मौन और संवाद का निर्मल एकान्त
जयशंकर
निर्मल वर्मा का छठवाँ कहानी संग्रह सूखा तथा अन्य कहानियाँ पहली बार 1995 में प्रकाशित हुआ था। उनका अपने जीवनकाल में प्रकाशित आखरी कहानी संग्रह। उनकी लिखी गयी आखरी कहानी नया ज्ञानोदय के अगस्त 2005 के अंक में छपी। वे 25 अक्टूबर 2005 को हमारे संसार को छोडकर चले गये। मुझे लगता है कि उनका अपना आखरी काम कहानी की विधा में ही रहा होगा। साहित्य की उस विधा में, जिसका उन्हें प्रवर्तक कहा जाता रहा है।
शुरुआत में इस संग्रह की दो कहानियों से कुछ पंक्तियों को उतारना चाहूँगा-
इस बार वह उबल पडी। क्या कोई इस तरह अपने को सारी दुनिया से काट लेता है?
और वे जो दुनिया को साथ लेकर जीते हैं?
(अन्तराल)
तुम भी अपने मन से मना कर सकती थी, तुम्हें क्या मालूम नहीं था...।
मालूम होता तो क्या बाबू माँ मुझे बचा सकते थे? मालूम था लेकिन मैं तेरी तरह घर से भाग नहीं सकती थी।
(जाते)
पहले उद्धरण में बडी उम्र के भाई-बहन की बात हो रही है। दूसरे में दो बहनों की, जिनमें एक सबसे बडी है और दूसरी सबसे छोटी। इन पंक्तियों में इस बात का हल्का-सा अनुमान मिल रहा है कि यहाँ बात मानवीय रिश्तों की, उनके अर्थों, उनकी प्रतिध्वनियों की हो रही है। अकेलेपन और अलगाव के लैंडस्केपों की। तन्हाई के दुःस्वप*, आदमी के आंतरिक खालीपन, आदमी होने की पीडा और विषाद की भी। इन कहानियों में नये किस्म की मार्मिकताएँ महसूस होती है, नये प्रकार की करूणाएँ भी।
इन कहानियों के संदर्भों में मैंने पाया है कि निर्मल वर्मा की ज्यादातर कहानियों में, किसी सवाल का उत्तर, एक दूसरे सवाल के रूप में आता है। किसी शिद्दत से उठाए गये प्रश्न के जवाब में परेशान कर देने वाला, चिन्ताजनक प्रश्न। इन कहानियों में दो पात्रों के बीच की ज्यादातर बातचीत, उनके बीच का नैतिक सामना (Ethical Encounter) बनकर आती है। वे एक-दूसरे से ही नहीं, खुद से भी सवाल कर रहे होते हैं, इस दुनिया में उनकी क्या जगह? कैसी जगह है? इनके अपने मानवीय अस्तित्व का अर्थ क्या है? मर्म क्या है? मुझे लगता रहा है कि निर्मल वर्मा के कुछ पात्र अपनी मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक अस्मिता के सवालों से एक तरह की मार्मिक व्याकुलता लिए हुए, मासूम बच्चों-सी जिज्ञासाएँ लिए हुए रहते हैं।
इन कहानियों के ज्यादातर पात्र भारत के मध्यवर्गीय, शिक्षित परिवारों से आये हुए हैं। इनके दिलोदिमाग में अपने-अपने अतीत की यादों की व्याप्ति नजर आती रहती है। सूखा का लेखक हो, बावली, की युवा होती लडकी या किसी अलग रोशनी में का कोस्ता, सबकी अपनी-अपनी स्मृतियाँ है। ये अपनी-अपनी यादों से अपने-अपने अतीत को गढते चले जाते हैं। इस सबके दिलोदिमाग में एक किस्म की धुंध छाती रहती है, छटती रहती है। इन पात्रों के अगर अपने कुछ दुःस्वप्न हैं, तो अपने-अपने दिवास्वप्न भी।
मैं कह चुका हूँ कि निर्मल वर्मा के फिक्शन में एक आदमी से दूसरे आदमी का रिश्ता, ज्यादातर उनकी नैतिक मुठभेडों के बीच से उभरकर हमारे सामने आता है। उनकी कहानियों के पात्र हमसे कहते चले जाते हैं कि हम दूसरे आदमी को तब तक समझ नहीं पाएँगे, जब तक हम यह नहीं जानेगे कि उस बात, उस चीज को वह किस नजरिये से देख रहा है, महसूस कर रहा है, जिस पर विवाद-संवाद जारी है। इसीलिए उनके पात्रों के कहे गए में हमें कोई साफ-सुथरा, संशयहीन, सटीक बयान नजर ही नहीं आता है।
निर्मल वर्मा की इस सत्य से जान-पहचान बहुत ज्यादा पुरानी लगती है कि सत्य की अपनी आंतरिक शक्ति होती है जिसे बहुत ज्यादा स्पष्टीकरण की जरुरत नहीं रहती है। वे अपने पात्रों को समझने-समझाने की जबरदस्त कोशिशें करते हुए नजर आते रहते हैं, लेकिन अपने पात्रों को जज करना, उनको कोई उपदेश देना, न्यायधीश की तरह उनको काले-सफेद में बाँटकर कोई फैसला देना, उनके यहाँ कहीं भी नजर नहीं आता है।
उनके समूचे फिक्शन में हमें कलात्मक अंतर्दृष्टि लिया हुआ, मानवीय जीवन, मानवीय पीडा और मानवीय स्थितियों का मूल्यांकन पुनःमूल्यांकन जरुर नजर आता रहता है। उनके पात्र अपने जीवन की बिना जाँच-पडताल किए हुए, अपनी परीक्षा लिए बिना जीने में परहेज करते हुए जान पडते हैं।
इन कहानियों में से कुछ कहानियों के पात्र अधेड हो चुके हैं। अनाथ हो गए हैं। इन लोगों ने अपने अपने-अपने सगों, आत्मीय लोगों को खो दिया है। इन पात्रों पर अब भी इनके मृत माता-पिता की छायाओं का घेरा बना रहता है। इनका अपने मृतकों से संवाद होता रहता है। हमें इन पात्रों में नजर आता है कि हमारा यह संसार जितना जीवितों का है, उतना ही क्या हमारे मृतकों का नहीं है?
जाले कहानी की उस जगह पर रुकता हूँ- .... मुन्नू ने कब्र खोदी थी जिसमें पिया के साथ उसकी चेन, दूध की प्लेट और गले के पट्टे को भी दफनाया गया था- छोटी का रोना रुकता नहीं था। एक छोटी-सी कुतिया के लिए इतना संताप?
क्या यह वही सन्ताप था जो बाद के वर्षों में छोटी के चहरे पर छाया की तरह चिपका रहता था?
इन कहानियों का अपने अतीत से, अपने मृतकों से, अपने आप से, अपनी आत्मा से ऐसा और इतना गहरा संवाद किया जाना भी है जो इन कहानियों में इतने आवेगों को, इतने संगीत और रहस्य को, इतनी मार्मिकता और करूणा को, इतनी लालसा और जिज्ञासा को जन्म देता रहता है।
इनको पढने की शुरुआत से ही हमारी मुठभेड लेखक के रचे गये पिघलते हुए लैंडस्केप से होती है। कल्पनाशीलता का पिघलता हुआ लैंडस्केप। कहानी कहाँ जा रही है, कहाँ जाएगी इसका हल्का-सा भी अनुमान पाठक नहीं लगा पाता है। न कहानी की थीम का कुछ अंदाजा लगता और न ही कहानी के किसी केन्द्रीय तनाव, विषय का। कहानी का यह अप्रत्याशितपन, कहानी का तरंग-सा होना, कहानी की अंतिम पंक्ति तक बना रहता है। उनकी शायद ही कोई कहानी होगी जिसको पढते हुए हम महसूस करे कि इसको लिखते हुए लेखक अधीरता का शिकार हो गया है, उसने लापरवाही और सनक के साथ अपनी कहानी लिखी है।
तुम इस तरह कब तक बन्द दरवाजे को खटखटाते रहोगे... वह अब दरवाजा भी नहीं है, वह अब एक दीवार का हिस्सा है, जो कभी खुलता नहीं, उसमें अब एक छोटा-सा सुराख भी नहीं, जिसके आर-पार तुम उसकी जिन्दगी में अपना साझा कर सको। (पहला प्रेम)।
उनकी इस कहानी का पात्र अपने प्रेम के खो जाने से, खुद को अकेलेपन के ब्लैकहोल में गिरता हुआ महसूस कर रहा है। खालीपन, बंजरपन का दुखद अहसास लिए हुए, अपनी प्रेमिका और उसके नये प्रेमी का पीछा कर रहा है। हम उसकी प्रेमिका को, उसके अकेलेपन को गढते हुए, बढाते हुए देखते हैं। हमें पहला प्रेम के इस पात्र की अमूर्त, अबूझ और अस्पष्ट निराशाओं का, उसके असफल वैयक्तिक इतिहास का पता चलता है। उसके विषाद और विडम्बना का भी।
पहला प्रेम और बुखार में एक तरह से, तब टर्मिनल और जाले में दूसरी तरह से हम इस मानवीय सच से रूबरू होते हैं कि हर कोई अपने स्वप्न को जी नहीं सकता है। हमारी हर आकांक्षा की नियति हमारे लिए अनुकूल नहीं हो सकती है। हर सवाल अपने जबाब का चेहरा नहीं देख पाता है। निर्मल वर्मा यहीं नहीं रूक जाते हैं। वे कह रहे होते हैं कि प्रेम की असफलताओं के बावजूद, प्रेम में हुए मोहभंग के बीच में भी लोग सपने देखना नहीं छोडते हैं और न ही अपनी आकांक्षाओं और लालसाओं से दूर चले जाते हैं।
जाले की बहनें अलग-अलग शहरों से अपने पुश्तैनी मकान में आयी हुयी हैं। उनका भाई अकेले रह रहा है। उनकी पत्नी को उन्होंने कम उम्र में ही खो दिया था। उनका एक भाई आत्महत्या कर चुका है। इस कहानी में, अलग-अलग पात्रों की अपनी भावनात्मक टूटन है। अपनी-अपनी तन्हाइयों के दुःस्वप*। टामस मान के पहले उपन्यास बडनबु*क्स के याददाश्त से लिखे गये इस वाक्य की याद आ जाती है हर घर की आलमारी में उसके अपने ही घर का कोई अस्थिपंजर रखा रहता है। इस कहानी के पात्रों के दुःख किसी गहरे रहस्य के खुलने की प्रक्रिया की तरह धीरे-धीरे बाहर आते हैं। अपने परिवेश को खो देने का दुखः, अपने सगों से बिछुड जाने की पीडा, अपने जीने के अर्थों से, अपने प्रेम के अर्थों से, दूर रहकर जीने का विषाद।
उसे मालूम था हमारे परिवार के लोग जिस दुनिया में रहते हैं, वहाँ धोखे ने इतनी जगह घेर रखी है कि बेचारे सच के लिए बित्तेभर की थाह नहीं।
पहला प्रेम, टर्मिनल, जाले और बुखार में प्यार में मिले विश्वासघात से उपजी पीडा और जख्म को पढा जा सकता है। ये कहानियाँ भी, निर्मल वर्मा की दूसरी कहानियों की तरह मानवीय जिन्दगी में, प्रेम के त्रासद लेकिन गहरे महत्त्वपूर्ण अनुभवों पर ठहरती-ठिठकती है, उनको लेकर चिंतन-मनन करती है। प्रेम के ट्रेजिक महत्त्व को समझाती है।
इन कहानियों के पात्र अपने अतीत से अपनी स्मृतियों को गढते हैं। अपने अतीत से काफी कुछ सीखते-समझते हैं। इनका अतीत सिर्फ इनके लिए दुख, पछतावा और निराशाएँ ही नहीं ले आता है। ये पात्र भले ही कभी कभार, अपने उन सुखों से भी जुडते है, जो उनकी निगाहों में बडे सुख के रूप में खडे रहते हैं।
और तब भैया को लगा कि यह दिन वैसा ही शांत, ऊँघता-सा है, जैसा बरसों पहले होता था, जब माँ-बात जीवित थे- और बीच में कुछ भी घटा-बढा नहीं था। सर्दी का एक साधारण उज्ज्वल दिन।
इन कहानियों के पात्रों में अपने घर के लिए, सिर्फ अपने घर के लिए, एक टीस-सी बनी रहती है। वे अपने घरों में लौटने की ललक और लालसा लिए हुए रहते हैं। सूखा की शकुन अपने घर जाना चाहती है, किसी अलग रोशनी में के पब का मालिक कोस्ता आपने गाँव के घर की याद में खोया रहता है। जाले की गुन्नो अपनी शादी के बाद बरसों तक अपने मायके में बार-बार लौटती रहती है।
इन कहानियों में अपना जीवन जीते हुए लोग, घर से दूर जाने पर, घर की गरमाहट, महिमा को समझने लगते हैं। अपने घर लौटना, उनके लिए एक बडा, आत्मीय-सा अनुभव बनता है। इनकी आत्माएँ अपने लिए घर खोज रही होती है, अपने खोजे गए घरों में लौटने की खातिर तडप रही होती हैं। यहाँ पर इन पात्रों के बारे में यह भी कहना चाहूँगा कि इनके भीतर, निर्मल वर्मा के फिक्शन के पात्रों के अन्दर, साधारण जिंदगी के आत्मसंतोष के लिए ज्यादा जगह नहीं रहती है। दुनिया में अपनी जगह जानने का उनका आत्मसंघर्ष, अपनी आध्यात्मिक अस्मिता को पाने की उनकी आधी-अधूरी आकांक्षा, उनके मन में साधारण जीवन के आत्मसंतोष के लिए नकार, असहमति पैदा करती है।
इन कहानियों के पात्र इस बात को शिद्दत से महसूस करते रहते हैं कि बंधन-रिश्तों और गुलामी-दासता के बीच खडी सीमाएँ अत्यंत सकरी होती हैं। कब बंधन एक तरह की गुलामी में बदल जाएगा, इसका अनुमान लगाना, इसको जान पाना बहुत ज्यादा कठिन होता है। सूखा के पात्रों को हमारी शहरी आधुनिकता एक तरह की नकली आधुनिकता, एक किस्म का छद्म और छल जान पडती है। यहाँ पर शायद लेखक हम पाठकों को आधुनिक विचार, आधुनिक चिंतन की उस गरीबी को बताना चाह रहे होते हैं, जिसने भले-बुरे, सभ्य और असभ्य संवेदनाओं के बीच के फर्क को जानने-पहचानने की विवेकशीलता को खो दिया है।
मैं शायद इस बात को दुहरा रहा हूँ कि निर्मल वर्मा देश-विदेश के उन विरले लेखकों में से एक होंगे जिन्होंने मानवीय जिन्दगी की अनिवार्य आंतरिकता पर इतनी बारीकी से इतनी तल्लीनता, स्नेहशीलता, समानुभूति और गंभीरता से इतना ज्यादा चिंतन-मनन किया है। उनके फिक्शन को मैं अपने लिए एक स्वप्नद्रष्टा के गहरे चिंतन-मनन की तरह देखता रहा हूँ।
निर्मल वर्मा अपने लेखन में मानवीय रिश्तों के बीच फैले हुए अँधेरे गलियारों, रास्तों पर इतनी देर-देर तक इतनी ज्यादा भावनात्मक सर्तकता और बौद्धिक जिज्ञासाएँ लिए हुए रूकते आए हैं, लेकिन उनकी कहानियों में ड्रामा भले नजर आ जाए, मेलोड्रामा के लिए जरा-सी भी जगह नहीं होती है। वे बराबर अपने लिखे गए से, अनिवार्य कलात्मक दूरियाँ बनाये रखते हैं। उनकी कहानियाँ, कुछ इस तरह शुरू होती है, विकसित होती रहती है, फलती-फूलती रहती है कि न उनके लिए यह जानना आसान होता होगा कि उसकी नियति क्या होगी और न ही उनके पाठकों के लिए। उनकी कहानियाँ अपनी शुरुआत से अपने अंत तक नैसर्गिकता और सहजता लिए हुए बढती रहती हैं। उनके यहाँ के लेखन में इस किस्म का अप्रत्याशितपन भी है कि उनकी कहानियाँ हमें इतनी ज्यादा पठनीय, रोचक और Heartwarming महसूस होती रहती है। यहाँ मैं उनकी कहानियों के साथ Heartwarming के साथ-साथ Graceful कहानियाँ भी जोडना चाहूँगा।
अपने लेखन के शुरुआत के दिनों से ही निर्मल वर्मा के यहाँ, कलात्मक सृजन के प्रति उनकी गहरी निष्ठा और आस्था को देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी शुरुआत से ही कहानी लिखे जाने के तमाम देशी-विदेशी ढंगों से सवाल करने का साहस दिखाया था। जोखिम उठाया था। उनके लिए अपने समय, समाज और सभ्यता के अनुरूप मानवीय स्थितियों को व्यक्त करने के लिए जरूरी फॉर्म का खोजा जाना जरूरी था। वे कहानी के लिए एक नयी जमीन तैयार करने, कहानी कहने के ढंग के नये रास्ते खोजने में अपनी शुरुआत में ही जुट गए थे। कहानी के लिए किसी ग्रेसफुल, नये और मौलिक फॉर्म का खोजा जाना कोई छोटी बात नहीं थी। वहाँ पर जोखिम था, तो असफलता के ब्लैकहोल में धँस जाने का खतरा भी। पर निर्मल वर्मा कला के जोखिम, कलात्मक जोखिम के प्रति कैसे उदासीन रह सकते थे?
हमें उनकी एकदम शुरु की कहानियों में भी, पात्रों, घटनाओं, वाक्यविन्यासों, संवादों के लिए पारंपरिक दिलचस्पियाँ नजर नहीं आती है। वे शुरू से ही कहानी में Precision (प्रिसिझन-बिल्कुल स्पष्ट और सही होने का गुण) को अपना देवता मानने लगते हैं। उनकी कहानियों में जगह लेते हुए भौलिक, गीतात्मक विवरण, प्रकृति और परिवेश के छोटे-छोटे बदलाव, मौसमों के आने-जाने की आहटें, उनके यहाँ वाक्यों का हमेशा जीवित वाक्य होना, मृत वाक्यों से उनका परहेज, जैसे कितने ही तत्त्व होंगे जिनसे उनकी कहानियों की कथात्मक समृद्धि का पता चलता रहता है।
निर्मल वर्मा के यहाँ भाषा, भाषा की अपनी सीमाओं के परे जाना जानती है। वे भाषा के अमूर्त से अमूर्त आयाम का आविष्कार करते हैं। अपने लिए उनका भाषा का यह आविष्कार किया जाना ही है कि उनके लिखे गये में भाषा वह सब कुछ कहने का सामर्थ्य जुटा पाती है, जिसे भाषा में कहा ही नहीं जा सकता है। कभी निर्मल वर्मा की कथा भाषा पर उनके यहाँ के शब्दों के एकान्त और मौन पर विस्तार से लिखना चाहूँगा। यहाँ इतना भर दुहराना चाहूँगा कि निर्मल वर्मा के लिखे गए में हमेशा से ही भाषा वह तीर्थस्थल रही, जहाँ निर्मल वर्मा बार-बार, हर बार अपनी लेखकीय मुक्ति के लिए जाते रहे थे।
वे अपनी कहानियों में मनुष्यों के रिश्तों, उनके बीच फैलते-फूलते अन्धेरों, आदमी की आदतों और इरादों से बनती बिगडती जीवन स्थितियों को अपनी संपूर्णता में व्यक्त करते आए, लेकिन उन्होंने एक भी फार्मूलाबद्ध कहानी नहीं लिखी। अपनी कथा पर, उनके कहने के ढंग पर, निरन्तर, बिना थके हुए वे एक के बाद एक कहानी लिखते चले गए। उनकी प्रत्येक कहानी, कहानी विधा की एक दुर्लभ दस्तावेज की तरह उनके पाठकों के मन में बसती चली गयी।
अब आगे की कुछ बातें, सूखा की कहानियों पर जिससे मैंने अपनी बात प्रारंभ की थी। मुझे लगता है कि अगर सूखा और अन्य कहानियाँ शीर्षक के संग्रह में किसी अलग रोशनी में, के संग्रह में बुखार और जाले जैसी कहानियाँ, मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए प्यास, स्वतंत्र होने और रहने की आकांक्षा, इस स्वतंत्रता के लिए कुछ छोडने, त्यागने की मानवीय प्रवृत्तियों के करीब और आस-पास चक्कर लगाती है तब अंतराल, बावली और सूखा मनुष्य की अपनी तन्हाइयों, ऐसी पीडादायक तन्हाइयों से बाहर आते हुए सपनों, दिवास्वप्नों और दुःस्वप्नों के चारों तरफ घूमती हुई महसूस होती है।
पिछले पैंतीस बरसों से सूखा की कहानियों को बीच-बीच में पढता रहा हूँ। अब भी, आज भी इनको पढते वक्त यह आश्चर्य और सुख मिलता ही है कि कहानियों में लेखक इतनी ज्यादा जटिल, विषम, विरोधभासों और अंतर्द्वंद्वों से भरी हुई मानवीय स्थितियों के साथ संवादरत है, लेकिन सरलीकरण से बचता हुआ, आक्रमणशील सरलीकरण के प्रति सहज, प्रतिरोध लिए हुआ। इन कहानियों में हमारे लिए उत्तर नहीं है, लेकिन ऐसे जीवन्त, जरूरी और शाश्वत प्रश्न मौजूद हैं जो मन और मस्तिष्क को लेकर हमारी समझ को गहराते रहते हैं। हमें मानवीय गर्माहट को जानने-पहचानने की जरूरतों को समझाते रहते हैं।
निर्मल वर्मा की दूसरी कहानियों की ही तरह, इन कहानियों में भी जिन सवालों को खडा किया जा रहा हैं, जिन सवालों के यहाँ उपस्थित होने का उनके पाठकों ने जगह-जगह पर, बार-बार जिक्र किया है, वे कुछ इस तरह हो सकते हैं -
१. क्यों लोग एक-दूसरे को इतना आहत करते हैं?
२. क्यों रिश्तों के बीच ऐसी अदृश्य दीवारे खडी हो
जाती है?
३. प्रेम इतनी जल्दी क्यों सूख जाता है?
४. लोग इतने अकेले क्यों हैं?
उनकी कहानियों में आते हुए ये कुछ ही सवाल हैं जिन्हें उनके अलग-अलग पाठकों ने अपने-अपने ढंग से देखा हे, जिनका वे जिक्र करते आये हैं। निर्मल वर्मा हमेशा खुद से भी सवाल करते रहे, अपने समय, समाज, संस्कृति और सभ्यता से भी। उनकी इस सच्ची ओर गहरी प्रश्नाकुलता, भावनात्मक और बौद्धिक जिज्ञासाओं को मैंने किसी दुर्लभ निधी-सा माना है। एक लेखक, जो बार-बार लगातार सवाल पर सवाल उठाने का जोखिम उठाता रहा था। निर्मल वर्मा को भी हमारे वक्त में ऋषि याज्ञवल्क्य की शिष्या गार्गी की ही तरह अपनी बौद्धिक लालसाओं की खातिर काफी कुछ सहना-सुनना पडा था।
सूखा में चीनी भिक्षुक का मीलों दूर से चलकर आयी बुढिया को दिया गया उत्तर, टर्मिनल की भविष्यवक्ता की गूढ भविष्यवाणी, जाले में ग्रीक नाटक के कोरस का जिक्र, बुखार के दोनों पात्रों की जन्मपत्रियाँ, ये बताती रहती है कि अपने से बाहर खडी दुनिया और सृष्टि को जान पाना, अपने से बाहर खडे हुए संसार को वशीभूत करना कभी भी, किसी भी आदमी के बस की बात नहीं हो सकती है। शायद इसलिए भी अपने आत्म में, दूसरों के आत्म में दिलचस्पी लेने की शुरुआत मनुष्य के दिमाग में हमारे संसार में बहुत देर के बाद आई है।
और अन्त में कुछ पंक्तियाँ इन कहानियों में आते हुए आदमी के एकान्त और अकेलेपन पर। इन कहानियों में कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो अपने अकेलेपन, अपने अधूरेपन से बाहर निकलने की अदम्य आकांक्षाएँ लिए हुए दूसरों से जुडना चाहते हैं, दूसरों को अपने साथ जोडना चाहते हैं। इन सबके लिए वे मानवीय रिश्तों के नर्क से भी गुजरते हैं और स्वर्ग से भी। इन पात्रों की यह पहल, उनके अपनी मुक्ति के लिए ऐसे प्रयत्न, हमें मनुष्य की, मानवीय अस्तित्व की, मनुष्य होने के ग्रेस और गौरव की याद दिलाती रहती है। क्या निर्मल वर्मा ने ही हमसे बार-बार यह नहीं कहा है कि साहित्य और कला की एक जिम्मेवारी यह भी है कि वह हमें मनुष्य होने की, इतनी बडी सृष्टि में मनुष्य रहने की, स्मृति से निरन्तर बाँधे रखे?
अपने इस संग्रह की भी ज्यादातर कहानियों में हम देख पाते हैं कि जीवन की मामूली परिस्थितियों के साथ पलते-बढते उनके पात्र, अपनी चिंताओं से, अपनी जागरूकता से, साधारण पात्रों से विशिष्ट किस्म के पात्रों में बदलते रहते हैं। बुखार का नायक एक कस्बाती स्कूल में इतिहास पढाता है। एक युवा नर्वस आतंकित-सा भारतीय रसकोलनिकोफ। (दोस्तोएव्सकी के उपन्यास अपराध और दंड का नायक) बुखार का यह अध्यापक, इस अध्यापक की जिन्दगी, हमसे कह रही होती है कि हर मन की अपनी जटिलताएँ होती है, अपनी जिद, जागृति और जिजीविषा भी।
बुखार हम पाठकों को इस बात की भी याद दिलाती है कि मनुष्य के जीवन में आता-जाता हुआ प्रेम, ईश्वर और प्रकृति से मिलता रहता निरन्तर किस्म का उपहार है। वह सबको मिलता भी नहीं और उसका मिलना एक तरह का चमत्कार ही है। इस कहानी के नायक-नायिका के आंतरिक, मनोवैज्ञानिक स्थापत्यों से समझ में आता है कि इनके लिए प्रेम के बिना जीना, अपने आत्म के बिना जीना है।
निर्मल वर्मा के पाठकों, प्रशंसकों ने उन्हें सांध्यकालीन, गोधूलि के वक्त की मनोदशाओं, मनःस्थितियों के मास्टर लेखक के रूप में जाना है। वे शायद हमारी भाषा के एकमात्र लेखक बने रहे जिनके लिखे गए में स्मृति, कल्पनाशीलता, नॉस्टेलजिया और मानवीय मन की इतनी ज्यादा गहराइयाँ, नैसर्गिकता ली हुई उपस्थितियाँ निरन्तर बनी रहीं। मुझे लगता है कि निर्मल वर्मा भी कहानी विधा के एक दूसरे मास्टर एंटन चेखव की तरह, साहित्य के इम्प्रेशनिष्ट कलाकार बने रहे। उनकी प्रौढ, परिपक्व और प्रभावशाली कहानियों को पढते हुए अक्सर मैं डेनमार्क की लेखिका इसाक डेनिसन की इन पंक्तियों को याद करता रहा हूं-
जहाँ लेखक अपनी कहानी के प्रति अटूट सच्चा और खरा होता है, वहाँ अन्ततः उसका मौन भी कहने लगता है।
सूखा में शामिल कहानियाँ जीवन, दुनिया और स्वयं कहानी को भी रिडेक्टिव (सरलीकृत) ढंग से देखने-परखने से बचना चाह रही होती है। इसीलिए भी इन कहानियों में आता जीवन, इन कहानियों का अपना जीवन, इतना खुला-खुला-सा, स्वतंत्र और सात्विक महसूस होता रहता है। इन कहानियों में न जिंदगी जीने के, जिन्दगी की तरफ देखने के किसी एकमात्र ढंग के प्रति आग्रह नजर आता है और न ही कहानी लिखने के किसी एकमात्र रास्ते के प्रति प्रबल पूर्वग्रह। इन कहानियों में, इन ग्रेसफुल कहानियों में जो चीजे वर्जित हैं, वे चीजें झूठ, बेइमानी, आलस्य, शार्टकट और दिखावा है।
निर्मल वर्मा की कहानियों को इसलिए भी पढता आया हूँ कि वे निर्मल वर्मा की कहानियाँ हैं। सिर्फ और सिर्फ निर्मल वर्मा की कहानियाँ। अपने अस्तित्व, अपनी आत्मा में एकदम अकेली, निराली और अपनी-सी। इस संग्रह की कुछ कहानियों को हम कहानी की अपनी ऊँचाइयों, गहराइयों को व्यक्त करती हुई एक जीनियस की गद्य कविताओं के नाम से पुकार सकते हैं।
सम्पर्क - 419, पी.के. साल्वे रोड,
मोहन नगर, नागपुर-440001
मो. 9421800071
शुरुआत में इस संग्रह की दो कहानियों से कुछ पंक्तियों को उतारना चाहूँगा-
इस बार वह उबल पडी। क्या कोई इस तरह अपने को सारी दुनिया से काट लेता है?
और वे जो दुनिया को साथ लेकर जीते हैं?
(अन्तराल)
तुम भी अपने मन से मना कर सकती थी, तुम्हें क्या मालूम नहीं था...।
मालूम होता तो क्या बाबू माँ मुझे बचा सकते थे? मालूम था लेकिन मैं तेरी तरह घर से भाग नहीं सकती थी।
(जाते)
पहले उद्धरण में बडी उम्र के भाई-बहन की बात हो रही है। दूसरे में दो बहनों की, जिनमें एक सबसे बडी है और दूसरी सबसे छोटी। इन पंक्तियों में इस बात का हल्का-सा अनुमान मिल रहा है कि यहाँ बात मानवीय रिश्तों की, उनके अर्थों, उनकी प्रतिध्वनियों की हो रही है। अकेलेपन और अलगाव के लैंडस्केपों की। तन्हाई के दुःस्वप*, आदमी के आंतरिक खालीपन, आदमी होने की पीडा और विषाद की भी। इन कहानियों में नये किस्म की मार्मिकताएँ महसूस होती है, नये प्रकार की करूणाएँ भी।
इन कहानियों के संदर्भों में मैंने पाया है कि निर्मल वर्मा की ज्यादातर कहानियों में, किसी सवाल का उत्तर, एक दूसरे सवाल के रूप में आता है। किसी शिद्दत से उठाए गये प्रश्न के जवाब में परेशान कर देने वाला, चिन्ताजनक प्रश्न। इन कहानियों में दो पात्रों के बीच की ज्यादातर बातचीत, उनके बीच का नैतिक सामना (Ethical Encounter) बनकर आती है। वे एक-दूसरे से ही नहीं, खुद से भी सवाल कर रहे होते हैं, इस दुनिया में उनकी क्या जगह? कैसी जगह है? इनके अपने मानवीय अस्तित्व का अर्थ क्या है? मर्म क्या है? मुझे लगता रहा है कि निर्मल वर्मा के कुछ पात्र अपनी मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक अस्मिता के सवालों से एक तरह की मार्मिक व्याकुलता लिए हुए, मासूम बच्चों-सी जिज्ञासाएँ लिए हुए रहते हैं।
इन कहानियों के ज्यादातर पात्र भारत के मध्यवर्गीय, शिक्षित परिवारों से आये हुए हैं। इनके दिलोदिमाग में अपने-अपने अतीत की यादों की व्याप्ति नजर आती रहती है। सूखा का लेखक हो, बावली, की युवा होती लडकी या किसी अलग रोशनी में का कोस्ता, सबकी अपनी-अपनी स्मृतियाँ है। ये अपनी-अपनी यादों से अपने-अपने अतीत को गढते चले जाते हैं। इस सबके दिलोदिमाग में एक किस्म की धुंध छाती रहती है, छटती रहती है। इन पात्रों के अगर अपने कुछ दुःस्वप्न हैं, तो अपने-अपने दिवास्वप्न भी।
मैं कह चुका हूँ कि निर्मल वर्मा के फिक्शन में एक आदमी से दूसरे आदमी का रिश्ता, ज्यादातर उनकी नैतिक मुठभेडों के बीच से उभरकर हमारे सामने आता है। उनकी कहानियों के पात्र हमसे कहते चले जाते हैं कि हम दूसरे आदमी को तब तक समझ नहीं पाएँगे, जब तक हम यह नहीं जानेगे कि उस बात, उस चीज को वह किस नजरिये से देख रहा है, महसूस कर रहा है, जिस पर विवाद-संवाद जारी है। इसीलिए उनके पात्रों के कहे गए में हमें कोई साफ-सुथरा, संशयहीन, सटीक बयान नजर ही नहीं आता है।
निर्मल वर्मा की इस सत्य से जान-पहचान बहुत ज्यादा पुरानी लगती है कि सत्य की अपनी आंतरिक शक्ति होती है जिसे बहुत ज्यादा स्पष्टीकरण की जरुरत नहीं रहती है। वे अपने पात्रों को समझने-समझाने की जबरदस्त कोशिशें करते हुए नजर आते रहते हैं, लेकिन अपने पात्रों को जज करना, उनको कोई उपदेश देना, न्यायधीश की तरह उनको काले-सफेद में बाँटकर कोई फैसला देना, उनके यहाँ कहीं भी नजर नहीं आता है।
उनके समूचे फिक्शन में हमें कलात्मक अंतर्दृष्टि लिया हुआ, मानवीय जीवन, मानवीय पीडा और मानवीय स्थितियों का मूल्यांकन पुनःमूल्यांकन जरुर नजर आता रहता है। उनके पात्र अपने जीवन की बिना जाँच-पडताल किए हुए, अपनी परीक्षा लिए बिना जीने में परहेज करते हुए जान पडते हैं।
इन कहानियों में से कुछ कहानियों के पात्र अधेड हो चुके हैं। अनाथ हो गए हैं। इन लोगों ने अपने अपने-अपने सगों, आत्मीय लोगों को खो दिया है। इन पात्रों पर अब भी इनके मृत माता-पिता की छायाओं का घेरा बना रहता है। इनका अपने मृतकों से संवाद होता रहता है। हमें इन पात्रों में नजर आता है कि हमारा यह संसार जितना जीवितों का है, उतना ही क्या हमारे मृतकों का नहीं है?
जाले कहानी की उस जगह पर रुकता हूँ- .... मुन्नू ने कब्र खोदी थी जिसमें पिया के साथ उसकी चेन, दूध की प्लेट और गले के पट्टे को भी दफनाया गया था- छोटी का रोना रुकता नहीं था। एक छोटी-सी कुतिया के लिए इतना संताप?
क्या यह वही सन्ताप था जो बाद के वर्षों में छोटी के चहरे पर छाया की तरह चिपका रहता था?
इन कहानियों का अपने अतीत से, अपने मृतकों से, अपने आप से, अपनी आत्मा से ऐसा और इतना गहरा संवाद किया जाना भी है जो इन कहानियों में इतने आवेगों को, इतने संगीत और रहस्य को, इतनी मार्मिकता और करूणा को, इतनी लालसा और जिज्ञासा को जन्म देता रहता है।
इनको पढने की शुरुआत से ही हमारी मुठभेड लेखक के रचे गये पिघलते हुए लैंडस्केप से होती है। कल्पनाशीलता का पिघलता हुआ लैंडस्केप। कहानी कहाँ जा रही है, कहाँ जाएगी इसका हल्का-सा भी अनुमान पाठक नहीं लगा पाता है। न कहानी की थीम का कुछ अंदाजा लगता और न ही कहानी के किसी केन्द्रीय तनाव, विषय का। कहानी का यह अप्रत्याशितपन, कहानी का तरंग-सा होना, कहानी की अंतिम पंक्ति तक बना रहता है। उनकी शायद ही कोई कहानी होगी जिसको पढते हुए हम महसूस करे कि इसको लिखते हुए लेखक अधीरता का शिकार हो गया है, उसने लापरवाही और सनक के साथ अपनी कहानी लिखी है।
तुम इस तरह कब तक बन्द दरवाजे को खटखटाते रहोगे... वह अब दरवाजा भी नहीं है, वह अब एक दीवार का हिस्सा है, जो कभी खुलता नहीं, उसमें अब एक छोटा-सा सुराख भी नहीं, जिसके आर-पार तुम उसकी जिन्दगी में अपना साझा कर सको। (पहला प्रेम)।
उनकी इस कहानी का पात्र अपने प्रेम के खो जाने से, खुद को अकेलेपन के ब्लैकहोल में गिरता हुआ महसूस कर रहा है। खालीपन, बंजरपन का दुखद अहसास लिए हुए, अपनी प्रेमिका और उसके नये प्रेमी का पीछा कर रहा है। हम उसकी प्रेमिका को, उसके अकेलेपन को गढते हुए, बढाते हुए देखते हैं। हमें पहला प्रेम के इस पात्र की अमूर्त, अबूझ और अस्पष्ट निराशाओं का, उसके असफल वैयक्तिक इतिहास का पता चलता है। उसके विषाद और विडम्बना का भी।
पहला प्रेम और बुखार में एक तरह से, तब टर्मिनल और जाले में दूसरी तरह से हम इस मानवीय सच से रूबरू होते हैं कि हर कोई अपने स्वप्न को जी नहीं सकता है। हमारी हर आकांक्षा की नियति हमारे लिए अनुकूल नहीं हो सकती है। हर सवाल अपने जबाब का चेहरा नहीं देख पाता है। निर्मल वर्मा यहीं नहीं रूक जाते हैं। वे कह रहे होते हैं कि प्रेम की असफलताओं के बावजूद, प्रेम में हुए मोहभंग के बीच में भी लोग सपने देखना नहीं छोडते हैं और न ही अपनी आकांक्षाओं और लालसाओं से दूर चले जाते हैं।
जाले की बहनें अलग-अलग शहरों से अपने पुश्तैनी मकान में आयी हुयी हैं। उनका भाई अकेले रह रहा है। उनकी पत्नी को उन्होंने कम उम्र में ही खो दिया था। उनका एक भाई आत्महत्या कर चुका है। इस कहानी में, अलग-अलग पात्रों की अपनी भावनात्मक टूटन है। अपनी-अपनी तन्हाइयों के दुःस्वप*। टामस मान के पहले उपन्यास बडनबु*क्स के याददाश्त से लिखे गये इस वाक्य की याद आ जाती है हर घर की आलमारी में उसके अपने ही घर का कोई अस्थिपंजर रखा रहता है। इस कहानी के पात्रों के दुःख किसी गहरे रहस्य के खुलने की प्रक्रिया की तरह धीरे-धीरे बाहर आते हैं। अपने परिवेश को खो देने का दुखः, अपने सगों से बिछुड जाने की पीडा, अपने जीने के अर्थों से, अपने प्रेम के अर्थों से, दूर रहकर जीने का विषाद।
उसे मालूम था हमारे परिवार के लोग जिस दुनिया में रहते हैं, वहाँ धोखे ने इतनी जगह घेर रखी है कि बेचारे सच के लिए बित्तेभर की थाह नहीं।
पहला प्रेम, टर्मिनल, जाले और बुखार में प्यार में मिले विश्वासघात से उपजी पीडा और जख्म को पढा जा सकता है। ये कहानियाँ भी, निर्मल वर्मा की दूसरी कहानियों की तरह मानवीय जिन्दगी में, प्रेम के त्रासद लेकिन गहरे महत्त्वपूर्ण अनुभवों पर ठहरती-ठिठकती है, उनको लेकर चिंतन-मनन करती है। प्रेम के ट्रेजिक महत्त्व को समझाती है।
इन कहानियों के पात्र अपने अतीत से अपनी स्मृतियों को गढते हैं। अपने अतीत से काफी कुछ सीखते-समझते हैं। इनका अतीत सिर्फ इनके लिए दुख, पछतावा और निराशाएँ ही नहीं ले आता है। ये पात्र भले ही कभी कभार, अपने उन सुखों से भी जुडते है, जो उनकी निगाहों में बडे सुख के रूप में खडे रहते हैं।
और तब भैया को लगा कि यह दिन वैसा ही शांत, ऊँघता-सा है, जैसा बरसों पहले होता था, जब माँ-बात जीवित थे- और बीच में कुछ भी घटा-बढा नहीं था। सर्दी का एक साधारण उज्ज्वल दिन।
इन कहानियों के पात्रों में अपने घर के लिए, सिर्फ अपने घर के लिए, एक टीस-सी बनी रहती है। वे अपने घरों में लौटने की ललक और लालसा लिए हुए रहते हैं। सूखा की शकुन अपने घर जाना चाहती है, किसी अलग रोशनी में के पब का मालिक कोस्ता आपने गाँव के घर की याद में खोया रहता है। जाले की गुन्नो अपनी शादी के बाद बरसों तक अपने मायके में बार-बार लौटती रहती है।
इन कहानियों में अपना जीवन जीते हुए लोग, घर से दूर जाने पर, घर की गरमाहट, महिमा को समझने लगते हैं। अपने घर लौटना, उनके लिए एक बडा, आत्मीय-सा अनुभव बनता है। इनकी आत्माएँ अपने लिए घर खोज रही होती है, अपने खोजे गए घरों में लौटने की खातिर तडप रही होती हैं। यहाँ पर इन पात्रों के बारे में यह भी कहना चाहूँगा कि इनके भीतर, निर्मल वर्मा के फिक्शन के पात्रों के अन्दर, साधारण जिंदगी के आत्मसंतोष के लिए ज्यादा जगह नहीं रहती है। दुनिया में अपनी जगह जानने का उनका आत्मसंघर्ष, अपनी आध्यात्मिक अस्मिता को पाने की उनकी आधी-अधूरी आकांक्षा, उनके मन में साधारण जीवन के आत्मसंतोष के लिए नकार, असहमति पैदा करती है।
इन कहानियों के पात्र इस बात को शिद्दत से महसूस करते रहते हैं कि बंधन-रिश्तों और गुलामी-दासता के बीच खडी सीमाएँ अत्यंत सकरी होती हैं। कब बंधन एक तरह की गुलामी में बदल जाएगा, इसका अनुमान लगाना, इसको जान पाना बहुत ज्यादा कठिन होता है। सूखा के पात्रों को हमारी शहरी आधुनिकता एक तरह की नकली आधुनिकता, एक किस्म का छद्म और छल जान पडती है। यहाँ पर शायद लेखक हम पाठकों को आधुनिक विचार, आधुनिक चिंतन की उस गरीबी को बताना चाह रहे होते हैं, जिसने भले-बुरे, सभ्य और असभ्य संवेदनाओं के बीच के फर्क को जानने-पहचानने की विवेकशीलता को खो दिया है।
मैं शायद इस बात को दुहरा रहा हूँ कि निर्मल वर्मा देश-विदेश के उन विरले लेखकों में से एक होंगे जिन्होंने मानवीय जिन्दगी की अनिवार्य आंतरिकता पर इतनी बारीकी से इतनी तल्लीनता, स्नेहशीलता, समानुभूति और गंभीरता से इतना ज्यादा चिंतन-मनन किया है। उनके फिक्शन को मैं अपने लिए एक स्वप्नद्रष्टा के गहरे चिंतन-मनन की तरह देखता रहा हूँ।
निर्मल वर्मा अपने लेखन में मानवीय रिश्तों के बीच फैले हुए अँधेरे गलियारों, रास्तों पर इतनी देर-देर तक इतनी ज्यादा भावनात्मक सर्तकता और बौद्धिक जिज्ञासाएँ लिए हुए रूकते आए हैं, लेकिन उनकी कहानियों में ड्रामा भले नजर आ जाए, मेलोड्रामा के लिए जरा-सी भी जगह नहीं होती है। वे बराबर अपने लिखे गए से, अनिवार्य कलात्मक दूरियाँ बनाये रखते हैं। उनकी कहानियाँ, कुछ इस तरह शुरू होती है, विकसित होती रहती है, फलती-फूलती रहती है कि न उनके लिए यह जानना आसान होता होगा कि उसकी नियति क्या होगी और न ही उनके पाठकों के लिए। उनकी कहानियाँ अपनी शुरुआत से अपने अंत तक नैसर्गिकता और सहजता लिए हुए बढती रहती हैं। उनके यहाँ के लेखन में इस किस्म का अप्रत्याशितपन भी है कि उनकी कहानियाँ हमें इतनी ज्यादा पठनीय, रोचक और Heartwarming महसूस होती रहती है। यहाँ मैं उनकी कहानियों के साथ Heartwarming के साथ-साथ Graceful कहानियाँ भी जोडना चाहूँगा।
अपने लेखन के शुरुआत के दिनों से ही निर्मल वर्मा के यहाँ, कलात्मक सृजन के प्रति उनकी गहरी निष्ठा और आस्था को देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी शुरुआत से ही कहानी लिखे जाने के तमाम देशी-विदेशी ढंगों से सवाल करने का साहस दिखाया था। जोखिम उठाया था। उनके लिए अपने समय, समाज और सभ्यता के अनुरूप मानवीय स्थितियों को व्यक्त करने के लिए जरूरी फॉर्म का खोजा जाना जरूरी था। वे कहानी के लिए एक नयी जमीन तैयार करने, कहानी कहने के ढंग के नये रास्ते खोजने में अपनी शुरुआत में ही जुट गए थे। कहानी के लिए किसी ग्रेसफुल, नये और मौलिक फॉर्म का खोजा जाना कोई छोटी बात नहीं थी। वहाँ पर जोखिम था, तो असफलता के ब्लैकहोल में धँस जाने का खतरा भी। पर निर्मल वर्मा कला के जोखिम, कलात्मक जोखिम के प्रति कैसे उदासीन रह सकते थे?
हमें उनकी एकदम शुरु की कहानियों में भी, पात्रों, घटनाओं, वाक्यविन्यासों, संवादों के लिए पारंपरिक दिलचस्पियाँ नजर नहीं आती है। वे शुरू से ही कहानी में Precision (प्रिसिझन-बिल्कुल स्पष्ट और सही होने का गुण) को अपना देवता मानने लगते हैं। उनकी कहानियों में जगह लेते हुए भौलिक, गीतात्मक विवरण, प्रकृति और परिवेश के छोटे-छोटे बदलाव, मौसमों के आने-जाने की आहटें, उनके यहाँ वाक्यों का हमेशा जीवित वाक्य होना, मृत वाक्यों से उनका परहेज, जैसे कितने ही तत्त्व होंगे जिनसे उनकी कहानियों की कथात्मक समृद्धि का पता चलता रहता है।
निर्मल वर्मा के यहाँ भाषा, भाषा की अपनी सीमाओं के परे जाना जानती है। वे भाषा के अमूर्त से अमूर्त आयाम का आविष्कार करते हैं। अपने लिए उनका भाषा का यह आविष्कार किया जाना ही है कि उनके लिखे गये में भाषा वह सब कुछ कहने का सामर्थ्य जुटा पाती है, जिसे भाषा में कहा ही नहीं जा सकता है। कभी निर्मल वर्मा की कथा भाषा पर उनके यहाँ के शब्दों के एकान्त और मौन पर विस्तार से लिखना चाहूँगा। यहाँ इतना भर दुहराना चाहूँगा कि निर्मल वर्मा के लिखे गए में हमेशा से ही भाषा वह तीर्थस्थल रही, जहाँ निर्मल वर्मा बार-बार, हर बार अपनी लेखकीय मुक्ति के लिए जाते रहे थे।
वे अपनी कहानियों में मनुष्यों के रिश्तों, उनके बीच फैलते-फूलते अन्धेरों, आदमी की आदतों और इरादों से बनती बिगडती जीवन स्थितियों को अपनी संपूर्णता में व्यक्त करते आए, लेकिन उन्होंने एक भी फार्मूलाबद्ध कहानी नहीं लिखी। अपनी कथा पर, उनके कहने के ढंग पर, निरन्तर, बिना थके हुए वे एक के बाद एक कहानी लिखते चले गए। उनकी प्रत्येक कहानी, कहानी विधा की एक दुर्लभ दस्तावेज की तरह उनके पाठकों के मन में बसती चली गयी।
अब आगे की कुछ बातें, सूखा की कहानियों पर जिससे मैंने अपनी बात प्रारंभ की थी। मुझे लगता है कि अगर सूखा और अन्य कहानियाँ शीर्षक के संग्रह में किसी अलग रोशनी में, के संग्रह में बुखार और जाले जैसी कहानियाँ, मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए प्यास, स्वतंत्र होने और रहने की आकांक्षा, इस स्वतंत्रता के लिए कुछ छोडने, त्यागने की मानवीय प्रवृत्तियों के करीब और आस-पास चक्कर लगाती है तब अंतराल, बावली और सूखा मनुष्य की अपनी तन्हाइयों, ऐसी पीडादायक तन्हाइयों से बाहर आते हुए सपनों, दिवास्वप्नों और दुःस्वप्नों के चारों तरफ घूमती हुई महसूस होती है।
पिछले पैंतीस बरसों से सूखा की कहानियों को बीच-बीच में पढता रहा हूँ। अब भी, आज भी इनको पढते वक्त यह आश्चर्य और सुख मिलता ही है कि कहानियों में लेखक इतनी ज्यादा जटिल, विषम, विरोधभासों और अंतर्द्वंद्वों से भरी हुई मानवीय स्थितियों के साथ संवादरत है, लेकिन सरलीकरण से बचता हुआ, आक्रमणशील सरलीकरण के प्रति सहज, प्रतिरोध लिए हुआ। इन कहानियों में हमारे लिए उत्तर नहीं है, लेकिन ऐसे जीवन्त, जरूरी और शाश्वत प्रश्न मौजूद हैं जो मन और मस्तिष्क को लेकर हमारी समझ को गहराते रहते हैं। हमें मानवीय गर्माहट को जानने-पहचानने की जरूरतों को समझाते रहते हैं।
निर्मल वर्मा की दूसरी कहानियों की ही तरह, इन कहानियों में भी जिन सवालों को खडा किया जा रहा हैं, जिन सवालों के यहाँ उपस्थित होने का उनके पाठकों ने जगह-जगह पर, बार-बार जिक्र किया है, वे कुछ इस तरह हो सकते हैं -
१. क्यों लोग एक-दूसरे को इतना आहत करते हैं?
२. क्यों रिश्तों के बीच ऐसी अदृश्य दीवारे खडी हो
जाती है?
३. प्रेम इतनी जल्दी क्यों सूख जाता है?
४. लोग इतने अकेले क्यों हैं?
उनकी कहानियों में आते हुए ये कुछ ही सवाल हैं जिन्हें उनके अलग-अलग पाठकों ने अपने-अपने ढंग से देखा हे, जिनका वे जिक्र करते आये हैं। निर्मल वर्मा हमेशा खुद से भी सवाल करते रहे, अपने समय, समाज, संस्कृति और सभ्यता से भी। उनकी इस सच्ची ओर गहरी प्रश्नाकुलता, भावनात्मक और बौद्धिक जिज्ञासाओं को मैंने किसी दुर्लभ निधी-सा माना है। एक लेखक, जो बार-बार लगातार सवाल पर सवाल उठाने का जोखिम उठाता रहा था। निर्मल वर्मा को भी हमारे वक्त में ऋषि याज्ञवल्क्य की शिष्या गार्गी की ही तरह अपनी बौद्धिक लालसाओं की खातिर काफी कुछ सहना-सुनना पडा था।
सूखा में चीनी भिक्षुक का मीलों दूर से चलकर आयी बुढिया को दिया गया उत्तर, टर्मिनल की भविष्यवक्ता की गूढ भविष्यवाणी, जाले में ग्रीक नाटक के कोरस का जिक्र, बुखार के दोनों पात्रों की जन्मपत्रियाँ, ये बताती रहती है कि अपने से बाहर खडी दुनिया और सृष्टि को जान पाना, अपने से बाहर खडे हुए संसार को वशीभूत करना कभी भी, किसी भी आदमी के बस की बात नहीं हो सकती है। शायद इसलिए भी अपने आत्म में, दूसरों के आत्म में दिलचस्पी लेने की शुरुआत मनुष्य के दिमाग में हमारे संसार में बहुत देर के बाद आई है।
और अन्त में कुछ पंक्तियाँ इन कहानियों में आते हुए आदमी के एकान्त और अकेलेपन पर। इन कहानियों में कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो अपने अकेलेपन, अपने अधूरेपन से बाहर निकलने की अदम्य आकांक्षाएँ लिए हुए दूसरों से जुडना चाहते हैं, दूसरों को अपने साथ जोडना चाहते हैं। इन सबके लिए वे मानवीय रिश्तों के नर्क से भी गुजरते हैं और स्वर्ग से भी। इन पात्रों की यह पहल, उनके अपनी मुक्ति के लिए ऐसे प्रयत्न, हमें मनुष्य की, मानवीय अस्तित्व की, मनुष्य होने के ग्रेस और गौरव की याद दिलाती रहती है। क्या निर्मल वर्मा ने ही हमसे बार-बार यह नहीं कहा है कि साहित्य और कला की एक जिम्मेवारी यह भी है कि वह हमें मनुष्य होने की, इतनी बडी सृष्टि में मनुष्य रहने की, स्मृति से निरन्तर बाँधे रखे?
अपने इस संग्रह की भी ज्यादातर कहानियों में हम देख पाते हैं कि जीवन की मामूली परिस्थितियों के साथ पलते-बढते उनके पात्र, अपनी चिंताओं से, अपनी जागरूकता से, साधारण पात्रों से विशिष्ट किस्म के पात्रों में बदलते रहते हैं। बुखार का नायक एक कस्बाती स्कूल में इतिहास पढाता है। एक युवा नर्वस आतंकित-सा भारतीय रसकोलनिकोफ। (दोस्तोएव्सकी के उपन्यास अपराध और दंड का नायक) बुखार का यह अध्यापक, इस अध्यापक की जिन्दगी, हमसे कह रही होती है कि हर मन की अपनी जटिलताएँ होती है, अपनी जिद, जागृति और जिजीविषा भी।
बुखार हम पाठकों को इस बात की भी याद दिलाती है कि मनुष्य के जीवन में आता-जाता हुआ प्रेम, ईश्वर और प्रकृति से मिलता रहता निरन्तर किस्म का उपहार है। वह सबको मिलता भी नहीं और उसका मिलना एक तरह का चमत्कार ही है। इस कहानी के नायक-नायिका के आंतरिक, मनोवैज्ञानिक स्थापत्यों से समझ में आता है कि इनके लिए प्रेम के बिना जीना, अपने आत्म के बिना जीना है।
निर्मल वर्मा के पाठकों, प्रशंसकों ने उन्हें सांध्यकालीन, गोधूलि के वक्त की मनोदशाओं, मनःस्थितियों के मास्टर लेखक के रूप में जाना है। वे शायद हमारी भाषा के एकमात्र लेखक बने रहे जिनके लिखे गए में स्मृति, कल्पनाशीलता, नॉस्टेलजिया और मानवीय मन की इतनी ज्यादा गहराइयाँ, नैसर्गिकता ली हुई उपस्थितियाँ निरन्तर बनी रहीं। मुझे लगता है कि निर्मल वर्मा भी कहानी विधा के एक दूसरे मास्टर एंटन चेखव की तरह, साहित्य के इम्प्रेशनिष्ट कलाकार बने रहे। उनकी प्रौढ, परिपक्व और प्रभावशाली कहानियों को पढते हुए अक्सर मैं डेनमार्क की लेखिका इसाक डेनिसन की इन पंक्तियों को याद करता रहा हूं-
जहाँ लेखक अपनी कहानी के प्रति अटूट सच्चा और खरा होता है, वहाँ अन्ततः उसका मौन भी कहने लगता है।
सूखा में शामिल कहानियाँ जीवन, दुनिया और स्वयं कहानी को भी रिडेक्टिव (सरलीकृत) ढंग से देखने-परखने से बचना चाह रही होती है। इसीलिए भी इन कहानियों में आता जीवन, इन कहानियों का अपना जीवन, इतना खुला-खुला-सा, स्वतंत्र और सात्विक महसूस होता रहता है। इन कहानियों में न जिंदगी जीने के, जिन्दगी की तरफ देखने के किसी एकमात्र ढंग के प्रति आग्रह नजर आता है और न ही कहानी लिखने के किसी एकमात्र रास्ते के प्रति प्रबल पूर्वग्रह। इन कहानियों में, इन ग्रेसफुल कहानियों में जो चीजे वर्जित हैं, वे चीजें झूठ, बेइमानी, आलस्य, शार्टकट और दिखावा है।
निर्मल वर्मा की कहानियों को इसलिए भी पढता आया हूँ कि वे निर्मल वर्मा की कहानियाँ हैं। सिर्फ और सिर्फ निर्मल वर्मा की कहानियाँ। अपने अस्तित्व, अपनी आत्मा में एकदम अकेली, निराली और अपनी-सी। इस संग्रह की कुछ कहानियों को हम कहानी की अपनी ऊँचाइयों, गहराइयों को व्यक्त करती हुई एक जीनियस की गद्य कविताओं के नाम से पुकार सकते हैं।
सम्पर्क - 419, पी.के. साल्वे रोड,
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