अकबर इलाहाबादी और उनका गाँधीनामा
हेरम्ब चतुर्वेदी
इलाहाबाद बसाने वाले का नाम भी इत्तेफाक से अकबर ही था और अपने फसानों य रचनाओं में खुद को इलाहाबादी कहने वाला शायर भी अकबर ही था- अकबर इलाहाबादी! अकबर 1857 की क्रान्ति या पहली जंगे-आजादी के भी ग्यारह साल पहले पैदा हुए थे और उनकी किशोर आँखों ने वो मंजर देखा था। तब से लेकर सरकारी महकमों में नौकरी करते हुए कचहरी में नकल-नवीस फिर वकील फिर मुंसिफफिर जिला जज तक हुए- इस दौरान अंग्रेज हुकूमत के हर रंग-ढंग को बहुत करीब से देखा और समझा था। इसीलिए उनके अशआरों को पढने-समझने के ढंग से बहुत फर्क अंदाज में हमें गाँधीनामा को देखना होगा।
वैसे यह भी सच है कि अगर ऐसे बेहतरीन शायर, ज्ञानी एवं अनुभवी व्यक्ति और कानून के विशेषज्ञ, अकबर इलाहाबादी के गाँधीनामा पर लिखा जाए, तो एक लेख में उनके फलक को समेटना कठिन ही नहीं, नामुमकिन ही होगा। फिर भी कोशिश करेंगे कि साफतौर पर स्थापित हो सके कि जो अकबर ने गाँधीनामा लिखा वह क्यूँ लिखा? क्या सरकार के खौफसे इसे कोई छापने को तैयार नहीं था या अकबर एक न्यायाधीश की आचार-संहिता खुद बनाकर उसको निभा रहे थे? एक बात और, गाँधी के सत्य और अहिंसा के वे भी कायल थे वरना आँख की कमजोरी की वजह से, स्वेच्छा से नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद भी जज एकरमन की सेवानिवृत्ति के बाद, उच्च न्यायालय में जजी का लालच भी उनके निर्णय को डिगा नहीं पाया। ऐसी सत्यनिष्ठा को जब अमली जमा पहनाया जाता है, तभी तो वह सत्याग्रह होता है। कितना साम्य था अकबर इलाहाबादी और गाँधी में! शायद इसीलिए अकबर ने इतनी परिपक्व और बडी रचना गाँधीनामा लिखी।
वैसे यह समझ आता है कि अकबर की यह महत्त्वपूर्ण कृति गाँधीजी के हिंदुस्तान वापस आने के बाद ही नहीं बल्कि दिसम्बर, 1919 के बाद और अकबर साहब के इंतकाल यानी सितम्बर 1921 के बीच में लिखी गयी है। हमें इस कालखण्ड को अच्छे से समझना चाहिए तभी हम गाँधीनामा के भाव को समझ पाएँगे। हिंदुस्तान में इसी बीच सांप्रदायिक आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन जैसी कुत्सित चाल अंग्रेज चल चुके थे और स्वदेशी के साथ क्रान्तिकारी गतिविधियाँ शुरू हो गयीं थीं और अंग्रेज परेशान होने के बावजूद उन्हें दबाने में काफी सफल भी रहे थे। फिर आया 1909 का काला कानून, जिसमें सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के जरिये इसे हवा दी गयी। भले ही 1911 में बंगाल विभाजन निरस्त करना पडा हो फिर भी 1919 के अधिनियम ने प्रतिनिधित्व वाली सरकार कायम करने के नाम पर इस सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के प्रावधान को प्रांतीय स्तर और म्युनिसिपेलिटी आदि के चुनावों के जरिये बिलकुल घर-घर पहुँचाने की चाल चली थी!
जाहिर ही अकबर सब देख समझ रहे थे, मगर अपनी नौकरी और एक न्यायाधीश की हैसियत से वे चाहकर भी सरकार के खिलाफ सडक पर तो नहीं उतर सकते थे मगर हम जानते हैं कि वे कलम से विरोध करते रहे और उसकी वकालत भी अपने अशआरों, नज्मों, गजलों में करते रहे, जैसा कि कुल्लियाते-अकबर के चारों खण्डों को पढकर सहज अनुमान हो भी जाता है। बस एक मिश्रा ही काफी है उनके इस मिजाज के उदाहरण के लिए, जब वे कहते हैं- जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो! कितना साम्य है गाँधी और अकबर की सोच में - इनसे इनकी तरह से नहीं, दिमाग से जीतो। अकबर के सामने गाँधी के असहयोग आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी और अकबर की पैनी नजर बहुत दूर तक देख रही थी कि अब क्या होगा? मगर इससे पहले अकबर गाँधी का असर रॉलेट एक्ट के विरोध, जलियाँवाला बाग काण्ड और उसके बाद उसी साल 1919 में हुए अमृतसर के कांग्रेस के अधिवेशन पर गाँधी के बढते प्रभाव के रूप में देख चुके थे। हम जानते हैं पं. जवाहरलाल नेहरु के पिता पं. मोतीलाल नेहरु ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की थी, मगर कांग्रेसी प्रतिनिधि और बाहर का जनसैलाब सिर्फ गाँधी को सुनने को आतुर था।
इसके बाद जब 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ, तब गाँधी केंद्र में आ चुके थे। वे इस अधिवेशन में कांग्रेस का नया जनतांत्रिक संविधान तो लाए ही; साथ ही भारतीय लघु और कुटीर उद्योग को पुनः खडा करने की नियत से खादी का पहनावा लाए और राष्ट्रवाद की बुनियाद की मजबूती के लिए हिन्दुस्तानी भाषा का उपयोग सर्वमान्य किया गया और जिन्ना जैसे परिष्कृत और आंग्ल लिबास, संस्कृति और भाषा वालों के लिए कांग्रेस अब असहज जगह होने लगी थी और वे दूरी बनाने लगे थे। इतना ही नहीं इसी साल (1920) में मुस्लिम लीग की एक अहम् बैठक भी इलाहाबाद में सय्यद रजा अली के घर पर हुई थी जिसमे मौलाना शौकत अली भी मौजूद थे। यानी अकबर से कांग्रेस हो या मुस्लिन लीग किसी की सियासत बची नहीं थी। उनकी पैनी नजर सब तरफ थी। इतना ही नहीं हमें यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि संयुक्त प्रान्त की राजधानी जो 1857 की क्रान्ति के बाद आगरा से इलाहाबाद आई थी अभी यहीं पर ही थी। इलाहाबाद आंग्ल सत्ता का एक प्रमुख केंद्र था। इसीलिए अकबर मुल्क की पूरी सियासत और उसपर सरकार बहादुर की प्रतिक्रिया को न केवल देख रहे थे बल्कि उसकी नब्ज पर अपनी उंगली का घेरा बनाए, सबकुछ जान रहे थे। इसीलिए वे गाँधीनामा के बिलकुल शुरू में जो उद्घोष करते हैं हम उस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करके अपनी बात कहना चाहते हैं या यूँ कहें कि अकबर को समझने की एक कोशिश करना चाहते हैं।
गाँधीनामा की शुरुआत समझते ही हमें वो पूरा परिवेश समझ आने लगता है जो इस महत्त्वपूर्ण कृति में संदर्भित है। इसके तेवर को तो इसके पहले ही लफ्ज से समझा जा सकता है- इंकलाब! वे अपने अध्ययन और अनुभव के साथ दुनिया भर के इतिहास या तारिख से वाकिफ थे और इंकलाब का मतलब जानकर इस लफ्ज से गाँधीनामा की शुरुआत की थी। इंकलाब वैसे भी महज कोई नारा नहीं है और एक निहायत पढे-लिखे और तजुर्बेकार इंसान के लिए तो हरगिज नहीं? उनके लिए यह अपने-आप में एक पूरी क्रांति है - व्यवस्था बदलने का निहायत नया अंदाज। दुनिया में इससे पहले जितनी भी क्रांतियाँ हुईं, वे सब रक्त-रंजित या खूनी ही रहीं हैं। इस लिहाज से भी यह क्रांतियों की तारीख में भी गाँधी का अहिंसक आन्दोलन एक इंकलाब ही था। जैसा वे आगे खुद लिखते हैं गाँधी बिना हथियार के- अहिंसा से यहाँ इंकलाब लाना चाहते हैं- दुनिया की तारीख में यह वाकई अजूबा था- एक इंकिलाबी इंकलाब!
गाँधी के भारत लौटने से पहले दक्षिण अफ्रीका में अहिंसा के सफल प्रयोग और परीक्षण और उनके इंकलाब के तरीके और उसकी उपलब्धि से अकबर इलाहाबादी भली-भाँति वाकिफ थे। वे जानते थे कैसे अपने सिद्धांतों पर डटे रहकर दो दशकों तक लडते हुए मजबूत औपनिवेशिक सत्ता को अहिंसा के तरीके से वे वहाँ पर हरा कर आए हैं। हिंदुस्तान में भी वही सत्ता काबिज थी और उसके वही रंग-ढंग थे जिससे अकबर अपनी मुलाजमत के दौरान खुद जान-समझ चुके थे। इसीलिए शायद वे गाँधी, उनके इंकलाब और उसकी कामयाबी के प्रति भी आश्वस्त हैं! तभी वो पहला ही मिसरा, इंकलाब आया, नई दुनियाँ नया हंगामा है, जैसे क्रांति के उद्घोष के साथ ही वे उसकी सफलता का भी परचम लहराने का ऐलान कर देते हैं, तो ये है शुरुआत अकबर इलाहाबादी के गाँधीनामा की।
इस पहले ही मिसरे के इस ऐलान के पीछे उनकी तालीम, उनके तजुर्बे के साथ उनकी तारीखी समझ, गहन अध्ययन और गहरी अदीबी शख्सियत को समझना पडेगा, तब उस व्यापक फलक को समझ सकेंगे, जो इस पहले मिसरे में इशारा है। हमें याद रखना है कि वे नई दुनिया की बात कर रहे हैं। नई दुनिया की क्रांतियाँ या इंकलाब की कामयाबी तभी तय होती है, जब आप उसके लिए पूरी तरह से तैयार हों। यानी जो व्यवस्था बदलनी हो उसके एवज में जो वैकल्पिक व्यवस्था है उसका पूरा खाका तैयार हो, सिर्फ जेहन या मुँह-जुबानी ही नहीं बल्कि जिसे हम ब्ल्यूप्रिंट कहते हैं, उस तरह से! गाँधी के इंकलाब का ब्ल्यूप्रिंट न केवल तैयार था अपितु वह दूर दक्षिण अफ्रीका की प्रयोगशाला में कामयाब भी हो चुका था। हिंदुस्तान में भी उन्हीं शक्तियों और उन्हीं मुद्दों से टकराना था। इसीलिए अभी गाँधी का पहला बडा आन्दोलन-असहयोग आन्दोलन शुरू भर हुआ था और अकबर साहब उसके कामयाब होने की इबारत ही एक तरह से लिख गए । हमें याद रखना होगा कि अकबर इलाहाबादी सितम्बर 1921 में गुजर भी गए थे।
जिस शख्स को तारीखी इल्म या इतिहास का जबरदस्त ज्ञान होगा, वही तो इंकलाब की वास्तविकता को समझेगा कि नई दुनिया में फ्रांसीसी क्रांति (1789) इसीलिए सफल हुई थीं क्योंकि न केवल वहाँ इंकलाब की तैयारी थी, बल्कि इंकलाब के बाद क्या व्यवस्था होगी वह वैकल्पिक व्यवस्था भी तैयार थी। इस विकल्प के बिना इंकलाब सिर्फ बगावत करार कर दिया जाता है। यह दर्द उनको था क्योंकि उनके किशोर मन ने 1857 की क्रान्ति की असफलता और उसके परिणामों का दंश झेला था और यह कहीं बहुत गहरे उनके अवचेतन को प्रभावित कर गया था। इसीलिए वे दक्षिण अफ्रीका में अहिंसा के हथियार और तरीके से सफल हुए गाँधी में सफल इंकलाब देख रहे थे और खुलकर उनकी कामयाबी का यूँ पहले ही शेर में ऐलान कर रहे थे।
चूँकि, गाँधी के हिंदुस्तान आगमन से पहले ही 1917 में रुसी क्रांति हो चुकी थी। अतः अकबर इंकलाब और उसके परिणाम और इससे होने वाले असर के मानी भी समझ रहे थे। लेकिन जहाँ ये क्रांतियाँ या इंकलाब हिंसा पर आधारित होकर सशस्त्र क्रांतियाँ थीं, वहीं गाँधी उसी समय दक्षिण अफ्रीका में इसके ठीक उलट एक सफल अहिंसक क्रान्ति कर आए थे। अकबर खुद इसी तबियत के इन्सान थे - शायद इल्म की दुनिया के संवेदनशील लोग ऐसे हो ही जाते हैं। इसीलिए वे गाँधी और उनके फलसफे से इत्तिफाक रखते दिखते हैं। वे अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी हर भाषा के अच्छे जानकार थे। चूँकि उन्हें अंग्रेजी आती थी और इलाहाबाद में जमुना पुल बन रहा था वहाँ उनको नाप-तौल विभाग में नौकरी मिल गई। उनकी ईमानदारी और भाषाई ज्ञान के चलते ही उन्हें रेलवे के मालगोदाम में नियुक्त किया गया था। और फिर नायब-तहसीलदार हो गए थे। इसी नौकरी में रहते, तो डिप्टी कलेक्टर होकर सेवानिवृत्त होते मगर शायराना तबियत और इन्कलाबी मिजाज के कलते इतनी इज्जत वाली नौकरी छोड ही दी!
अकबर इसके बाद कचहरी में नकल-नवीस हो गए क्यूँकि सभी भाषाओं पर उनकी असाधारण पकड थी। अगर शुरू से देखें, तो बारां तहसील में जन्म यानी कृषकों और 1857 के पहले और बाद में उनकी दशा से भली-भाँति वाकिफ थे। फिर चाहें जमुना पुल के निर्माण के दौरान या रेलवे मालगोदाम में काम करने के तजुर्बे ने उन्हें श्रमिकों की भी हालत से रु-ब-रु करवा दिया था। फिर नकल-नवीस होकर कानून की पेचीदगी और मुवक्किलों की हालत ने शायद उनको वकालत की ओर प्रेरित किया। साल 1873 में वकालत की परीक्षा उतीर्ण करके वकालत करते हुए वे 1880 में मुंसिफ मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए और पदोन्नत होते हुए जिल जज तक बने। इसीलिए वे अंग्रेजी हुकूमत के हर पहलू और अन्याय से वाकिफ थे और इंकलाब के तरफदार इसीलिए हुए कि व्यवस्था बदलने की आवश्यकता समझते थे। ऐसा शायर जो फ्रांसीसी और रुसी क्रांतियों के बारे में जानता था और वैसी ही किसी उम्मीद पे जी रहा था, वह जाहिर हैं दक्षिण अफ्रीका में गाँधी की सफलता से रौशनी देख रहा था।
जिस तरह वे न्यायालय और कानून से वाकिफ थे इसलिए वे आंग्ल सत्ता द्वारा किए जा रहे कानूनी परिवर्तनों और उनकी मंशा को समझ रहे थे। भारतीयों की जागृति को दबाने के लिए औपनिवेशिक सत्ता द्वारा जो नए काले कानून बनाए जा रहे थे। उसकी ओर इशारा करते हुए ही अकबर ने गाँधी के अहिंसक आन्दोलन को नया हंगामा कहा है। हमें याद रखना चाहिए कि अकबर बहुत पढे-लिखे व्यक्ति थे और जाहिर ही है उनके तजुर्बे का विस्तार भी बहुत था। अतः वे आंग्ल सत्ता के चरित्र से अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे जानते थे कि औपनिवेशिक सत्ता की स्थापना बल पर आधारित थी और गाँधी ने मेरित्जबर्ग रेलवे स्टेशन से जो सबक सीखा था - वह प्रतिरोध का एक नए किस्म का हंगामा ही था जिसका कोई इलाज अंग्रेज हुक्मरानों को समझ ही नहीं आ रहा था। सशत्र विद्रोह और हिंसक प्रदर्शन को दबाने के लिए तो इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के बस बल और शक्ति थी, मगर शांतिपूर्ण सत्याग्रह निश्चित ही उनके लिए एक नया हंगामा ही था और इस नए हंगामे के सम्बन्ध में दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख प्रशासक जनरल स्मट्स के सचिव ने खुद गाँधी को गिरफ्तारी से बिना शर्त रिहा करते हुए स्वीकार किया था कि हमलोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि हम आफ इस शांतिपूर्ण आन्दोलन का कैसे मुकाबला करें और गाँधी दक्षिण अफ्रीका में आंग्ल सत्ता को अपने अन्य हंगामे के आगे विवश कर के सफल होकर ही भारत आए थे।
अकबर जब गाँधीनामा लिख रहे हैं, तब वे जानते हैं कि गाँधी चंपारण, खेडा की कृषक समस्या और अहमदाबाद के श्रमिकों की समस्या का भी समाधान अपने सत्याग्रह से कर चुके थे। अतः यह सत्ताधीशों के लिए नया हंगामा ही था? कानून का जानकार और अनेकों महत्त्वपूर्ण वादों में निर्णय करने वाले अकबर को मालूम था कि आंग्ल विधि इस नए हंगामे को नियंत्रित करने में कितनी सफल हो पाएगी। इसलिए वे गाँधी के इंकलाब को नया इंकलाब मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यह इंकलाब इसीलिए कामयाब होगा क्योंकि इसका कोई नियम-कानून पहले से है ही नहीं, जो इसे नियंत्रण कर सके। अतः उनके हिसाब से इसका हश्र 1857 की क्रान्ति जैसा नहीं होगा।
अब आईए इसके दूसरे मिसरे की तरफ चला जाए। इसका पहला ही लफ्ज है शाहनामा और वे लिखते हैं- शाहनामा हो चुका।...यह शायरी में न तो कोई फिरकापरस्ती है और न ही कोई जुमला। यह तारीख या इतिहास की एक लम्बी परंपरा है - ये वो ही आलिम जानता है जो इतिहास से सिर्फ वाकिफ ही नहीं बल्कि इतिहास-लेखन की लम्बी परंपरा से भी परिचित है। इतिहास-लेखन की एक परंपरा अगर पूरे परिवेश को लेकर वैदिक वाङ्गमय में चल रही है, तो ईरानी परम्परा हमें अवेस्ता में दिखती है, क्योंकि मानव-इतिहास में सबसे पुरानी राजतंत्रीय परम्परा हमें उसी में मिलती है! इसीलिए अकबर कहते हैं कि शाहनामा हो चुका।....यानी वंशीय इतिहास ही नहीं खत्म हुआ बल्कि चूँकि वंशीय इतिहास का आधार ही राजतन्त्र है। अतः इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की नींव अब हिल चुकी है। वस्तुतः साम्राज्यवाद खुद राजतंत्रीय सिद्धांतों पर आधारित होता है, अतः अब इस नये जमाने की आँधी में ये पुरानी संस्थाएँ खत्म होकर रहेंगी - चाहें रुसी क्रान्ति जैसी सशस्त्र क्रान्ति हो या गाँधी की अहिंसक क्रान्ति, नई जागृति के बाद ये व्यवस्था बदलेगी ही।
फिरदौसी का शाहनामा उस पुरानी राजतंत्रीय इतिहास-लेखन परंपरा का सबसे बेहतरीन नमूना था। अतः जब रुसी क्रान्ति के बाद राजतन्त्र खत्म हुआ तब शाहनामा का भी दौर खत्म होने को है। हिंदुस्तान में एक नई तरीके का इंकलाब गाँधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद आ गया है वो इस विद्वान शायर की पारखी नजरों ने बहुत पहले पहचान लिया था। इससे पहले के सियासी लोगों के बारे में उनकी राय बहुत अच्छी नहीं थी, तभी तो वे लिखते हैं-
कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज लीडर का बहुत है, मगर आराम के साथ।
यानी अकबर भली-भाँति इस कौमी सियासत को समझ रहे थे जिसके बारे में हम पहले उल्लेख कर ही आए हैं, चाहें बंगाल का विभाजन हो; या 1909 तथा 1919 के अधिनियम हों। गाँधी और दक्षिण अफ्रीका में उनके अन्दोलन और उसकी सफलता के बारे में खूब पढा होगा, तभी वे जानते थे कि जब ज्यूइश या एम्पायर थिएटर जल गया तब गाँधी को सभाओं के आयोजन के लिए बडी जगह एक ही दिखी और वह थी मस्जिद। सारी सभाएँ जोहानेस्बर्ग की प्रसिद्ध मस्जिद के मैदान में ही हुईं। फिर वहाँ जिस तरह से उन्होंने कौमी एकता स्थापित की थी, इसीलिए अकबर को विश्वास था कि गाँधी ही उनके इंकलाब की रौशनी हैं।
यहीं हम दूसरी बात की तरफ भी इशारा करना चाहेंगे कि शाहनामा का प्रसिद्ध कवि फिरदौसी भी ईरानी था और अकबर इलाहाबादी के पुरखे भी ईरानी थे, अतः फारसी में पारंगत अकबर ने शाहनामा का जक्र किया है - जो पूरी राजतंत्रीय व्यवस्था और उसके वैभव-गान का प्रतीक था और तब वे आगे के दौर की बात करते हैं कि वह कैसा और कौन-सा होगा! लेकिन उससे पहले हम ईरान की बात कर लें। अकबर के पुरखे ईरान के पश्चिमोत्तर बसे निशापुर के निवासी थे और जब अवध में मुगल बादशाह औरंग*ोब के प्रसिद्ध दीवान-वजीर सआदत खां ने स्वतंत्र राज्य बना लिए तब उनके पुरखों को यहाँ इलाहाबाद में, जमुना-पार बारां तहसील में जमींदारी मिली थी। जमुना पार बस कर जमुना मिशन स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने वाले अकबर गंगा-जमुनी तहजीब के कायल ही नहीं थे बल्कि आधुनिक काल के वास्तविक पथ-प्रदर्शकों में से थे। इसीलिए उन्हें कौमी नेतृत्व से बेहतर गाँधी की कौमी-एकता की राजनीति और दृष्टिकोण अच्छा लगा था।
इतिहास को अच्छे से पढने-समझने वाले अकबर इलाहाबादी जानते थे कि सभ्यताएँ रक्त-रंजित क्रान्तियों से कैसे विनष्ट होती हैं, इसीलिए वे शाहनामा के दौर के अंत की घोषणा करने से नहीं चूकते हैं। उनके अपने पैतृक स्थान का इतिहास ही उन्हें सिखा चुका था कि कैसे यह शहर निशापुर प्रसिद्ध सिल्क रूट या रेशम-मार्ग पर स्थित था, जो चीन से भू-मध्यसागर तक और तुर्की होते हुए यूरोप तक जाता था। कैसे उनके मूल निवास निशापुर ने अब्बासी खलीफाओं के काल से तहीरिद वंश, उसके बाद सफाविद फिर समानिद वंशों का दौर देखा और हर बार ही सत्ता या वंश परिवर्तन, रक्त-रंजित रहा था। तुर्कों ने भी ओग्हुज द्वारा विनाश से निशापुर पर कब्जा जमाया था और महमूद गजनी का शासन एक अलग दास्तान ही रहा। उसके बाद निशापुर को चंगेज खां के दौर में, उसकी पुत्री ने अपने पति की मौत के प्रतिशोध के बाद कैसे पूरा निशापुर ही विनष्ट करवाया था - उन्होनें इस के बारे में पढा था। यानी वे इतिहास में गाँधी के पदार्पण को वस्तुतः एक क्रान्ति मान रहे थे, अब तक का इतिहास फिर चाहें हिंदुस्तान का हो या उनके निशापुर का - यही बता रहा था कि कितना खून-खराबा होता आया है और इसीलिए शायद उनकी नजर में असली इंकलाब का दौर गाँधी के अहिंसक इंकलाब से शुरू हुआ है। इसीलिए वे गाँधीनामा के शुरुआत में ही अपने दूसरे मिसरे में ही उद्घोष करते हैं शाहनामा हो चुका...! वैसे एक बात प्रसंगवश बताना चाहेंगे, इसी निशापुर में प्रसिद्ध कवि/शाईर ओमर खय्याम भी दफन हैं!
अकबर गाँधीनामा के पहले ही शेर में जैसे पूरी लम्बी न*म का मजमून लिख जाते हैं। इतना ही नहीं जब वे ये दूसरा मिसरा पूरा करते हैं शाहनामा हो चुका अब दौर-ए-गाँधीनामा है। हमें मालूम है कि इतिहासकार अब सब बीत जाने के बाद 1920 से लेकर आजादी तक की अवधि को गाँधी युग कहते हैं, मगर उस गाँधी युग के शुरू होने से पहले ही सिर्फ अकबर ने उस आने वाले युग को पहचाना था। जैसा बाद में फिराक ने एक न*म में लिखा भी है- बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं !...अगर किसी ने गाँधी के पहले ही राष्ट्रीय स्तर के आन्दोलन के अंजाम तक पहुँचने से पहले इसको भाँप लिया था, तो वे अकबर इलाहाबादी थे। कहते भी हैं कि कवि अपने समय से बहुत आगे का काल देख लेता है और उसके लिए कालजयी रचनाएँ देना इसीलिए मुमकिन भी होता है। बस याद दिला दें, अकबर इलाहाबादी की मृत्यु सितम्बर 1921 में हो गयी थी, फिर भी वे उससे पहले ही गाँधीनामा लिख गए थे। साहित्य की कसौटी के हर लिहाज से यह एक कालजयी रचना है।
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सम्पर्क - 8/5 ए, बैंक रोड, इलाहाबाद - 211002; मोबाइल 9452799008।
ई मेल- heramb.chaturvedi@gmail.com
वैसे यह भी सच है कि अगर ऐसे बेहतरीन शायर, ज्ञानी एवं अनुभवी व्यक्ति और कानून के विशेषज्ञ, अकबर इलाहाबादी के गाँधीनामा पर लिखा जाए, तो एक लेख में उनके फलक को समेटना कठिन ही नहीं, नामुमकिन ही होगा। फिर भी कोशिश करेंगे कि साफतौर पर स्थापित हो सके कि जो अकबर ने गाँधीनामा लिखा वह क्यूँ लिखा? क्या सरकार के खौफसे इसे कोई छापने को तैयार नहीं था या अकबर एक न्यायाधीश की आचार-संहिता खुद बनाकर उसको निभा रहे थे? एक बात और, गाँधी के सत्य और अहिंसा के वे भी कायल थे वरना आँख की कमजोरी की वजह से, स्वेच्छा से नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद भी जज एकरमन की सेवानिवृत्ति के बाद, उच्च न्यायालय में जजी का लालच भी उनके निर्णय को डिगा नहीं पाया। ऐसी सत्यनिष्ठा को जब अमली जमा पहनाया जाता है, तभी तो वह सत्याग्रह होता है। कितना साम्य था अकबर इलाहाबादी और गाँधी में! शायद इसीलिए अकबर ने इतनी परिपक्व और बडी रचना गाँधीनामा लिखी।
वैसे यह समझ आता है कि अकबर की यह महत्त्वपूर्ण कृति गाँधीजी के हिंदुस्तान वापस आने के बाद ही नहीं बल्कि दिसम्बर, 1919 के बाद और अकबर साहब के इंतकाल यानी सितम्बर 1921 के बीच में लिखी गयी है। हमें इस कालखण्ड को अच्छे से समझना चाहिए तभी हम गाँधीनामा के भाव को समझ पाएँगे। हिंदुस्तान में इसी बीच सांप्रदायिक आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन जैसी कुत्सित चाल अंग्रेज चल चुके थे और स्वदेशी के साथ क्रान्तिकारी गतिविधियाँ शुरू हो गयीं थीं और अंग्रेज परेशान होने के बावजूद उन्हें दबाने में काफी सफल भी रहे थे। फिर आया 1909 का काला कानून, जिसमें सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के जरिये इसे हवा दी गयी। भले ही 1911 में बंगाल विभाजन निरस्त करना पडा हो फिर भी 1919 के अधिनियम ने प्रतिनिधित्व वाली सरकार कायम करने के नाम पर इस सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के प्रावधान को प्रांतीय स्तर और म्युनिसिपेलिटी आदि के चुनावों के जरिये बिलकुल घर-घर पहुँचाने की चाल चली थी!
जाहिर ही अकबर सब देख समझ रहे थे, मगर अपनी नौकरी और एक न्यायाधीश की हैसियत से वे चाहकर भी सरकार के खिलाफ सडक पर तो नहीं उतर सकते थे मगर हम जानते हैं कि वे कलम से विरोध करते रहे और उसकी वकालत भी अपने अशआरों, नज्मों, गजलों में करते रहे, जैसा कि कुल्लियाते-अकबर के चारों खण्डों को पढकर सहज अनुमान हो भी जाता है। बस एक मिश्रा ही काफी है उनके इस मिजाज के उदाहरण के लिए, जब वे कहते हैं- जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो! कितना साम्य है गाँधी और अकबर की सोच में - इनसे इनकी तरह से नहीं, दिमाग से जीतो। अकबर के सामने गाँधी के असहयोग आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी और अकबर की पैनी नजर बहुत दूर तक देख रही थी कि अब क्या होगा? मगर इससे पहले अकबर गाँधी का असर रॉलेट एक्ट के विरोध, जलियाँवाला बाग काण्ड और उसके बाद उसी साल 1919 में हुए अमृतसर के कांग्रेस के अधिवेशन पर गाँधी के बढते प्रभाव के रूप में देख चुके थे। हम जानते हैं पं. जवाहरलाल नेहरु के पिता पं. मोतीलाल नेहरु ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की थी, मगर कांग्रेसी प्रतिनिधि और बाहर का जनसैलाब सिर्फ गाँधी को सुनने को आतुर था।
इसके बाद जब 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ, तब गाँधी केंद्र में आ चुके थे। वे इस अधिवेशन में कांग्रेस का नया जनतांत्रिक संविधान तो लाए ही; साथ ही भारतीय लघु और कुटीर उद्योग को पुनः खडा करने की नियत से खादी का पहनावा लाए और राष्ट्रवाद की बुनियाद की मजबूती के लिए हिन्दुस्तानी भाषा का उपयोग सर्वमान्य किया गया और जिन्ना जैसे परिष्कृत और आंग्ल लिबास, संस्कृति और भाषा वालों के लिए कांग्रेस अब असहज जगह होने लगी थी और वे दूरी बनाने लगे थे। इतना ही नहीं इसी साल (1920) में मुस्लिम लीग की एक अहम् बैठक भी इलाहाबाद में सय्यद रजा अली के घर पर हुई थी जिसमे मौलाना शौकत अली भी मौजूद थे। यानी अकबर से कांग्रेस हो या मुस्लिन लीग किसी की सियासत बची नहीं थी। उनकी पैनी नजर सब तरफ थी। इतना ही नहीं हमें यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि संयुक्त प्रान्त की राजधानी जो 1857 की क्रान्ति के बाद आगरा से इलाहाबाद आई थी अभी यहीं पर ही थी। इलाहाबाद आंग्ल सत्ता का एक प्रमुख केंद्र था। इसीलिए अकबर मुल्क की पूरी सियासत और उसपर सरकार बहादुर की प्रतिक्रिया को न केवल देख रहे थे बल्कि उसकी नब्ज पर अपनी उंगली का घेरा बनाए, सबकुछ जान रहे थे। इसीलिए वे गाँधीनामा के बिलकुल शुरू में जो उद्घोष करते हैं हम उस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करके अपनी बात कहना चाहते हैं या यूँ कहें कि अकबर को समझने की एक कोशिश करना चाहते हैं।
गाँधीनामा की शुरुआत समझते ही हमें वो पूरा परिवेश समझ आने लगता है जो इस महत्त्वपूर्ण कृति में संदर्भित है। इसके तेवर को तो इसके पहले ही लफ्ज से समझा जा सकता है- इंकलाब! वे अपने अध्ययन और अनुभव के साथ दुनिया भर के इतिहास या तारिख से वाकिफ थे और इंकलाब का मतलब जानकर इस लफ्ज से गाँधीनामा की शुरुआत की थी। इंकलाब वैसे भी महज कोई नारा नहीं है और एक निहायत पढे-लिखे और तजुर्बेकार इंसान के लिए तो हरगिज नहीं? उनके लिए यह अपने-आप में एक पूरी क्रांति है - व्यवस्था बदलने का निहायत नया अंदाज। दुनिया में इससे पहले जितनी भी क्रांतियाँ हुईं, वे सब रक्त-रंजित या खूनी ही रहीं हैं। इस लिहाज से भी यह क्रांतियों की तारीख में भी गाँधी का अहिंसक आन्दोलन एक इंकलाब ही था। जैसा वे आगे खुद लिखते हैं गाँधी बिना हथियार के- अहिंसा से यहाँ इंकलाब लाना चाहते हैं- दुनिया की तारीख में यह वाकई अजूबा था- एक इंकिलाबी इंकलाब!
गाँधी के भारत लौटने से पहले दक्षिण अफ्रीका में अहिंसा के सफल प्रयोग और परीक्षण और उनके इंकलाब के तरीके और उसकी उपलब्धि से अकबर इलाहाबादी भली-भाँति वाकिफ थे। वे जानते थे कैसे अपने सिद्धांतों पर डटे रहकर दो दशकों तक लडते हुए मजबूत औपनिवेशिक सत्ता को अहिंसा के तरीके से वे वहाँ पर हरा कर आए हैं। हिंदुस्तान में भी वही सत्ता काबिज थी और उसके वही रंग-ढंग थे जिससे अकबर अपनी मुलाजमत के दौरान खुद जान-समझ चुके थे। इसीलिए शायद वे गाँधी, उनके इंकलाब और उसकी कामयाबी के प्रति भी आश्वस्त हैं! तभी वो पहला ही मिसरा, इंकलाब आया, नई दुनियाँ नया हंगामा है, जैसे क्रांति के उद्घोष के साथ ही वे उसकी सफलता का भी परचम लहराने का ऐलान कर देते हैं, तो ये है शुरुआत अकबर इलाहाबादी के गाँधीनामा की।
इस पहले ही मिसरे के इस ऐलान के पीछे उनकी तालीम, उनके तजुर्बे के साथ उनकी तारीखी समझ, गहन अध्ययन और गहरी अदीबी शख्सियत को समझना पडेगा, तब उस व्यापक फलक को समझ सकेंगे, जो इस पहले मिसरे में इशारा है। हमें याद रखना है कि वे नई दुनिया की बात कर रहे हैं। नई दुनिया की क्रांतियाँ या इंकलाब की कामयाबी तभी तय होती है, जब आप उसके लिए पूरी तरह से तैयार हों। यानी जो व्यवस्था बदलनी हो उसके एवज में जो वैकल्पिक व्यवस्था है उसका पूरा खाका तैयार हो, सिर्फ जेहन या मुँह-जुबानी ही नहीं बल्कि जिसे हम ब्ल्यूप्रिंट कहते हैं, उस तरह से! गाँधी के इंकलाब का ब्ल्यूप्रिंट न केवल तैयार था अपितु वह दूर दक्षिण अफ्रीका की प्रयोगशाला में कामयाब भी हो चुका था। हिंदुस्तान में भी उन्हीं शक्तियों और उन्हीं मुद्दों से टकराना था। इसीलिए अभी गाँधी का पहला बडा आन्दोलन-असहयोग आन्दोलन शुरू भर हुआ था और अकबर साहब उसके कामयाब होने की इबारत ही एक तरह से लिख गए । हमें याद रखना होगा कि अकबर इलाहाबादी सितम्बर 1921 में गुजर भी गए थे।
जिस शख्स को तारीखी इल्म या इतिहास का जबरदस्त ज्ञान होगा, वही तो इंकलाब की वास्तविकता को समझेगा कि नई दुनिया में फ्रांसीसी क्रांति (1789) इसीलिए सफल हुई थीं क्योंकि न केवल वहाँ इंकलाब की तैयारी थी, बल्कि इंकलाब के बाद क्या व्यवस्था होगी वह वैकल्पिक व्यवस्था भी तैयार थी। इस विकल्प के बिना इंकलाब सिर्फ बगावत करार कर दिया जाता है। यह दर्द उनको था क्योंकि उनके किशोर मन ने 1857 की क्रान्ति की असफलता और उसके परिणामों का दंश झेला था और यह कहीं बहुत गहरे उनके अवचेतन को प्रभावित कर गया था। इसीलिए वे दक्षिण अफ्रीका में अहिंसा के हथियार और तरीके से सफल हुए गाँधी में सफल इंकलाब देख रहे थे और खुलकर उनकी कामयाबी का यूँ पहले ही शेर में ऐलान कर रहे थे।
चूँकि, गाँधी के हिंदुस्तान आगमन से पहले ही 1917 में रुसी क्रांति हो चुकी थी। अतः अकबर इंकलाब और उसके परिणाम और इससे होने वाले असर के मानी भी समझ रहे थे। लेकिन जहाँ ये क्रांतियाँ या इंकलाब हिंसा पर आधारित होकर सशस्त्र क्रांतियाँ थीं, वहीं गाँधी उसी समय दक्षिण अफ्रीका में इसके ठीक उलट एक सफल अहिंसक क्रान्ति कर आए थे। अकबर खुद इसी तबियत के इन्सान थे - शायद इल्म की दुनिया के संवेदनशील लोग ऐसे हो ही जाते हैं। इसीलिए वे गाँधी और उनके फलसफे से इत्तिफाक रखते दिखते हैं। वे अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी हर भाषा के अच्छे जानकार थे। चूँकि उन्हें अंग्रेजी आती थी और इलाहाबाद में जमुना पुल बन रहा था वहाँ उनको नाप-तौल विभाग में नौकरी मिल गई। उनकी ईमानदारी और भाषाई ज्ञान के चलते ही उन्हें रेलवे के मालगोदाम में नियुक्त किया गया था। और फिर नायब-तहसीलदार हो गए थे। इसी नौकरी में रहते, तो डिप्टी कलेक्टर होकर सेवानिवृत्त होते मगर शायराना तबियत और इन्कलाबी मिजाज के कलते इतनी इज्जत वाली नौकरी छोड ही दी!
अकबर इसके बाद कचहरी में नकल-नवीस हो गए क्यूँकि सभी भाषाओं पर उनकी असाधारण पकड थी। अगर शुरू से देखें, तो बारां तहसील में जन्म यानी कृषकों और 1857 के पहले और बाद में उनकी दशा से भली-भाँति वाकिफ थे। फिर चाहें जमुना पुल के निर्माण के दौरान या रेलवे मालगोदाम में काम करने के तजुर्बे ने उन्हें श्रमिकों की भी हालत से रु-ब-रु करवा दिया था। फिर नकल-नवीस होकर कानून की पेचीदगी और मुवक्किलों की हालत ने शायद उनको वकालत की ओर प्रेरित किया। साल 1873 में वकालत की परीक्षा उतीर्ण करके वकालत करते हुए वे 1880 में मुंसिफ मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए और पदोन्नत होते हुए जिल जज तक बने। इसीलिए वे अंग्रेजी हुकूमत के हर पहलू और अन्याय से वाकिफ थे और इंकलाब के तरफदार इसीलिए हुए कि व्यवस्था बदलने की आवश्यकता समझते थे। ऐसा शायर जो फ्रांसीसी और रुसी क्रांतियों के बारे में जानता था और वैसी ही किसी उम्मीद पे जी रहा था, वह जाहिर हैं दक्षिण अफ्रीका में गाँधी की सफलता से रौशनी देख रहा था।
जिस तरह वे न्यायालय और कानून से वाकिफ थे इसलिए वे आंग्ल सत्ता द्वारा किए जा रहे कानूनी परिवर्तनों और उनकी मंशा को समझ रहे थे। भारतीयों की जागृति को दबाने के लिए औपनिवेशिक सत्ता द्वारा जो नए काले कानून बनाए जा रहे थे। उसकी ओर इशारा करते हुए ही अकबर ने गाँधी के अहिंसक आन्दोलन को नया हंगामा कहा है। हमें याद रखना चाहिए कि अकबर बहुत पढे-लिखे व्यक्ति थे और जाहिर ही है उनके तजुर्बे का विस्तार भी बहुत था। अतः वे आंग्ल सत्ता के चरित्र से अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे जानते थे कि औपनिवेशिक सत्ता की स्थापना बल पर आधारित थी और गाँधी ने मेरित्जबर्ग रेलवे स्टेशन से जो सबक सीखा था - वह प्रतिरोध का एक नए किस्म का हंगामा ही था जिसका कोई इलाज अंग्रेज हुक्मरानों को समझ ही नहीं आ रहा था। सशत्र विद्रोह और हिंसक प्रदर्शन को दबाने के लिए तो इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के बस बल और शक्ति थी, मगर शांतिपूर्ण सत्याग्रह निश्चित ही उनके लिए एक नया हंगामा ही था और इस नए हंगामे के सम्बन्ध में दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख प्रशासक जनरल स्मट्स के सचिव ने खुद गाँधी को गिरफ्तारी से बिना शर्त रिहा करते हुए स्वीकार किया था कि हमलोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि हम आफ इस शांतिपूर्ण आन्दोलन का कैसे मुकाबला करें और गाँधी दक्षिण अफ्रीका में आंग्ल सत्ता को अपने अन्य हंगामे के आगे विवश कर के सफल होकर ही भारत आए थे।
अकबर जब गाँधीनामा लिख रहे हैं, तब वे जानते हैं कि गाँधी चंपारण, खेडा की कृषक समस्या और अहमदाबाद के श्रमिकों की समस्या का भी समाधान अपने सत्याग्रह से कर चुके थे। अतः यह सत्ताधीशों के लिए नया हंगामा ही था? कानून का जानकार और अनेकों महत्त्वपूर्ण वादों में निर्णय करने वाले अकबर को मालूम था कि आंग्ल विधि इस नए हंगामे को नियंत्रित करने में कितनी सफल हो पाएगी। इसलिए वे गाँधी के इंकलाब को नया इंकलाब मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यह इंकलाब इसीलिए कामयाब होगा क्योंकि इसका कोई नियम-कानून पहले से है ही नहीं, जो इसे नियंत्रण कर सके। अतः उनके हिसाब से इसका हश्र 1857 की क्रान्ति जैसा नहीं होगा।
अब आईए इसके दूसरे मिसरे की तरफ चला जाए। इसका पहला ही लफ्ज है शाहनामा और वे लिखते हैं- शाहनामा हो चुका।...यह शायरी में न तो कोई फिरकापरस्ती है और न ही कोई जुमला। यह तारीख या इतिहास की एक लम्बी परंपरा है - ये वो ही आलिम जानता है जो इतिहास से सिर्फ वाकिफ ही नहीं बल्कि इतिहास-लेखन की लम्बी परंपरा से भी परिचित है। इतिहास-लेखन की एक परंपरा अगर पूरे परिवेश को लेकर वैदिक वाङ्गमय में चल रही है, तो ईरानी परम्परा हमें अवेस्ता में दिखती है, क्योंकि मानव-इतिहास में सबसे पुरानी राजतंत्रीय परम्परा हमें उसी में मिलती है! इसीलिए अकबर कहते हैं कि शाहनामा हो चुका।....यानी वंशीय इतिहास ही नहीं खत्म हुआ बल्कि चूँकि वंशीय इतिहास का आधार ही राजतन्त्र है। अतः इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की नींव अब हिल चुकी है। वस्तुतः साम्राज्यवाद खुद राजतंत्रीय सिद्धांतों पर आधारित होता है, अतः अब इस नये जमाने की आँधी में ये पुरानी संस्थाएँ खत्म होकर रहेंगी - चाहें रुसी क्रान्ति जैसी सशस्त्र क्रान्ति हो या गाँधी की अहिंसक क्रान्ति, नई जागृति के बाद ये व्यवस्था बदलेगी ही।
फिरदौसी का शाहनामा उस पुरानी राजतंत्रीय इतिहास-लेखन परंपरा का सबसे बेहतरीन नमूना था। अतः जब रुसी क्रान्ति के बाद राजतन्त्र खत्म हुआ तब शाहनामा का भी दौर खत्म होने को है। हिंदुस्तान में एक नई तरीके का इंकलाब गाँधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद आ गया है वो इस विद्वान शायर की पारखी नजरों ने बहुत पहले पहचान लिया था। इससे पहले के सियासी लोगों के बारे में उनकी राय बहुत अच्छी नहीं थी, तभी तो वे लिखते हैं-
कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज लीडर का बहुत है, मगर आराम के साथ।
यानी अकबर भली-भाँति इस कौमी सियासत को समझ रहे थे जिसके बारे में हम पहले उल्लेख कर ही आए हैं, चाहें बंगाल का विभाजन हो; या 1909 तथा 1919 के अधिनियम हों। गाँधी और दक्षिण अफ्रीका में उनके अन्दोलन और उसकी सफलता के बारे में खूब पढा होगा, तभी वे जानते थे कि जब ज्यूइश या एम्पायर थिएटर जल गया तब गाँधी को सभाओं के आयोजन के लिए बडी जगह एक ही दिखी और वह थी मस्जिद। सारी सभाएँ जोहानेस्बर्ग की प्रसिद्ध मस्जिद के मैदान में ही हुईं। फिर वहाँ जिस तरह से उन्होंने कौमी एकता स्थापित की थी, इसीलिए अकबर को विश्वास था कि गाँधी ही उनके इंकलाब की रौशनी हैं।
यहीं हम दूसरी बात की तरफ भी इशारा करना चाहेंगे कि शाहनामा का प्रसिद्ध कवि फिरदौसी भी ईरानी था और अकबर इलाहाबादी के पुरखे भी ईरानी थे, अतः फारसी में पारंगत अकबर ने शाहनामा का जक्र किया है - जो पूरी राजतंत्रीय व्यवस्था और उसके वैभव-गान का प्रतीक था और तब वे आगे के दौर की बात करते हैं कि वह कैसा और कौन-सा होगा! लेकिन उससे पहले हम ईरान की बात कर लें। अकबर के पुरखे ईरान के पश्चिमोत्तर बसे निशापुर के निवासी थे और जब अवध में मुगल बादशाह औरंग*ोब के प्रसिद्ध दीवान-वजीर सआदत खां ने स्वतंत्र राज्य बना लिए तब उनके पुरखों को यहाँ इलाहाबाद में, जमुना-पार बारां तहसील में जमींदारी मिली थी। जमुना पार बस कर जमुना मिशन स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने वाले अकबर गंगा-जमुनी तहजीब के कायल ही नहीं थे बल्कि आधुनिक काल के वास्तविक पथ-प्रदर्शकों में से थे। इसीलिए उन्हें कौमी नेतृत्व से बेहतर गाँधी की कौमी-एकता की राजनीति और दृष्टिकोण अच्छा लगा था।
इतिहास को अच्छे से पढने-समझने वाले अकबर इलाहाबादी जानते थे कि सभ्यताएँ रक्त-रंजित क्रान्तियों से कैसे विनष्ट होती हैं, इसीलिए वे शाहनामा के दौर के अंत की घोषणा करने से नहीं चूकते हैं। उनके अपने पैतृक स्थान का इतिहास ही उन्हें सिखा चुका था कि कैसे यह शहर निशापुर प्रसिद्ध सिल्क रूट या रेशम-मार्ग पर स्थित था, जो चीन से भू-मध्यसागर तक और तुर्की होते हुए यूरोप तक जाता था। कैसे उनके मूल निवास निशापुर ने अब्बासी खलीफाओं के काल से तहीरिद वंश, उसके बाद सफाविद फिर समानिद वंशों का दौर देखा और हर बार ही सत्ता या वंश परिवर्तन, रक्त-रंजित रहा था। तुर्कों ने भी ओग्हुज द्वारा विनाश से निशापुर पर कब्जा जमाया था और महमूद गजनी का शासन एक अलग दास्तान ही रहा। उसके बाद निशापुर को चंगेज खां के दौर में, उसकी पुत्री ने अपने पति की मौत के प्रतिशोध के बाद कैसे पूरा निशापुर ही विनष्ट करवाया था - उन्होनें इस के बारे में पढा था। यानी वे इतिहास में गाँधी के पदार्पण को वस्तुतः एक क्रान्ति मान रहे थे, अब तक का इतिहास फिर चाहें हिंदुस्तान का हो या उनके निशापुर का - यही बता रहा था कि कितना खून-खराबा होता आया है और इसीलिए शायद उनकी नजर में असली इंकलाब का दौर गाँधी के अहिंसक इंकलाब से शुरू हुआ है। इसीलिए वे गाँधीनामा के शुरुआत में ही अपने दूसरे मिसरे में ही उद्घोष करते हैं शाहनामा हो चुका...! वैसे एक बात प्रसंगवश बताना चाहेंगे, इसी निशापुर में प्रसिद्ध कवि/शाईर ओमर खय्याम भी दफन हैं!
अकबर गाँधीनामा के पहले ही शेर में जैसे पूरी लम्बी न*म का मजमून लिख जाते हैं। इतना ही नहीं जब वे ये दूसरा मिसरा पूरा करते हैं शाहनामा हो चुका अब दौर-ए-गाँधीनामा है। हमें मालूम है कि इतिहासकार अब सब बीत जाने के बाद 1920 से लेकर आजादी तक की अवधि को गाँधी युग कहते हैं, मगर उस गाँधी युग के शुरू होने से पहले ही सिर्फ अकबर ने उस आने वाले युग को पहचाना था। जैसा बाद में फिराक ने एक न*म में लिखा भी है- बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं !...अगर किसी ने गाँधी के पहले ही राष्ट्रीय स्तर के आन्दोलन के अंजाम तक पहुँचने से पहले इसको भाँप लिया था, तो वे अकबर इलाहाबादी थे। कहते भी हैं कि कवि अपने समय से बहुत आगे का काल देख लेता है और उसके लिए कालजयी रचनाएँ देना इसीलिए मुमकिन भी होता है। बस याद दिला दें, अकबर इलाहाबादी की मृत्यु सितम्बर 1921 में हो गयी थी, फिर भी वे उससे पहले ही गाँधीनामा लिख गए थे। साहित्य की कसौटी के हर लिहाज से यह एक कालजयी रचना है।
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