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बहस की कहानी का नाटक होना

अनिरुद्ध उमट
निर्मल वर्मा का लेखन यदि आप को छू गया है, तो उसके बाद बहुत-सी बातों का होना तय-सा माना जाता रहा है। एक तो ये कि फिर खुद निर्मल वर्मा आप से बच नहीं सकते वे कहानी लिख अलग, मुक्त नहीं रह सकते। दूसरे, उस कहानी या रचना के अपने संसार से आप हर वक्त खुद को घिरा हुआ पाने लगते हैं। उन की बहुत-सी रचनाओं में से ही ऐसी एक कहानी है, बीच बहस में। पिता-पुत्र सम्बंधों पर हिंदी की कुछ बेहद प्रभावी कहानियों में से एक। मगर एक चीज ऐसी है जो इस कहानी को हिंदी की इस तरह की कहानियों से अलगा देती है वह है कहानी का स्वर। बेहद तनाव भरे उदासीन सम्बंधों की कसमसाहट इस कहानी में उतरती है, कुछ यूँ जैसे घुटने जवाब दे गए हों, सीढियाँ भी घिस कर भरभराने लगी हों। आरम्भ से अंत तक कहानी तने हुए तार पर चलती है, किन्तु कहीं भी स्वर में या मुद्रा में अतिरेक या लाउडनेस नहीं, बल्कि कहीं भी ऐसा हो न जाए इसका हर पात्र ख्याल रखता है। यह ख्याल रखना भी विचित्र है क्योंकि कहानी में इसी ख्याल रखने के प्रति उदासीनता का उलाहना भी गाहे-बगाहे उभरता, मन्द होता रहता है।
निर्मल वर्मा की जितनी भी कहानियों को याद करें, तो यह बात अलक्षित नहीं रह पाती है कि उनकी इस कहानी में आपसी त्वरा जिस हद तक तीव्र है वैसी उनकी किसी भी अन्य कहानी में शायद ही हो। पात्रों का मुखर होना व चीजों, घटनाओं पर नायक के अतिरिक्त खुद लेखक भी अपनी भाषा व अभिव्यक्ति में संकेत की भाषा कम अपनाते हैं, बल्कि सम्बंधों की ऊब, घुटन व छल की परतें उनके व्यवहार में खासी रगड खाती प्रकट होती हैं। अन्य कहानियों में जहाँ निर्मल वर्मा के पात्र, वातावरण और खुद लेखक जिस संशयी, कोमल, संकेतात्मक भाषा से चीजों के बारे में इशारा करते कई परतों को भी उघडने, छिपने देते हैं, शब्दों को उनके मौन और खलबली में उनके मुताबिक रहने, व्यक्त होने देते हैं, कुछ भी बात या क्षोभ को उसकी झिझक में जाहिर होने देते हैं, वहीं इस कहानी में इससे पृथक एक अविराम बहस चलती रहती है, हर पात्र बात चाहें किसी भी सीढी से आरम्भ करे, किन्तु कहीं न कहीं वह बहस में उतर जाता है। कहानी का नाम बीच बहस में हर जगह, हर कोण पर किसी न किसी रूप में किसी न किसी को बीच में पकडे रखता है। कोई भी इस बीच से परे किसी किनारे पर नहीं है।
उस के मन में आया कि भाई से कहे-- तुम रुक जाओ। इतनी चिंता है, तो एक रात रुक जाओ, कौन-सी रात आखिरी होगी, किसी को नहीं मालूम। वह तुम से थोडा-बहुत डरते हैं, मुझे वह बाहर का आदमी समझते हैं। बात-बात पर बहस करते हैं। तुम कहोगे, मुझे चाहते भी हैं। शुरू से तुम्हारे मन में रहा है कि मुझे तुम से ज्यादा चाहते हैं, लेकिन अगर तुम बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ कि मैं उन के चाहने से आजिज आ गया हूँ...सच, उन्हें शर्म-सी आती है, जैसे चाहना गैरत की बात है और मैं घबराता हूँ। लेकिन उस ने कहा कुछ नहीं और भाई ठहरे नहीं। वह उस से जरूरी बातें कर लेते थे, लेकिन उस के परे रेगिस्तान फैल जाता था। गर्म झुलसती रेत पर नङ्गे पैरों की तरह उन की बातें चलती थीं। जल्दी-जल्दी पाँव बढाते हुए वह निकल जाते और वह अपनी मैली, मन्द छाँह तले खडा रहता- एक पाँव पर, फिर दूसरे पाँव पर, जैसे कोई रिश्ता इतना ठंडा न हो जहाँ दोनों पाँव एक साथ रखे जा सकें।
कहानी का लगभग हर पात्र किसी पुरानी खीज में या दबे असंतोष या किसी शिकायत की गठरी के साथ अन्य पात्र से मिलता है, वह कभी भी इस गठरी से हल्का हो कर नहीं मिल पाता। नायक की माँ एक ऐसा चरित्र है जो यांत्रिक, उदासीन जीवनबोध की गर्द से भरा है, वह जब बोलती है तो अन्य पात्र जैसी तीखी बहस नहीं फूटती बल्कि दाम्पत्य जीवन के निस्पंद भाग को जीते व्यक्ति की बेस्वाद, बेरंग प्रतिक्रिया ही फूटती है। पति-पत्नी की वृद्धावस्था के पहर में दोनों जीवन की ग्राह्यता के प्रति लगभग सूख पडे स्पंदनों के कगारों पर भरभराते रहते हैं। इन में आपसी बहस की गुंजाइश नहीं बचती, बल्कि अपने- अपने अंत की ओर सरकते रहते हैं।
इस सब के बीच इस बात को बिल्कुल नहीं भुलाया जा सकता कि पिता-पुत्र में बेहद नजदीकी का समय हरा-भरा रहा है जिसकी छाया बरसों बाद भी अस्पताल, बुखार, मृत्यु-भय के बावजूद बहुत गहरे तक छायी है। कभी पिता तो कभी पुत्र उस साथ के समय को याद करते, उस प्रेम के ताप को महसूस करते किन्हीं अदृश्य गलियों में उतर जाते हैं। अजीब खींच में यह याद की गलियाँ जब खुलती हैं, तो वहाँ वे मैदान पसरे दिखाई देते हैं जिन पर कभी उनके बीच का तरल लहराता था। किसी वक्त गहरा अनुराग किसी और वक्त की घडी में सूखा रेगिस्तान बना दोनों को न जीने देता है न मरने देता है। ये ऊपर से दिखते पिता-पुत्र के सम्बंधों की असहजता, असहमति की कहानी नहीं है, यह एक वक्त के गहरे प्रेम, लगाव से अरसे बाद भी अलगा न पाने की विवशता की खीज और संपृक्ति की कोई हूक है। पिता-पुत्र को सबसे *यादा प्यार करते रहे हैं, यह भी उनके उद्गारों से स्पष्ट है, घर के लोग भी उनका विशेष कनेक्शन समझते हैं, मगर फिर भी जो शब्द में हो रहा है, और जो शब्द के परे हो रहा है, एकदम उलट है। यही इस कहानी की असल नब्ज है। पुत्र भी उन स्मृतियों से छिटका नहीं है यह एक कंटीली छडी उनके बीच हिलती रहती है वह चाहे कितना ही खीजा हुआ हो नर्वस हो हैरान हो फिर भी एन अंतिम वक्त हर बात से पहले खुद को किसी तरह निर्मम होने से रोक लेता है। पिता और पुत्र में कौन किस से अधिक बहस कर रहा है यह कभी पूरी तरह तय नहीं किया जा सकता। एक पेंडुलम की तरह बहस इधर-उधर टकराती रहती है। किन्तु, दोनों में फिर भी अतीत की कुछ बातें, यादें उन्हें बहस की ऋूरता तक जाने से रोके रखती है। अक्सर वे अतीत के ऐसे तटों को छू कर थके हारे लौट आते हैं।
पुत्र को लगता है, वह उन्हें गड्ढे में गिरने से बचा लेगा, जैसे बचपन में उनके ज्यादा पी लेने पर छडी पकडे-पकडे घर ले आता था। वह उन्हें बचाने की सच्ची कोशिश में हांफता रहता है, हारता रहता है, गुस्सा होता रहता है।
इसी रडक से यह कहानी अविस्मरणीय है। यह एक इम्परफेक्ट (imperfect) प्रेम की दिल दहला देने वाली कथा है। जो पाठक के भीतर के अँधेरे में उसकी चेतना पर बहुत शिद्दत से अपनी छाया छोडती है। अस्पताल में पीले पत्तों और पीली मन्द रोशनी के माहौल में बुखार और लगाव और मृत्यु और असंतोष इधर-उधर पछाडें खाते रहते हैं।
वह छूने लगा, अँधेरे में उन की देह को। बारिश के बाद जैसे पेड गर्म हो जाते हैं, वैसी उन की देह थी। हर अंग हवा में थरथराता हुआ, जैसे पुरानी, ऐंठी नसों में उलझी हुई टहनियाँ उसे अपने में समेट रही हों, भींच रही हों, जैसे पेड के तने में अपने तन का एक-एक तिनका बिखरने लगा हो।
अस्पताल में बीमार पिता की देखभाल करते पुत्र को पता भी नहीं चलता कि कब वह उन के आसपास मृत्यु को भी देखने लगा है। पिता का अपनी अशक्त हठ में साँस- साँस झरते जाना आपसी संवाद को और मारक बनाता जाता है।
उन के मुँह से लार बहती हुई गले तक चली आई, जहाँ सफेद माँस की थैलियाँ झूल रही थीं। सफेद माँस पर, नीली नसों के बीच रास्ता टटोलते हुए, एक काली लकीर, जंगल की गर्मी में हाँफते, फुफकारते साँप की तरह। वह एकटक जड, मन्त्रमुग्ध-सा हो कर उन्हें ताकता रहा। मुँह पर बहते साँप को....फिर एक भयानक खतरे ने उसे जकड लिया। --आप रुक क्यों गए? बोलिए....आप इस तरह चुप नहीं हो सकते! बोलिए!! नहीं, आप इस तरह नहीं जा सकते...बहस के बीच में...।
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वह एक कहानी थी जिसे एक दिन कहानी होने से बाहर आ निकलना था। बाहर जहाँ आधी-अधूरी कहानियों की कतरने इधर-उधर पछाडें खाती उडती-गिरती रहती थीं। वह थी तो बहस की कहानी मगर वह ज्यादातर इंतजार की कहानी बन गई थी। भीतर-बाहर दोनों तरफ बुखार था। उस कहानी को पढने के बाद मैं जाने किस कारण एक अजीब बेचैनी में फँस गया कि उसे मंचित करना चाहिए, जबकि मंचन का मेरा अपना कोई अनुभव नहीं था । किन्तु मन में कोई चाह बल खा रही थी कि मंचन में कुछ और बुखार इस कहानी का निकलेगा। करीब अब से पचीस साल से भी ज्यादा हो गए होंगे इस बात को। छोटे शहर के लंबे व सूने दिनों की दुपहरों में वह ठावस थी जहाँ इस तरह के ख्यालों के साथ देर तक बिना किसी व्यवधान के रहा जा सकता था। तेज धूप की सडकों और भूतहा हवा में ऐसे अनुभव के साथ रख बहा लेने की शिद्दत थी। मेरे भीतर कहानी के भीतर का अस्पताल था, बरामदा था, कमरे थे, पलंग था बीमार था इंतजार था, बदबू थी भय था उदासी थी खीज थी दया भी कुछ थी भय भी बहुत था। किताब के भीतर के अस्पताल में बुखार में तपते पिता की खीज के साथ मैं अपने शहर के एक ऑडिटोरियम में किसी अस्पताल की छवि देखने लगा था। अजीब दिन और अजीब धुन और वहशत थी। जिस तरफ मुख्य मंच था मैं उस पर कुछ नहीं देख रहा था बल्कि उसकी ओर पीठ कर मैं हॉल के बिल्कुल पीछे के हिस्से को, अंतिम कुर्सी के पीछे की खाली जगह को अपनी कहानी का मंच मानने लगा था। मुझे लगता था यह पीछे का हिस्सा मेरी कहानी का मुख्य मंच बनने को ही बना है। बीचो-बीच एक सीधा गलियारा और दोनों ओर दो कमरों जैसी आकृति।
वह हिस्सा किसी ऑडिटोरियम का न लग कर सचमुच किसी अस्पताल का-सा लगता था, या मैं उसे वैसा देखने में खुद को सहज महसूस कर रहा था।
कितना अजीब है एक नौसिखिया जिस के पास सिवाय रागाकुलता के अतिरिक्त थियेटर की व्यवहारिकता का कोई अनुभव न था, उस के पास इस कहानी के लिए सर्वथा उचित अभिनेताओं के चयन सबसे पहले था। दोनों बेटों व पिता के अनुकूल अभिनेता मेरी दृष्टि में मेरे शहर बीकानेर में थे।
मगर इतने में न तो कोई कहानी बनती है न कोई नाटक अभिनीत होता है। इस सारे मगर की अपनी एक कहानी पृथक से बनने लगती है। हम एक ही साथ लेखक निर्मल वर्मा की कहानी बीच बहस में और अपने पाठक मन मे घर कर गई कहानी के साथ रहने लगते हैं। दोनों तरफ का अपना एक तरफ होता है। जिस पर नियति टिकी होती है।
रेगिस्तानी शहरों में प्रकृति का मन-प्राण से अजीब-सा तारतम्य होता है, लम्बे, तपते, सूने, धूल भरी आँधियों वाले दिनों की दुपहरों में कहीं कोई जल्दबाजी नहीं होती, कहीं कोई तत्काल की खलबली नहीं होती। आप प्रकृति और आसपास की चीजों में एकमेक से हो जाते हैं। हर चीज हर बात पर भूरी उदासी और सलेटी यथास्थिति गहराई होती है। बेहद बारीक गर्द मन और चीजों की गोपन गहराई तक पर छाई होती है।
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मैं इस कहानी का मंचन अपने मन मे करते देखता हूँ, यदि आप को आपत्ति न हो तो मैं इस का मंचन बीकानेर में करना चाहता हूँ। मेरे इस पत्र को पा कर निर्मल जी मुझे एक नीला अंतर्देशीय पत्र रवाना करते हैं जिसे ले 25 नवम्बर, 1998 को डाकिया मेरे घर आता है, आप मेरी लंबी कहानी बीच बहस में का मंचन करना चाहते हैं, यह जान कर खुशी हुई। आप ने ठीक ही लिखा है कि उसे मोनोलॉग में मंचित करना असंभव है। मैं सोचता हूँ आप को कहानी को मूलाधार बना कर उसे नाट्यविधा में रूपांतरित करना ही होगा-- इस में आप चाहें तो पिता, पुत्र, माँ, भाई, नर्स के बीच कथोपकथन के वे सब वाक्यांश चुन सकते हैं, जिन्हें कहानी में प्रयुक्त किया गया है। कहीं-कहीं नैरेशन का भी प्रयोग कर सकते हैं.... अपनी सूझ-बूझ के अनुसार कहानी और शुद्ध नाटक के बीच की कोई सम्मिश्रित (Composite) विधा की परिकल्पना की जा सकती है। किन्तु इस तरह के सब निर्णय सफल मंचन को दृष्टि में रख कर करने चाहिए.... क्योंकि अन्तिम और बुनियादी रूप से आप के प्रयोग की सार्थकता उसके मंच रूपांतरण (Stage adaptation) के कला-कौशल पर निर्भर करेगी।...मैं इतना ही कह सकता हूँ....बाकी जोड-तोड करने में आप स्वतन्त्र हैं। -आप का - निर्मल।
ऐसी दुपहरों में देखे गए सपने आसानी से नहीं फलते। यथार्थ की ऋूर वास्तविकता हर कदम पर कोई न कोई बहाने सामने आती रहती है, हम उससे भिडते, जख्मी होते सपना सहेजे मौसम गुजरते देखते रहते हैं। रेगिस्तान में इस तरह मरीचिका में फँसते जाना कोई नई बात नहीं होती है।
....एक दिन निर्मल वर्मा भी संसार त्याग जाते हैं।
जो पीछे रह जाता है वह चले गए के पीछे अपने बीत जाने को भूल नहीं पाता। चिलकते रेगिस्तान में जीव की झपकती आँख में जिस तरह नमी बची रह जाती है उस तरह हम बचे हुए में से सपने की तामीर खडी करने में जूझते रहते हैं। ऐसे में, कोई न कोई पथिक थम जाता है और अपनी सुराही थमाता कहता है तू कर मैं तेरे साथ हूँ।
मैंने अपनी कथा के दोनो पात्रों पिता और पुत्र को एक दिन अपने घर बुलाया और उन्हें कहानी सुनाने लगा। जहाँ मैंने कहानी पढनी खत्म की वहीं से वे पढने लगे। चरित्रों में प्रवेश की पगडण्डी देखते वे एक दूसरे का हाथ थामे प्रवेश करते गए। बहुत समय नहीं लगा और वे अभिनेता से अधिक कहानी के पिता पुत्र के संवादों में धँस रहे थे। वहीं कहीं उनका अहंकार था, अतृप्ति थी, शिकायत थी। रिहर्सल न समय देखती थी न जगह। पिता का अभिनय करते ओम सोनी सचमुच के बीच बहस में के पिता होने लगे थे तो पुत्र के चरित्र को जीते रवि शुक्ला झुंझलाहट और खीज में सना पुत्र होते जा रहे थे। कहानी का बुखार आसपास हम पर चढता जा रहा था और हम उसके नीलेपन में अस्पताल की पीली रोशनी व गन्ध में एक दूसरे से खिंचते जा रहे थे। यह खिंचाव विपरीत के नियम से कहानी में और धँसाता जा रहा था।
अंततः 7 अप्रैल, 2014 की शाम को वह हमारे आँगन की बडी चौकोर छत पर साकार हुआ। घर-परिवार के सदस्यों व कुछ मित्रो को आमंत्रित किया गया जो दर्शक बने। दरी पर बैठे उन दर्शकों में बुजुर्गों से ले कर बच्चों तक की उपस्थिति थी जिनके सामने दो कुर्सियों पर पिता-पुत्र बैठे थे जिनके बीच मैं दर्शकों की ओर पीठ किये नैरेटर के रूप में बैठा था।
वह अप्रैल की शाम का अंधेरा था। निर्मल वर्मा के पात्र अपनी काया में मेरे घर की छत पर उतर रहे थे। बहस करते किसी को चले जाना था, किसी को शेष रह जाना था।
सफेद दीवार पर मेरी छाया थी। मैं अंतिम पंक्तियाँ पढ रहा था,...दरवाजे पर नर्स खडी थी। टॉर्च के दायरे में दो गुँथी हुई देहों को देख कर वह एक क्षण समझ नहीं पाई, मरीज कौन है, मेहमान कौन है? कौन बाकी रह गया है, कौन जा चुका है?

सम्पर्क - माजीसा की बाडी,
गवर्मेन्ट प्रेस के सामने, बीकानेर 334001
मो. 9251413060
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