परिंदे : हम कहाँ जाएँगे?
अमरेन्द्र कुमार शर्मा
निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे में, हम कहाँ जाएँगे? प्रश्न मनुष्य के होने और उस होने के अस्ति-चिंतन से जुडा हुआ है। भारतीय चिंतनधारा में इस होने के अस्ति-चिंतन की एक लंबी परम्परा रही है। उपनिषदों में इस परम्परा की पहचान की जा सकती है। कठोपनिषद में नचिकेता के होने के अस्ति-चिंतन को यम के साथ की बहस में समझा जा सकता है। रामचरितमानस में तुलसीदास लोक भाषा अवधी में यह कह चुके हैं, कहाँ जाईं का करीं? और हिंदी की आधुनिक कविता के महत्त्वपूर्ण कवि मुक्तिबोध अपनी कविता में पूछ चुके हैं, कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन? विश्व की कविताओं में भी यह प्रश्न बार-बार और कई बार दुहराया जा चुका है। बर्तोल्त ब्रेख्त की कविताओं में यह प्रश्न एक गहरे दार्शनिक पृष्ठभूमि से उभरते हुए राजनीतिक आशयों को ग्रहण कर लेता है। निर्मल वर्मा की रचनाओं में होने के अस्ति-चिंतन के प्रश्न को दर्शन की धरातल से गुजरते हुए उसके सांस्कृतिक संदर्भों से ही समझा जा सकता है द्वितीय विश्वयुद्ध ने अस्ति-चिंतन की सतह को बहुआयामी परिप्रेक्ष्य से प्रभावित किया है। निर्मल वर्मा की रचनाओं में यह परिप्रेक्ष्य रहा है। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी की मुख्य पात्र लतिका का प्रश्न हम कहाँ जाएँगे? संपूर्ण कथा-बुनावट की एक केंद्रीय धुरी है। यह केंद्रीय धुरी ही इस कहानी की तरलता को पाठक के सामने हिंदी कहानी की ऐतिहासिक विराटता में नयेपन का बोध कराती है। इस आलेख में, परिंदे कहानी की राह से गुजरते हुए हम हिंदी में कहानी, नई कहानी जैसी बहसों और नामवर सिंह द्वारा परिंदे कहानी को नई कहानी की पहली कहानी, कहने पर भी संक्षिप्त टिप्पणी करते चलेंगे लेकिन इन सबमें हम कहाँ जाएँगे? की अनुगूँज निहित है। कहानी के संदर्भ में जैनेन्द्र कुमार द्वारा कहानी के संदर्भ में कहे को आफ सामने सबसे पहले रखना चाहता हूँ-
कहानी तो एक भूख है जो निरंतर समाधान पाने की खोज करती रहती है। हमारे अपने सवाल होते हैं, शंकाएँ होती हैं चिंताएँ होती हैं और हमीं उनका उत्तर, उनका समाधान खोजने का, पाने का सतत प्रयास करते हैं। हमारे प्रयोग होते रहते हैं, उदाहरणों और मिसालों की खोज रहती है। कहानी उसी खोज के प्रयत्न का एक उदाहरण है।
- जैनेन्द्र कुमार
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध गद्य-शिल्पी जैनेन्द्र कुमार के कहे में जो सवाल, शंका, चिंता, उत्तर, समाधान, प्रयोग, उदाहरण, आदि पदों का उल्लेख आया है, दरअसल यह मनुष्य के होने के अस्ति-चिंतन से जुडा हुआ है। होने के अस्ति-चिंतन का कोई एक पडाव नहीं होता बल्कि यह गतिशील होती है। एक युग से दूसरे युग में यह संस्कारित होती हुई, नए अर्थ-संदर्भ ग्रहण करती हुई विकासमान होती है। कहानी की यात्रा में रचनाकार अपने होने की यात्रा भी करता है। हम कहाँ जाएँगे? का संदर्भ अलग-अलग पडावों में अलग-अलग रूपाकार में हिंदी की रचनाधर्मिता में शामिल रहा है। हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी कहानी, हमेशा तेजी से परिवर्तित होने वाली विधा रही है। हिंदी कहानी में एक ही समय में एक से ज्यादा पीढी के कहानीकार रचनाशील रहे हैं। इस कारण स्वाभाविक रूप से हिंदी कहानी की जमीन एक ही समय में परिवर्तनशील और बहुस्तरी रही है। जैनेन्द्र कुमार के उपर्युक्त कथन का एक सिरा परिवर्तनशीलता और बहुस्तरीयता की खोज में भी खुलता है।
हिंदी कहानी की जमीन पर एक ही समय में परिवर्तनशील और बहुस्तरी संरचनाओं के परिवर्तन के दौर में निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे अपने पाठ का एक अलहदा दरवाजा खोलती हुई हिंदी साहित्य के पटल पर अवतरित होती है। परिंदे निर्मल वर्मा की सबसे अधिक चर्चित, प्रसिद्ध और पढी जाने वाली कहानी रही है। अपने नए कलेवर और कथा-तंतु की ताजगी के कारण ही परिंदे को नयी कहानी आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण कहानी मानी जाती रही है। यह कहानी सबसे पहले 1957 में हंस के अर्धवार्षिकांक संकलन में अमृतराय ने प्रकाशित किया था। यह कहानी 1960 में निर्मल वर्मा की परिंदे नाम के कहानी संग्रह में प्रकाशित हुई। हंस में इस कहानी के ठीक दो वर्ष बाद निर्मल वर्मा 1959 से 1970 तक भारत से बाहर रहे। चेकोस्लोवाकिया सहित यूरोप के कई देशों की उनकी यात्रा उनकी कथा-जमीन को नए सिरे सींच रही थी और उर्वर बना रही थी। विदेश का लंबा प्रवास उनकी कहानियों में क्षैतिज विकास के साथ चलकर आया है। विदेशी पृष्ठभूमि को लेकर उन्होंने हिंदी में कई कहानियाँ लिखी हैं। जलती झाडी और कव्वे और कालापानी में विदेशी परिवेश की कहानियों को देखा जा सकता है। हिंदी कहानी में बनती हुई नई जमीन और इस जमीन के प्रतिनिधि बनने की बहस और कथा-राजनीति की जद्दोजहद के बीच परिंदे कहानी के बारे में प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने आकाशवाणी इलाहाबाद और कृति पत्रिका में कहानी की समीक्षा करते हुए खूब प्रशंसा की। आगे चलकर नामवर सिंह ने एक महत्त्वपूर्ण लेख नयी कहानी की पहली कृति परिंदे नाम से लिखी। इस लेख की शुरुआत में ही नामवर सिंह ने यह स्थापना दी कि, फकत सात कहानियों का संग्रह परिंदे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है बल्कि जिसे हम नयी कहानी कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है। नामवर जी के इस वक्तव्य से न केवल हिंदी कहानी में नयी को लेकर बहस हुई बल्कि कहानी की समझ के दृष्टिकोणों और परिंदे कहानी पर भी खूब बहस हुई। नामवर सिंह की इस स्थापना ने हिंदी साहित्य में विचारधारों की गाठों को भी नए सिरे से खोलने/खुलने का अवकाश मिला। अन्य कारणों के अलावा इस कारण से भी परिंदे कहानी के साथ-साथ हिंदी कहानी को समझने के नए दरवाजे खुले और समझ की खिडकियों से ताजी हवा कथा-आलोचना में प्रविष्ट हुई। इस तरह की समझ की खिडकियों से आनेवाली ताजी हवा पर हिंदी साहित्य में हिंदी कहानी और नई कहानी पर काफी दिनों तक बहस होती रही। हम यहाँ यह समझने की कोशिश करेंगे कि नई कहानी आंदोलन की बहस में निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे अपने कथ्य और शिल्प-विन्यास की बुनावट-बनावट में, पात्रों की युगीन संरचना की बुनावट में और कहानी में बरती जाने वाली भाषा-शैली में ऐसे कौन से से घुमाव-बिंदु हैं जो हिंदी कहानी के प्रचलित ढाँचों से उसे अलग कर रही थी।
नई कहानी आंदोलन में मोटे तौर पर 1954 से 1963 तक के कालखंड को लिया जाता है। हिंदी साहित्य की दुनिया में पहली बार नई कहानी जैसे पदबंध प्रयोग करने का श्रेय कहीं नामवर सिंह को दिया जाता है और कहीं दुष्यंत कुमार को। नई कहानी जैसे पदबंध कहे जाने के प्रचलन का संदर्भ दरअसल, आजादी के बाद विकसित होते नए मध्यवर्ग और मध्यवर्ग की बनती, परिवर्तित होती नई आकांक्षाओं से जुडता है। यह आंकाक्षा निर्मित होते नए भारत, समाजवादी विकास की नई परियोजनाओं से भी जुडता है। इस दौर में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना के कारण अध्ययन के नए अनुशासनों और उसके विविध आयाम का विकास, स्त्री शिक्षा की योजनावद्ध नई पहल, परिवहन के संसाधनों का तेजी से विकास, पंचवर्षीय योजनाओं का ढाँचा आदि अनेक तत्व थे जिनसे भारत का मध्यवर्ग न केवल प्रभावित हो रहा था बल्कि अपने लिए एक नई दुनिया का सपना देख रहा था, उस सपने को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील था। इस नयेपन ने हिंदी साहित्य के ढाँचे में भी नयेपन का आगाज किया। हिंदी कहानी की चर्चा होते-होते उसमें नई जैसे शब्द अनायास जुडते चले गए। इसलिए नई कहानी जैसे पदबंध किसी सोची-समझी योजना या रणनीति का परिणाम नहीं था। हालाँकि, यह सच है कि ज्यों-ज्यों इस पदबंध का प्रयोग होता गया, नई प्रवृतियों के वाहक के रूप में यह पदबंध प्रचलित होते हुए हिंदी साहित्य में एक आंदोलन के रूप में हमारे सामने आता चला गया। नयी कहानी पदबंध के बारे में आलोचक देवीशंकर अवस्थी यह मानते हैं कि,‘ दिसंबर सन् 1957 में प्रयाग में होने वाले साहित्यकार सम्मेलन तक नई कहानी अभिधान लगभग स्वीकृत हो चुका था। शिव प्रसाद सिंह, हरिशंकर परसाई और मोहन राकेश द्वारा पठित आलेखों के पहले वाक्यों में ही नई कहानी का प्रयोग किया गया है। इसी सम्मेलन में नई को लेकर होने वाले विवाद में ही ग्राम-कथा बनाम नगर-कथा का झगडा शुरु हुआ था। सन् 57 में ही प्रकाशित अपने संग्रहों नए बादल और जहाँ लक्ष्मी कैद है की भूमिकाओं में क्रमशः मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव अपेक्षाकृत ठहरे हुए यथार्थ के बजाए निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ का सवाल उठा चुके थे।
निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ, दरअसल अपनी जमीन तोड कर बाहर आना चाहते थे। यह कुलबुलाता यथार्थ ही नई कहानी आंदोलन का केंद्रीय विषय बना। नई कहानी यथार्थ और सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को नए संदर्भों से देखने की एक नई पद्धति की प्रस्तावना कर रहा था। इस नई प्रस्तावना के नुक्ते से ही नई कहानी स्वयं को पिछली कहानी से अलगाती है। दरअसल, नई कहानी के परिवेश में, कहानी के परंपरागत और रूढ तत्त्वों का नकार है, कहानी के मूल्यांकन में इन तत्त्वों को वर्जित किया गया। यह कहा गया कि कथाकार व्यक्ति को उसकी समग्रता में, व्यक्ति की सामाजिक बोध के साथ अपनी कहानी में ढालता है और यह नई कहानी की मूल प्रवृति है। नई कहानी का समाजशास्त्र (परिवेश, समाज की स्थिति, राजनीतिक ढांचा, लेखक की स्थिति और विचार आदि) नई कहानी के आंदोलन के साथ परिवर्तित/विकसित होता चलता है। दरअसल, नई कहानी के समाजशास्त्र को अलग से रेखांकित नहीं किए जाने की कोई प्रविधि विकसित नहीं हो रही थी बल्कि वह नई कहानी के साथ-साथ ही विकसित हो रही थी। नई कहानी में हिंदी कहानी की पहले की परंपरा के प्रति एक निषेध का भाव रहा है। असल में, नई कहानी पर अपने समकालीन संदर्भों का दबाव ज्यादा रहा है इसलिए वह अपने को अतीत से हटाकर वर्तमान की प्रवृतियों पर केंद्रित करता है। वर्तमान की प्रवृतियों में अपने समय की विसंगतियाँ, रोजगार के लिए किए जाने वाले संघर्ष, हताशा, अपने होने को लेकर उदासीनता दिखलाई देती है। नई कहानी के दौर में रोजगार न मिलने से उपजी हताशा, अपने सपने और यथार्थ की जमीन में अंतर के कारण उत्पन्न मोहभंग, वैवाहिक स्थिति के अंतद्वन्द्व और तनाव, कामकाजी स्त्रियों की बहुस्तरी समस्याओं और परिवार में उनकी बढती हैसियत के कारण पारिवारिक संरचना में परिवर्तन से उपजे अंदरूनी तनाव आदि के साथ-साथ देश की तुलना में विदेश में अधिक सुविधा मिलने की आकांक्षा ने हिंदी में दर्जनों कहानियों को मजबूत जमीन उपलब्ध करायी। राजेन्द्र यादव की कमजोर लडकी, एक खुली हुई सांझ, अमरकांत की डिप्टी कलेक्टरी, मार्कंडेय की गुलरा के बाबा, भीष्म साहनी की चीफ की दावत, मोहन राकेश की अपरिचित, शेखर जोशी की कोसी का घटवार आदि सहित अनेकों कहानियों ने नई कहानी आंदोलन की दिशा और दशा को निर्धारित करती हुई दिखलाई देती है।
निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी की जमीन एक पहाड है। पहाड पर बने लडकियों के एक स्कूल के हॉस्टल के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है परिंदे। बेहतर है कि पहले हम इस कहानी की ताना-भरनी से रु-ब-रु हो लें। यह कहानी सर्दियों की छुट्टी होने से एक दिन पहले के घनीभूत वातावरण की कहानी है। घनीभूत वातावरण का अपना एक कैनवास हैं जिसके एक कोण पर लतिका का एकांत है और दूसरे छोड पर होस्टल में रहने वाली लडकियों का उत्साह। इस कहानी में लडकियों की एक शिक्षिका जिनका नाम लतिका है। लतिका अकेली रहती है। लतिका के मस्तिष्क में अतीत और वर्तमान को लेकर चलने वाले वे घटनाक्रम हैं जिससे उसके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। लतिका अपने जीवन के अकेलेपन को जीती हुई स्त्री है। इस कहानी के संपूर्ण वितान में लतिका का अकेलापन खामोशी के साथ पसरा हुआ है। समय-समय पर लतिका के इस अकेलेपन और अकेलेपन की खामोशी के विन्यास को तोडने के उपऋम के लिए कुछ पात्र भी इस कहानी में हैं। मसलन, डा। मुकर्जी, ह्यूबर्ट, हॉस्टल की लडकियाँ, करीमुद्दीन, फादर एलमंड, मिसेज वुड, मिस्टर गिरीश नेगी। कहानी के यह सभी पात्र लतिका के रोजमर्रेपन में साथ होते हैं, लेकिन इन सबकी उपस्थिति लतिका के अकेलेपन के गाढेपन को खत्म नहीं कर पाती है, बल्कि इस कहानी के विन्यास में कई बार लतिका के अकेलेपन के भाव को और भी अधिक गाढा और सघन कर देती हैं। परिंदे कहानी में डा। मुकर्जी प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले एक डाक्टर हैं और इसके अलावे खाली समय में एक कान्वेंट स्कूल में पढाने का काम करते हैं। ह्यूबर्ट के मन में लतिका के प्रति एक प्रेम-राग का भाव है, वह लतिका को एक प्रेम पत्र लिखता है। लतिका ह्यूबर्ट से प्रेम नहीं करती है लेकिन वह ह्यूबर्ट द्वारा लिखे प्रेम पत्र के लिए भी ह्यूबर्ट को कुछ नहीं कहती है, बल्कि वह इस प्रेम-पत्र के कारण अपने होने को लेकर स्वयं को आश्वस्त भी करती हुई दिखलाई देती है कि, वह अभी भी प्रेम के लिए प्रासांगिक बनी हुई है। लतिका के मन की अंदरूनी सतह में इस बात को लेकर एक आश्वस्ति भाव है कि, कोई उससे प्रेम कर सकता है, उसको प्रेम पत्र लिख सकता है। करीमुद्दीन हॉस्टल का नौकर है और लतिका की देख-रेख करता है। फादर एलमंड और मिसेज वुड हॉस्टल के पास बने आवास में रहते हैं । फादर चर्च के पादरी हैं और नैतिक उपदेश देते रहने वाले एक पुरातन व्यक्ति की भूमिका में हैं ।मिस्टर गिरीश नेगी से लतिका प्रेम करती है। इस कहानी के शिल्प को अगर ध्यान से देखा जाए, तो शिल्प में जिस प्रकार से सभी पात्र विन्यस्त हुए हैं वे सभी पात्र अपने अकेलेपन के साथ विभिन्न कोणों से गति करते हुए दिखलाई देते हैं। मसलन, परिंदे कहानी में जब यह बात लतिका से पूछी जाती है कि, मिस लतिका, आप छुट्टियों में कहीं क्यों नहीं जाती ? सर्दियों में तो यहाँ सब कुछ वीरान हो जाता होगा। गौरतलब है कि कहानी में लतिका से पूछे जाने वाला यह सवाल राजेन्द्र यादव अपनी किताब एक दुनिया समानांतर की भूमिका में भी दर्ज करते हैं। दरअसल, कहीं क्यों नहीं जाती सवाल के पीछे की पृष्ठभूमि में परिवार का जो परम्परागत ढाँचा दिखलाई देता है, वह नई कहानी आंदोलन में टूटा है। व्यक्ति का अकेलापन कई बार सामाजिक विन्यास द्वारा प्रदत्त होता है और काई बार अर्जित। कहानी में सब कुछ वीरान हो जाने का संदर्भ जितना भौगोलिक है उतना ही सामाजिक भी। इसलिए, लतिका के लिए यह सामान्य रूप से पूछा जाने वाला सवाल नहीं रह जाता है बल्कि, यह सवाल लतिका के लिए कहीं दूर से आती हुई एक ध्वनि की तरह है जिसमें उसका अकेलापन नितांत वैयक्तिक होकर उभरता है। इस नितांत वैयक्तिक अकेलापन की एक कहानी है जो लतिका के अतीत में खामोशी के साथ पसरी हुई है। इस अतीत को वह कोई भाषा देना चाहती है, लेकिन इस अतीत पर बर्फ की चादर पसरी हुई है। सर्दियों के दिनों में बर्फीले स्थान की वीरानी दरअसल, लतिका के अपने जीवन की वीरानी है। जिसे वह हॉस्टल की लडकियों के साथ बाँटना चाहती है, लेकिन न बाँट पाने की अपनी पेशेगत मजबूरी भी है। वह अपने भीतर की वीरानी को मिस्टर ह्यूबर्ट से बात करते हुए बाँटती हुई कहती है -हर साल ऐसा ही होता है, मिस्टर ह्यूबर्ट। फिर कुछ दिनों बाद विंटर स्पोर्ट्स के लिए अंग्रेज टूरिस्ट आते हैं; हर साल मैं उनसे परिचित होती हूँ, वापिस लौटते हुए वे हमेशा वायदा करते हैं कि वे अगले साल भी आयेंगे। मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे, वे भी जानते हैं कि वे नहीं आयेंगे, फिर भी हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं पडता। फिर ।।। फिर कुछ दिनों बाद पहाडों पर बर्फ पिघलने लगती है, छुट्टियाँ खत्म होने लगती हैं, आप सब लोग अपने अपने घरों से वापिस लौट आते हैं। (पृष्ठ 181) लतिका के निर्मित निजत्व में यह विश्वास स्थायी तौर पर शामिल हो गया है कि, वे हमेशा वायदा करते हैं कि वे अगले साल भी आयेंगे। मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे। पहाड पर बर्फ पिघलता रहता है लेकिन किया हुआ वायदा कभी नहीं पिघलता।
लतिका के लिए पहाडों पर बर्फ का पिघलना एक उम्मीद की तरह है। लतिका इस कहानी में इसी अकेलेपन और उम्मीद के बीच की एक स्त्री है। अकेलेपन के साथ परायेपन का बोध मनुष्य के चित्त को हमेशा द्विभाजित कर देता है। इस कहानी में एक महत्त्वपूर्ण पात्र डॉक्टर है, जिसका यह कथन कि -ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है।(170) कहानी के पूरे समय और उस समय की सघनता को हमारे सामने ला खडा कर देता है। एक स्तर पर यह वक्तव्य डायस्पोरिक दुनिया की एक ऐसी अंदरूनी कहानी है, जिसमें कई-कई पीढियों का दर्द निवास करता है। दूसरे स्तर पर, विश्व युद्धों में इस प्रकार की मृत्यु का काफी खौफनाक इतिहास रहा है। संपूर्ण विश्व में एक पूरी की पूरी विचारशील साहित्यिक पीढी इस प्रकार की मृत्यु से प्रभावित रही है। विश्व युद्धों में परायी जमीन पर मर’ जाने की त्रासदी का लंबा वृतांत है।
दरअसल,परिंदे कहानी अपने प्रकाशन वर्ष से ही काफी चर्चित रही, इसकी बडी वजह थी, इस कहानी की कहन शैली। नामवर सिंह ने लिखा- व्यक्ति चरित्र वही है, जीवन स्थितियाँ भी रोज की जानी-पहचानी ही है, लेकिन निर्मल वर्मा के हाथों वही स्थितियाँ इतिहास की विराट नियति बनकर खडी हो जाती हैं और उनके सम्मुख खडा व्यक्ति सहसा अपने को असाधारण रूप से अकेला पाता है... कहानी के शिल्प के स्तर पर निर्मल वर्मा का यह प्रयोग, हिंदी साहित्य में शिल्प निर्माण की एक व्यापक पहल थी। इस कहानी में जो अकेलापन है वह वाकई असाधारण है। जब इस कहानी में लतिका पहाड के पीछे से आते हुए पंछियों के झुण्ड को देखती है, तब वह सोचती है कि, क्या वे सब प्रतीक्षा कर रहे हैं ? लेकिन कहाँ के लिए , हम कहाँ जाएँगे ? लतिका का यह प्रश्न परिंदे कहानी की केंद्रीय बिंदु है। यह केंद्रीय बिंदु भारतीय वांङमय में पहली बार नहीं आया है इससे पहले भी भक्ति साहित्य के प्रसिद्ध कवि तुलसीदास लिख चुके थे, कहाँ जाईं का करी। यह कहाँ जाने का प्रश्नवाचक बोध जो मनुष्य में है, वह कहीं न कहीं अकेलेपन से उभरता है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध ने भी अपनी कविता में इस प्रश्न को दर्ज किया है, कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन। कहाँ जाने का यह प्रश्न दरअसल, किसी लेखक या उस लेखक की रचना के किसी पात्र या प्रसंग तक केंद्रित नहीं रह जाता, बल्कि यह मनुष्य और मनुष्य के उस समाज के लिए एक व्यापक प्रश्न बन जाता है, जिसकी गूँज कई शताब्दी तक हमारे बीच होती है। फौरी तौर पर, इस कहानी के संदर्भ में इतना भर कह दिया जाता है कि, दो विश्वयुद्धों के प्रभाव से उपजे मनुष्य के नियति बोध से उपजा हुआ बोध है। इस नियति में अकेलापन सबसे प्रमुख है। इस अकेलपन के कारण इस कहानी के अधिकांश पात्र हताश और निराश दिखलाई देते हैं। कहानी के कथा-विस्तार में सर्दी की छुट्टियाँ होने का एक प्रसंग है। इन छुट्टियों में हॉस्टल की लडकियाँ घर जाने वाली हैं। छुट्टी होने से पहले की रात में सभी लडकियाँ एक कमरे में इकट्ठे होकर हँसी-ठिठोली कर रही हैं। लतिका जो हॉस्टल की वार्डन है। कमरे में शोर सुनकर रुकती है। कमरे में जाती है, लडकियाँ कहती हैं। मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जायेंगी इसलिए आज रात हम सबने मिलकर...। लतिका को लगता है कि वह कमरे में आकर इन लडकियों का मजा खराब कर रही है। लतिका वहाँ अपने अकेलेपन का प्रभाव छोडना नहीं चाहती, वह नहीं चाहती कि इन लडकियों की उन्मुक्त हँसी में वह बाधा बने, लतिका वहाँ से चली जाती है। लतिका सर्दियों की छुट्टियों में कहीं नहीं जाती है, हॉस्टल के वार्डन आवास में अकेली रह जाती है। लतिका के जीवन के लिए यह सबसे कठिन प्रश्न है, जब कोई उससे पूछता है -मिस लतिका, आप इस साल छुट्टियों में यहीं रहेंगी? डॉक्टर मुकर्जी द्वारा पूछा गया यह प्रश्न लतिका को भीतर तक झकझोर देता है। यहीं रहेंगी? लतिका के लिए एक आस्तित्विक सवाल है। यहीं रहेंगी? की ध्वन्यात्मकता उसे अतीत की पगडंडियों पर ले जाती है, जहाँ जाना उसे कभी सुखकर लगता तो अगले ही पल उसे उदास कर देता है। दरअसल, अतीत में एक नामालूम सा आकर्षण होता है जो कभी सुकूनदायक होता है और कभी उदासी का सबब भी। यहीं रहेंगी? की प्रश्नवाचकता के बाद -... लतिका को लगा, जैसे कहीं बहुत दूर बरफ की चोटियों से परिंदों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की ओर उडे जा रहे हैं। इन दिनों अक्सर उसने अपने कमरे की खिडकी से उन्हें देखा है... धागे में बंधे चमकीले लट्टूओं की तरह वे एक लंबी टेढी-मेढी कतार में उडे जाते है ....पहाडों की सुनसान नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों की ओर, जहाँ शायद वह कभी जाएगी। (पृष्ठ 169) लतिका के जीवन में पहाड एक विषाद की तरह आता है। एक ठहरा हुआ विषाद। लतिका के जीवन में परिंदे आतें हैं जो उसके जीवन की एकरसता, उसके अकेलेपन और सर्दियों में वीरानी पसर जाने को और ज्यादा सघन कर जाते हैं। लतिका के जीवन में पहाड एक जीवन-प्रतीक के तौर पर भी है, एक ही जगह पर खडा और ठहरा हुआ जीवन। परिंदे हर साल सर्दियों में पहाड को सुनसान करते हुए नीचे अनजान प्रदेश की ओर उडे चले जाते हैं। लतिका कहीं नहीं जाती है। लेकिन लतिका जाना चाहती है। लतिका के मन में यह बात है कि, जहाँ शायद वह कभी जायेगी। लेकिन कहाँ? परिंदे कहानी का पाठक जानता है कि लतिका कहीं नहीं जाती। वह सर्दियों में सुनसान पहाडों में अकेले रह जाती है। पहाड की तरह अकेली और ठहरी हुई।
परिंदे कहानी में लतिका के मन में एक दबा हुआ राग का भाव है, यह भाव कहानी के शिल्प में कभी भी ठीक से मुखर होकर अभिव्यक्त नहीं हुआ है। शायद इस कहानी में निर्मल वर्मा की दृष्टि राग-भाव की मुखरता पर नहीं बल्कि राग-भाव के मौन पर है। लतिका के मन में राग-भाव के रास्ते पर यह सवाल उठता है कि - ह्यूबर्ट ही क्यों, वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उसी अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है; न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है, उसकी टांगे फिर निर्जीव शिथिल-सी हो गई है। (पृष्ठ 169) लतिका के जीवन में वह क्या है जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है वह क्या है जो न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। दरअसल, मनुष्य की इयत्ता निरे अकेले में परिभाषित नहीं होती। वह दूसरे के होने से भास्वर होती है। मनुष्य का वर्तमान उसके अतीत के छोर को हमेशा स्पर्श करती रहती है। लतिका के जीवन-प्रणाली में अतीत हमेशा एक छाया की तरह मौजूद है। अतीत से मुक्ति का कोई भी प्रयत्न लतिका करती हुई दिखलाई नहीं देती है।
परिंदे कहानी की बुनावट में लतिका की इयत्ता एक खास किस्म के नियतिबोध का शिकार है। परिंदे कहानी का समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नए सिरे से विकसित हो रहे अस्तित्ववादी चिंतन के दौर का है। इसी दौर में ज्याँ पाल सार्त* (1905-1980) इस बात पर यकीन कर रहे थे कि, जो अस्तित्वमान है उसे नामों, रूपों, विचारों, शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता बल्कि उसके होने में ही उसका अस्तित्व है। लतिका के होने का संदर्भ पहाड पर बर्फ गिरने के बाद पहाड से पक्षियों और होस्टल से लडकियों के चले जाने के बाद खुलता है। पहाडों की सुनसान नीरवता से परे वह कहीं जाना तो चाहती है, लेकिन एक सवाल से वह हमेशा घिरी रहती है कि वह जाएगी भी तो कहाँ जाएगी। पहाड की एकरसता इस कहानी में बद्धमूल है। लतिका के होने के अस्तित्व पर उसके अपने जीवन की अतीत की स्मृति की एक नामालूम सी छाया है जो उसके वर्तमान के जीवन की स्वाभाविक लय को प्रभावित करती रहती है। अतीत की छाया के कारण ही लतिका सोचती रहती है कि अब वह किसी को नहीं चाह सकेगी, जैसा उसने अपने जीवन के आरंभ में किसी को चाहा था। परिंदे कहानी में शिल्प की खूबसूरती लतिका के व्यक्तित्व के साथ, उसके स्वयं के साथ वार्तालाप के विभिन्न मोडों में दिखलाई देती है। मसलन, उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है। निर्मल वर्मा, अपनी कहानी में बादलों का झुरमुट को स्मृति पर छा जाने की प्रक्रिया के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। छायावादी दौर में बादल के साथ स्मृति के सह-सबंधों को लेकर कई रचनाएँ मिलती हैं। वहाँ बादल अतीत-राग है तो दूसरी ओर अपने होने की हुँकार के साथ बादल-राग भी। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी में बादल के साथ अतीत का ख्याल छायावादी परम्परा से चलकर आयी हुई लगती है।
निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे के गद्य में प्रवाहित शिल्प के ढाँचों, उसकी कुछ विशेषताओं की तरफ हम आपका ध्यान, कहानी के कुछ चुने हुए उदाहरणों के माध्यम से दिलाना चाहते हैं। निर्मल वर्मा की कहानी के विन्यास में, कथा-प्रवाह में शामिल पात्रों के साथ उसके आस-पास की प्रकृति बडे ही महीन ढंग से घुलती हुई चली आती है। दरअसल, कथा के साथ प्रकृति अपनी सूक्ष्मता के साथ जब घुल-मिल कर आती है तब वह संपूर्ण कथा में एक लयात्मक गूँज उत्पन्न कर देती है, एक लयात्मक धीमी ध्वनि का का कपासी दवाब कहानी पर बना रहता है। परिंदे कहानी में -फीकी सी चाँदनी में चीड के पेडों की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिडकता हुआ हवा से गायब हो जाता था। ( पृष्ठ 170) कहानी में प्रकृति की इस लयात्मक उपस्थिति के साथ कहानी के इस संदर्भ को भी मिलाकर पढने से निर्मल वर्मा के गद्य की अपनी खास और ठोस पहचान को समझा जा सकता है - ...मेघाच्छन्न आकाश में सरकते हुए बादलों के पीछे पहाडियों के झुण्ड कभी उभर आते थे, कभी छिप जाते थे, मानो चलती ट्रेन से कोई उन्हें देख रहा हो।
निर्मल वर्मा की कहानी की यह विशेषता रही है कि वे अपनी कहानी में पात्रों के साथ परिवेश का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए, परिवेश और पात्र के बीच के द्वैत को खत्म करते हुए एक संवादधर्मी रूपबंध निर्मित करते हैं। परिवेश का सूक्ष्म अवलोकन नई कहानी आंदोलन से पूर्व के दौर में इतना महीन नहीं था बल्कि नई कहानी आंदोलन से पूर्व प्रगतिशील दौर में कहानी का विन्यास मोटे तौर पर परिस्थितियों की पडताल और उन परिस्थितियों में व्यक्ति के जीवन-संघर्षों, व्यक्ति के सामाजिक अंतर्द्वंधों और उससे उपजे तनावों को दर्शाया जाता रहा था। व्यक्ति की चेतना वैयक्तिक न होकर सामाजिक हुआ करती थी। यथार्थ के प्रति आग्रहशीलता प्रभावी ढंग से उभर कर सतह पर आ रही थी। ऐसा नहीं कि नई कहानी आंदोलन में यह सब त्याज्य था बल्कि यह और भी प्रखरता से नए संदर्भों के साथ आ रहा था लेकिन निर्मल वर्मा की कहानी में यह यथार्थ परिवेश के सूक्ष्म अवलोकन और उसके चित्रण के साथ आया है। साहित्य के समाजशास्त्र में रचना का अस्तित्व उसके परिवेश से बाहर नहीं होता बल्कि रचना तभी अर्थवान मानी जाती है जब वह अपने समूचे परिवेश के साथ पाठक के समक्ष प्रस्तुत होती हो। परिंदे कहानी के रूपबंध में पात्रों के साथ प्रकृति का भी अपना अस्ति-चिंतन है। कहानी के इस अंश में परिवेश या प्रकृति जिस तरह से पात्रों के साथ हमारे सामने आया है, उसमें हम अस्ति-चिंतन की महीन बुनावट को देख सकते हैं - हवा तेज हो चली थी; चीड के पत्ते हर झोंके के संग टूट-टूटकर पगडंडी पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यूबर्ट रास्ता बनाने के लिए अपनी छडी से उन्हें बुहारकर दोनों ओर बिखेर देता था। लतिका पीछे खडी हुई देखती रहती थी, अलमोडा की ओर से आते हुए छोटे-छोटे बादल रेशमी रुमालों से उडते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे, फिर हवा में आगे बह निकले थे। इस खेल में धूप कभी फीकी सी पड जाती थी, कभी अपना उजला आँचल खोलकर समूचे पहाडी शहर को अपने में समेट लेती थी। (पृष्ठ 179) बतौर पाठक गद्य का यह प्रवाह हमारे सामने मनुष्य और प्रकृति के इस अस्ति-चितन का एक सिनेमैटिक प्रभाव उत्पन्न करता है। नई कहानी आंदोलन में जो नई है उसे निर्मल वर्मा की कहानी के शिल्प में, छोटे-छोटे बादल रेशमी रुमालों से उडते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे ; जैसे वाक्यों की बनावट में तो देख ही सकते हैं साथ ही इस बनावट के कारण उत्पन्न काव्यात्मक लय और लय से गुजरने के आनंद में भी देख सकते हैं। निर्मल वर्मा की कहानी में काव्यात्मक सौंदर्य में कोई सपना पलकों पर सरकता है -ह्यूबर्ट को लगा, जैसे लतिका की आँखें अधमुँदी सी खुली रह गयी हैं, मानों पलकों पर एक पुराना, भुला-सा सपना सरक आया हो। (पृष्ठ 180) सपनों के सरकने का कोई भौतिक परिपेक्ष्य नहीं होता है लेकिन गद्य की बनावट में हम यहाँ एक चाक्षुष बिंब का सृजन होते हुए देखते हैं। निर्मल वर्मा का गद्य एक दृश्यमान गद्य है।
परिंदे कहानी के रूपबंध में लतिका, करीमुद्दीन, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर ह्यूबर्ट और फादर एलमंड अपनी-अपनी स्थितियों के साथ गति कर रहे हैं। पात्रों की यह गति कई बार एक-दूसरे को काटती है और कई बार समानांतर चलती है।परिंदे कहानी की प्रमुख पात्र लतिका के जीवन की एकरसता, एकाकीपन निरे अभिधात्मक रूप में नहीं आता है बल्कि आस-पास के परिवेश के साथ सहचर के रूप में आता है। कहानी में लतिका की उपस्थिति के साथ जो परिवेश उपस्थित हुआ है वह लतिका के अकेलेपन को और अधिक सघन और अधिक गाढा कर जाता है। परिंदे कहानी के भीतर - ... जंगल की खामोशी शायद कभी चुप नहीं रहती। गहरी नींद में डूबी सपनों-सी कुछ आवाजें नीरवता के हलके झीने परदे पर सलवटें बिछा जाती हैं, मूक लहरों सी तिरती है, मानो कोई दबे पाँव झाँककर अदृश्य संकेत कर जाता है, देखो, मैं यहाँ हूँ।(184) और लतिका उसे अकेली देखती रहती है, अपने होने में जंगल की खामोशी लिए ।
परिंदे कहानी की संरचना से गुजरते हुए उसके पात्रों के निकट बतौर पाठक हम धीरे-धीरे पहुँचते हैं। दरअसल, सभी पात्रों के चरित्र और उसके निजीपन में अकेलापन फँसा हुआ दिखलाई देता है। इस कारण पाठक उस पात्र के पास धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक जाना चाहता है। पात्रों के अकेलेपन से पृथक रहते हुए वह पात्रों को भी अकेलेपन से पृथक कर समझने की एक कोशिश करता है। सवाल यह कि क्या परिंदे कहानी के पात्र अपने अकेलेपन से पृथक भी अपना कोई अस्तित्व रखते हैं। अकेलेपन के बिना भी उनका कोई निजत्व है? परिंदे कहानी के रूपबंध में शामिल सीमित पात्र अपने निजत्व की निर्मिती में कई गहरे दार्शनिक प्रश्न खडे करती है। यह दार्शनिक प्रश्न कहानी की सांद्रता को बढा देते हैं। मसलन, हम कहाँ जाएँगे, परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है। जैसे संदर्भ, रचना-समय के दौरान गतिमान दार्शनिक बहस, पुराने मान-मूल्य की जगह उभरते हुए नए मान-मूल्य की समांतरता में ही समझा जा सकता है। लतिका इस कहानी की मुख्य पात्र है। कहानी में लतिका के होने का एक निश्चित पैटर्न है। इस पैटर्न में ही लतिका का अपना अस्ति-चिंतन दिखलाई देता है। लतिका, बचपन में जब भी वह अपने किसी खिलौने को खो दिया करती थी, तो वह गुमसुम सी होकर सोचा करती थी, कहाँ रख दिया मैंने ? जब बहुत दौड-धूप करने पर खिलौना मिला जाता, तो वह बहाना करती कि अभी उसे खोज रही है कि वह अभी उसे मिला नहीं है। जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोडकर घर के दूसरे कोनों में उसे खोजने का उपऋम करती। तब खोयी हुई चीज याद रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था।(186) लतिका के अस्ति-चिंतन का मनोविज्ञान उपर्युक्त कथन में मानीखेज है, खोई हुई चीजों को ढूंढ लेने और ढूंढने के बाद चीजों को एक आश्वस्ति के साथ छोड कर उसी को दुबारा ढूंढने का अभिनय दरअसल, अपने होने को ढूँढने से निर्मित होता हुआ दिखलाई देता है। ढूँढने में जहाँ भूल जाने का कोई भय नहीं है। जाहिर है, चीजों को पा लेने की उत्कंठा और पा लेने के बाद उसके प्रति विश्वस्त हो कर एक उपेक्षा का भाव, विषयनिष्ठता से वस्तुनिष्ठता की ओर एक साधारणीकृत गमन है। इस गमन में जहाँ एक ओर अहं का भाव दिखलाई देता है तो दूसरी ओर स्वयं के होने को प्रक्रिया में ही शामिल रखने का उपक्रम। दरअसल लतिका के लिए प्रक्रिया से बाहर कोई जीवन नहीं है। पहाड का अकेलापन इस प्रक्रिया को बार-बार बाधित करता है और चुनौती देता है। वह बाहर निकलना चाहती है लेकिन अतीत की एक छाया उसे बाहर निकलने नहीं देती, उसे मुक्त होने नहीं देती। यह कहानी लतिका के दृष्टिकोण से मुक्तिकामिता की कहानी दिखलाई देती है। इस मुक्तिकमिता में कई पात्र सहयोगी की भूमिका में दिखलाई देते हैं।
परिंदे कहानी में अपनी उपस्थिति को दर्शाने वाला एक पात्र करीमुद्दीन है। करीमुद्दीन लडकियों के हॉस्टल में नौकर है और वह लतिका के रोजमर्रेपन की आवश्यकताओं के लिए अपनी सेवाएँ देता है। करीमुद्दीन हॉस्टल में नौकर रहने से पूर्व मिलिट्री में अर्दली रह चुका है, इसलिए उसकी जीवन-चर्या की हरकतों में सेना में होने का अंदाज दिखलाई देता है। वह लतिका के सामने चाय की ट्रे मेज पर रखकर अटेन्शन की मुद्रा में खडा हो जाता है। लतिका उसे देखती हुई हमेशा झटके से उठ कर बैठ जाती है। दोनों के बीच धीरे-धीरे सहज संबंध का विकास हमें दिखलाई देता है। लतिका और करीमुद्दीन के संदर्भ से कहानी के भीतर संवाद के ढाँचे में यह सहजता दिखलाई देती है - सुबह से आलस करके कितनी बार जागकर वह सो चुकी है। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा-बडी सर्दी है आज, बिस्तर छोडने को जी नहीं चाहता।, अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी है- बडे दिनों में देखना कैसे दाँत कटकटाते हैं - और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों में डाले हुए इस तरह सिकुड गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र से उसे जाडा लगना शुरू हो गया हो। गंजे सिर पर दोनों तरफ के उसके बाल खिजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। इस पूरे संवाद में करीमुद्दीन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आता है जिसके जीवन में मौसमों का बदलाव कोई परिवर्तन नहीं लाता बल्कि मौसम का बदलना भी एक काम की तरह है, एक निश्चित जीवन-पद्धति की तरह। इसलिए करीमुद्दीन के लिए काम सिर्फ काम के रूप में नहीं बल्कि काम उसकी जीवन-पद्धति है। उसकी जीवन-पद्धति एक स्टीरियोटाइप है। इस कहानी का एक महत्त्वपूर्ण पात्र गिरीश नेगी है। गिरीश नेगी, लतिका का अतीत है। कभी लतिका ने गिरीश नेगी से प्यार किया था। पहाड पर अकेलेपन में लतिका इसी अतीत के बारे में सोचती रहा करती है और उससे मुक्त होंने की निरर्थक कामना करती हुई दिखलाई देती है। लतिका अपने जीवन के शुरुआती दिनों में गिरीश नेगी से प्यार करती रही है। निर्मल वर्मा द्वारा कहानी के कथा-शिल्प में इस प्यार का कोई विवरण नहीं दिया गया है। कथा के पाठक को इस प्यार की जानकारी लतिका द्वारा अपनी स्मृतियों को याद करने के क्रम से मिलता है। लतिका अपने एकाकी जीवन में अपने अतीत की स्मृतियों में बार-बार जाती रहती है। वह स्मृतियों में प्यार के क्षण को देखती है। इस देखे जाने की भंगिमा से ही पाठक को पता लगता है कि वह गिरीश नेगी से प्यार करती है। कथा की बुनावट में यह भंगिमा कुछ इस तरह से आयी है - वह मुडी और इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, गिरीश ने अपना मिलिटरी का हैट धप से उसके सिर पर रख दिया। वह मन्त्रमुग्ध-सी वैसी ही खडी रही। उसके सिर पर गिरीश का हैट है-माथे पर छोटी-सी बिन्दी है। बिन्दी पर उडते हुए बाल है। गिरीश ने उस बिन्दी को अपने होंठों से छुआ है, उसने उसके नंगे सिर को अपने दोनों हाथों में समेट लिया है - लतिका, गिरीश ने चिढाते हुए कहा- मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ - (उसका यह नाम गिरीश ने उसे चिढाने के लिए रखा था)... वह हँसने लगी। लतिका... सुनो! गिरीश का स्वर कैसा हो गया था! ना, मैं कुछ भी नहीं सुन रही। लतिका... मैं कुछ महीनों में वापिस लौट आऊँगा ना... मैं कुछ भी नहीं सुन रही किन्तु वह सुन रही है - वह नहीं जो गिरीश कह रहा है, किन्तु वह जो नहीं कहा जा रहा है, जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया। लतिका के जीवन में गिरीश नेगी की उपस्थिति एक रागात्मक उपस्थिति है। कहानी के शिल्प में यह उपस्थिति कभी भी प्यार के प्रत्यक्ष रूपबंध में वर्णित नहीं हुई है बल्कि प्यार का यह रूपबंध लतिका की स्मृति के द्वारा प्रकट हुई है। असल में, साहित्य सहित दृश्य कलाओं में अतीत की स्मृति का महत्त्व रहा है। एक तकनीक के तौर पर हिंदी साहित्य में अतीत की स्मृति का संदर्भ कोई नई विशेषता नहीं रही है। 1915 में प्रकाशित कहानी उसने कहा था में स्मृति का संदर्भ पहली बार सघनता के साथ आया है। प्रेमचंद अपने प्रसिद्ध उपन्यास गोदान (1936) में भी होरी की मृत्यु के क्षणों में इस तकनीक का प्रयोग करते हुए दिखलाई देते हैं। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी में यह शिल्प अपने नए घुमाव तंत्र के साथ उपस्थित हुआ है।
परिंदे कहानी में डॉक्टर मुकर्जी एक भिन्न किस्म का पात्र है। डॉक्टर मुकर्जी के चरित्र को हमें एक स्तर पर डायस्पोरिक नजरिए से देखना चाहिए और दूसरे स्तर पर विस्थापन से उपजी त्रासदी के नजरिए से भी। डॉक्टर मुकर्जी आधे बर्मी थे, जिसके चिह्न उनकी थोडी दबी हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे। बर्मा पर जापानियों का आऋमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाडी शहर में आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वे खाली समय में कान्वेंट स्कूल में पढाते भी थे। डॉक्टर मुकर्जी के चरित्र में अपनी जडों से कट जाने का दर्द गुँजित होता रहता है। लतिका के साथ उसके संवाद की तह में अपनी जडों से कट जाने के कारण एक बेगानेपन का भाव दिखलाई देता है। इस कहानी के आस्वाद की प्रक्रिया को डॉक्टर मुकर्जी का चरित्र नए तरीके से उद्द्भुत करता है। दरअसल, विस्थापन एक ऐसा दर्द है, जिसे व्यक्ति तमाम सुखद परिस्थितियों के बाद भी भूल नहीं पाता है। ओरियंटलिज्म के प्रवक्ता एडवर्ड सईद (1935-2003) के चिंतन में विस्थापन की त्रासदी के ताप को गहराई से समझा जा सकता है। विश्व साहित्य में भी विस्थापन का यह दर्द व्यापक फलक पर उपस्थित हुआ है। समय के अंतराल में यह दर्द भले ही कम होता जाता है लेकिन व्यक्ति की चेतना में यह दर्द मौजूद हुआ करता है। डॉक्टर मुकर्जी की चेतना में यह दर्द बसा हुआ है। दर्द की इस तीव्रता को समझने के लिए हम डॉक्टर मुकर्जी के इस कथन को एक बार फिर देख सकते हैं -ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है।(170)। कहना होगा कि डॉक्टर मुकर्जी में यह अजनबीयत का बोध बराबर बना हुआ है। इस कहानी के रूपबंध में डॉक्टर मुकर्जी, लतिका और ह्यूबर्ट के साथ रहते हुए हमेशा एक दार्शनिक और सलाहकार की भूमिका में रहा करता है। लतिका अतीत में किए प्रेम की स्मृति से चिपकी हुई है और उससे मुक्त होने का कोई सायास प्रयास करती हुई दिखलाई नहीं देती है। कभी-कभी यह लगता है कि लतिका के जीवन की सांद्रता अतीत में किए प्यार की स्मृति ही है जिससे वह प्रेरणा ग्रहण करती है। डॉक्टर मुकर्जी लतिका से अतीत में किए प्यार की स्मृति को लेकर लगातार बहस करता है। लतिका को स्मृति से बाहर लाकर वर्तमान के यथार्थ के साथ जीने, वर्तमान की लय के साथ अपनी इयत्ता को पहचानने के लिए लगातार प्रेरित करता रहता है। डॉक्टर मुकर्जी, लतिका से कहता है - कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि गलत है, तो जान-बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह चिपटे रहना, यह भी गलत है। (191) इस बात पर लतिका की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। दरअसल, प्रतिक्रिया विहीन स्थिति, यथास्थिति को स्वीकारने जैसा होता है। लतिका में यथास्थिति से बाहर निकलने के बारे में सोचते हुए भी उसे स्वीकार कर लेने जैसा भाव रहा है। एक संवाद में ह्यूबर्ट, डॉक्टर मुकर्जी से पूछता है - डॉक्टर, सब कुछ होने के बावजूद वह क्या कुछ है, जो चलाए है, हम रुकते हैं तो भी अपने भाव में वह हमें घसीट लिए जाता है ? (191) दरअसल, कहानी में ह्यूबर्ट का यह कथन सत्ता के प्रश्न से जुडता है जिसे जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाईडेगर (1889-1976) ने अपने सिद्धांतों में उठाया था । सत्ता के प्रश्न के संदर्भ से उसने कहा कि, ‘वह कौन सा आधार है जिसके नाते वस्तुमात्र का अस्तित्व है ? वस्तुएँ क्यों हैं ? ऐसा क्यों नहीं है कि कुछ भी नहीं है ? जाहिर है, ह्यूबर्ट अपने अकेलेपन को जीते हुए अपने भीतर के उस सत्त्व की पडताल करना चाहता है, उस सत्ता की मीमांसा करना चाहता है जिसके कारण मनुष्य अकेलेपन में जीने के लिए विवश हो जाता है। मनुष्य के अकेलेपन में अतीत की स्मृति और स्मृति की उपस्थिति का भाव कभी हौसला देती है और कभी-कभी पीडा भी। ह्यूबर्ट में अकेलापन लतिका की तरह ही बहुत गाढा है इसलिए ही इस कहानी के रूपबंध ह्यूबर्ट अपने अकेलेपन को बाँटने के लिए लतिका को चुनता है। इस अकेलेपन से उबरने के लिए वह लतिका को एक प्रेम पत्र लिखता है, और बाद में इस प्रेम पत्र के लिखे जाने को लेकर ग्लानिबोध का शिकार भी होता है। ह्यूबर्ट, लतिका के लिए लिखे प्रेम पत्र और लतिका के प्रति रागात्मक भाव के बारे में कुछ संकेतों के साथ डॉक्टर मुकर्जी से बात भी करता है -डाक्टर, आपको मालूम है, मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से से अजीब-सा लगता है। ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था कि डाक्टर को लतिका के प्रति उसकी भावनाओं का आभास- मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह इतने समय से सँजोता आया है, डाक्टर उसे हँसी के एक ठहाके में उपहासास्पद बना देगा। लतिका के प्रति अपने प्रेम के उपहास में बदल जाने की हमेशा चिंता करते रहना ह्यूबर्ट के चरित्र की अपनी विशेषता है। इसलिए अपने प्रेम की सघनता को भी वह हल्के-फुल्के अंदाज में प्रस्तुत करता है। प्रेम के उपहास में बदल जाने की चिंता के बीच ह्यूबर्ट कई बार डॉक्टर मुकर्जी की दार्शनिक स्थितियों से रू-ब-रू भी होता है। डॉक्टर मुकर्जी में यह दार्शनिक स्थितियाँ उसके विस्थापन की पीडा से सृजित हुआ दिखलाई देता है। एक बार डॉक्टर मुकर्जी जब ह्यूबर्ट से यह पूछता है कि, क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, ह्यूबर्ट? तब ह्यूबर्ट थोडा घबरा जाता है, ह्यूबर्ट दम रोके प्रतीक्षा करता रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डाक्टर को फिलासोफाइज करने की आदत थी। डाक्टर टैरेस के जंगले से सटकर खडा हो गया। फीकी-सी चाँदनी में चीड के पेडो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी।कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिडकता हवा में गायब हो जाता था। कहानी के इस अंश से गुजरते हुए मुझे यहीं निर्मल वर्मा की भाषा-शैली की विशिष्टा पर ध्यान जाता है जिसका उल्लेख मुझे यहीं कर देना चाहिए ।क्या तुम नियति में विश्वास करते हो जैसे ठोस दार्शनिक प्रश्न के साथ एक दम घुलमिल कर निर्मल वर्मा बिंब की एक काव्यात्मक इमारत खडी कर देते हैं। यह बिंब हमारे सामने दृश्यबंद के साथ उपस्थित होता है-फीकी-सी चाँदनी में चीड के पेडो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी में छायाओं के गिरने के दृश्य में, गिरने की ध्वनि भी सुनाई देती है। निर्मल वर्मा की रचनाओं के भाषा-प्रवाह से गुजरते हुए कभी-कभी यह लगता है कि, कथन में उठाए गए मुद्दे भाषा की काव्यगत संरचना में धीरे-धीरे खो जाते हैं। हम भाषा की एक विराट दुनिया में कुछ बिम्बों, कुछ दृश्यों की ध्वनियों में प्रवाहमान हो जाते हैं। दरअसल यह भी सही है कि भाषा के प्रवाह में खोना, एक स्तर पर कथ्य का अनादर करना है।
परिंदे कहानी में एक पुरातनपंथी और दकियानूसी पादरी है जिसका नाम फादर एलमंड है। कहानी में यह कम समय के लिए उपस्थित होता है। उसकी उपस्थिति कहानी की गतिमान धुरी को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। फादर एलमंड के सहारे कहानी में धर्म के साथ पितृसत्तात्मक नजरिए का प्रवेश होता है। दरअसल, धर्म के साथ पितृसत्तात्मक नजरिया कई मायनों में ज्यादा खतरनाक और हिंसक हो जाता है। कहानी के भीतर एलमंड लतिका के बारे में कहता है, मिस वुड, पता नहीं आप क्या सोचती हैं। मुझे तो मिस लतिका का हॉस्टल में अकेले रहना कुछ समझ में नहीं आता। दरअसल, फादर एलमंड की दृष्टि में किसी स्त्री का अकेले रहना कई तरह के संदेहों को उत्पन्न करता है। हम जानते हैं, कि हमारे आस-पास के सामाजिक विन्यास में जिस प्रकार की पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निर्मिती हुई है , उसमें किसी भी स्त्री का अकेले रहना कई संदेहों को जन्म देनेवाला होता है। स्त्री होने का आशय हमेशा किसी के साथ होने से जोडकर ही देखा जाता रहा है। कहानी के भीतर एक स्त्री पात्र मिस वुड जब कहती है, लेकिन फादर,... यह तो कान्वेन्ट स्कूल का नियम है कि कोई भी टीचर छुट्टियों में अपने खर्चे पर हॉस्टल में रह सकता हैं। हम जानते हैं कि पितृसत्तात्मक संरचना में नियमों के पालन और उसकी व्याख्या का इस्तेमाल भी संरचना के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया जाता रहा है। कहानी में इसे घटित होते हुए आसानी से देखा जा सकता है। मिस वुड द्वारा नियमों को याद दिलाने के बाद फादर एलमंड मिस वुड को टोकता है, मैं फिलहाल स्कूल के नियमों की बात नहीं कर रहा। मिस लतिका डाक्टर के संग यहाँ अकेली ही रह जाएँगी और सच पूछिए मिस वुड, डाक्टर के बारे में मेरी राय कुछ बहुत अच्छी नहीं है। फादर के मस्तिष्क में स्त्री-पुरुष के साथ को लेकर पुरातन विचार उत्पन्न होता है, एक स्त्री का किसी पुरुष के साथ रहना फादर एलमंड के मन में कई यौन-संदर्भ से उत्पन्न संदेहों को जन्म देता है। हालाँकि कहानी में किसी भी तरह के यौन-संदर्भ कहीं नहीं आए हैं। दरअसल, आम भारतीय मनर्स्थिति और भारतीय समाज की निर्मिती में स्त्री का अकेले रहना कभी भी प्रशंसनीय नहीं रहा है, कम से कम इस कहानी के लिखे जाने वाले समय में तो बिलकुल नहीं। इक्कीसवीं सदी में यह स्थिति बडे पैमाने पर बदली है। कहानी में मिस वुड लतिका के पक्ष में फादर से तर्क करती है। फादर, आप कैसी बात कर रहे हैं ? मिस लतिका बच्चा थोडे ही है। मिस वुड को ऐसी आशा नहीं थी कि फादर एल्मण्ड अपने दिल में ऐसी दकियानूसी भावना को स्थान देने वाले पादरी होंगे। मिस वुड और फादर के बीच का यह पूरा संवाद दरअसल कहानी के शिल्प में धर्म को मानने वाले पात्र फादर और उसी धर्म को मानने वाली स्त्री पात्र मिस वूड द्वारा व्यक्त किए गए एक स्त्री लतिका के बारे में भिन्न दृष्टिकोण से निर्मित विचार को हमारे सामने लाता है। मिस वुड का दृष्टिकोण धर्म की परिधि में रहते हुए भी अपनी सतह पर एक प्रगतिशील दृष्टिकोण दिखलाई देता है।
परिंदे कहानी की भाषा-योजना काव्यात्मक है। जिसका उल्लेख हमने पहले भी किया है। हम यहाँ कहानी की भाषा-योजना पर थोडी और चर्चा करना चाहते हैं। कहानी अपने आरंभ से ही एक खास किस्म से शांत लय का निर्माण करती है। भाषा की काव्यात्मक लय पाठक को कहानी से अलग होने नहीं देती है। मैंने ऊपर भी यह कहा है कि, निर्मल वर्मा की भाषा पाठक की इयत्ता को कभी-कभी कथ्य से अलग कर देती है और अपनी काव्यात्मकता की लय में प्रवाहमान बना देती है। यह उल्लेखनीय है कि नामवर सिंह द्वारा परिंदे को नयी कहानी की पहली कृति मानने का एक बडा कारण यह रहा है कि परिंदे नयी कहानी की विशिष्टता और उसकी नवीन भाषा संरचना को एक स्तर तक सम्पूर्णता में दिखा पाने में समर्थ रही है। परिंदे कहानी के नयेपन पर नामवर सिंह की एक सारगर्भित उल्लेखनीय टिप्पणी है जिसे उन्होंने अपनी किताब कहानी : नयी कहानी में दर्ज किया है -।।।पढने पर सहसा विश्वास नहीं होता कि ये कहानियाँ उसी भाषा की हैं, जिसमें अभी तक शहर, गाँव, कस्बा और तिकोने प्रेम को ही लेकर कहानीकार जूझ रहे हैं। परिंदे से शिकायत दूर हो जाती है कि हिंदी कथा-साहित्य अभी पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही मार्कटाइम कर रहा है। समकालीनों में निर्मल पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दायरे को तोडा है- बल्कि छोडा हैं; और आज के मनुष्य की गहन आतंरिक समस्या को उठाया है ।(पृष्ठ 52) असल में, नामवर सिंह इस कहानी की अंतर्वस्तु और भाषा के टटकेपन को लक्षित करते हुए कहानी के पुराने ढांचे को रेखांकित करते हैं। नई कहानी का प्रस्थान बिंदु कहानी की अंतर्वस्तु और भाषा के टटकेपन से आरंभ होता है। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी अपने भाषाई प्रभाव में संगीत का प्रभाव उत्पन्न करती है। इस कहानी में संगीत के संदर्भ को भी अलग से रेखांकित किया जा सकता है। निर्मल वर्मा के गद्य की संगीतात्मकता को नामवर सिंह ने भी अपनी उपर्युक्त किताब में रेखांकित किया है - परिंदे की नायिका लतिका को चैपल में संगीत सुनकर ऐसा लगा कि जैसे मोमबत्तियों के धूमिल आलोक में कुछ भी ठोस, वास्तिविक न रहा हो-चैपल की छत, दीवारें, डेस्क पर रखा हुआ डाक्टर का सुघड-सुडौल हाथ-और पियानों के सुर अतीत की धुंध को भेदते हुए स्वयं उस धुंध का भाग बनते जा रहे हों। दरअसल, निर्मल वर्मा की कहानी की ध्वन्यात्मकता उनकी नवीन भाषा-योजना में निहित है और यही नयी कहानी आंदोलन की विशिष्ट पहचान है। अंत में यह कहा जा सकता है कि निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का रूपबंध अतीत की स्मृति से निर्मित कहानी है जिसमें व्यक्ति के अस्ति-चिंतन की अपनी-अपनी गूँज े हैं। लतिका नाम की स्त्री पात्र अपने अतीत की स्मृतियों की छाया तले रहते हुए अतीत से मुक्ति की कामना करती है। विस्थापन की ठोस स्मृति के साथ कहानी का एक पात्र डॉक्टर मुकर्जी है। हर वर्ष सर्दियों की स्मृति लेकर करीमुद्दीन है। परिंदे कहानी के विन्यास में एक अनकही, अनजानी और अनचाही सी प्रतीक्षा है। इस प्रतीक्षा में स्वयं के होने की सार्थकता और उसकी एक खोज की गतिकी है। लतिका के जीवन में यह अनकही प्रतीक्षा लंबे समय से रही है। लतिका का जीवन-मूल्य प्रतीक्षा के सच से ही सामने आता है। लेकिन वह किसकी प्रतीक्षा कर रही है ठीक-ठीक उसे भी नहीं पता है। एक अनिर्णय की स्थिति में रहने की नियति लतिका से बद्धमूल है। दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितयों ने मनुष्य के सामने होने, हम कहाँ जाएँगे? के प्रश्न को एकदम गाढा कर दिया था। अनास्थाओं और दुखों के बीच मनुष्य के जीवन में अकेलापन एक मूल्य की तरह, अकेलापन एक आस्था की तरह उपस्थित हो गया था। इस परिप्रेक्ष्य से परिंदे कहानी एक स्त्री के अकेलेपन की भी कहानी बन जाती है। अकेलेपन का वैभव लतिका में दिखलाई देता है। परिंदे की उडान लतिका के जीवन में नहीं है। यह उडान लतिका भी चाहती है लेकिन उसके सामने एक सवाल हमेशा खडा रहता है- हम कहाँ जाएँगे। परिंदे हर सर्दियों में जब पहाड पर बर्फ जमने लगता है मैदानी भाग में नीचे उतर आते हैं। लतिका कहीं नहीं जाती। वह वहीं पहाड पर पहाड जैसी स्थिर बनी रहती है। चरित्र-सृष्टि, शिल्प की नवीनता, भाषा की नवीनता के आधार पर परिंदे कहानी को निर्मल वर्मा की एक महत्त्वपूर्ण कहानी मानी जाती है। यह कहा जा सकता है कि अपने संपूर्ण पाठ और पाठ के प्रभाव में परिंदे कहानी हिंदी कहानी के इतिहास में कालजयी माने जाने वाली कहानी है।
संदर्भ सूची -
1. नामवर सिंह, (1982); कहानी नई कहानी;
लोकभारती प्रकाशन
2. देवीशंकर अवस्थी (1973); नई कहानी : संदर्भ
और प्रकृति, राजकमल प्रकाशन
3. राजेन्द्र यादव (1968); कहानी स्वरूप और संवेदना,
वाणी प्रकाशन
4. वंदना केंगरानी (2007); निर्मल वर्मा के स्त्री विमर्श,
वाणी प्रकाशन
5. मधुरेश (1996); हिंदी कहानी का विकास, सुमित
प्रकाशन
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सम्पर्क - एसोशिएट प्रोफेसर, डी- 12 , शमशेर संकुल, पोस्ट-हिंदी विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र,
पिन - 442001, मो.- 9422905755
ईमेल-amrendrakumarsharma@gmail.com
कहानी तो एक भूख है जो निरंतर समाधान पाने की खोज करती रहती है। हमारे अपने सवाल होते हैं, शंकाएँ होती हैं चिंताएँ होती हैं और हमीं उनका उत्तर, उनका समाधान खोजने का, पाने का सतत प्रयास करते हैं। हमारे प्रयोग होते रहते हैं, उदाहरणों और मिसालों की खोज रहती है। कहानी उसी खोज के प्रयत्न का एक उदाहरण है।
- जैनेन्द्र कुमार
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध गद्य-शिल्पी जैनेन्द्र कुमार के कहे में जो सवाल, शंका, चिंता, उत्तर, समाधान, प्रयोग, उदाहरण, आदि पदों का उल्लेख आया है, दरअसल यह मनुष्य के होने के अस्ति-चिंतन से जुडा हुआ है। होने के अस्ति-चिंतन का कोई एक पडाव नहीं होता बल्कि यह गतिशील होती है। एक युग से दूसरे युग में यह संस्कारित होती हुई, नए अर्थ-संदर्भ ग्रहण करती हुई विकासमान होती है। कहानी की यात्रा में रचनाकार अपने होने की यात्रा भी करता है। हम कहाँ जाएँगे? का संदर्भ अलग-अलग पडावों में अलग-अलग रूपाकार में हिंदी की रचनाधर्मिता में शामिल रहा है। हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी कहानी, हमेशा तेजी से परिवर्तित होने वाली विधा रही है। हिंदी कहानी में एक ही समय में एक से ज्यादा पीढी के कहानीकार रचनाशील रहे हैं। इस कारण स्वाभाविक रूप से हिंदी कहानी की जमीन एक ही समय में परिवर्तनशील और बहुस्तरी रही है। जैनेन्द्र कुमार के उपर्युक्त कथन का एक सिरा परिवर्तनशीलता और बहुस्तरीयता की खोज में भी खुलता है।
हिंदी कहानी की जमीन पर एक ही समय में परिवर्तनशील और बहुस्तरी संरचनाओं के परिवर्तन के दौर में निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे अपने पाठ का एक अलहदा दरवाजा खोलती हुई हिंदी साहित्य के पटल पर अवतरित होती है। परिंदे निर्मल वर्मा की सबसे अधिक चर्चित, प्रसिद्ध और पढी जाने वाली कहानी रही है। अपने नए कलेवर और कथा-तंतु की ताजगी के कारण ही परिंदे को नयी कहानी आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण कहानी मानी जाती रही है। यह कहानी सबसे पहले 1957 में हंस के अर्धवार्षिकांक संकलन में अमृतराय ने प्रकाशित किया था। यह कहानी 1960 में निर्मल वर्मा की परिंदे नाम के कहानी संग्रह में प्रकाशित हुई। हंस में इस कहानी के ठीक दो वर्ष बाद निर्मल वर्मा 1959 से 1970 तक भारत से बाहर रहे। चेकोस्लोवाकिया सहित यूरोप के कई देशों की उनकी यात्रा उनकी कथा-जमीन को नए सिरे सींच रही थी और उर्वर बना रही थी। विदेश का लंबा प्रवास उनकी कहानियों में क्षैतिज विकास के साथ चलकर आया है। विदेशी पृष्ठभूमि को लेकर उन्होंने हिंदी में कई कहानियाँ लिखी हैं। जलती झाडी और कव्वे और कालापानी में विदेशी परिवेश की कहानियों को देखा जा सकता है। हिंदी कहानी में बनती हुई नई जमीन और इस जमीन के प्रतिनिधि बनने की बहस और कथा-राजनीति की जद्दोजहद के बीच परिंदे कहानी के बारे में प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने आकाशवाणी इलाहाबाद और कृति पत्रिका में कहानी की समीक्षा करते हुए खूब प्रशंसा की। आगे चलकर नामवर सिंह ने एक महत्त्वपूर्ण लेख नयी कहानी की पहली कृति परिंदे नाम से लिखी। इस लेख की शुरुआत में ही नामवर सिंह ने यह स्थापना दी कि, फकत सात कहानियों का संग्रह परिंदे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है बल्कि जिसे हम नयी कहानी कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है। नामवर जी के इस वक्तव्य से न केवल हिंदी कहानी में नयी को लेकर बहस हुई बल्कि कहानी की समझ के दृष्टिकोणों और परिंदे कहानी पर भी खूब बहस हुई। नामवर सिंह की इस स्थापना ने हिंदी साहित्य में विचारधारों की गाठों को भी नए सिरे से खोलने/खुलने का अवकाश मिला। अन्य कारणों के अलावा इस कारण से भी परिंदे कहानी के साथ-साथ हिंदी कहानी को समझने के नए दरवाजे खुले और समझ की खिडकियों से ताजी हवा कथा-आलोचना में प्रविष्ट हुई। इस तरह की समझ की खिडकियों से आनेवाली ताजी हवा पर हिंदी साहित्य में हिंदी कहानी और नई कहानी पर काफी दिनों तक बहस होती रही। हम यहाँ यह समझने की कोशिश करेंगे कि नई कहानी आंदोलन की बहस में निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे अपने कथ्य और शिल्प-विन्यास की बुनावट-बनावट में, पात्रों की युगीन संरचना की बुनावट में और कहानी में बरती जाने वाली भाषा-शैली में ऐसे कौन से से घुमाव-बिंदु हैं जो हिंदी कहानी के प्रचलित ढाँचों से उसे अलग कर रही थी।
नई कहानी आंदोलन में मोटे तौर पर 1954 से 1963 तक के कालखंड को लिया जाता है। हिंदी साहित्य की दुनिया में पहली बार नई कहानी जैसे पदबंध प्रयोग करने का श्रेय कहीं नामवर सिंह को दिया जाता है और कहीं दुष्यंत कुमार को। नई कहानी जैसे पदबंध कहे जाने के प्रचलन का संदर्भ दरअसल, आजादी के बाद विकसित होते नए मध्यवर्ग और मध्यवर्ग की बनती, परिवर्तित होती नई आकांक्षाओं से जुडता है। यह आंकाक्षा निर्मित होते नए भारत, समाजवादी विकास की नई परियोजनाओं से भी जुडता है। इस दौर में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना के कारण अध्ययन के नए अनुशासनों और उसके विविध आयाम का विकास, स्त्री शिक्षा की योजनावद्ध नई पहल, परिवहन के संसाधनों का तेजी से विकास, पंचवर्षीय योजनाओं का ढाँचा आदि अनेक तत्व थे जिनसे भारत का मध्यवर्ग न केवल प्रभावित हो रहा था बल्कि अपने लिए एक नई दुनिया का सपना देख रहा था, उस सपने को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील था। इस नयेपन ने हिंदी साहित्य के ढाँचे में भी नयेपन का आगाज किया। हिंदी कहानी की चर्चा होते-होते उसमें नई जैसे शब्द अनायास जुडते चले गए। इसलिए नई कहानी जैसे पदबंध किसी सोची-समझी योजना या रणनीति का परिणाम नहीं था। हालाँकि, यह सच है कि ज्यों-ज्यों इस पदबंध का प्रयोग होता गया, नई प्रवृतियों के वाहक के रूप में यह पदबंध प्रचलित होते हुए हिंदी साहित्य में एक आंदोलन के रूप में हमारे सामने आता चला गया। नयी कहानी पदबंध के बारे में आलोचक देवीशंकर अवस्थी यह मानते हैं कि,‘ दिसंबर सन् 1957 में प्रयाग में होने वाले साहित्यकार सम्मेलन तक नई कहानी अभिधान लगभग स्वीकृत हो चुका था। शिव प्रसाद सिंह, हरिशंकर परसाई और मोहन राकेश द्वारा पठित आलेखों के पहले वाक्यों में ही नई कहानी का प्रयोग किया गया है। इसी सम्मेलन में नई को लेकर होने वाले विवाद में ही ग्राम-कथा बनाम नगर-कथा का झगडा शुरु हुआ था। सन् 57 में ही प्रकाशित अपने संग्रहों नए बादल और जहाँ लक्ष्मी कैद है की भूमिकाओं में क्रमशः मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव अपेक्षाकृत ठहरे हुए यथार्थ के बजाए निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ का सवाल उठा चुके थे।
निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ, दरअसल अपनी जमीन तोड कर बाहर आना चाहते थे। यह कुलबुलाता यथार्थ ही नई कहानी आंदोलन का केंद्रीय विषय बना। नई कहानी यथार्थ और सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को नए संदर्भों से देखने की एक नई पद्धति की प्रस्तावना कर रहा था। इस नई प्रस्तावना के नुक्ते से ही नई कहानी स्वयं को पिछली कहानी से अलगाती है। दरअसल, नई कहानी के परिवेश में, कहानी के परंपरागत और रूढ तत्त्वों का नकार है, कहानी के मूल्यांकन में इन तत्त्वों को वर्जित किया गया। यह कहा गया कि कथाकार व्यक्ति को उसकी समग्रता में, व्यक्ति की सामाजिक बोध के साथ अपनी कहानी में ढालता है और यह नई कहानी की मूल प्रवृति है। नई कहानी का समाजशास्त्र (परिवेश, समाज की स्थिति, राजनीतिक ढांचा, लेखक की स्थिति और विचार आदि) नई कहानी के आंदोलन के साथ परिवर्तित/विकसित होता चलता है। दरअसल, नई कहानी के समाजशास्त्र को अलग से रेखांकित नहीं किए जाने की कोई प्रविधि विकसित नहीं हो रही थी बल्कि वह नई कहानी के साथ-साथ ही विकसित हो रही थी। नई कहानी में हिंदी कहानी की पहले की परंपरा के प्रति एक निषेध का भाव रहा है। असल में, नई कहानी पर अपने समकालीन संदर्भों का दबाव ज्यादा रहा है इसलिए वह अपने को अतीत से हटाकर वर्तमान की प्रवृतियों पर केंद्रित करता है। वर्तमान की प्रवृतियों में अपने समय की विसंगतियाँ, रोजगार के लिए किए जाने वाले संघर्ष, हताशा, अपने होने को लेकर उदासीनता दिखलाई देती है। नई कहानी के दौर में रोजगार न मिलने से उपजी हताशा, अपने सपने और यथार्थ की जमीन में अंतर के कारण उत्पन्न मोहभंग, वैवाहिक स्थिति के अंतद्वन्द्व और तनाव, कामकाजी स्त्रियों की बहुस्तरी समस्याओं और परिवार में उनकी बढती हैसियत के कारण पारिवारिक संरचना में परिवर्तन से उपजे अंदरूनी तनाव आदि के साथ-साथ देश की तुलना में विदेश में अधिक सुविधा मिलने की आकांक्षा ने हिंदी में दर्जनों कहानियों को मजबूत जमीन उपलब्ध करायी। राजेन्द्र यादव की कमजोर लडकी, एक खुली हुई सांझ, अमरकांत की डिप्टी कलेक्टरी, मार्कंडेय की गुलरा के बाबा, भीष्म साहनी की चीफ की दावत, मोहन राकेश की अपरिचित, शेखर जोशी की कोसी का घटवार आदि सहित अनेकों कहानियों ने नई कहानी आंदोलन की दिशा और दशा को निर्धारित करती हुई दिखलाई देती है।
निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी की जमीन एक पहाड है। पहाड पर बने लडकियों के एक स्कूल के हॉस्टल के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है परिंदे। बेहतर है कि पहले हम इस कहानी की ताना-भरनी से रु-ब-रु हो लें। यह कहानी सर्दियों की छुट्टी होने से एक दिन पहले के घनीभूत वातावरण की कहानी है। घनीभूत वातावरण का अपना एक कैनवास हैं जिसके एक कोण पर लतिका का एकांत है और दूसरे छोड पर होस्टल में रहने वाली लडकियों का उत्साह। इस कहानी में लडकियों की एक शिक्षिका जिनका नाम लतिका है। लतिका अकेली रहती है। लतिका के मस्तिष्क में अतीत और वर्तमान को लेकर चलने वाले वे घटनाक्रम हैं जिससे उसके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। लतिका अपने जीवन के अकेलेपन को जीती हुई स्त्री है। इस कहानी के संपूर्ण वितान में लतिका का अकेलापन खामोशी के साथ पसरा हुआ है। समय-समय पर लतिका के इस अकेलेपन और अकेलेपन की खामोशी के विन्यास को तोडने के उपऋम के लिए कुछ पात्र भी इस कहानी में हैं। मसलन, डा। मुकर्जी, ह्यूबर्ट, हॉस्टल की लडकियाँ, करीमुद्दीन, फादर एलमंड, मिसेज वुड, मिस्टर गिरीश नेगी। कहानी के यह सभी पात्र लतिका के रोजमर्रेपन में साथ होते हैं, लेकिन इन सबकी उपस्थिति लतिका के अकेलेपन के गाढेपन को खत्म नहीं कर पाती है, बल्कि इस कहानी के विन्यास में कई बार लतिका के अकेलेपन के भाव को और भी अधिक गाढा और सघन कर देती हैं। परिंदे कहानी में डा। मुकर्जी प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले एक डाक्टर हैं और इसके अलावे खाली समय में एक कान्वेंट स्कूल में पढाने का काम करते हैं। ह्यूबर्ट के मन में लतिका के प्रति एक प्रेम-राग का भाव है, वह लतिका को एक प्रेम पत्र लिखता है। लतिका ह्यूबर्ट से प्रेम नहीं करती है लेकिन वह ह्यूबर्ट द्वारा लिखे प्रेम पत्र के लिए भी ह्यूबर्ट को कुछ नहीं कहती है, बल्कि वह इस प्रेम-पत्र के कारण अपने होने को लेकर स्वयं को आश्वस्त भी करती हुई दिखलाई देती है कि, वह अभी भी प्रेम के लिए प्रासांगिक बनी हुई है। लतिका के मन की अंदरूनी सतह में इस बात को लेकर एक आश्वस्ति भाव है कि, कोई उससे प्रेम कर सकता है, उसको प्रेम पत्र लिख सकता है। करीमुद्दीन हॉस्टल का नौकर है और लतिका की देख-रेख करता है। फादर एलमंड और मिसेज वुड हॉस्टल के पास बने आवास में रहते हैं । फादर चर्च के पादरी हैं और नैतिक उपदेश देते रहने वाले एक पुरातन व्यक्ति की भूमिका में हैं ।मिस्टर गिरीश नेगी से लतिका प्रेम करती है। इस कहानी के शिल्प को अगर ध्यान से देखा जाए, तो शिल्प में जिस प्रकार से सभी पात्र विन्यस्त हुए हैं वे सभी पात्र अपने अकेलेपन के साथ विभिन्न कोणों से गति करते हुए दिखलाई देते हैं। मसलन, परिंदे कहानी में जब यह बात लतिका से पूछी जाती है कि, मिस लतिका, आप छुट्टियों में कहीं क्यों नहीं जाती ? सर्दियों में तो यहाँ सब कुछ वीरान हो जाता होगा। गौरतलब है कि कहानी में लतिका से पूछे जाने वाला यह सवाल राजेन्द्र यादव अपनी किताब एक दुनिया समानांतर की भूमिका में भी दर्ज करते हैं। दरअसल, कहीं क्यों नहीं जाती सवाल के पीछे की पृष्ठभूमि में परिवार का जो परम्परागत ढाँचा दिखलाई देता है, वह नई कहानी आंदोलन में टूटा है। व्यक्ति का अकेलापन कई बार सामाजिक विन्यास द्वारा प्रदत्त होता है और काई बार अर्जित। कहानी में सब कुछ वीरान हो जाने का संदर्भ जितना भौगोलिक है उतना ही सामाजिक भी। इसलिए, लतिका के लिए यह सामान्य रूप से पूछा जाने वाला सवाल नहीं रह जाता है बल्कि, यह सवाल लतिका के लिए कहीं दूर से आती हुई एक ध्वनि की तरह है जिसमें उसका अकेलापन नितांत वैयक्तिक होकर उभरता है। इस नितांत वैयक्तिक अकेलापन की एक कहानी है जो लतिका के अतीत में खामोशी के साथ पसरी हुई है। इस अतीत को वह कोई भाषा देना चाहती है, लेकिन इस अतीत पर बर्फ की चादर पसरी हुई है। सर्दियों के दिनों में बर्फीले स्थान की वीरानी दरअसल, लतिका के अपने जीवन की वीरानी है। जिसे वह हॉस्टल की लडकियों के साथ बाँटना चाहती है, लेकिन न बाँट पाने की अपनी पेशेगत मजबूरी भी है। वह अपने भीतर की वीरानी को मिस्टर ह्यूबर्ट से बात करते हुए बाँटती हुई कहती है -हर साल ऐसा ही होता है, मिस्टर ह्यूबर्ट। फिर कुछ दिनों बाद विंटर स्पोर्ट्स के लिए अंग्रेज टूरिस्ट आते हैं; हर साल मैं उनसे परिचित होती हूँ, वापिस लौटते हुए वे हमेशा वायदा करते हैं कि वे अगले साल भी आयेंगे। मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे, वे भी जानते हैं कि वे नहीं आयेंगे, फिर भी हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं पडता। फिर ।।। फिर कुछ दिनों बाद पहाडों पर बर्फ पिघलने लगती है, छुट्टियाँ खत्म होने लगती हैं, आप सब लोग अपने अपने घरों से वापिस लौट आते हैं। (पृष्ठ 181) लतिका के निर्मित निजत्व में यह विश्वास स्थायी तौर पर शामिल हो गया है कि, वे हमेशा वायदा करते हैं कि वे अगले साल भी आयेंगे। मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे। पहाड पर बर्फ पिघलता रहता है लेकिन किया हुआ वायदा कभी नहीं पिघलता।
लतिका के लिए पहाडों पर बर्फ का पिघलना एक उम्मीद की तरह है। लतिका इस कहानी में इसी अकेलेपन और उम्मीद के बीच की एक स्त्री है। अकेलेपन के साथ परायेपन का बोध मनुष्य के चित्त को हमेशा द्विभाजित कर देता है। इस कहानी में एक महत्त्वपूर्ण पात्र डॉक्टर है, जिसका यह कथन कि -ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है।(170) कहानी के पूरे समय और उस समय की सघनता को हमारे सामने ला खडा कर देता है। एक स्तर पर यह वक्तव्य डायस्पोरिक दुनिया की एक ऐसी अंदरूनी कहानी है, जिसमें कई-कई पीढियों का दर्द निवास करता है। दूसरे स्तर पर, विश्व युद्धों में इस प्रकार की मृत्यु का काफी खौफनाक इतिहास रहा है। संपूर्ण विश्व में एक पूरी की पूरी विचारशील साहित्यिक पीढी इस प्रकार की मृत्यु से प्रभावित रही है। विश्व युद्धों में परायी जमीन पर मर’ जाने की त्रासदी का लंबा वृतांत है।
दरअसल,परिंदे कहानी अपने प्रकाशन वर्ष से ही काफी चर्चित रही, इसकी बडी वजह थी, इस कहानी की कहन शैली। नामवर सिंह ने लिखा- व्यक्ति चरित्र वही है, जीवन स्थितियाँ भी रोज की जानी-पहचानी ही है, लेकिन निर्मल वर्मा के हाथों वही स्थितियाँ इतिहास की विराट नियति बनकर खडी हो जाती हैं और उनके सम्मुख खडा व्यक्ति सहसा अपने को असाधारण रूप से अकेला पाता है... कहानी के शिल्प के स्तर पर निर्मल वर्मा का यह प्रयोग, हिंदी साहित्य में शिल्प निर्माण की एक व्यापक पहल थी। इस कहानी में जो अकेलापन है वह वाकई असाधारण है। जब इस कहानी में लतिका पहाड के पीछे से आते हुए पंछियों के झुण्ड को देखती है, तब वह सोचती है कि, क्या वे सब प्रतीक्षा कर रहे हैं ? लेकिन कहाँ के लिए , हम कहाँ जाएँगे ? लतिका का यह प्रश्न परिंदे कहानी की केंद्रीय बिंदु है। यह केंद्रीय बिंदु भारतीय वांङमय में पहली बार नहीं आया है इससे पहले भी भक्ति साहित्य के प्रसिद्ध कवि तुलसीदास लिख चुके थे, कहाँ जाईं का करी। यह कहाँ जाने का प्रश्नवाचक बोध जो मनुष्य में है, वह कहीं न कहीं अकेलेपन से उभरता है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध ने भी अपनी कविता में इस प्रश्न को दर्ज किया है, कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन। कहाँ जाने का यह प्रश्न दरअसल, किसी लेखक या उस लेखक की रचना के किसी पात्र या प्रसंग तक केंद्रित नहीं रह जाता, बल्कि यह मनुष्य और मनुष्य के उस समाज के लिए एक व्यापक प्रश्न बन जाता है, जिसकी गूँज कई शताब्दी तक हमारे बीच होती है। फौरी तौर पर, इस कहानी के संदर्भ में इतना भर कह दिया जाता है कि, दो विश्वयुद्धों के प्रभाव से उपजे मनुष्य के नियति बोध से उपजा हुआ बोध है। इस नियति में अकेलापन सबसे प्रमुख है। इस अकेलपन के कारण इस कहानी के अधिकांश पात्र हताश और निराश दिखलाई देते हैं। कहानी के कथा-विस्तार में सर्दी की छुट्टियाँ होने का एक प्रसंग है। इन छुट्टियों में हॉस्टल की लडकियाँ घर जाने वाली हैं। छुट्टी होने से पहले की रात में सभी लडकियाँ एक कमरे में इकट्ठे होकर हँसी-ठिठोली कर रही हैं। लतिका जो हॉस्टल की वार्डन है। कमरे में शोर सुनकर रुकती है। कमरे में जाती है, लडकियाँ कहती हैं। मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जायेंगी इसलिए आज रात हम सबने मिलकर...। लतिका को लगता है कि वह कमरे में आकर इन लडकियों का मजा खराब कर रही है। लतिका वहाँ अपने अकेलेपन का प्रभाव छोडना नहीं चाहती, वह नहीं चाहती कि इन लडकियों की उन्मुक्त हँसी में वह बाधा बने, लतिका वहाँ से चली जाती है। लतिका सर्दियों की छुट्टियों में कहीं नहीं जाती है, हॉस्टल के वार्डन आवास में अकेली रह जाती है। लतिका के जीवन के लिए यह सबसे कठिन प्रश्न है, जब कोई उससे पूछता है -मिस लतिका, आप इस साल छुट्टियों में यहीं रहेंगी? डॉक्टर मुकर्जी द्वारा पूछा गया यह प्रश्न लतिका को भीतर तक झकझोर देता है। यहीं रहेंगी? लतिका के लिए एक आस्तित्विक सवाल है। यहीं रहेंगी? की ध्वन्यात्मकता उसे अतीत की पगडंडियों पर ले जाती है, जहाँ जाना उसे कभी सुखकर लगता तो अगले ही पल उसे उदास कर देता है। दरअसल, अतीत में एक नामालूम सा आकर्षण होता है जो कभी सुकूनदायक होता है और कभी उदासी का सबब भी। यहीं रहेंगी? की प्रश्नवाचकता के बाद -... लतिका को लगा, जैसे कहीं बहुत दूर बरफ की चोटियों से परिंदों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की ओर उडे जा रहे हैं। इन दिनों अक्सर उसने अपने कमरे की खिडकी से उन्हें देखा है... धागे में बंधे चमकीले लट्टूओं की तरह वे एक लंबी टेढी-मेढी कतार में उडे जाते है ....पहाडों की सुनसान नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों की ओर, जहाँ शायद वह कभी जाएगी। (पृष्ठ 169) लतिका के जीवन में पहाड एक विषाद की तरह आता है। एक ठहरा हुआ विषाद। लतिका के जीवन में परिंदे आतें हैं जो उसके जीवन की एकरसता, उसके अकेलेपन और सर्दियों में वीरानी पसर जाने को और ज्यादा सघन कर जाते हैं। लतिका के जीवन में पहाड एक जीवन-प्रतीक के तौर पर भी है, एक ही जगह पर खडा और ठहरा हुआ जीवन। परिंदे हर साल सर्दियों में पहाड को सुनसान करते हुए नीचे अनजान प्रदेश की ओर उडे चले जाते हैं। लतिका कहीं नहीं जाती है। लेकिन लतिका जाना चाहती है। लतिका के मन में यह बात है कि, जहाँ शायद वह कभी जायेगी। लेकिन कहाँ? परिंदे कहानी का पाठक जानता है कि लतिका कहीं नहीं जाती। वह सर्दियों में सुनसान पहाडों में अकेले रह जाती है। पहाड की तरह अकेली और ठहरी हुई।
परिंदे कहानी में लतिका के मन में एक दबा हुआ राग का भाव है, यह भाव कहानी के शिल्प में कभी भी ठीक से मुखर होकर अभिव्यक्त नहीं हुआ है। शायद इस कहानी में निर्मल वर्मा की दृष्टि राग-भाव की मुखरता पर नहीं बल्कि राग-भाव के मौन पर है। लतिका के मन में राग-भाव के रास्ते पर यह सवाल उठता है कि - ह्यूबर्ट ही क्यों, वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उसी अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है; न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है, उसकी टांगे फिर निर्जीव शिथिल-सी हो गई है। (पृष्ठ 169) लतिका के जीवन में वह क्या है जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है वह क्या है जो न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। दरअसल, मनुष्य की इयत्ता निरे अकेले में परिभाषित नहीं होती। वह दूसरे के होने से भास्वर होती है। मनुष्य का वर्तमान उसके अतीत के छोर को हमेशा स्पर्श करती रहती है। लतिका के जीवन-प्रणाली में अतीत हमेशा एक छाया की तरह मौजूद है। अतीत से मुक्ति का कोई भी प्रयत्न लतिका करती हुई दिखलाई नहीं देती है।
परिंदे कहानी की बुनावट में लतिका की इयत्ता एक खास किस्म के नियतिबोध का शिकार है। परिंदे कहानी का समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नए सिरे से विकसित हो रहे अस्तित्ववादी चिंतन के दौर का है। इसी दौर में ज्याँ पाल सार्त* (1905-1980) इस बात पर यकीन कर रहे थे कि, जो अस्तित्वमान है उसे नामों, रूपों, विचारों, शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता बल्कि उसके होने में ही उसका अस्तित्व है। लतिका के होने का संदर्भ पहाड पर बर्फ गिरने के बाद पहाड से पक्षियों और होस्टल से लडकियों के चले जाने के बाद खुलता है। पहाडों की सुनसान नीरवता से परे वह कहीं जाना तो चाहती है, लेकिन एक सवाल से वह हमेशा घिरी रहती है कि वह जाएगी भी तो कहाँ जाएगी। पहाड की एकरसता इस कहानी में बद्धमूल है। लतिका के होने के अस्तित्व पर उसके अपने जीवन की अतीत की स्मृति की एक नामालूम सी छाया है जो उसके वर्तमान के जीवन की स्वाभाविक लय को प्रभावित करती रहती है। अतीत की छाया के कारण ही लतिका सोचती रहती है कि अब वह किसी को नहीं चाह सकेगी, जैसा उसने अपने जीवन के आरंभ में किसी को चाहा था। परिंदे कहानी में शिल्प की खूबसूरती लतिका के व्यक्तित्व के साथ, उसके स्वयं के साथ वार्तालाप के विभिन्न मोडों में दिखलाई देती है। मसलन, उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है। निर्मल वर्मा, अपनी कहानी में बादलों का झुरमुट को स्मृति पर छा जाने की प्रक्रिया के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। छायावादी दौर में बादल के साथ स्मृति के सह-सबंधों को लेकर कई रचनाएँ मिलती हैं। वहाँ बादल अतीत-राग है तो दूसरी ओर अपने होने की हुँकार के साथ बादल-राग भी। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी में बादल के साथ अतीत का ख्याल छायावादी परम्परा से चलकर आयी हुई लगती है।
निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे के गद्य में प्रवाहित शिल्प के ढाँचों, उसकी कुछ विशेषताओं की तरफ हम आपका ध्यान, कहानी के कुछ चुने हुए उदाहरणों के माध्यम से दिलाना चाहते हैं। निर्मल वर्मा की कहानी के विन्यास में, कथा-प्रवाह में शामिल पात्रों के साथ उसके आस-पास की प्रकृति बडे ही महीन ढंग से घुलती हुई चली आती है। दरअसल, कथा के साथ प्रकृति अपनी सूक्ष्मता के साथ जब घुल-मिल कर आती है तब वह संपूर्ण कथा में एक लयात्मक गूँज उत्पन्न कर देती है, एक लयात्मक धीमी ध्वनि का का कपासी दवाब कहानी पर बना रहता है। परिंदे कहानी में -फीकी सी चाँदनी में चीड के पेडों की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिडकता हुआ हवा से गायब हो जाता था। ( पृष्ठ 170) कहानी में प्रकृति की इस लयात्मक उपस्थिति के साथ कहानी के इस संदर्भ को भी मिलाकर पढने से निर्मल वर्मा के गद्य की अपनी खास और ठोस पहचान को समझा जा सकता है - ...मेघाच्छन्न आकाश में सरकते हुए बादलों के पीछे पहाडियों के झुण्ड कभी उभर आते थे, कभी छिप जाते थे, मानो चलती ट्रेन से कोई उन्हें देख रहा हो।
निर्मल वर्मा की कहानी की यह विशेषता रही है कि वे अपनी कहानी में पात्रों के साथ परिवेश का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए, परिवेश और पात्र के बीच के द्वैत को खत्म करते हुए एक संवादधर्मी रूपबंध निर्मित करते हैं। परिवेश का सूक्ष्म अवलोकन नई कहानी आंदोलन से पूर्व के दौर में इतना महीन नहीं था बल्कि नई कहानी आंदोलन से पूर्व प्रगतिशील दौर में कहानी का विन्यास मोटे तौर पर परिस्थितियों की पडताल और उन परिस्थितियों में व्यक्ति के जीवन-संघर्षों, व्यक्ति के सामाजिक अंतर्द्वंधों और उससे उपजे तनावों को दर्शाया जाता रहा था। व्यक्ति की चेतना वैयक्तिक न होकर सामाजिक हुआ करती थी। यथार्थ के प्रति आग्रहशीलता प्रभावी ढंग से उभर कर सतह पर आ रही थी। ऐसा नहीं कि नई कहानी आंदोलन में यह सब त्याज्य था बल्कि यह और भी प्रखरता से नए संदर्भों के साथ आ रहा था लेकिन निर्मल वर्मा की कहानी में यह यथार्थ परिवेश के सूक्ष्म अवलोकन और उसके चित्रण के साथ आया है। साहित्य के समाजशास्त्र में रचना का अस्तित्व उसके परिवेश से बाहर नहीं होता बल्कि रचना तभी अर्थवान मानी जाती है जब वह अपने समूचे परिवेश के साथ पाठक के समक्ष प्रस्तुत होती हो। परिंदे कहानी के रूपबंध में पात्रों के साथ प्रकृति का भी अपना अस्ति-चिंतन है। कहानी के इस अंश में परिवेश या प्रकृति जिस तरह से पात्रों के साथ हमारे सामने आया है, उसमें हम अस्ति-चिंतन की महीन बुनावट को देख सकते हैं - हवा तेज हो चली थी; चीड के पत्ते हर झोंके के संग टूट-टूटकर पगडंडी पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यूबर्ट रास्ता बनाने के लिए अपनी छडी से उन्हें बुहारकर दोनों ओर बिखेर देता था। लतिका पीछे खडी हुई देखती रहती थी, अलमोडा की ओर से आते हुए छोटे-छोटे बादल रेशमी रुमालों से उडते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे, फिर हवा में आगे बह निकले थे। इस खेल में धूप कभी फीकी सी पड जाती थी, कभी अपना उजला आँचल खोलकर समूचे पहाडी शहर को अपने में समेट लेती थी। (पृष्ठ 179) बतौर पाठक गद्य का यह प्रवाह हमारे सामने मनुष्य और प्रकृति के इस अस्ति-चितन का एक सिनेमैटिक प्रभाव उत्पन्न करता है। नई कहानी आंदोलन में जो नई है उसे निर्मल वर्मा की कहानी के शिल्प में, छोटे-छोटे बादल रेशमी रुमालों से उडते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे ; जैसे वाक्यों की बनावट में तो देख ही सकते हैं साथ ही इस बनावट के कारण उत्पन्न काव्यात्मक लय और लय से गुजरने के आनंद में भी देख सकते हैं। निर्मल वर्मा की कहानी में काव्यात्मक सौंदर्य में कोई सपना पलकों पर सरकता है -ह्यूबर्ट को लगा, जैसे लतिका की आँखें अधमुँदी सी खुली रह गयी हैं, मानों पलकों पर एक पुराना, भुला-सा सपना सरक आया हो। (पृष्ठ 180) सपनों के सरकने का कोई भौतिक परिपेक्ष्य नहीं होता है लेकिन गद्य की बनावट में हम यहाँ एक चाक्षुष बिंब का सृजन होते हुए देखते हैं। निर्मल वर्मा का गद्य एक दृश्यमान गद्य है।
परिंदे कहानी के रूपबंध में लतिका, करीमुद्दीन, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर ह्यूबर्ट और फादर एलमंड अपनी-अपनी स्थितियों के साथ गति कर रहे हैं। पात्रों की यह गति कई बार एक-दूसरे को काटती है और कई बार समानांतर चलती है।परिंदे कहानी की प्रमुख पात्र लतिका के जीवन की एकरसता, एकाकीपन निरे अभिधात्मक रूप में नहीं आता है बल्कि आस-पास के परिवेश के साथ सहचर के रूप में आता है। कहानी में लतिका की उपस्थिति के साथ जो परिवेश उपस्थित हुआ है वह लतिका के अकेलेपन को और अधिक सघन और अधिक गाढा कर जाता है। परिंदे कहानी के भीतर - ... जंगल की खामोशी शायद कभी चुप नहीं रहती। गहरी नींद में डूबी सपनों-सी कुछ आवाजें नीरवता के हलके झीने परदे पर सलवटें बिछा जाती हैं, मूक लहरों सी तिरती है, मानो कोई दबे पाँव झाँककर अदृश्य संकेत कर जाता है, देखो, मैं यहाँ हूँ।(184) और लतिका उसे अकेली देखती रहती है, अपने होने में जंगल की खामोशी लिए ।
परिंदे कहानी की संरचना से गुजरते हुए उसके पात्रों के निकट बतौर पाठक हम धीरे-धीरे पहुँचते हैं। दरअसल, सभी पात्रों के चरित्र और उसके निजीपन में अकेलापन फँसा हुआ दिखलाई देता है। इस कारण पाठक उस पात्र के पास धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक जाना चाहता है। पात्रों के अकेलेपन से पृथक रहते हुए वह पात्रों को भी अकेलेपन से पृथक कर समझने की एक कोशिश करता है। सवाल यह कि क्या परिंदे कहानी के पात्र अपने अकेलेपन से पृथक भी अपना कोई अस्तित्व रखते हैं। अकेलेपन के बिना भी उनका कोई निजत्व है? परिंदे कहानी के रूपबंध में शामिल सीमित पात्र अपने निजत्व की निर्मिती में कई गहरे दार्शनिक प्रश्न खडे करती है। यह दार्शनिक प्रश्न कहानी की सांद्रता को बढा देते हैं। मसलन, हम कहाँ जाएँगे, परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है। जैसे संदर्भ, रचना-समय के दौरान गतिमान दार्शनिक बहस, पुराने मान-मूल्य की जगह उभरते हुए नए मान-मूल्य की समांतरता में ही समझा जा सकता है। लतिका इस कहानी की मुख्य पात्र है। कहानी में लतिका के होने का एक निश्चित पैटर्न है। इस पैटर्न में ही लतिका का अपना अस्ति-चिंतन दिखलाई देता है। लतिका, बचपन में जब भी वह अपने किसी खिलौने को खो दिया करती थी, तो वह गुमसुम सी होकर सोचा करती थी, कहाँ रख दिया मैंने ? जब बहुत दौड-धूप करने पर खिलौना मिला जाता, तो वह बहाना करती कि अभी उसे खोज रही है कि वह अभी उसे मिला नहीं है। जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोडकर घर के दूसरे कोनों में उसे खोजने का उपऋम करती। तब खोयी हुई चीज याद रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था।(186) लतिका के अस्ति-चिंतन का मनोविज्ञान उपर्युक्त कथन में मानीखेज है, खोई हुई चीजों को ढूंढ लेने और ढूंढने के बाद चीजों को एक आश्वस्ति के साथ छोड कर उसी को दुबारा ढूंढने का अभिनय दरअसल, अपने होने को ढूँढने से निर्मित होता हुआ दिखलाई देता है। ढूँढने में जहाँ भूल जाने का कोई भय नहीं है। जाहिर है, चीजों को पा लेने की उत्कंठा और पा लेने के बाद उसके प्रति विश्वस्त हो कर एक उपेक्षा का भाव, विषयनिष्ठता से वस्तुनिष्ठता की ओर एक साधारणीकृत गमन है। इस गमन में जहाँ एक ओर अहं का भाव दिखलाई देता है तो दूसरी ओर स्वयं के होने को प्रक्रिया में ही शामिल रखने का उपक्रम। दरअसल लतिका के लिए प्रक्रिया से बाहर कोई जीवन नहीं है। पहाड का अकेलापन इस प्रक्रिया को बार-बार बाधित करता है और चुनौती देता है। वह बाहर निकलना चाहती है लेकिन अतीत की एक छाया उसे बाहर निकलने नहीं देती, उसे मुक्त होने नहीं देती। यह कहानी लतिका के दृष्टिकोण से मुक्तिकामिता की कहानी दिखलाई देती है। इस मुक्तिकमिता में कई पात्र सहयोगी की भूमिका में दिखलाई देते हैं।
परिंदे कहानी में अपनी उपस्थिति को दर्शाने वाला एक पात्र करीमुद्दीन है। करीमुद्दीन लडकियों के हॉस्टल में नौकर है और वह लतिका के रोजमर्रेपन की आवश्यकताओं के लिए अपनी सेवाएँ देता है। करीमुद्दीन हॉस्टल में नौकर रहने से पूर्व मिलिट्री में अर्दली रह चुका है, इसलिए उसकी जीवन-चर्या की हरकतों में सेना में होने का अंदाज दिखलाई देता है। वह लतिका के सामने चाय की ट्रे मेज पर रखकर अटेन्शन की मुद्रा में खडा हो जाता है। लतिका उसे देखती हुई हमेशा झटके से उठ कर बैठ जाती है। दोनों के बीच धीरे-धीरे सहज संबंध का विकास हमें दिखलाई देता है। लतिका और करीमुद्दीन के संदर्भ से कहानी के भीतर संवाद के ढाँचे में यह सहजता दिखलाई देती है - सुबह से आलस करके कितनी बार जागकर वह सो चुकी है। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा-बडी सर्दी है आज, बिस्तर छोडने को जी नहीं चाहता।, अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी है- बडे दिनों में देखना कैसे दाँत कटकटाते हैं - और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों में डाले हुए इस तरह सिकुड गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र से उसे जाडा लगना शुरू हो गया हो। गंजे सिर पर दोनों तरफ के उसके बाल खिजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। इस पूरे संवाद में करीमुद्दीन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आता है जिसके जीवन में मौसमों का बदलाव कोई परिवर्तन नहीं लाता बल्कि मौसम का बदलना भी एक काम की तरह है, एक निश्चित जीवन-पद्धति की तरह। इसलिए करीमुद्दीन के लिए काम सिर्फ काम के रूप में नहीं बल्कि काम उसकी जीवन-पद्धति है। उसकी जीवन-पद्धति एक स्टीरियोटाइप है। इस कहानी का एक महत्त्वपूर्ण पात्र गिरीश नेगी है। गिरीश नेगी, लतिका का अतीत है। कभी लतिका ने गिरीश नेगी से प्यार किया था। पहाड पर अकेलेपन में लतिका इसी अतीत के बारे में सोचती रहा करती है और उससे मुक्त होंने की निरर्थक कामना करती हुई दिखलाई देती है। लतिका अपने जीवन के शुरुआती दिनों में गिरीश नेगी से प्यार करती रही है। निर्मल वर्मा द्वारा कहानी के कथा-शिल्प में इस प्यार का कोई विवरण नहीं दिया गया है। कथा के पाठक को इस प्यार की जानकारी लतिका द्वारा अपनी स्मृतियों को याद करने के क्रम से मिलता है। लतिका अपने एकाकी जीवन में अपने अतीत की स्मृतियों में बार-बार जाती रहती है। वह स्मृतियों में प्यार के क्षण को देखती है। इस देखे जाने की भंगिमा से ही पाठक को पता लगता है कि वह गिरीश नेगी से प्यार करती है। कथा की बुनावट में यह भंगिमा कुछ इस तरह से आयी है - वह मुडी और इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, गिरीश ने अपना मिलिटरी का हैट धप से उसके सिर पर रख दिया। वह मन्त्रमुग्ध-सी वैसी ही खडी रही। उसके सिर पर गिरीश का हैट है-माथे पर छोटी-सी बिन्दी है। बिन्दी पर उडते हुए बाल है। गिरीश ने उस बिन्दी को अपने होंठों से छुआ है, उसने उसके नंगे सिर को अपने दोनों हाथों में समेट लिया है - लतिका, गिरीश ने चिढाते हुए कहा- मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ - (उसका यह नाम गिरीश ने उसे चिढाने के लिए रखा था)... वह हँसने लगी। लतिका... सुनो! गिरीश का स्वर कैसा हो गया था! ना, मैं कुछ भी नहीं सुन रही। लतिका... मैं कुछ महीनों में वापिस लौट आऊँगा ना... मैं कुछ भी नहीं सुन रही किन्तु वह सुन रही है - वह नहीं जो गिरीश कह रहा है, किन्तु वह जो नहीं कहा जा रहा है, जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया। लतिका के जीवन में गिरीश नेगी की उपस्थिति एक रागात्मक उपस्थिति है। कहानी के शिल्प में यह उपस्थिति कभी भी प्यार के प्रत्यक्ष रूपबंध में वर्णित नहीं हुई है बल्कि प्यार का यह रूपबंध लतिका की स्मृति के द्वारा प्रकट हुई है। असल में, साहित्य सहित दृश्य कलाओं में अतीत की स्मृति का महत्त्व रहा है। एक तकनीक के तौर पर हिंदी साहित्य में अतीत की स्मृति का संदर्भ कोई नई विशेषता नहीं रही है। 1915 में प्रकाशित कहानी उसने कहा था में स्मृति का संदर्भ पहली बार सघनता के साथ आया है। प्रेमचंद अपने प्रसिद्ध उपन्यास गोदान (1936) में भी होरी की मृत्यु के क्षणों में इस तकनीक का प्रयोग करते हुए दिखलाई देते हैं। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी में यह शिल्प अपने नए घुमाव तंत्र के साथ उपस्थित हुआ है।
परिंदे कहानी में डॉक्टर मुकर्जी एक भिन्न किस्म का पात्र है। डॉक्टर मुकर्जी के चरित्र को हमें एक स्तर पर डायस्पोरिक नजरिए से देखना चाहिए और दूसरे स्तर पर विस्थापन से उपजी त्रासदी के नजरिए से भी। डॉक्टर मुकर्जी आधे बर्मी थे, जिसके चिह्न उनकी थोडी दबी हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे। बर्मा पर जापानियों का आऋमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाडी शहर में आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वे खाली समय में कान्वेंट स्कूल में पढाते भी थे। डॉक्टर मुकर्जी के चरित्र में अपनी जडों से कट जाने का दर्द गुँजित होता रहता है। लतिका के साथ उसके संवाद की तह में अपनी जडों से कट जाने के कारण एक बेगानेपन का भाव दिखलाई देता है। इस कहानी के आस्वाद की प्रक्रिया को डॉक्टर मुकर्जी का चरित्र नए तरीके से उद्द्भुत करता है। दरअसल, विस्थापन एक ऐसा दर्द है, जिसे व्यक्ति तमाम सुखद परिस्थितियों के बाद भी भूल नहीं पाता है। ओरियंटलिज्म के प्रवक्ता एडवर्ड सईद (1935-2003) के चिंतन में विस्थापन की त्रासदी के ताप को गहराई से समझा जा सकता है। विश्व साहित्य में भी विस्थापन का यह दर्द व्यापक फलक पर उपस्थित हुआ है। समय के अंतराल में यह दर्द भले ही कम होता जाता है लेकिन व्यक्ति की चेतना में यह दर्द मौजूद हुआ करता है। डॉक्टर मुकर्जी की चेतना में यह दर्द बसा हुआ है। दर्द की इस तीव्रता को समझने के लिए हम डॉक्टर मुकर्जी के इस कथन को एक बार फिर देख सकते हैं -ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफी खौफनाक बात है।(170)। कहना होगा कि डॉक्टर मुकर्जी में यह अजनबीयत का बोध बराबर बना हुआ है। इस कहानी के रूपबंध में डॉक्टर मुकर्जी, लतिका और ह्यूबर्ट के साथ रहते हुए हमेशा एक दार्शनिक और सलाहकार की भूमिका में रहा करता है। लतिका अतीत में किए प्रेम की स्मृति से चिपकी हुई है और उससे मुक्त होने का कोई सायास प्रयास करती हुई दिखलाई नहीं देती है। कभी-कभी यह लगता है कि लतिका के जीवन की सांद्रता अतीत में किए प्यार की स्मृति ही है जिससे वह प्रेरणा ग्रहण करती है। डॉक्टर मुकर्जी लतिका से अतीत में किए प्यार की स्मृति को लेकर लगातार बहस करता है। लतिका को स्मृति से बाहर लाकर वर्तमान के यथार्थ के साथ जीने, वर्तमान की लय के साथ अपनी इयत्ता को पहचानने के लिए लगातार प्रेरित करता रहता है। डॉक्टर मुकर्जी, लतिका से कहता है - कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि गलत है, तो जान-बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह चिपटे रहना, यह भी गलत है। (191) इस बात पर लतिका की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। दरअसल, प्रतिक्रिया विहीन स्थिति, यथास्थिति को स्वीकारने जैसा होता है। लतिका में यथास्थिति से बाहर निकलने के बारे में सोचते हुए भी उसे स्वीकार कर लेने जैसा भाव रहा है। एक संवाद में ह्यूबर्ट, डॉक्टर मुकर्जी से पूछता है - डॉक्टर, सब कुछ होने के बावजूद वह क्या कुछ है, जो चलाए है, हम रुकते हैं तो भी अपने भाव में वह हमें घसीट लिए जाता है ? (191) दरअसल, कहानी में ह्यूबर्ट का यह कथन सत्ता के प्रश्न से जुडता है जिसे जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाईडेगर (1889-1976) ने अपने सिद्धांतों में उठाया था । सत्ता के प्रश्न के संदर्भ से उसने कहा कि, ‘वह कौन सा आधार है जिसके नाते वस्तुमात्र का अस्तित्व है ? वस्तुएँ क्यों हैं ? ऐसा क्यों नहीं है कि कुछ भी नहीं है ? जाहिर है, ह्यूबर्ट अपने अकेलेपन को जीते हुए अपने भीतर के उस सत्त्व की पडताल करना चाहता है, उस सत्ता की मीमांसा करना चाहता है जिसके कारण मनुष्य अकेलेपन में जीने के लिए विवश हो जाता है। मनुष्य के अकेलेपन में अतीत की स्मृति और स्मृति की उपस्थिति का भाव कभी हौसला देती है और कभी-कभी पीडा भी। ह्यूबर्ट में अकेलापन लतिका की तरह ही बहुत गाढा है इसलिए ही इस कहानी के रूपबंध ह्यूबर्ट अपने अकेलेपन को बाँटने के लिए लतिका को चुनता है। इस अकेलेपन से उबरने के लिए वह लतिका को एक प्रेम पत्र लिखता है, और बाद में इस प्रेम पत्र के लिखे जाने को लेकर ग्लानिबोध का शिकार भी होता है। ह्यूबर्ट, लतिका के लिए लिखे प्रेम पत्र और लतिका के प्रति रागात्मक भाव के बारे में कुछ संकेतों के साथ डॉक्टर मुकर्जी से बात भी करता है -डाक्टर, आपको मालूम है, मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से से अजीब-सा लगता है। ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था कि डाक्टर को लतिका के प्रति उसकी भावनाओं का आभास- मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह इतने समय से सँजोता आया है, डाक्टर उसे हँसी के एक ठहाके में उपहासास्पद बना देगा। लतिका के प्रति अपने प्रेम के उपहास में बदल जाने की हमेशा चिंता करते रहना ह्यूबर्ट के चरित्र की अपनी विशेषता है। इसलिए अपने प्रेम की सघनता को भी वह हल्के-फुल्के अंदाज में प्रस्तुत करता है। प्रेम के उपहास में बदल जाने की चिंता के बीच ह्यूबर्ट कई बार डॉक्टर मुकर्जी की दार्शनिक स्थितियों से रू-ब-रू भी होता है। डॉक्टर मुकर्जी में यह दार्शनिक स्थितियाँ उसके विस्थापन की पीडा से सृजित हुआ दिखलाई देता है। एक बार डॉक्टर मुकर्जी जब ह्यूबर्ट से यह पूछता है कि, क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, ह्यूबर्ट? तब ह्यूबर्ट थोडा घबरा जाता है, ह्यूबर्ट दम रोके प्रतीक्षा करता रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डाक्टर को फिलासोफाइज करने की आदत थी। डाक्टर टैरेस के जंगले से सटकर खडा हो गया। फीकी-सी चाँदनी में चीड के पेडो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी।कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिडकता हवा में गायब हो जाता था। कहानी के इस अंश से गुजरते हुए मुझे यहीं निर्मल वर्मा की भाषा-शैली की विशिष्टा पर ध्यान जाता है जिसका उल्लेख मुझे यहीं कर देना चाहिए ।क्या तुम नियति में विश्वास करते हो जैसे ठोस दार्शनिक प्रश्न के साथ एक दम घुलमिल कर निर्मल वर्मा बिंब की एक काव्यात्मक इमारत खडी कर देते हैं। यह बिंब हमारे सामने दृश्यबंद के साथ उपस्थित होता है-फीकी-सी चाँदनी में चीड के पेडो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी में छायाओं के गिरने के दृश्य में, गिरने की ध्वनि भी सुनाई देती है। निर्मल वर्मा की रचनाओं के भाषा-प्रवाह से गुजरते हुए कभी-कभी यह लगता है कि, कथन में उठाए गए मुद्दे भाषा की काव्यगत संरचना में धीरे-धीरे खो जाते हैं। हम भाषा की एक विराट दुनिया में कुछ बिम्बों, कुछ दृश्यों की ध्वनियों में प्रवाहमान हो जाते हैं। दरअसल यह भी सही है कि भाषा के प्रवाह में खोना, एक स्तर पर कथ्य का अनादर करना है।
परिंदे कहानी में एक पुरातनपंथी और दकियानूसी पादरी है जिसका नाम फादर एलमंड है। कहानी में यह कम समय के लिए उपस्थित होता है। उसकी उपस्थिति कहानी की गतिमान धुरी को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। फादर एलमंड के सहारे कहानी में धर्म के साथ पितृसत्तात्मक नजरिए का प्रवेश होता है। दरअसल, धर्म के साथ पितृसत्तात्मक नजरिया कई मायनों में ज्यादा खतरनाक और हिंसक हो जाता है। कहानी के भीतर एलमंड लतिका के बारे में कहता है, मिस वुड, पता नहीं आप क्या सोचती हैं। मुझे तो मिस लतिका का हॉस्टल में अकेले रहना कुछ समझ में नहीं आता। दरअसल, फादर एलमंड की दृष्टि में किसी स्त्री का अकेले रहना कई तरह के संदेहों को उत्पन्न करता है। हम जानते हैं, कि हमारे आस-पास के सामाजिक विन्यास में जिस प्रकार की पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निर्मिती हुई है , उसमें किसी भी स्त्री का अकेले रहना कई संदेहों को जन्म देनेवाला होता है। स्त्री होने का आशय हमेशा किसी के साथ होने से जोडकर ही देखा जाता रहा है। कहानी के भीतर एक स्त्री पात्र मिस वुड जब कहती है, लेकिन फादर,... यह तो कान्वेन्ट स्कूल का नियम है कि कोई भी टीचर छुट्टियों में अपने खर्चे पर हॉस्टल में रह सकता हैं। हम जानते हैं कि पितृसत्तात्मक संरचना में नियमों के पालन और उसकी व्याख्या का इस्तेमाल भी संरचना के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया जाता रहा है। कहानी में इसे घटित होते हुए आसानी से देखा जा सकता है। मिस वुड द्वारा नियमों को याद दिलाने के बाद फादर एलमंड मिस वुड को टोकता है, मैं फिलहाल स्कूल के नियमों की बात नहीं कर रहा। मिस लतिका डाक्टर के संग यहाँ अकेली ही रह जाएँगी और सच पूछिए मिस वुड, डाक्टर के बारे में मेरी राय कुछ बहुत अच्छी नहीं है। फादर के मस्तिष्क में स्त्री-पुरुष के साथ को लेकर पुरातन विचार उत्पन्न होता है, एक स्त्री का किसी पुरुष के साथ रहना फादर एलमंड के मन में कई यौन-संदर्भ से उत्पन्न संदेहों को जन्म देता है। हालाँकि कहानी में किसी भी तरह के यौन-संदर्भ कहीं नहीं आए हैं। दरअसल, आम भारतीय मनर्स्थिति और भारतीय समाज की निर्मिती में स्त्री का अकेले रहना कभी भी प्रशंसनीय नहीं रहा है, कम से कम इस कहानी के लिखे जाने वाले समय में तो बिलकुल नहीं। इक्कीसवीं सदी में यह स्थिति बडे पैमाने पर बदली है। कहानी में मिस वुड लतिका के पक्ष में फादर से तर्क करती है। फादर, आप कैसी बात कर रहे हैं ? मिस लतिका बच्चा थोडे ही है। मिस वुड को ऐसी आशा नहीं थी कि फादर एल्मण्ड अपने दिल में ऐसी दकियानूसी भावना को स्थान देने वाले पादरी होंगे। मिस वुड और फादर के बीच का यह पूरा संवाद दरअसल कहानी के शिल्प में धर्म को मानने वाले पात्र फादर और उसी धर्म को मानने वाली स्त्री पात्र मिस वूड द्वारा व्यक्त किए गए एक स्त्री लतिका के बारे में भिन्न दृष्टिकोण से निर्मित विचार को हमारे सामने लाता है। मिस वुड का दृष्टिकोण धर्म की परिधि में रहते हुए भी अपनी सतह पर एक प्रगतिशील दृष्टिकोण दिखलाई देता है।
परिंदे कहानी की भाषा-योजना काव्यात्मक है। जिसका उल्लेख हमने पहले भी किया है। हम यहाँ कहानी की भाषा-योजना पर थोडी और चर्चा करना चाहते हैं। कहानी अपने आरंभ से ही एक खास किस्म से शांत लय का निर्माण करती है। भाषा की काव्यात्मक लय पाठक को कहानी से अलग होने नहीं देती है। मैंने ऊपर भी यह कहा है कि, निर्मल वर्मा की भाषा पाठक की इयत्ता को कभी-कभी कथ्य से अलग कर देती है और अपनी काव्यात्मकता की लय में प्रवाहमान बना देती है। यह उल्लेखनीय है कि नामवर सिंह द्वारा परिंदे को नयी कहानी की पहली कृति मानने का एक बडा कारण यह रहा है कि परिंदे नयी कहानी की विशिष्टता और उसकी नवीन भाषा संरचना को एक स्तर तक सम्पूर्णता में दिखा पाने में समर्थ रही है। परिंदे कहानी के नयेपन पर नामवर सिंह की एक सारगर्भित उल्लेखनीय टिप्पणी है जिसे उन्होंने अपनी किताब कहानी : नयी कहानी में दर्ज किया है -।।।पढने पर सहसा विश्वास नहीं होता कि ये कहानियाँ उसी भाषा की हैं, जिसमें अभी तक शहर, गाँव, कस्बा और तिकोने प्रेम को ही लेकर कहानीकार जूझ रहे हैं। परिंदे से शिकायत दूर हो जाती है कि हिंदी कथा-साहित्य अभी पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही मार्कटाइम कर रहा है। समकालीनों में निर्मल पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दायरे को तोडा है- बल्कि छोडा हैं; और आज के मनुष्य की गहन आतंरिक समस्या को उठाया है ।(पृष्ठ 52) असल में, नामवर सिंह इस कहानी की अंतर्वस्तु और भाषा के टटकेपन को लक्षित करते हुए कहानी के पुराने ढांचे को रेखांकित करते हैं। नई कहानी का प्रस्थान बिंदु कहानी की अंतर्वस्तु और भाषा के टटकेपन से आरंभ होता है। निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी अपने भाषाई प्रभाव में संगीत का प्रभाव उत्पन्न करती है। इस कहानी में संगीत के संदर्भ को भी अलग से रेखांकित किया जा सकता है। निर्मल वर्मा के गद्य की संगीतात्मकता को नामवर सिंह ने भी अपनी उपर्युक्त किताब में रेखांकित किया है - परिंदे की नायिका लतिका को चैपल में संगीत सुनकर ऐसा लगा कि जैसे मोमबत्तियों के धूमिल आलोक में कुछ भी ठोस, वास्तिविक न रहा हो-चैपल की छत, दीवारें, डेस्क पर रखा हुआ डाक्टर का सुघड-सुडौल हाथ-और पियानों के सुर अतीत की धुंध को भेदते हुए स्वयं उस धुंध का भाग बनते जा रहे हों। दरअसल, निर्मल वर्मा की कहानी की ध्वन्यात्मकता उनकी नवीन भाषा-योजना में निहित है और यही नयी कहानी आंदोलन की विशिष्ट पहचान है। अंत में यह कहा जा सकता है कि निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का रूपबंध अतीत की स्मृति से निर्मित कहानी है जिसमें व्यक्ति के अस्ति-चिंतन की अपनी-अपनी गूँज े हैं। लतिका नाम की स्त्री पात्र अपने अतीत की स्मृतियों की छाया तले रहते हुए अतीत से मुक्ति की कामना करती है। विस्थापन की ठोस स्मृति के साथ कहानी का एक पात्र डॉक्टर मुकर्जी है। हर वर्ष सर्दियों की स्मृति लेकर करीमुद्दीन है। परिंदे कहानी के विन्यास में एक अनकही, अनजानी और अनचाही सी प्रतीक्षा है। इस प्रतीक्षा में स्वयं के होने की सार्थकता और उसकी एक खोज की गतिकी है। लतिका के जीवन में यह अनकही प्रतीक्षा लंबे समय से रही है। लतिका का जीवन-मूल्य प्रतीक्षा के सच से ही सामने आता है। लेकिन वह किसकी प्रतीक्षा कर रही है ठीक-ठीक उसे भी नहीं पता है। एक अनिर्णय की स्थिति में रहने की नियति लतिका से बद्धमूल है। दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितयों ने मनुष्य के सामने होने, हम कहाँ जाएँगे? के प्रश्न को एकदम गाढा कर दिया था। अनास्थाओं और दुखों के बीच मनुष्य के जीवन में अकेलापन एक मूल्य की तरह, अकेलापन एक आस्था की तरह उपस्थित हो गया था। इस परिप्रेक्ष्य से परिंदे कहानी एक स्त्री के अकेलेपन की भी कहानी बन जाती है। अकेलेपन का वैभव लतिका में दिखलाई देता है। परिंदे की उडान लतिका के जीवन में नहीं है। यह उडान लतिका भी चाहती है लेकिन उसके सामने एक सवाल हमेशा खडा रहता है- हम कहाँ जाएँगे। परिंदे हर सर्दियों में जब पहाड पर बर्फ जमने लगता है मैदानी भाग में नीचे उतर आते हैं। लतिका कहीं नहीं जाती। वह वहीं पहाड पर पहाड जैसी स्थिर बनी रहती है। चरित्र-सृष्टि, शिल्प की नवीनता, भाषा की नवीनता के आधार पर परिंदे कहानी को निर्मल वर्मा की एक महत्त्वपूर्ण कहानी मानी जाती है। यह कहा जा सकता है कि अपने संपूर्ण पाठ और पाठ के प्रभाव में परिंदे कहानी हिंदी कहानी के इतिहास में कालजयी माने जाने वाली कहानी है।
संदर्भ सूची -
1. नामवर सिंह, (1982); कहानी नई कहानी;
लोकभारती प्रकाशन
2. देवीशंकर अवस्थी (1973); नई कहानी : संदर्भ
और प्रकृति, राजकमल प्रकाशन
3. राजेन्द्र यादव (1968); कहानी स्वरूप और संवेदना,
वाणी प्रकाशन
4. वंदना केंगरानी (2007); निर्मल वर्मा के स्त्री विमर्श,
वाणी प्रकाशन
5. मधुरेश (1996); हिंदी कहानी का विकास, सुमित
प्रकाशन
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सम्पर्क - एसोशिएट प्रोफेसर, डी- 12 , शमशेर संकुल, पोस्ट-हिंदी विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र,
पिन - 442001, मो.- 9422905755
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