मेरे जीवन में निर्मल साया
कुशल राजेश्री-बिपिन खन्धार
मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा की रचनाओं के साये में मेरे बीते दशक का लेखा-जोखा।
एक बूँद पानी
क्या एक तितली के पंख फडफडाने से बवंडर का रास्ता चूक सकता है?
क्या पानी की एक बूँद से रेगिस्तान में आशा जडें ले सकती हैं?
क्या एक किताब से जंदगी का रुख बदल सकता है?
मैंने 2011 में जाने-अनजाने एक बीज बोया था। आज उसी बीज से उत्पन्न एक गगनचुंबी वटवृक्ष की छाया के नीचे उस रास्ते को याद कर रहा हूँ जिससे यहाँ पहुँचा। खुला आकाश, शीतल हवा, हाथों को सहारा देता ठोस तना, पैरों तले जमीन, गहरी अगोचर जडें - सभी को शनैः शनैः आते देखा था। पर आज समय के इस विशिष्ट बिंदु पर खडे पहली बार संश्लिष्ट लेखा-जोखा करते हुए इस परिवर्तन के परिमाण का आभास होता है। अचंभित हूँ -अनुभव के स्तर पर जीने के बाद पहली बार प्रत्यक्ष रूप से इस प्रश्न के उत्तर को वाणी देने से - हाँ, एक किताब से जन्दगी का रुख बदल सकता है।
न जी गई जन्दगी का दुःख
मेरे जीवन के बीते बीस साल से जो भाषा मैं बोलता आया था, जिससे दुनिया को जानना-परखना सीखा, अभिव्यक्ति के बुनियादी नियम सीखे, अपने भीतर के पाताल लोक के तमस को शब्द-देह दिया, सारे भौतिक सुख अनुभव किए, एक दिन अचानक अजनबी लगने लगी। एक अनजानी, फीकी जुबान, बुद्धि से लैस पर आत्मीयता के परे। सीने में आतंक का भूचाल आया - अंग्रेजी के अंधे होड में क्या कोई अनमोल चीज पीछे छूट गई है, किसी अंधियारे गलियारे में?
दो दशक भारत में रहते हुए भी मेरे जीवन में अंग्रेजी के एकाधिकार को पहली बार 2011 में लंदन के मेरे निर्वासन के दौरान एक शब्दातीत शक्ति ने ललकारा और हिंदी की ओर पहली बार मेरा अंतर्जगत सजग हुआ। हिंदी की पुकार रहस्यमय, किंतु प्रबल थी। जीवन भर अपने देश की भाषा को नकारने के बाद विदेश में अपनी भाषा की पुकार सुनाई दी थी। तब मैंने अपनी जन्दगी की पहली हिंदी किताब ली। नहीं, वह निर्मल वर्मा की किताब नहीं थी।
कुछ हिंदी किताबें और पत्रिकाएँ पढकर मेरे पूर्वाग्रह को और बल मिला कि हिंदी साहित्य में मेरे जैसे अंग्रेजी भाषी, भौतिक और आर्थिक रूप से सुखी, दुनिया घूमनेवालों का कोई अस्तित्व नहीं न ही हमारे होने का, न ही हमारी व्यथाओं का। बचपन से चली आ रही यही समझ, या गैरसमझ, के कारण ही अपने निजी सत्य को जीने और अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करने का विकल्प सहज रूप से हिंदी या गुजराती न होकर अंग्रेजी में ही था। वयस्क होने पर इसी भावना के आधार पर मैंने भारत छोडकर इंग्लैंड में बसने का निर्णय लिया था।
अब एक अजनबी देश के औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में जब अचानक अपनी जडों की पुकार सुनाई दी, तब एक संजीदा प्रश्न मुझे बौखला गया- क्या अधिक दयनीय है? बचपन से एक विदेशी भाषा में अपनी छवि पाकर खोना या देसी भाषा के साहित्य में अपने आप को बाहरवाला पाना? लग रहा था किसी ने मेहमान की हैसियत में मुझे अपने घर बुलाया था और पहुँचने पर दरवाजा खोलने से मना कर दिया था। और यही दुःख था- अपने देश की भाषा में न जी गई जन्दगी का दुःख। न जी पानेवाली जन्दगी का दुःख!
भूली हुई दुनिया में प्रवेश
विदेशी भाषा के औपनिवेशिक इतिहास और स्वदेशी भाषा में बाहरीपन की रस्साकशी के बीच निर्मल जी की परिंदे1 ने समाधान किया। उस एक किताब के कुछ कहे और कुछ अनकहे ने बाहरीपन के रेगिस्तान में एक बूंद पानी सींचा और आत्मीयता ने जडें लेना शुरु किया। फिर लगातार निर्मल साहित्य पढता रहा, अक्षर-दर-अक्षर, फिर शब्द-दर-शब्द, फिर धाराप्रवाह, बिना यह जाने कि हिंदी बनाम अंग्रेजी, स्वदेशी बनाम विदेशी, अपनी बनाम परायी भाषा का जो यह खेल था उसका अवचेतन रूप से कितना व्यापक और दूरगामी असर पड रहा था। 2011 से 2014 के चार सालों में जब मैंने निर्मलजी का सारा गल्प, उनके यात्रावृत्तांत और पत्र पढें तब एक जादुई अनुभूति हुई - जैसे बीस साल से कोई बीज मेरे भीतर भुलाए मैं भटक रहा था, वह अचानक अंकुरित होकर मेरे जीवन को नए आयाम दे रहा था।
निर्मल साहित्य में मुझे उस दुनिया का साक्षात्कार हुआ जो हमेशा से मेरे अंदर निहित थी पर जिसे वाणी नहीं मिली थी। वे निष्कासित पात्र, अडिग पर्वत, रिक्त गलियाँ, धूप के चहबच्चे, स्मृतियों का जगत, खालीपन का आलम और बहुत कुछ- पढकर भावनाओं के समुंदर में तूफान के बीच एक द्वीप उभरने लगा, जो मेरा व्यक्तिगत शरणस्थान था। इसी द्वीप ने हताशा में सांत्वना दी और हर्षोल्लास में ठहराव।
इस ब्रह्मांड में कितने विश्व हैं, बाहर और भीतर। कितने ऐसे विश्व में हम बँटकर जीते रहते हैं- एक चिथडा यहाँ, एक वहाँ। अनगिनत टुकडे, बिखरे, अस्थिर, बदलते, साथ चलते, छूट जाते। ऐसे बिखरेपन में इस निर्मल द्वीप ने स्थिरता का एक आत्मीय केंद्र दिया। हर एक पृष्ठ पढने पर यह केंद्र विस्तृत होता गया। इसी केंद्र ने हाथ को सहारा देता तना और पैरों तले जमीन प्रदान की।
अनुत्तरित प्रश्नों की सांत्वना
क्या है निर्मल साहित्य में जो मुझ पर इतना प्रगाढ प्रभाव पडा? कैसी विडंबना की बात है कि उनके अकेले, तन्हा और त्रस्त पात्रों को जानकर, जिनके पास भी जन्दगी के विषय में केवल अनुत्तरित प्रश्न ही हैं- न जवाब की आशा, न प्रश्न बदल देने की कोशिश- एक सांत्वना-सी मिलती; भले ही केवल उन सीमित क्षणों में जब मैं उनकी रचनाओं को पढता। सांत्वना अपने आंतरिक जगत को अपने से बाहर पाने की, ऐसे पात्रों को जानने की जो मेरे जैसे ही जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे थे।
आज जब मुड कर देखता हूँ तब एहसास होता है कि निर्मल साहित्य ने हिंदी की दुनिया में तो मेरा प्रवेश कराया ही, साथ ही साथ मेरे जीवन में बुनियादी कायापलट भी की, एक ऐसा परिवर्तन जिसका दायरा केवल भाषा तक सीमित नहीं था बल्कि हजार गुना व्यापक था।
बर्फीली सरिता में मेरी अपनी उष्ण धारा
भाषा की भी सीमा होती है। अनगिनत भावनाएँ, उनके अनगिनत संचय व क्रमचय, और भाषा का सीमित शब्दकोश। अकेलापन, एकांत, तन्हाई, त्रस्तता- हर एक शब्द के भी कितने आयाम होते हैं। क्या अकेले होने का अकेलापन, अपने लोगों के बीच रहते हुए भी महसूस होनेवाला अकेलापन, अपनी संस्कृति से संवाद न कर पाने का अकेलापन, विदेश में पराए लोगों के बीच आभास होता अकेलापन - सभी एक ही प्रकार के अकेलेपन हैं? रोजमर्रा की जुबान में ये सारे शब्द मुख्यधारा के सर्वप्रचलित अर्थ ही ग्रहण कर लेते हैं। एक भाषा और उससे जुडी संस्कृति के इन प्रचलित अर्थों में जब किसी का भोगा हुआ अनुभव बैठ नहीं पाता, तब एक किस्म का अलगाव पैदा होता है। अपनी ही संस्कृति में अकेलेपन का एहसास। ऐसे ही अलगाव के बीच निर्मल साहित्य ने अपने कहे-अनकहे द्वारा जो दुनिया रची, वह मेरे भीतर की प्रवृत्तियों का दर्पण थी। इस खोज मात्र से पहली बार मेरे निजी अस्तित्व का एक बाहरी पुष्टीकरण हुआ और बरसों के अकेलेपन का खात्मा। निर्मल विश्व में सैर करते हुए ऐसे ही बहुत-सी भावनाओं और अनुभवों का दर्शन हुआ। इसी प्रक्रिया से उस निर्मल द्वीप का निर्माण हुआ जिसने मेरे बिखरेपन को समेटा, न समझ सकनेवाली भावनाओं को वाणी दी और मुझे आश्रय दिया।
अकसर सोचता हूँ क्या यह पलायन नहीं - अपने यथार्थ और वातावरण से उखडे रहना और किताबों में अपने आप को पाना? नहीं, मेरे लिए निर्मल साहित्य वह यथार्थ था जो तब तक शब्दातीत रहा था, और असल जीना उस यथार्थ से पलायन।
धारा का सागर में घुल-मिल जाना,
सागर में अपना घर पाना
पुस्तकों तक सीमित रहनेवाली इस प्रवृत्ति ने फिर एक तीव्र इच्छा को जन्म दिया- इस खजाने को अक्षर और पुस्तक के बाहर, यथार्थ जीवन में पाने की। इस इच्छा ने एक नई दुनिया का रास्ता खोल दिया। नए लोग, नए स्थान, नए अनुभव और नए लेखकों से मिलवाया जो मेरी आम जन्दगी के दायरे से बाहर रह जाते। अपनी संस्कृति के प्रति एक सजगता और समझ प्रदान की जिससे इस नई दुनिया को सही मायने में अनुभव कर सकूँ।
मरने के बाद आदमी अपने से छूटकर कितने लोगों के बीच बँट जाता है।2
निर्मल जी के चिथडों को बटोरता एक अनंत खोज में मैं भटकता रहा। उनकी पत्नी, उनके प्रकाशक, उनके दोस्त- सब से मिला। शिमला में उनके बचपन का घर, उनका प्रिय मदिरालय, कॉफी शॉप का उनका अड्डा, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज में उनका कमरा, दिल्ली के पतपडगंज में उनका घर, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, लोधी गार्डन, उनके संग्रहालय में उनका चेक भाषी टाइप-राईटर, उनकी कुर्सी, उनका टूथ ब्रश... उनकी उपस्थिति।
निर्मल दुनिया को बटोरने का यही जुनून मुझे चेक गणराज्य तक ले गया! आज भी याद है चेक गणराज्य में रहनेवाला मेरा दोस्त, हानस, मुझे पूछ रहा था, तुम्हें बृनो शहर क्यों जाना है? ऐसा भी क्या खास है वहाँ? और जो रोमांच मुझे वहाँ पहुँचने पर हुआ था! इसी शहर का जक्र निर्मलजी की एक कहानी में पढा था। माला स्त्राना की सैर, चार्ल्स ब्रिज और नीचे बहती मोल्दो नदी, उन ट्रेनों से सफर करना जिन्होंने प्रिय राम3 के पत्रों के दिनों में प्रागवासिओं के नाक में दम कर रक्खा था- निर्मल जी से जुडा जो कुछ देख सकूँ, देखने लगा।
मैंने बर्लिन में उनके जर्मनभाषी प्रकाशक से मुलाकात की, स्वीडिश पत्रिका कारावान के संपादक से संफ किया (जिन्होंने निर्मल जी का साक्षात्कार स्वीडिश भाषा में प्रकाशित किया था), इटाली में पराये शहर में4 की कहानी को चियान्ती5 पीकर फिर जीया, वियना की सडकों की परछाइयों में वे दिन6 की नायिका रायना की उपस्थिति को महसूस की, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में साठ-सत्तर के दशक की पत्रिकाओं में उनके लेख खोज निकाले- ये सभी यात्राएँ परिंदे7 के उसी निर्मल बीज से आरंभ हुई थी।
ऐसे अनेक शहर, अनेक लोग, अनेक प्रश्नों से मुलाकात हुई और साथ ही साथ दुनिया की समझ में वृद्धि और भारत को नए सिरे से जानने, अपनाने और उसमें अपना घर, अपनी जगह पाने का अवसर मिला।
औरों की भूली विरासत को न भुलाना, अपनी शर्तों पर विश्व से नाता बनाना
प्राग की आस्ट्रियायी शाला में मुझे विद्यार्थियों से भारत के बारे में बात करने का आमंत्रण मिला था। उसी बातचीत में साहित्य के संदर्भ में मैंने निर्मलजी द्वारा अनूदित सभी चेक लेखकों का जक्र कर दिया। 15-20 नौजवानों की कक्षा अवाक देखती रह गई- *यादातर लेखकों को वह पीढी भूल चुकी थी। पर हिंदी में उनकी विरासत अब भी जी रही थी! चेस्की क्रुम्लोव 8 गया था तब एक दुकानदार कारल चापेक 9 के बारे में मेरे ज्ञान से गदगद होकर मेरी खरीदी पर छूट देने लगा! कहने लगा कि विदेशी लोगों की गाडी बस फ्रांज काफ्का10 और मिलान कुंदेरा11 पर ही अटक जाती थी!
विदेशी भाषा साहित्य और दुनिया को जानने के लिए भूमंडलीकरण के इस दौर में स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हिंदी जगत को अंग्रेजी के सामने हाथ फैलाने पडते हैं। और साठ के दशक के टेलीग्राम युग में निर्मल वर्मा एक ऐसे व्यक्ति थे जो चेक भाषी साहित्य को बिना अंग्रेजी पर निर्भर हुए सीधे हिंदी में परोसते थे।
2019 में जब मैं फ्रांस के राष्ट्रीय शिक्षण मंत्रालय की सी-1 डाल्फ12 की डिग्री के लिए पढाई कर रहा था तब हमारे अध्यापक ने कक्षा से प्रश्न पूछा था- फ्रेंच क्यों सीख रहे हो? मैंने गर्व से कहा था- फ्रेंच साहित्य का सीधे भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने! जो मेरी दृष्टि में अत्यंत सहज और स्वाभाविक था उसे मुंबई के कोलाबा की उस कक्षा में बाकी विद्यार्थियों को भौचक्के करते देख मुझे अपने निर्णय के निरालेपन का एहसास हुआ। साथ ही अपने और सहपाठियों के बीच की सांस्कृतिक खाई भी दिख गई जिसे पिछले दशक में लाँघकर मैं अब इस पार आ चुका था। इस विदेशी भाषा का अध्ययन, फिर मेरे प्रकाशित हुए फ्रेंच साहित्य के हिंदी अनुवाद- इन सब मील के पत्थरों में निर्मल वर्मा का ही साया था।
न पहचान सकनेवाला भूतकाल और होने का सुख
शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता कि निर्मलजी का मेरे जीवन में कैसा अगाध प्रभाव पडा। बीस साल से जयादा भारत में रहते हुए हिंदी को नकारता और कभी-कभी धिक्कारता एक लडका जो हिंदी पढना भी भूल चुका था, अब दुनिया को और अपने आप को हिंदी के ऐनक से भी देख-परख रहा था। वह, जो अपने आप के लिए यश और सुख की संभावनाओं को भारतोत्तर मानने लगा था, अब सुख की परिभाषा एक भारतीय भाषा के द्वारा भारत में विकसित कर रहा था। दस साल पहले का मेरा व्यक्तित्व और अस्तित्व अब कितना अनजाना लगता है!
पुस्तकों की सीमा लाँघकर इसी तरह निर्मल साया धीरे-धीरे व्यापक बन कर मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। पहले पुस्तकों में, फिर विशेष स्थानों में और देखते-देखते रोजमर्रा की जन्दगी की आम वस्तुओं में व जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णयों में निर्मल साये की वह स्थिरता और सांत्वना झलकती है। सारा लेखा-जोखा करता हूँ, तब पता लगता है कि जितना कुछ पाया उस में से एक बुनियादी सच सर्वोपरि है- वह है होने का सुख!
सन्दर्भ -
1. मेरे द्वारा पढी गई निर्मल वर्मा की पहली किताब।
2. निर्मल वर्मा, अंतिम अरण्य, भारतीय ज्ञानपीठ
2011, पृष्ठ 114 ।
3. अपने बडे भाई राम के नाम निर्मल वर्मा के पत्रों का
संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2006 में प्रकाशित।
4. निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह जलती झाडी की
एक कहानी।
5. एक प्रकार की वाईन।
6. निर्मल वर्मा का पहला उपन्यास।
7. निर्मल वर्मा का पहला कहानी संग्रह।
8. चेक गणराज्य का एक शहर।
9. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक जिनकी रचनाओं
का अनुवाद निर्मल जी ने हिंदी में किया है।
10. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक।
11. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक।
12. यह फ्रेंच भाषा पर प्रभुत्व पाने के 6 पडावों में
पाँचवाँ पडाव है।
***
सम्पर्क - ए-43 हायवे अपार्टमेंट्स, ईस्टर्न एक्सप्रेस हायवे, मुंबई- 400 022, महाराष्ट्र।
मोबाईल 9004228848;
ई-मेल :kushal.khandhar@gmail.com
एक बूँद पानी
क्या एक तितली के पंख फडफडाने से बवंडर का रास्ता चूक सकता है?
क्या पानी की एक बूँद से रेगिस्तान में आशा जडें ले सकती हैं?
क्या एक किताब से जंदगी का रुख बदल सकता है?
मैंने 2011 में जाने-अनजाने एक बीज बोया था। आज उसी बीज से उत्पन्न एक गगनचुंबी वटवृक्ष की छाया के नीचे उस रास्ते को याद कर रहा हूँ जिससे यहाँ पहुँचा। खुला आकाश, शीतल हवा, हाथों को सहारा देता ठोस तना, पैरों तले जमीन, गहरी अगोचर जडें - सभी को शनैः शनैः आते देखा था। पर आज समय के इस विशिष्ट बिंदु पर खडे पहली बार संश्लिष्ट लेखा-जोखा करते हुए इस परिवर्तन के परिमाण का आभास होता है। अचंभित हूँ -अनुभव के स्तर पर जीने के बाद पहली बार प्रत्यक्ष रूप से इस प्रश्न के उत्तर को वाणी देने से - हाँ, एक किताब से जन्दगी का रुख बदल सकता है।
न जी गई जन्दगी का दुःख
मेरे जीवन के बीते बीस साल से जो भाषा मैं बोलता आया था, जिससे दुनिया को जानना-परखना सीखा, अभिव्यक्ति के बुनियादी नियम सीखे, अपने भीतर के पाताल लोक के तमस को शब्द-देह दिया, सारे भौतिक सुख अनुभव किए, एक दिन अचानक अजनबी लगने लगी। एक अनजानी, फीकी जुबान, बुद्धि से लैस पर आत्मीयता के परे। सीने में आतंक का भूचाल आया - अंग्रेजी के अंधे होड में क्या कोई अनमोल चीज पीछे छूट गई है, किसी अंधियारे गलियारे में?
दो दशक भारत में रहते हुए भी मेरे जीवन में अंग्रेजी के एकाधिकार को पहली बार 2011 में लंदन के मेरे निर्वासन के दौरान एक शब्दातीत शक्ति ने ललकारा और हिंदी की ओर पहली बार मेरा अंतर्जगत सजग हुआ। हिंदी की पुकार रहस्यमय, किंतु प्रबल थी। जीवन भर अपने देश की भाषा को नकारने के बाद विदेश में अपनी भाषा की पुकार सुनाई दी थी। तब मैंने अपनी जन्दगी की पहली हिंदी किताब ली। नहीं, वह निर्मल वर्मा की किताब नहीं थी।
कुछ हिंदी किताबें और पत्रिकाएँ पढकर मेरे पूर्वाग्रह को और बल मिला कि हिंदी साहित्य में मेरे जैसे अंग्रेजी भाषी, भौतिक और आर्थिक रूप से सुखी, दुनिया घूमनेवालों का कोई अस्तित्व नहीं न ही हमारे होने का, न ही हमारी व्यथाओं का। बचपन से चली आ रही यही समझ, या गैरसमझ, के कारण ही अपने निजी सत्य को जीने और अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करने का विकल्प सहज रूप से हिंदी या गुजराती न होकर अंग्रेजी में ही था। वयस्क होने पर इसी भावना के आधार पर मैंने भारत छोडकर इंग्लैंड में बसने का निर्णय लिया था।
अब एक अजनबी देश के औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में जब अचानक अपनी जडों की पुकार सुनाई दी, तब एक संजीदा प्रश्न मुझे बौखला गया- क्या अधिक दयनीय है? बचपन से एक विदेशी भाषा में अपनी छवि पाकर खोना या देसी भाषा के साहित्य में अपने आप को बाहरवाला पाना? लग रहा था किसी ने मेहमान की हैसियत में मुझे अपने घर बुलाया था और पहुँचने पर दरवाजा खोलने से मना कर दिया था। और यही दुःख था- अपने देश की भाषा में न जी गई जन्दगी का दुःख। न जी पानेवाली जन्दगी का दुःख!
भूली हुई दुनिया में प्रवेश
विदेशी भाषा के औपनिवेशिक इतिहास और स्वदेशी भाषा में बाहरीपन की रस्साकशी के बीच निर्मल जी की परिंदे1 ने समाधान किया। उस एक किताब के कुछ कहे और कुछ अनकहे ने बाहरीपन के रेगिस्तान में एक बूंद पानी सींचा और आत्मीयता ने जडें लेना शुरु किया। फिर लगातार निर्मल साहित्य पढता रहा, अक्षर-दर-अक्षर, फिर शब्द-दर-शब्द, फिर धाराप्रवाह, बिना यह जाने कि हिंदी बनाम अंग्रेजी, स्वदेशी बनाम विदेशी, अपनी बनाम परायी भाषा का जो यह खेल था उसका अवचेतन रूप से कितना व्यापक और दूरगामी असर पड रहा था। 2011 से 2014 के चार सालों में जब मैंने निर्मलजी का सारा गल्प, उनके यात्रावृत्तांत और पत्र पढें तब एक जादुई अनुभूति हुई - जैसे बीस साल से कोई बीज मेरे भीतर भुलाए मैं भटक रहा था, वह अचानक अंकुरित होकर मेरे जीवन को नए आयाम दे रहा था।
निर्मल साहित्य में मुझे उस दुनिया का साक्षात्कार हुआ जो हमेशा से मेरे अंदर निहित थी पर जिसे वाणी नहीं मिली थी। वे निष्कासित पात्र, अडिग पर्वत, रिक्त गलियाँ, धूप के चहबच्चे, स्मृतियों का जगत, खालीपन का आलम और बहुत कुछ- पढकर भावनाओं के समुंदर में तूफान के बीच एक द्वीप उभरने लगा, जो मेरा व्यक्तिगत शरणस्थान था। इसी द्वीप ने हताशा में सांत्वना दी और हर्षोल्लास में ठहराव।
इस ब्रह्मांड में कितने विश्व हैं, बाहर और भीतर। कितने ऐसे विश्व में हम बँटकर जीते रहते हैं- एक चिथडा यहाँ, एक वहाँ। अनगिनत टुकडे, बिखरे, अस्थिर, बदलते, साथ चलते, छूट जाते। ऐसे बिखरेपन में इस निर्मल द्वीप ने स्थिरता का एक आत्मीय केंद्र दिया। हर एक पृष्ठ पढने पर यह केंद्र विस्तृत होता गया। इसी केंद्र ने हाथ को सहारा देता तना और पैरों तले जमीन प्रदान की।
अनुत्तरित प्रश्नों की सांत्वना
क्या है निर्मल साहित्य में जो मुझ पर इतना प्रगाढ प्रभाव पडा? कैसी विडंबना की बात है कि उनके अकेले, तन्हा और त्रस्त पात्रों को जानकर, जिनके पास भी जन्दगी के विषय में केवल अनुत्तरित प्रश्न ही हैं- न जवाब की आशा, न प्रश्न बदल देने की कोशिश- एक सांत्वना-सी मिलती; भले ही केवल उन सीमित क्षणों में जब मैं उनकी रचनाओं को पढता। सांत्वना अपने आंतरिक जगत को अपने से बाहर पाने की, ऐसे पात्रों को जानने की जो मेरे जैसे ही जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे थे।
आज जब मुड कर देखता हूँ तब एहसास होता है कि निर्मल साहित्य ने हिंदी की दुनिया में तो मेरा प्रवेश कराया ही, साथ ही साथ मेरे जीवन में बुनियादी कायापलट भी की, एक ऐसा परिवर्तन जिसका दायरा केवल भाषा तक सीमित नहीं था बल्कि हजार गुना व्यापक था।
बर्फीली सरिता में मेरी अपनी उष्ण धारा
भाषा की भी सीमा होती है। अनगिनत भावनाएँ, उनके अनगिनत संचय व क्रमचय, और भाषा का सीमित शब्दकोश। अकेलापन, एकांत, तन्हाई, त्रस्तता- हर एक शब्द के भी कितने आयाम होते हैं। क्या अकेले होने का अकेलापन, अपने लोगों के बीच रहते हुए भी महसूस होनेवाला अकेलापन, अपनी संस्कृति से संवाद न कर पाने का अकेलापन, विदेश में पराए लोगों के बीच आभास होता अकेलापन - सभी एक ही प्रकार के अकेलेपन हैं? रोजमर्रा की जुबान में ये सारे शब्द मुख्यधारा के सर्वप्रचलित अर्थ ही ग्रहण कर लेते हैं। एक भाषा और उससे जुडी संस्कृति के इन प्रचलित अर्थों में जब किसी का भोगा हुआ अनुभव बैठ नहीं पाता, तब एक किस्म का अलगाव पैदा होता है। अपनी ही संस्कृति में अकेलेपन का एहसास। ऐसे ही अलगाव के बीच निर्मल साहित्य ने अपने कहे-अनकहे द्वारा जो दुनिया रची, वह मेरे भीतर की प्रवृत्तियों का दर्पण थी। इस खोज मात्र से पहली बार मेरे निजी अस्तित्व का एक बाहरी पुष्टीकरण हुआ और बरसों के अकेलेपन का खात्मा। निर्मल विश्व में सैर करते हुए ऐसे ही बहुत-सी भावनाओं और अनुभवों का दर्शन हुआ। इसी प्रक्रिया से उस निर्मल द्वीप का निर्माण हुआ जिसने मेरे बिखरेपन को समेटा, न समझ सकनेवाली भावनाओं को वाणी दी और मुझे आश्रय दिया।
अकसर सोचता हूँ क्या यह पलायन नहीं - अपने यथार्थ और वातावरण से उखडे रहना और किताबों में अपने आप को पाना? नहीं, मेरे लिए निर्मल साहित्य वह यथार्थ था जो तब तक शब्दातीत रहा था, और असल जीना उस यथार्थ से पलायन।
धारा का सागर में घुल-मिल जाना,
सागर में अपना घर पाना
पुस्तकों तक सीमित रहनेवाली इस प्रवृत्ति ने फिर एक तीव्र इच्छा को जन्म दिया- इस खजाने को अक्षर और पुस्तक के बाहर, यथार्थ जीवन में पाने की। इस इच्छा ने एक नई दुनिया का रास्ता खोल दिया। नए लोग, नए स्थान, नए अनुभव और नए लेखकों से मिलवाया जो मेरी आम जन्दगी के दायरे से बाहर रह जाते। अपनी संस्कृति के प्रति एक सजगता और समझ प्रदान की जिससे इस नई दुनिया को सही मायने में अनुभव कर सकूँ।
मरने के बाद आदमी अपने से छूटकर कितने लोगों के बीच बँट जाता है।2
निर्मल जी के चिथडों को बटोरता एक अनंत खोज में मैं भटकता रहा। उनकी पत्नी, उनके प्रकाशक, उनके दोस्त- सब से मिला। शिमला में उनके बचपन का घर, उनका प्रिय मदिरालय, कॉफी शॉप का उनका अड्डा, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज में उनका कमरा, दिल्ली के पतपडगंज में उनका घर, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, लोधी गार्डन, उनके संग्रहालय में उनका चेक भाषी टाइप-राईटर, उनकी कुर्सी, उनका टूथ ब्रश... उनकी उपस्थिति।
निर्मल दुनिया को बटोरने का यही जुनून मुझे चेक गणराज्य तक ले गया! आज भी याद है चेक गणराज्य में रहनेवाला मेरा दोस्त, हानस, मुझे पूछ रहा था, तुम्हें बृनो शहर क्यों जाना है? ऐसा भी क्या खास है वहाँ? और जो रोमांच मुझे वहाँ पहुँचने पर हुआ था! इसी शहर का जक्र निर्मलजी की एक कहानी में पढा था। माला स्त्राना की सैर, चार्ल्स ब्रिज और नीचे बहती मोल्दो नदी, उन ट्रेनों से सफर करना जिन्होंने प्रिय राम3 के पत्रों के दिनों में प्रागवासिओं के नाक में दम कर रक्खा था- निर्मल जी से जुडा जो कुछ देख सकूँ, देखने लगा।
मैंने बर्लिन में उनके जर्मनभाषी प्रकाशक से मुलाकात की, स्वीडिश पत्रिका कारावान के संपादक से संफ किया (जिन्होंने निर्मल जी का साक्षात्कार स्वीडिश भाषा में प्रकाशित किया था), इटाली में पराये शहर में4 की कहानी को चियान्ती5 पीकर फिर जीया, वियना की सडकों की परछाइयों में वे दिन6 की नायिका रायना की उपस्थिति को महसूस की, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में साठ-सत्तर के दशक की पत्रिकाओं में उनके लेख खोज निकाले- ये सभी यात्राएँ परिंदे7 के उसी निर्मल बीज से आरंभ हुई थी।
ऐसे अनेक शहर, अनेक लोग, अनेक प्रश्नों से मुलाकात हुई और साथ ही साथ दुनिया की समझ में वृद्धि और भारत को नए सिरे से जानने, अपनाने और उसमें अपना घर, अपनी जगह पाने का अवसर मिला।
औरों की भूली विरासत को न भुलाना, अपनी शर्तों पर विश्व से नाता बनाना
प्राग की आस्ट्रियायी शाला में मुझे विद्यार्थियों से भारत के बारे में बात करने का आमंत्रण मिला था। उसी बातचीत में साहित्य के संदर्भ में मैंने निर्मलजी द्वारा अनूदित सभी चेक लेखकों का जक्र कर दिया। 15-20 नौजवानों की कक्षा अवाक देखती रह गई- *यादातर लेखकों को वह पीढी भूल चुकी थी। पर हिंदी में उनकी विरासत अब भी जी रही थी! चेस्की क्रुम्लोव 8 गया था तब एक दुकानदार कारल चापेक 9 के बारे में मेरे ज्ञान से गदगद होकर मेरी खरीदी पर छूट देने लगा! कहने लगा कि विदेशी लोगों की गाडी बस फ्रांज काफ्का10 और मिलान कुंदेरा11 पर ही अटक जाती थी!
विदेशी भाषा साहित्य और दुनिया को जानने के लिए भूमंडलीकरण के इस दौर में स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हिंदी जगत को अंग्रेजी के सामने हाथ फैलाने पडते हैं। और साठ के दशक के टेलीग्राम युग में निर्मल वर्मा एक ऐसे व्यक्ति थे जो चेक भाषी साहित्य को बिना अंग्रेजी पर निर्भर हुए सीधे हिंदी में परोसते थे।
2019 में जब मैं फ्रांस के राष्ट्रीय शिक्षण मंत्रालय की सी-1 डाल्फ12 की डिग्री के लिए पढाई कर रहा था तब हमारे अध्यापक ने कक्षा से प्रश्न पूछा था- फ्रेंच क्यों सीख रहे हो? मैंने गर्व से कहा था- फ्रेंच साहित्य का सीधे भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने! जो मेरी दृष्टि में अत्यंत सहज और स्वाभाविक था उसे मुंबई के कोलाबा की उस कक्षा में बाकी विद्यार्थियों को भौचक्के करते देख मुझे अपने निर्णय के निरालेपन का एहसास हुआ। साथ ही अपने और सहपाठियों के बीच की सांस्कृतिक खाई भी दिख गई जिसे पिछले दशक में लाँघकर मैं अब इस पार आ चुका था। इस विदेशी भाषा का अध्ययन, फिर मेरे प्रकाशित हुए फ्रेंच साहित्य के हिंदी अनुवाद- इन सब मील के पत्थरों में निर्मल वर्मा का ही साया था।
न पहचान सकनेवाला भूतकाल और होने का सुख
शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता कि निर्मलजी का मेरे जीवन में कैसा अगाध प्रभाव पडा। बीस साल से जयादा भारत में रहते हुए हिंदी को नकारता और कभी-कभी धिक्कारता एक लडका जो हिंदी पढना भी भूल चुका था, अब दुनिया को और अपने आप को हिंदी के ऐनक से भी देख-परख रहा था। वह, जो अपने आप के लिए यश और सुख की संभावनाओं को भारतोत्तर मानने लगा था, अब सुख की परिभाषा एक भारतीय भाषा के द्वारा भारत में विकसित कर रहा था। दस साल पहले का मेरा व्यक्तित्व और अस्तित्व अब कितना अनजाना लगता है!
पुस्तकों की सीमा लाँघकर इसी तरह निर्मल साया धीरे-धीरे व्यापक बन कर मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। पहले पुस्तकों में, फिर विशेष स्थानों में और देखते-देखते रोजमर्रा की जन्दगी की आम वस्तुओं में व जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णयों में निर्मल साये की वह स्थिरता और सांत्वना झलकती है। सारा लेखा-जोखा करता हूँ, तब पता लगता है कि जितना कुछ पाया उस में से एक बुनियादी सच सर्वोपरि है- वह है होने का सुख!
सन्दर्भ -
1. मेरे द्वारा पढी गई निर्मल वर्मा की पहली किताब।
2. निर्मल वर्मा, अंतिम अरण्य, भारतीय ज्ञानपीठ
2011, पृष्ठ 114 ।
3. अपने बडे भाई राम के नाम निर्मल वर्मा के पत्रों का
संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2006 में प्रकाशित।
4. निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह जलती झाडी की
एक कहानी।
5. एक प्रकार की वाईन।
6. निर्मल वर्मा का पहला उपन्यास।
7. निर्मल वर्मा का पहला कहानी संग्रह।
8. चेक गणराज्य का एक शहर।
9. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक जिनकी रचनाओं
का अनुवाद निर्मल जी ने हिंदी में किया है।
10. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक।
11. चेक गणराज्य के प्रतिष्ठित लेखक।
12. यह फ्रेंच भाषा पर प्रभुत्व पाने के 6 पडावों में
पाँचवाँ पडाव है।
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