साह से लबरेज, चलते फिरते जीवंत बिम्ब के रूप में परिभाषित करते हैं। यद्यपि स्वयंप्रकाश के व्यक्तित्व के बहुआयामी विवेचन की दृष्टि से यह स्मृति लेखा सर्वांगपूर्ण है, तथापि उनके कृतित्व के सरोकारों से इत्तेफाक रखने वाले पाठकों को निराश होना पड सकता है।
बुलाकी शर्मा द्वारा यादवेन्द्र शर्मा चंद्र का स्मरण प्रेमघन की छाया स्मृति की याद दिलाता है। हुसैनी बोहरा द्वारा आलमशाह खान के कथा संसार पर लिखा गया स्मृति लेखा पठनीय होने के साथ साथ संग्रहणीय भी है।
अलविदा नामवर सिंह में नामवर सिंह को याद करते हुए पल्लव ने लिखा है कि वे पहले हिंदी लेखक और अध्यापक थे जिनकी बुद्धिमत्ता को हिन्दी के बाहर तमाम ज्ञान अनुशासनों में आदर के साथ स्वीकार किया गया। कवि पंडित प्रदीप को प्रतिमान के रूप में स्थापित करते हुए निराला जी हिन्दी कवियों को खुली चुनौती देते हुए कहा है कि वे प्रदीप के काव्य के साथ अपने काव्य की धारा की जाँच कर लें कि कौन प्राणों के अधिक निकट है।
लता मंगेशकर ने प्रदीप की लोकप्रियता के पीछे सहजता से जुडाव लक्ष्य कर लिखा है कि प्रदीप धुनों में ऐसी सहजता का आग्रह रखते थे कि आम आदमी गुनगुना सके।
कपिला वात्स्यायन की पुण्य स्मृति में समदोंग रिनपोछेजी के आत्मीय स्पर्श की उज्ज्वल अभिव्यक्ति है। यह कपिलाजी के ममतामयी संरक्षण, संस्कृति चेतना और सहजता के प्रति कृतज्ञ निवेदन है।
बात इतने पर ही खत्म नहीं होती, कृष्णा सोबती, नेमिचंद जैन, मुक्तिबोध, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, विद्यानिवास मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र, निर्मल वर्मा, पंत, त्रिलोचन और कुँवर नारायण से लेकर कृष्ण बलदेव वैद, इब्राहिम अल्काजी, पूनम दईया, प्रभाकर माचवे, शैलेश मटियानी, मंगलेश डबराल और मुकुंद लाठ तक संवेदनाओं की विपुल परास है, आत्मीयता का समुज्वल स्पर्श है। फरवरी अंक में इन्दुशेखर तत्पुरुष द्वारा बावजी चतरसिंहजी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर दुर्लभ जानकारी के साथ अद्वितीय संग्रहणीय स्मरण लेख लिखा गया है। मार्च के अंक में नन्दकिशोर आचार्य द्वारा नेमिचन्द्र जैन पर केन्द्रित लेख में उनके आलोचनात्मक प्रतिमानों की सूक्ष्म पडताल इस लेख को संग्रहणीय बनाती है।
अपने पूर्वजों और परंपराओं पर इतनी विपुल और विविधतापूर्ण सामग्री का संयोजन, संग्रहण और प्रकाशन मधुमती को संस्कारों की पाठशाला के रूप में स्थापित करता है। कला, साहित्य और संस्कृति जगत के नामवर-गुमनाम मनीषियों के व्यक्तित्व कृतित्व का इतना विशाल मात्रात्मक और गुणात्मक आगार वर्तमान की शायद ही किसी दूसरी पत्रिका के पास हो।
*3* लेख-
लेखन की गुणवत्ता, अनुशासनों की विविधता और मात्रात्मक प्रचुरता के साथ हृदय और बुद्धि का सम्यक समन्वय रचनात्मकता के सर्वांगपूर्ण उत्कर्ष के साथ मधुमती के इस स्तंभ में संपूर्णता से दृष्टिगत होता है। एक ही साथ यह स्तंभ दोहरी गुणवत्ता संप्रेषित करता है, बहिर्जगत में दूसरी पत्रिकाओं से और अंतर्जगत में मधुमती के ही अन्य स्तंभों से यह स्तंभ इक्कीस ठहरता है। मधुमती के लेख मधुमती के साथ साथ साहित्य संसार की भी उपलब्धि हैं, यह कह देना बिल्कुल भी अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा।
एक मूर्धन्य विश्लेषक, सुधी विद्वान, सहृदय पाठक से लेकर सामान्य विद्यार्थी तक जिस प्रत्याशा से किसी पत्रिका के पृष्ठों को उलटते पलटते हैं उसकी संप्राप्ति में उन्हें निराश नहीं होना पडता। विशेष रूप से लेखों के मामले में।

मुख्य रूप से इन समग्र लेखों को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से व्यक्तित्व केंद्रित, कृति केंद्रित तथा व्यक्तित्व कृतित्व केंद्रित धाराओं में बाँटा जा सकता है।
व्यक्तित्वपरक लेखों में राजेश कुमार व्यास ऋतुराज की कविताओं को दैनन्दिन के कोलाज, उम्मीद की किरणों और युग वाणी की मुखर व्यंजना से जोडते हैं तो भावन शीर्षक लेख में मुकुंद लाठ के चिंतन - दर्शन के भव में साहित्य, शास्त्र और कलाओं की जीवन यात्रा का विहंगम दिग्दर्शन कराते हैं। रमेश चंद शाह द्वारा कवि येट्स पर लिखा गया लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है। किसी विदेशी साहित्यकार पर भारतीयता के प्रभाव को मजबूती से प्रकट करने वाला यह लेख अपनी तरह का अनूठा लेख है।
विषय की नवीनता की दृष्टि से गोपाल प्रधान का लेख उल्लेखनीय है। डिजिटल दुनिया और मार्कसवाद शीर्षक लेख में वे वैश्वीकरण के साथ डिजिटलाईजेशन को श्रमिकों के नये वैश्विक विभाजन के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं।
हेतु भारद्वाज ने कृष्णा सोबती के नजरिए से नामवर सिंह के व्यक्तित्व का मनोहारी उद्घाटन नामवर सिंह : हशमत की निगाह में प्रस्तुत किया है। व्यक्तित्व आधारित लेखों में राजेश जोशी पर छबिल कुमार मेहेर, कन्हैयालाल सेठिया पर राजेन्द्र कुमार सिंघवी और नंद चतुर्वेदी पर पल्लव के लेख बहुत स्पृहणीय बन पडे हैं।
भानु भारती का रंगमंच पर केंद्रित लेख स्पृहणीय है, वे रंगमंच को एक आर्गेनिक क्रिया बताते हुए सिनेमा की अपेक्षा अधिक चुनौतियों के बीच भी उसकी सार्थक सफलता को रेखांकित करते हैं।
हरिओम का लेख प्रतिरोध साहित्य का मूल स्वर है साहित्य को मनुष्यता के पक्ष में और विसंवादी प्रवृतियों के विपक्ष में स्थापित करता है तो ओमप्रकाश कश्यप का लेख बाल साहित्य पर विमर्श की संभावनाओं को दस्तक देता है। इसके साथ ही माधव हाडा कृत देहरी पर दीपक, बृजेंद त्रिपाठी कृत हिंदी वर्तनी की समस्याएँ, सुप्रिया पाठक कृत हिंदी संसार की अदृश्य स्त्रियाँ, ममता खांडल कृत हिंदी उपन्यास में देह व्यापार, सूर्यनारायण रणसुभे कृत वाचन संस्कृति, नंद भारद्वाज कृत राग विराग की कविता का अंतरंग, और हेमंत कुकरेती का जगनिक पर केंद्रित लेख गीत में महाकाव्य रचने का कौशल आदि सभी लेख अपनी अपनी श्रेणियों में रचनात्मक उत्कर्ष को प्रतिबिंबित करते हैं।
सभी दिशाओं में एक से बढकर एक विमाएँ सुधी लेखकों ने परिभाषित की हैं। एक ओर हेतु भारद्वाज ने छायावाद का गद्य शीर्षक लेख में छायावाद काल के उस गद्य की समर्थ पेशगी की है जिसे प्रायः छायावादी काव्य की चर्चा के चलते एकतरफ कर दिया जाता है, जिसमें प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के गद्य का विवेचन करते हुए उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया है कि गद्य की किसी भी विधा के उच्चतम लेखन का डेमो छायावाद युग से उठाया जा सकता है तो वही दूसरी ओर माधव हाडा ने छायावाद, सौ साल बाद शीर्षक से छायावादी आन्दोलन की उपलब्धि, उत्कर्ष, सीमाओं, सम्भावनाओं तथा प्रासंगिकता की गहन पडताल की है। पुनीता जैन ने एलिस एक्का के आदिवासी कथा लेखन पर हृदयस्पर्शी लेख लिखा है। माधव हाडा का लेख ब्रजरत्न दास और मीरा ब्रजरत्न दास के अचर्चित परंतु महत्त्वपूर्ण अवदान को सामने लाता है। जीवन सिंह के लेख में मुक्तिबोध के काव्यजगत की विशद चर्चा है, तो सूर्यप्रकाश दीक्षित ने गुरू गोरखनाथ के साहित्य में संत साहित्य के प्रस्थान बिंदु को सशक्त रूप से उभारा है।
कृष्ण बलदेव वैद को केंद्र में लेकर आशुतोष भारद्वाज, पूनम अरोडा और अनिरुद्ध उमट ने तीन महत्त्वपूर्ण लेख लिखे हैं। राजकुमार ने परंपरा का मूल्यांकन में परंपरा और साहित्यिक आलोचना पर समृद्ध लेख लिखा है। कला और आपदा के माध्यम से स्कंद शुक्ल आपदा में कला की दशा और दिशा पर सार्थक चर्चा करते हैं।आनंद पांडेय ने अपने लेख में शुक्ल जी के उपन्यास चिंतन में काव्यात्मकता और औपन्यासिकता के अंतःसंबंध को रेखांकित किया है। सोच का ताप, कश्मीर उप्पल द्वारा गिरधर राठी की पुस्तकों पर विमर्श है। विक्रम जीत का लेख - संस्कृत कविता के भाषिक कौतुक एक रोचक जीवन दृष्टि विकसित करता है ।
मंगलम कुमार रस्तोगी ने कुंवर नारायण के काव्य दर्शन में कविता और दर्शन की पारस्परिक, निर्बाध आवाजाही को लक्ष्य किया है। गगन गिल ने रिनपोछे मेरे एकलव्य गुरू शीर्षक से बहुत हृदयस्पर्शी लेख प्रस्तुत किया है। श्री प्रकाश मिश्र के कविता संग्रह - कि जैसे होना एक खतरनाक संकेत पर विमर्श करते हुए शिवप्रसाद शुक्ल ने लिखा है कि श्री प्रकाश मिश्र में सरहपा, अब्दुल रहमान, कबीर, भूषण, निराला, त्रिलोचन, नागार्जुन, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धूमिल के समुच्चय को व्यवस्थित आंतरिक तौर पर देखा जा सकता है। यह एक बडी स्थापना है।
लुईस ग्लिक के रचना संसार पर ओम निश्चल के लेख में महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। वे लिखते हैं ग्लिक की कविता आघात केंद्रित है क्योंकि उन्होंने जीवन भर मृत्यु, क्षति, अस्वीकार, विफल संबंधों पर लिखा है। मीता शर्मा के लेख में प्रेमचंद के कथा साहित्य के फिल्मान्तरण पर चर्चा है।
राधावल्लभ त्रिपाठी, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, सच्चिदानंद जोशी और राकेश मिश्रा के लेख विविध दृष्टिकोणों से कपिला वात्स्यायन के प्रति एक समग्र दृष्टि विकसित करने में सहायक हैं।
अन्वेषण और संधान के आग्रह की बात करें तो कमलकिशोर गोयनका का लेख राष्ट्र : स्वराज्य का कथात्मक महासमर प्रेमचंद के राजनीतिक दर्शन और राष्ट्र संकल्पना पर विशेष सामग्री के साथ सहेजे जाने के लिए आमंत्रित करता है। आशुतोष पांडेय के लेख में छायावाद युगीन राष्ट्रीय कविता के साथ साथ प्रतिबंधित हिंदी कविता पर विशद चर्चा की गई है। हरीश अरोडा ने कामाध्यात्म की दुर्लभ कृति के रूप में उर्वशी पर लेख प्रस्तुत किया है। पंकज पाराशर ने तारानन्द वियोगी द्वारा लिखी गई नागार्जुन की जीवनी पर बहुत स्पृहणीय लेख प्रस्तुत किया है जिसमें एक ओर जीवनी लेखन को चुनौतीपूर्ण कार्य बताते हुए लेखक की प्रशंसा की है तो दूसरी ओर जीवनीकार के पक्षपातों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए नागार्जुन के जीवन प्रसंगों में निहित न्यूनता को उजागर करने के संकोच को रेखांकित किया है।
जितने लेखों की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं उससे कहीं अधिक लेख हमसे न चाहते हुए भी छूट गए हैं जो अपनी बनावट और बुनावट में विशेष महत्त्व रखते हैं।लेख स्तंभ पर संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इस स्तंभ ने मधुमती पत्रिका को एक विशेष पहचान और स्तरीयता की ओर नयी ऊँचाई देने की ओर कदम बढाएँ हैं।
*4* समीक्षा-
मात्रा और वस्तु दोनों की दृष्टि से इन दो वर्षों में लिखी गई समीक्षाएँ महत्त्वपूर्ण है। लेखक की संवेदना, शिल्प, विषयवस्तु और प्रस्तुतीकरण पर पारदर्शी विमर्श इनमें देखा जा सकता है। यद्यपि रचना के निष्पक्ष समीक्षण की चुनौती समीक्षक के सामने बनी रहती है तथापि इस दृष्टि से मधुमती में प्रकाशित समीक्षाएँ काफी हद तक न्यायसंगत नजर आती हैं। इन दो वर्षों के तेईस अंकों में प्रकाशित सत्तर से अधिक समीक्षाएँ किसी भी समकालीन पत्रिका की तुलना में उल्लेखनीय संख्या है। राहुल शर्मा, विज्ञान भूषण, शुभम मोंगा, साहिल कैरो, नितिन सेठी, प्रीती प्रवीण खरे, सुमन केसरी, अनिता गोयल, मधु आचार्य आशावादी, मलय पानेरी, तेजस पूनिया, राजेश कुमार व्यास, राकेश मूथा, राजाराम भादू, भानु भारवि, नंद भारद्वाज, शर्मिला बोहरा जालान, आनंदवर्धन द्विवेदी, अरुण देव, बबीता काजल, पल्लव, गोपाल प्रधान, ज्योति चावला, गीता दुबे और विजय सिंह नाहटा आदि समीक्षकों के द्वारा विविध विधाओं और अनुशासनों पर लिखीं समीक्षाएँबेहतरीन है, जिनके आलोक में रचनाओं का सच्चा चित्र किसी पाठक के सामने आता है।
*5* कविता और कहानी -
कविता और कहानी स्तम्भों के साथ-साथ गाँधी-विचार, अनुवाद, उपन्यास अंश, जीवनी अंश, डायरी, यात्रा वृतांत और ललित निबंध स्तम्भों में से यात्रा वृतांत, जीवनी अंश तथा ललित निबन्ध तीन ऐसे स्तम्भ है जिनमें इन दो वर्षों में राजस्थान के किसी लेखक का अवदान नहीं है, यह अखरने वाली बात है। अन्य स्तम्भों में से कहानी तथा कविता में राजस्थान के लेखकों का तुलनात्मक अवदान अपेक्षाकृत अधिक है। गाँधी-विचार, डायरी और उपन्यास स्तम्भों में अभी समुचित प्रतिनिधित्व का अभाव है यद्यपि अनुवाद स्तम्भ में देश तथा प्रदेश के लेखकों का सन्तोषजनक संतुलित अवदान लक्ष्य किया जा सकता है। इसके साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि दो वर्षों में प्रकाशित तेईस अंकों में रचनाओं की विविधता और रचनाकारों की बहुलता के साथ रचनाकारों के क्षेत्रीय-केन्द्रीय संतुलन को साधना असंभव नहीं, तो दुष्कर अवश्य है। इस दृष्टि से पत्रिका संपादकीय टीम बधाई की पात्र है।

मधुमती का कहानी संसार अन्य विकसित स्तंभों की तुलना में अभी विकासशील अवस्था में है। फिर भी इस अवधि में वीणा चूंडावत की फडफडाते कबूतर, चरण सिंह पथिक की कैसे उडे चिडिया, भगवान अटलानी की परछाई, नीलिमा टिक्कू की तोहफा कैसा लगा मीता, संगीता माथुर की क्रश, नवनीत पांडे की शर्मसार, तसनीम खान की पैरों में फिर पीड उठी है, मदन गोपाल लढा की एक्सरे, ज्ञानचंद बागडी की आत्महत्या, रूपा सिंह कृत चाबी, राकेश दुबे कृत दुविधा, फूलचंद मानव कृत आज का आदमी, जयशंकर कृत घर, सरिता कुमारी कृत ट्राफी और सुधांशु गुप्त कृत नुक्तांची, तराना परवीन कृत ब्रांडेड भूखे सहित अधिकांश कहानियाँ पठनीय हैं।
कविताओं की एक व्यापक सृजनात्मक परास वर्तमान परिदृश्य के मैराथन काव्य लेखन के बीच गुणवत्ता की आशा बँधाती हैं। अशोक वाजपेयी की कविताओं की चर्चा करते हुए भारत यायावर ने एक स्थान पर मधुमती को सृजनात्मक वातावरण निर्मिति और स्तरीयता के मानदंड के लिए रेखांकित किया है। वे लिखते हैं अशोक वाजपेयी ने विरोध झेलकर कविता के लिए जगह बनायी है। अशोक वाजपेयी जी की कविता मृत्यु में आपदा के बीच मृत्यु की आहट और पीडा की संवेदनाएँ हैं-
बंद दरवाजे के बाहर बरामदे में, टहलती है वह।
कहाँ गए देवता में अनवरत लुप्त होती उम्मीदों, आशाओं की चिंता है-
क्या यह देवहीन समय है / सारे देवताओं और अभय के स्थगन का?
राहुल राजेश की ग्लानि कविता में असहाय की सहायता न कर पाने की ग्लानि है-
इस ग्लानि का बोझ,
मेरी पीठ पर इतना ज्यादा है
कि मैं लाख कोशिशों के बावजूद,
तनकर नहीं चल पाता।
जीवन सिंह की मरो कविता में सर्वहारा की पीडा और दुर्दांत नियति का चित्रण है। सपन सारण की कविता मेरा खून तुमने किया शोषण की मानसिकता को चुनौती देती है। राजेन्द्र यादव की कविताएँ- सीढियाँ, तथा दरवाजे इन दो प्रतीकों के माध्यम से विविध संवेदनाओं का स्पर्श करती हैं।
इंदुशेखर तत्पुरुष की कविता -बजते हैं कानों में जीवन की आपाधापी में झीनी होती संवेदनाओं की पडताल है। उनकी एक और कविता न वह जानता रहस्यवादी स्वर भरती है -
जितनी डूबती आकाश में/धरती से उतनी दूर/
होती जाती पतंग /नहीं जानती कब तक/गगन में मगन,
रहेगी अनाघात, अवध्य। न वह जानता/जो उतारता उसको/
आहिस्ता - आहिस्ता /आकाश में।
रणजीत की एक वीभत्स वास्तविकता में पाशविक वृत्तियों के प्रति अमर्श की व्यंजना है तो लष्टम पष्टम में ध्वन्यात्मक बिंब विधान व्यंजना को और अधिक गहरा बना रहा है।
रवि पुरोहित की कविता शिल्पी के नाम एक साथ तिहरे स्तर पर परिवर्तनीयता, मौलिकता और नवीनता का आह्वान करती है -

ओ पानीदार शिल्पी /शिल्प का शिल्प/
बदल लें अब,
खडखड पीला पान/कब तक जुडा रहेगा/
मरियल लता से?
इन सबके साथ ही लीलाधर जगूडी, राजकुमार कुम्भज, सुमन केसरी, लाल्टू, प्रयाग शुक्ल, अरुण कमल, विनोद विट्ठल, ध्रुव शुक्ल, रंजना अरगडे, अनामिका अनु, राकेश मूथा, नवनीत पांडे, रमेश हर्ष, गोविंद माथुर, ओम नागर, नंदकिशोर आचार्य, आशीष बिहाणी, मदनगोपाल लढा, अनिरुद्ध उमट, मालचंद तिवाडी, पीयूष दईया, विजय सिंह नाहटा, कृष्ण कल्पित, अमित कल्ला, सपन सारण, उमेश चौरसिया, भानु भारवि, विजय राही, महेश पुनेठा की कविताएँमधुमती के भावकोष की अक्षय निधि हैं।
*6* अनुवाद -
अनुवाद अब मधुमती का स्थायी एवं बहु प्रतीक्षित स्तंभ बन चुका है। विविध भाषाओं और विधाओं के अंतर्विषयी आदान प्रदान की दृष्टि से इसका अपना अलग महत्त्व है। कविता से लेकर कहानी तक और दर्शन से लेकर विचार तक, अंग्रेजी से फ्रैंच तक और जुलु से चैक तक, संस्कृत, उर्दू से लेकर राजस्थानी तक, हंगेरियन से एस्टोनियन तक, विविध साहित्यिक धाराएँ, विविध भाषाएँअपने क्षिप्र प्रखर वेग से हिंदी महासमुद्र में समाती जा रहीं हैं। सद्यप्रकाशित मार्च अंक में कमल रंगा द्वारा अपनी ही राजस्थानी कविताओं का अनुवाद सुधी पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। भाषा और भावों की क्षीण रेखाएँ एक दूसरे को काटती छूती चलती है।
*7* अन्य विविध स्तंभ, आवरण एवं रेखांकन
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मधुमती गद्य की सुविस्तीर्ण परास में आद्यंत हस्तक्षेप करती नजर आती है। ऐसी सजगता समकालीन पत्रिकाओं में इसे विशेष बनाती है। गद्य के इस पंचामृत में उपन्यास अंश, जीवनी अंश, डायरी, यात्रा वृतांत, ललित निबंध आदि उल्लेखनीय हैं। राजस्थान से जुडे उपन्यासकारों में रत्नकुमार सांभरिया कृत साँप तथा हरिराम मीणा कृत डांग के अंश इस अवधि में प्रकाशित हुए। साँप के संवाद आकर्षित करते हैं तो डांग के अंश में डांग, डूँगर और डंगरों से जुडी भूमि और जनजीवन की रोचक शैली में प्रस्तुति है।
राजस्थान के अलावा अन्य रचनाकारों में उदयन वाजपेयी, प्रभात त्रिपाठी और अलका सरावगी के क्रमशः अस्पताल के दिन, स्वर्गद्वार और श्यामा धोबी - तुम कहाँ हो, के अंश इस काल्पनिक गद्य विधा में सार्थक वृद्धि करते हैं।
छह रचनाकारों के डायरी अंशों के साथ साथ इस अवधि में श्यामसुंदर दुबे कृत ललित निबंध - पहला दिन मेरे अषाढ का तथा सीरज सक्सेना और मंगलेश डबराल के यात्रा वृतांत भी प्रकाशित हुए हैं। डबराल जी ने एक छिपी हुई जगह शीर्षक से गंगोत्री, हरसिल की अपने साहित्यिक मित्रों के साथ की गई यात्रा का संस्कृत कविता के आलोक में हृदयस्पर्शी वर्णन किया है।
रेणु के जीवनीकार भारत यायावर द्वारा लिखित फणीश्वर नाथ रेणु की जीवनी का अंश फणीश्वर नाथ रेणु : रूप का वह आकर्षण बहुत रोचक है। इसमें रेणु के व्यक्तित्व से जुडे अनछुए प्रसंग रेणु के साहित्य में उनके व्यक्तित्व के आत्मप्रक्षेपण को देखने समझने की नवीन दृष्टि देते हैं।
गद्य के इतने रूपों का सर्वांगपूर्ण गुणवत्ता के साथ प्रकाशन भारतेंदु युग के हँसमुख गद्य की याद दिलाता है जो शुक्ल जी के शब्दों में, साहित्य उत्थान में हँसता खेलता आया था,और जो जोश जिंदादिली की चहल पहल के बीच अपना काम कर गया।
मधुमती के अंकों के आवरण, पृष्ठ सज्जा एवं रेखांकन का भी अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। अमूर्त चित्रों से सुसज्जित आवरण पृष्ठ एक ओर जहाँ मनोविज्ञान की प्रक्षेपण शैली में पाठक के मनोनुकूल रचना संसार का भाव चित्र उसके हृदय पर उकेरते है वही दूसरी ओर आंतरिक पृष्ठों में निहित रेखाचित्र सांस्कृतिक-कलात्मक वैभव का दिग्दर्शन कराते है। एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गत दो वर्षों के तेईस अंकों के सभी आवरण व रेखांकन राजस्थान के चित्रकारों द्वारा तैयार किये गये है यह प्रदेश के लिए गौरव की बात है कि कला जगत के किसी भी आयाम में हम परमुखापेक्षी नहीं है।
*8* विशेषांक-
पाँच शोध आलेखों के साथ वर्ष 2019 का सितम्बर अक्टूबर संयुक्तांक आंशिक रूप से, तथा वर्ष 2020 का अक्टूबर अंक समग्र रूप से महात्मा गाँधी को केंद्र में रखकर प्रकाशित किये गये। गाँधीजी की वर्तमान प्रासंगिकता और विविध संदर्भों से सुसज्जित ये विशेषांक संग्रहणीय हैं। एक संत, विचारक, दार्शनिक, राजनयिक, मनीषी और नायक के रूप में गाँधी जी का व्यक्तित्व कृतित्व आज के संदर्भ में और अधिक प्रासंगिक हो उठा है। विशेष बात यह है कि महात्मा गांधी को लेकर प्रायः हर अंक में महत्त्वपूर्ण साम्रगी संयोजित की गई है। सद्य प्रकाशित मार्च अंक में भुवाल सिंह ठाकुर द्वारा छत्तीसगढी लोक गीतों में गांधी शीर्षक से स्पृहणीय आलेख लिखा गया है, जिसमें लोक संस्कृति में देवता के रूप में स्वीकृत गांधी जी के चामत्कारिक व्यक्तित्व का दिग्दर्शन है।
कवि पंडित प्रदीप, मुकुंद लाठ, कृष्ण बलदेव वैद और कपिला वात्स्यायन पर नियमित अंकों में प्रस्तुत विशेष सामग्री विशेषांक का ही आभास देती है। इन विशेषांकों को देखकर ऐसे ही और समृद्ध विशेषांकों की आवश्यकता महसूस होती है जो विविध साहित्य विधाओं, कालखण्डों और मनीषियों पर केंद्रित हों। इस क्षेत्र में अभी और कदम बढाये जाने की जरूरत है।
(चित्र-7)





मार्च इक्कीस का अंक दोहरे विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। एक ओर मार्च में पडने वाले राजस्थान दिवस के संदर्भ में सात दुर्लभ आलेख संयोजित किये गए है जो राजस्थान की भक्ति, शक्ति, अनुरक्ति की भूमि में रची बसी परम्पराओं, लोक कलाओं और संस्कृति के सजीव हस्ताक्षर है वही दूसरी ओर मार्च में फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशती वर्ष के उपलक्ष्य में संपादकीय लेख के अलावा सात आलेखों और एक जीवनी अंश के माध्यम से सम्वेदना, भावुकता, रूप, रस, स्पर्श, श्रुति और गंध के कलमकार रेणु का पुण्य स्मरण किया गया है।
राजस्थान विशेषांक में यशवंत कोठारी ने चित्रकला, कठपुतली, मूर्तिकला, पिछवाई, माढने, सांझी, लोकजीवन के खेल, संस्कृति और परम्पराओं आदि पर विशेष साम्रगी लिखते हुए इन सबके संरक्षण का आग्रह किया है। माधव हाडा के लेख में मीरा की कविता के भाषायी वैविध्य को भारतीय भाषाओं की परस्पर सम्बद्धता, भाषा और बोलियों के परस्पर विलीनीकरण और पृथक्करण की सूक्ष्म पडताल के साथ प्रस्तृत किया गया है। रीतेश व्यास के लेख में भावना और संस्कारों को व्यक्त करते भित्ति चित्रों के समय के साथ बदलते कलेवर की इवारत है। चारबैत शैली के उद्भव, इतिहास और स्वरुप पर सुरेश सिंह राठौर के लेख में दुर्लभ साम्रगी है। शम्पा शाह ने सावला कुम्हार और सिरिया देवी की लोककथा के माध्यम से आस्था और श्रम की वेजोड गाथा लिखी है और कर्म को ही सर्वोपरि पूजा मानने वाले लूणारामजी, गोपीबाई जैसे कर्मवीरों का अभिनन्दन किया है। लोक में हरजस शीर्षक लेख में भँवरलाल प्रजापत ने लोक संस्कृति में विविध अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीतों पर प्रामाणिक विवरण दिया है। लंगा मागणियारों के सारंगी, कमायसा आदि वाद्ययंत्रों तथा हिचकी, बनडौ, कुरजां, मूमल और पणिहारी आदि गीतों के माध्यम से प्रगाढ होते मानवीय संबंधों को रेखांकित करते हुए भरत कुमार ने इन पेशेवर लोक कलाकारों का सांस्कृतिक इतिहास प्रस्तुत किया है। कुल मिलाकर इन लेखों को पढकर पाठक के कानों में निश्चय ही पधारो म्हारे देस के देस राग की गूँज-अनुगूँज का आसिञ्जनकारी आंदोलन आमन्त्रण देता रहेगा।
रेणु के जन्मशती वर्ष पर देशभर की लगभग एक दर्जन पत्रिकाओं ने रेणु विशेषांक प्रकाशित किये हैं, यह हिन्दी जगत के लिए एक शुभ संकेत है कि किसी साहित्यकार के अवदान के प्रति इतनी सजगता का वातावरण बना है। मधुमती ने भी रेणु विशेषांक के रूप में उत्कृष्ट अंक निकाला है। इस अंक में रेणु के कथा-साहित्य के विविध आयामों पर पाँच लेख है। दीनानाथ मौर्य ने रेणु के साहित्य में मिट्टी और मनुष्य से उनकी अभिन्नता को रेखांकित किया है वही चितरंजन भारती के लेख में रेणु के अग्निखोर और दिनकर के रश्मिरथी में वर्णित सूतपुत्र तथा अज्ञेय की रोज और रेणु की श्रावणी दोपहर की धूप में पात्रों और कथ्य की काटती छूती रेखाओं में सृजन की समान भूमि को दर्शाया है। अंकिता तिवारी ने रेणु की कहानियों को वादों से हटकर बतरस में घुलकर लोकगीत, संस्कृति में रंग,गंध और स्पर्श के बिम्बों के साथ अनुभव की ठेठ जमीन पर लिखी गई कहानियों के रूप में परिभाषित किया है। जुगेश कुमार गुप्ता ने रेणु द्वारा सहायक वस्तु या पात्रों के माध्यम से मुख्य पात्र को मनोवैज्ञानिक उत्कर्ष देने की रीति को लक्ष्य किया है। रेणु साहित्य में प्रयुक्त मृदंग, ढोलक, बैलगाडी आदि पात्र के मनोवैज्ञानिक स्वरुप का उद्घाटन भी करते है। राजेन्द्र कुमार सिंघवी ने रेणु की कहानियों में निहित लोकतत्वों यथा जनश्रुति, गीत, मुहावरे, परम्परा तथा संस्कृति का सविस्तार विवरण दिया है।
राकेश रेणु ने रेणु की पत्रकारिता में मनुष्योचित सम्वेदना की उष्मा के स्पर्श के साथ पत्रकारिता और साहित्य के पारस्परिक पुष्टिवर्धन को रेखांकित किया है वही ऋषि कुमार ने रेणु के पत्र साहित्य पर प्रमाणिक लेख लिखा है।
रेणु के खोजी के रुप में प्रसिद्ध विशेषज्ञ भारत यायावर द्वारा प्रस्तुत रेणु की जीवनी का अंश- बनारस में रेणु इस अंक की अनमोल धरोहर है। दशाश्वमेध घाट पर भाषा शास्त्री पंडित से रेणु को मिली विरल ज्ञान दृष्टि, गांधी के तपस्वी रूप के प्रति रेणु में आकर्षण, आचार्य नरेन्द्र देव, बैनीपुरी, जयप्रकाश नारायण तथा सरस्वती प्रेस में त्रिलोचन, शमशेर और शिवदान सिंह चौहान से रेणु की भेट के प्रसंग बेहद आत्मीय स्पर्श, निर्मल भावुकता और पूज्य बुद्धि गर्भित भाव से वर्णित किये गये है। साहित्य परम्परा में पूर्वजों के प्रति ऐसी स्नेहिल और आदरभाव युक्त दृष्टि अभिनन्दनीय है।
सफलता और प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व लेकर आतीं है। निस्संदेह मधुमती संतुलित दृष्टि के साथ आगे बढ रही है। बाल साहित्य, फिल्म साहित्य, पत्रकारिता, रिपोतार्ज, साक्षात्कार, फीचर, आदि क्षेत्रों में अभी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। मधुमती इसी तरह अपने रचनात्मक उत्कर्ष को बनाए रखे, इसकी पठनीयता-संग्रहणीयता-सांदर्भिकता बढे, संवाद के अविरत प्रवाह के साथ।
संदर्भ -
1. शाह, रमेशचंद्र,2020 ई., स्तंभ-संवाद निरंतर, मधुमती, वर्ष 60, अंक 12 (दिसंबर ), पृष्ठ 127, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
2. अफरीदी, फारुख, 2020 ई., स्तंभ - संवाद निरंतर, मधुमती,वर्ष 60,अंक 11 (नवंबर ), पृष्ठ 125, राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर
3. हुसैन, जाबिर, 2020 ई., मधुमती र् एक उत्कृष्ट साहित्यिक आयोजन, (संवाद निरंतर ), मधुमती, वर्ष 60, अंक 7 (जुलाई ), पृष्ठ 150-151, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
4. माथुर, गोपाल, 2020 ई., संवाद निरंतर, मधुमती, वर्ष 60,अंक 5(मई), पृष्ठ 151, राजस्थान साहित्य अकादमी ,उदयपुर
5. वही, पृष्ठ 150
6. जयशंकर,2021 ई.,संवाद निरंतर, मधुमती, वर्ष 61, अंक 2 (फरवरी ), पृष्ठ 126, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
7. शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, 1948 ई., हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, पृष्ठ 460
8. पराशर, पंकज, 2021 ई., संवाद निरंतर, मधुमती, वर्ष 61, अंक 30(मार्च ), पृष्ठ 169, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
9.जोशी, ब्रजरतन, 2020 ई., संपादक की बात - कोरोना के बाद जीवन, मधुमती, वर्ष 60,अंक 5 (मई), पृष्ठ 7, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
10. भादू, राजाराम, 2020 ई. संवाद निरंतर, मधुमती, वर्ष 60,अंक 8 (अगस्त ), पृष्ठ 125, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
11 सोहनी, सुदीप, 2020 ई., इरफान : वो कैमरे में झांक भर ले, विशेष स्मरण - मधुमती, वर्ष 60,अंक 5 (मई ), पृष्ठ 15 से 21, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
12. राघव, सीमन्तिनी, 2021 ई., अप्पा से मेरी मुलाकात कभी खत्म नहीं होती,विशेष स्मरण - मधुमती, वर्ष 61 अंक 1 (जनवरी), पृष्ठ 12, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
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