निर्मल वर्मा की सीख
शंकर शरण
जैसे सुस्वादु व्यंजनों को छक कर खाने वाला, उस का भरपूर वर्णन कर के भी उस के स्वाद व आनन्द को साझा या संप्रेषित नहीं कर सकता, कुछ वही महान साहित्य के बारे में भी है। वैसे अनुभव को हमारे शास्त्रों ने मूकास्वादन की संज्ञा दी है। सहृदय पाठकों द्वारा द्वारा महान साहित्यकारों को स्वयं पढने का कोई विकल्प नहीं है।
समकालीन युग में निर्मल वर्मा वैसे ही एक भारतीय साहित्यकार थे। उन की रचनाओं की देन उन्हें पढकर ही समझी जा सकती है। उस पर लेख लिख, या वक्तव्य देकर हम अधिक से अधिक उस के विषय का उल्लेख भर कर सकते हैं। कुछ परिचय करा सकते हैं। इस निबंध में वही करने का एक प्रयत्न है, अधिकाधिक निर्मलजी के ही शब्दों में। ताकि परिचय अधिक प्रमाणिक रहे। ये विषय हैं - साहित्य का महत्त्व, अर्थ, भाषा का मूल्य, राजनीतिक आग्रह, साहित्य से उस का संबंध, प्रगतिवाद, यथार्थवाद, भारतीयता, इतिहास और विज्ञान, आदि। ये विचार-बिन्दु निर्मलजी की साहित्य रचना में सूक्ष्म रूप में मिलते हैं, जबकि उन के लेखों, वक्तव्यों या साक्षात्कारों में इन पर सीधे बातें कही गयी हैं। वह भी इसलिए, क्योंकि समकालीन युग में साहित्य के बदले मतवाद, नारे, सांगठनिक सक्रियता, आदि का दिनों-दिन अधिक महत्त्व होता गया।
वस्तुतः इसी कारण आज के भारतीय शैक्षिक-बौद्धिक जीवन में साहित्य ही पूरी तरह पृष्ठभूमि में चला गया है। निर्मलजी ने इसे यह कह कर नोट किया था कि हमारे साहित्य (समाज) में जो पोषित करने वाली ऊर्जा थी वह आज मरुस्थल में बदल गई है। हम क्रांति, सामाजिक परिवर्तन, भेद-भाव, उत्पीडन, दलितों, महिलाओं, आदि के बारे में अंतहीन बातें करते रहते हैं। पर हमें मानो संकोच होता है कि हम साहित्य के बारे में बात करें!
साहित्य-विमर्श के नाम पर मुख्यतः और कई बार केवल उन समस्याओं के बारे में बात करते रहते हैं, जो राजनीतिज्ञ, पत्रकार, एक्टिविस्ट लोग करते हैं। लेकिन साहित्यकार की हैसियत से खुद अपने भविष्य के बारे में हम एक शब्द भी कहना पसंद नहीं करते। ऐसे शब्द जो सच्ची अनुभूति संप्रेषित करते हों।
ऐसे करने वाले लेखक अपनी पात्रता तक का ध्यान नहीं रखते। जैसा निर्मलजी ने कहा था, मुझे दलितों के बारे में सुनना है तो मैं किसी सेमिनार में जाऊँगा जहाँ इन समाजशास्त्रीय समस्याओं के बारे में सुंदर पर्चे पढे जाते हैं। पर साहित्यिक चर्चा में इन्हीं विषयों पर दूसरे-तीसरे दर्जे की उधारी बातें सुनने की किसी श्रोता में उत्सुकता नहीं हो सकती।
इसलिए, मूल प्रश्न है कि हम साहित्य के पास क्यों जाते हैं? कभी अवकाश में इस प्रश्न का उत्तर अपने से माँगिए, जैसा निर्मलजी ने पूछा था- मैं निराला की कविता क्यों पढने जाता हूँ, जिसे मैंने पचास बार पढ रखा है? क्योंकि उस में हर बार कोई नया अर्थ, आनन्द, अंतर्दृष्टि मिलती है। जो पहले नहीं मिली थी, या छूट गई थी। वह अर्थ या अंतर्दृष्टि किसी समाजशास्त्री या राजनीतिक का दिया हुआ तथ्य या तर्क नहीं है। टैगोर, टॉल्सटॉय, अज्ञेय, जैसे महान साहित्यकारों के साहित्य में एक दूसरे यथार्थ से हमारा साक्षात्कार होता है। वह सत्य हमें न फिलोसोफी, न मतवादी या मजहबी ग्रंथ, न राजनीतिक पाठ दे सकते हैं। जिस दिन हम समझ लेंगे कि साहित्यिक सत्य का कोई विकल्प नहीं, उस दिन हमें साहित्य की अनिवार्यता का पता चलेगा।
जब तक साहित्य के नाम पर स्थानापन्न मिलते रहेंगे, तब तक साहित्य सदैव गौण स्थिति में पडा रहेगा। कई चतुर लोग साहित्य को समाज या राजनीति के एक अनुचर, सहायक, या औजार के रूप में देखते हैं, चाहे कहते नहीं हैं। पर अचेतन में रहता है कि साहित्य को अमुक और अमुक काम करना चाहिए। पर, जैसा निर्मलजी ने कहा था, हो सकता है कि जो माँग आप साहित्य से कर रहे हैं, उस में साहित्य की कोई दिलचस्पी न हो!
उपयोग दृष्टि से किसी रूसी समालोचक ने शेक्सपीयर के नाटकों को एक मोची के काम से बदतर बताया था। क्योंकि वह नाटक न तो जूता, न ही भोजन दे सकता है। इसलिए कुछ लोग साहित्य को मनोरंजन या भोग-विलास की चीज भी मानते रहे हैं। वैसी स्थिति में, हमें वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, निराला, आदि से कोई लेना-देना नहीं रह जाएगा! पर स्वयं समाज यह नहीं मानता! अन्यथा वह साहित्य सदियों, हजारों वर्षों से क्यों जीवित है? आखिर क्या मिलता है उस से? निर्मलजी कहते हैं टॉल्सटॉय के उपन्यास या निराला की कविताएँ ठिठुरते पैरों को गरमाई न दे सकें, लेकिन ठिठुरती आत्मा को जरूर ऊष्मा देते हैं।
वे पूछते हैं- सभी भौतिक जरूरतों की पूर्ति के बाद मनुष्य में वह कौन सा वीरानापन, कैसा अकेलापन है, या तृष्णा है, जो तब भी बची रहती है? हमारी इस तृष्णा का समाधान कोई मजहबी या राजनीतिक विश्वास, आइडियोलॉजी, कोई अतीत का स्वर्णयुग या भविष्य का यूटोपिया नहीं कर पाता है। इसीलिए साहित्य को कभी किसी का अनुचर या परजीवी न तो मानना, न होना चाहिए।
उदीयमान लेखकों, कवियों को कभी किसी वाद से जीवन पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्हें समझना होगा कि लेखकों को गाँधीवादी, फ्रॉयडवादी, माक्र्सवादी, राष्ट्रवादी, आदि कहना उन्हें सेकेंड क्लास दर्जा दे देना है। साहित्य का सत्य स्वायत्त, शाश्वत होता है। यही उस की मूल्यवत्ता है। इतिहास, राजनीति, विज्ञान, आदि बदलते रहते हैं। साहित्य के मूल्य और गुणवत्ता स्थायी होती है। अन्यथा, वाल्मीकि रामायण या प्लेटो के संवाद या माक्र्स ऑरेलियस के मेडिटेशंस आज भी नहीं पढे जाते। तुलना में देखें कि हाल के बडे-बडे से महामहिम पोप, लेनिन, माओ, या नेहरू के लेखन, भाषण को अब कोई नहीं पूछता।
यह सच्चे साहित्य का महत्त्व है। वह मनुष्य की संपूर्ण छवि को देखने की चेष्टा करता है। यह हमारी अपने-आप से पहचान बढाता है। इसी प्यास को बुझाने के लिए हम शेक्सपीयर, टॉल्सटॉय, टैगोर, निराला जैसों के पास जाते हैं। कभी भी जा सकते हैं। लेकिन किसी की प्यास अगर गंदे नाले के पानी से बुझती हो जो हमारे समाज के बीचो-बीच बहता है - मतवादों या मास-मीडिया का नाला ङ्क्त तो उसे महान साहित्य की जरूरत नहीं है।
अतः साहित्य की पहचान और भूमिका पर स्पष्टता रहनी चाहिए। निर्मलजी के अनुसार आज साहित्य के भीतर की सब से बडी बीमारी है जब इस में फॉरेन एलीमेंट्स आपरेट करने लगते हैं, बाहर से आया हुआ कोई कीटाणु। उसे निकालना होगा, तभी साहित्य स्वस्थ होगा। अपना स्वरूप प्राप्त करेगा, और अपना कार्य कर सकेगा। निर्मलजी के शब्दों में, गलत सवालों का सच हम कभी न कभी पा लेंगे, पर झूठे प्रश्नों का कभी अन्त नहीं होता... मेरी समझ में लेखक की प्रतिबद्धता, उस की राजनीति, पार्टनर की पॉलिटिक्स ... यह सब झूठे प्रश्न हैं। जब लोग कहते हैं कि अच्छा सहित्य नहीं बिकता, तब वे भूल जाते हैं कि साहित्य के बारे में झूठी मान्यताएँ और उस के नाम पर नकली सामग्री की भरमार भी उस का एक कारण है। जब हम झूठे प्रश्नों से मुक्ति पा लेंगे, साहित्य के मर्म और सत्य की तरफ आएँगे, तभी साहित्य उपेक्षित चीज नहीं रहेगा।
उन झूठी मान्यताओं के प्रभाव में ही कहा जाता है कि ऐसा साहित्य लिखना चाहिए जिसे किसान, मजदूर, छोटे लोग समझ सकें। जबकि बात उलटी है। हमें ऐसे समाज का निर्माण करना है जिस में हर व्यक्ति निराला या अज्ञेय की दुरुह से दुरूह कविताओं को समझ सके। निर्मलजी के अनुसार, आप साहित्य को समाज के लोएस्ट नोमिनेटर पर लाकर अवमूल्यित करना चाहते हैं और इस के लिए हर तरह के बहाने, सिद्धांत गढते हैं। इसीलिए आज गंभीर पुस्तकें बाजार में नहीं दिखतीं या पुस्तकालयों में उपेक्षित पडी रहती हैं। क्योंकि जिस संस्कार, जिस परम्परा-बोध, भाषा के प्रति जिस संवेदना से उन से सार्थक रिश्ता बनता है उस रिश्ते के सब तार धीरे-धीरे टूटते जा रहे हैं।
इसीलिए, जब निर्मलजी से पूछा गया कि क्या साहित्य अपनी प्रासंगिकता नहीं खो रहा है? तो उन्होंने कहा, क्या यह अजीब विडंबनापूर्ण स्थिति नहीं होगी कि आने वाले समय में हम जिस चीज को साहित्य समझ रहे हों, वह कुछ और हो... शब्दों की बनी काया, जिस में कोई साहित्येतर जीव साँस ले रहा हो? जिसे हम साहित्य समझ रहे थे, उस के भीतर किसी और की प्रेतछाया छिपी हो?
हर हाल में, हमें साहित्य का असली स्वरूप पहचानने की क्षमता जुटानी होगी। पहले सुपात्र पाठक बनना होगा। तभी स्वयं साहित्य को पहचान सकने का विवेक मिलेगा। साहित्यिक वेशभूषा में अभिनीत होते लेखन के पीछे की असलियत मालूम होगी। यह विचार-विमर्श से अधिक अनुभूति का क्षेत्र है। यदि हर उपन्यास, कहानी और कविता हमें अनूठा स्वाद तथा रस और आनन्द देती है, तो उन के बीच एक सामान्य केंद्रीय तत्व अवश्य होगा, जो उसे साहित्य का दर्जा देता हो। वह सामान्य तत्व क्या है, इसे खोज पाना आसान नहीं; किन्तु उस तत्व का प्रादुर्भाव ही अनुभूति की उर्वरा भूमि पर होता है।
आज साहित्य की गणना समाज-संबंधी अनुशासनों ह्यूमैनिटीज, यानी समाजशास्त्र, इतिहास, आदि के साथ की जाती है। निर्मलजी के अनुसार, यह आश्चर्यजनक है। क्योंकि ऊपरी दृष्टि से जरूर साहित्य में भी अध्ययन विषय मनुष्य ही है। पर अन्तर यह है कि जहाँ अन्य शास्त्रों में मनुष्य एक अन्य है, एक ऑब्जेक्ट- जिसे बाहर से देखता-परखा जाता है। वहाँ साहित्य में देखने-परखने वाला व्यक्ति स्वयं मैं हूँ, एक सब्जेक्ट, जो साहित्य में एक ऑब्जेक्ट की तरह अपने को प्रतिबिम्बित होता हुआ पाता है।
निर्मलजी के शब्दों में, मेरे लिए साहित्य में आना एक तरह से ऐसे कक्ष में प्रवेश करना है ... जहाँ चारे तरफ आइने लगे हैं, हॉल ऑफ मिरर्स, जिस में मेरे मैं की एक अखंडित सत्ता अनेक छवियों में विभाजित होती जाती है- मैं ही हैमलेट हूँ और किंग लियर भी... महाभारत का कर्ण भी मैं हूँ और कुन्ती भी...। साहित्य में मेरे व्यक्तित्व की समस्त प्रच्छन्न संभावनाएँ चरितार्थ हो जाती हैं, जो वास्तविक जीवन में केवल भू*ण अव्सथा में रहने के लिए बाध्य हैं...।
आम जीवन और समाजशास्त्र, इतिहास जैसे विवरणों में भी मनुष्य का एक छोटा-सा अंश ही हमें आइसबर्ग की तरह पानी के ऊपर उजाले में दिखाई देता है। बाकी हिस्से चूँकि सतह के नीचे डूबे रहते हैं, उस से उन का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। साहित्य रचना उसी आमूल अस्तित्व को छूती, जगाती है। इसी रूप में वह हमारी पहचान हम से ही कराने में सहायक होती है। सभी लेखन साहित्य नहीं होता। निश्चय ही हर अनुभव भाषा के माध्यम से ही संप्रेषित होता है, किन्तु हर संप्रेषित होने वाला अनुभव साहित्य नहीं होता।
निर्मलजी ने इसे अजीब विडंबना के रूप में देखा था कि कुछ समय से हमारा अधिकांश कथा साहित्य उन्हीं प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिन के बिना स्वयं मनुष्य का मनुष्यत्व एकांगी, अधूरा और बंजर पडा रहता है। साहित्य लेखन और विमर्श में यथार्थवाद के नाम पर मनुष्य को उस यथार्थ से ही विलगित कर दिया गया जो उस के जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है। जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों से बाहर शायद ही किसी लेखक ने मनुष्य की अस्तित्वगत विडम्बनाओं को अपने कथा-साहित्य में जगह देना जरुरी समझा |
उसी से संबंधित प्रश्न यह भी है कि क्या साहित्य में यथार्थ वैसे ही प्रकट होता है जैसा घट रहे जीवन में? जो अनुभव दैनिक जीवन में हमें नितान्त मायावी, असंगत, अस्वभाविक जान पडते हैं, वही साहित्य में आश्चर्यजनक विश्वसनीयता प्राप्त कर लेते हैं। यह एक अनोखी स्थिति है। जो संवेदनशील लोग ही अनुभव कर सकते हैं। निर्मलजी ने इसे एक बडे लेखक के वास्तविक अनुभव से दर्शाया है। एक बार प्रसिद्ध माक्र्सवादी समालोचक जार्ज लुकाच ने काफ्का की रचनाओं को थामस मान की रचनाओं की तुलना में गैर-यथार्थवादी कहा था। पर जब उन के अपने देश, हंगरी में सोवियत सेना का आगमन (1956 ई.) हुआ तो उन्हें भागकर रोमानिया दूतावास में शरण लेनी पडी। एक बडे माक्र्सवादी को दूसरे माक्र्सवादी के भय से। तब उन्हें यह भोग इतना तार्किक, एब्सर्ड लगा कि पहली बार उन्हें काफ्का के उपन्यासों का यथार्थ तात्कालीन युग के लिए सब से अधिक प्रासंगिक जान पडा था।
अतः प्रश्न यथार्थ को नकारने का नहीं, बल्कि यथार्थवाद को विभिन्न सींखचों से मुक्त करने का है। यहीं पर विचार और विचारतंत्र, आइडिया और आइडियोलॉजी, का अंतर ध्यान रखने की बात हो जाती है। विचार स्वतंत्र होते हैं, पर कोई भी विचारतंत्र (आइडियोलॉजी) विचारों को बाँधने, रोकने का काम करता है। चाहे कितने भी अच्छे उद्देश्य का हवाला देकर, किन्तु वह मनुष्य की विचारशीलता का अंततः हनन ही करता है! यह लगभग फौरन शुरू हो जाता है। इसे किसी आइडियोलॉजी में बाद में आई विकृति आदि कहना बडी भूल है।
इसीलिए, भारतीय ज्ञान-परंपरा में आइडियोलॉजी जैसी चीज ही नहीं रही है। भारतीय मनीषियों ने शास्त्रार्थ और संप्रदाय की खुली परंपरा ही बनाई। जिस में नए-नए संप्रदाय बनने का मार्ग सदैव खुला रहा है। एक-दूसरे का सम्मान भी, चाहे किसी भी विचार बिन्दु पर कितनी भी भिन्नता हो। किसी भिन्न विचार को लीप-पोत कर मिटाने, जबरन रोकने, आदि का उपाय कभी नहीं किया गया। उसे बुरा माना गया। यही भारतीय जन-गण की सहज उदारता, विविधता और समृद्ध ज्ञान पंरपरा का भी कारण है।
इस संदर्भ में ही तरह-तरह की आइडियोलॉजियों को समझा जाना चाहिए। प्रगतिवाद, यथार्थवाद, सेक्यूलरवाद, आदि की भद पिटने के बाद हाल में भारतीयता पर बहस के बहाने पिछले दरवाजे से फिर वही दबाव बनाने का यत्न हुआ है। आजकल उसे आइडिया ऑफ इंडिया करके रखा जाता है।
निर्मलजी ने सही ध्यान दिलाया था कि जब हमारे देश का साहित्यकार सच्चे अर्थों में अपने परंपरा-बोध और संस्कारों में भारतीय था - जैसे, बंगला में रवीन्द्रनाथ, मराठी में खांडेकर, तमिल में भारती, हिन्दी में प्रसाद, निराला. प्रेमचंद, आदि - तब भारतीयता की चर्चा शायद ही कभी होती थी। क्योंकि जब लेखक अपनी जडों से सहज ही जुडा होता है तब वह अपनी अस्मिता का ढिंढोरा नहीं पीटता। न वह तथाकथित अभारतीय तत्त्वों के काँटों को चुनकर अपनी साहित्य-वाटिका से हटाने-बुहारने का उपऋम करता है। लेकिन, विचित्र बात है, कि जो हमारे पूर्वजों के लिए महत्त्वहीन-सा प्रश्न था, वह सहसा ऐसा बडा बन गया है कि साहित्य के मूल्याकंन में कसौटी से अधिक लाठी की तरह इस्तेमाल हो रहा है। यही आज के राजनीतिग्रस्त लेखन की देन है।
वस्तुतः सदियों की दासता ने हमारी मानसिकता, वैचारिक स्वायत्तता, काल-बोध और जीवन-शैली को जिन गहन स्तरों पर प्रभावित किया है कि हम अपनी पहचान के प्रति शंकालु हो गए हैं। दुर्भाग्यवश, यह स्वतंत्र भारत में अधिक हुआ जब विदेशी शासक नहीं रहे। लेकिन अनेक हानिकर विदेशी मतवादों को आधुनिक, वैज्ञानिक, आदि कहकर अनजान जनता के मध्यवर्गीय हिस्से में अधिकाधिक प्रतिष्ठित कराया गया। समय के साथ अब स्वयं हमारे नीति-निर्माता, नेता, लेखक, प्रोफेसर उसी से ग्रस्त होकर सारी शिक्षा और विमर्श चौपट कर रहे हैं। निर्मलजी के अनुसार, शिक्षा-संस्कृति में हमारी ऐसी असहायता विदेशी ब्रिटिश शासन में भी नहीं थी। हम जो हैं, उसे भूलकर कुछ और होने की कोशिश करते रहे हैं। यह उपक्रम संस्कृति के हर क्षेत्र में हो रहा है। विदेशी भाषा में दी गई शिक्षा-पद्धति में, कला के सौदर्य-बोध में, मूल्याकंन के मापदंडों में, जिस के कारण हम ने अपनी संस्कारगत परंपरा से प्राप्त जातीय-चेतना को गँवा दिया है।
भारतीयता का प्रश्न केवल लेखक, विचारक के लिए नहीं है। निर्मलजी के अनुसार, यह हर संवेदनशील भारतीय के लिए अपनी खोई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे से निकाल कर दिन के उजाले में लाने से जुडा है। ताकि हम अपने चेहरे को वैसा देख सकें, जैसा वह है। इस अर्थ में भारतीयता की खोज कोई पुनरुत्थानवादी प्रयास न होकर स्वयं अपनी चेतना से विस्मृति की धूल पोंछने का प्रयास है।
यह सभी कार्य केवल भाषा के माध्यम से हो सकते हैं- अपनी भाषा के माध्यम से। अपने समाज की भाषा। इस का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, यह भी स्वतंत्र भारत की एक विकट समस्या बन चुका है। अपनी भाषाओं की दुर्गति हम ने अपने हाथों से की है, और निरंतर उसी दिशा में बढ रह हैं।
अपनी जातीय-स्मृति, अपनी ज्ञान-संस्कृति परंपरा से जुडे रहने का मूल माध्यम भाषा ही है। कुछ और हो ही नहीं सकता। इस का अर्थ यह भी है जैसे ही कोई अपनी भाषा छोडते हैं, वैसे ही उस से जुडी ज्ञान-संस्कृति को छोड देना तय कर लेते हैं। चाहे वह क्रमशः हो, अनजाने हो, तथा वैसी कोई इच्छा न होने के बावजूद हो। परन्तु ठोस तथ्य यह है कि भाषा छूटने पर उस से जुडी संस्कृति छूटेगी ही। अपवाद अलग हैं।
भाषा का प्रश्न समूची सांस्कृतिक मनीषा से जुडा है। क्या इस मनीषा की महीन बुनावट किसी भाषा में परिलक्षित हो सकती है जिसमें भारतीय संस्कार और स्मृतियों का निपट अभाव है? हम सोचते हैं कि शब्दों का चुनाव हम कर रहे हैं, जबकि शब्द अपनी सत्ता-मात्र से हमें एक ऐसे विशिष्ट संवेदन-तन्त्र से जोड देते हैं, जिस की लय हमारे समूचे कल्पना-विधान को अनुप्राणित करती है। हम चाहे किसी देश या काल में लेखकों के कृतित्व से प्रेरणा लें, पर उस के प्रभाव का अपनी भाषा में कायाकल्प सा हो जाता है।
इस का विपरीत भी सत्य है। जैसे ही हम किसी समाज की विशिष्ट जातीय संस्कृति को एक विजातीय भाषा में व्यक्त करते हैं, वैसे ही उस के अर्थ बदलने लगते हैं। नियमित ऐसा करते रहने से वह पूरी तरह विकृत और भ्रष्ट तक हो जाती है। अपवाद और बात है। किन्तु आम तौर पर सारी इंडोलॉजी और आइडिया ऑफ इंडिया की बहसों में यह साफ देखा जा सकता है। यदि वही बातें भारतीय भाषाओं में कही जातीं, तो उन की विकृति इतनी साफ दिखती कि वे चार कदम भी नहीं चल पातीं। किन्तु विदेशी भाषा में वे न केवल खूब चलती हैं, बल्कि उस का दबदबा कथित हिन्दूवादियों, राष्ट्रवादियों तक पर है।
निर्मलजी ने भी यह विडंबना नोट की थी कि आज पश्चिमी देशों में केवल अंग्रेजी में रची भारतीय लेखकों की रचनाएँ भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व करने लगी हैं। भारतीय भाषाओं का साहित्य क्षेत्रीय बन कर रह गया है। यही नहीं, अंग्रेजी में अनुदित भारतीय साहित्य के आधार पर भी भारतीय साहित्य का आकलन असंभव है। अनुवाद में रेणु दोयम दर्जे के विक्रम सेठ ही लगेंगे।
भाषा का प्रश्न निर्मलजी ने इसलिए भी गंभीर माना था क्योंकि आज लेखकों ने भाषा के प्रति एक अजीब उदासीन-सा रवैया अपना लिया है। मानो भाषा पर बात करना एक रूपवादी, कलावादी शगल हो। परन्तु निर्मलजी ने प्रतिबद्धता का प्रश्न भाषा के प्रति ही देखा था। न कि किसी आइडियलॉजी, पार्टी, राजनीति, या मत के प्रति। भाषा में ही संस्कृति प्रतिष्ठित रहती है। उसी में किसी रचना का सत्य, सौंदर्य भी अन्तर्निहित होता है। निर्मलजी के शब्दों में, एक कविता और कहानी भाषा का वह मोनोलॉग, एकालाप है जो वह संसार से करती है, किन्तु उस में हर पाठक का संसार अपनी वाणी पा लेता है। लेखक महज एक माध्यम है भाषा के इस मोनोलॉग को अपनी रचना में दर्ज करने का जिसे वह एक ईव्स ड्रापर की तरह दरवाजे के पीछे से सुनता है।
इस से लेखक की जिम्मेदारी दुहरी हो जाती है। न केवल भाषा के प्रति, बल्कि अपने प्रति भी। एक माध्यम के तौर पर वह जितना अपने अहं के पूर्वाग्रहों से मुक्त होगा उतना ही उस की रचना का सत्य बिना किन्हीं मतवादी आग्रहों से दूषित हुए अपनी उज्ज्वलता के साथ प्रकट हो सकेगा। संभवतः यही कारण है कि टॉल्सटॉय जैसे एक महानतम लेखक के कथा-साहित्य और वैचारिक निबंधों में भिन्नता की झलक मिलती है। इस दृष्टि से, निर्मलजी के शब्दों में, एक लेखक और एक सन्यासी में भेद बहुत कम रह जाता है। दोनों को अपनी साधना का फल पाने के लिए अपने अहं के दुराग्रहों से मुक्त होना पडता है।
कोई सच्चा लेखक बाहर से आरोपित प्रतिबद्धताओं से मुक्ति पाकर ही अपना साहित्यिक दायित्व निभा पाता है। उन्होंने नोट किया था कि यह साहित्य का एक सब से शाश्वत सत्य है कि अपने युग और समाज की असली आकांक्षाओं को केवल वही कृतियाँ अभिव्यक्त करने में क्षमता प्राप्त करती हैं, जिन में लेखक की स्वाधीन चेतना सब से अधिक सजग रूप से त्रि*याशील रहती है। इस दृष्टि से हाल के हिन्दी साहित्य को परखा जा सकता है।
भारत में गत पाँच-छह दशकों में जो बडे-बडे आंदोलन, उद्वेलन हुए, उन में किस का, और कौन-सा निरुपण साहित्य में हुआ है? कुछ चिंताओं, विभीषिकाओं को नोट तक नहीं किया गया, क्योंकि वे राजनीतिक रूप से असंगत, पोलिटिकली इन्करेक्ट, घोषित कर दिए गए। जैसे, कश्मीरी पंडितों का सामूहिक संहार और विस्थापन, अपने ही देश में शरणार्थी हो जाना! इतनी बडी घटना हमारे राष्ट्रीय साहित्य और विमर्श से लुप्तप्राय रही। यह साहित्य की स्वायत्तता को ठुकरा कर उसे राजनीति का अनुचर बनाने की प्रत्रि*या का ही एक आनुषांगिक कुफल था।
हम भूल गए हैं कि साहित्य की प्रासंगिकता स्वयं उस के भीतर की अन्तर्निहित प्रवृत्ति में वास करती है। बाहर की घटनाओं और परिस्थितियों की व्याख्या करने वाले राजनीतिक विचारतंत्र (आइडियोलॉजी) और उस से प्रभावित आलोचनात्मक मानदंड समय के साथ अप्रासंगिक बन जाते हैं, परन्तु कला का अंतर्निहित सत्य नहीं। उदाहरण के लिए, आज उन सैकडों सोवियत उपन्यासों को कौन याद रखता है, जिन्हें कम्युनिस्ट सत्ता ने प्रगतिशील और यथार्थवादी कह कर सम्मानित किया था। किन्तु बूनिन, अन्ना आख्मातोवा, बोरिस पास्तरनाक, सोल्झेनित्सिन, जैसे उपेक्षित, लांछित लेखकों की रचनाएँ आज भी समादृत हैं।
इस से कम से कम अब तो यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि साहित्य की स्वायत्तता का मतलब असामाजिक होना है। सच्चाई बिलकुल उलटी है। जिस हद तक कोई रचना अपने अंतर्निहित सत्य के भीतर स्वायत्त होगी, उस हद तक वह अपने समय के लिए प्रासंगिक होगी। इसी से उन तमाम रचनाओं को परखा जा सकता है जो यहाँ हाल के युग में राजनीतिक प्रभाव में लिखी गईं। उन में प्रायः कृत्रिम शब्दजाल, छिछली भावुकता और मताग्रह के सिवा कुछ न था। फलतः उस ने किसी को नहीं छुआ, न उस का समाज पर कोई प्रभाव हुआ। हमारे असंख्य लेखकों ने अनजाने अपनी मूल थाती, स्वतंत्र चेतना और अनुभूति, को मतवादियों के हाथों गिरवी रख दिया। वे मानसिक पराधीन हो गए। यह भी स्वतंत्र भारत में अधिक हुआ, यह विडंबना भी देखनी चाहिए।
अतः निर्मलजी के शब्दों में, चेखव ने जो बात अपने लिए कही थी, वह साहित्य पर कहीं ज्यादा लागू होती है। उसे अपने भीतर की पराधीनता को बूँद-बूँद निचोडकर बाहर निकालना होगा, ताकि उस की स्वतंत्र आवाज इतिहास की रेल-पेल और कोलाहल में साफ-साफ सुनाई दे सके।
आज हमारे देश में साहित्य पठन और लेखन बडी दुर्बल अवस्था में है। इतनी कि यह समझना और समझा पाना भी कठिन हो गया है। बच्चों, युवाओं की शिक्षा में साहित्य और भाषा का लगभग कोई स्थान नहीं बचा है। जन्म से ही बच्चों को अंग्रेजी से जोडने की मानो प्रतियोगिता चल रही है। फलतः हमारे बच्चे और युवा प्रायः भाषा के संस्कार से वंचित होकर मानसिक अपंग जैसे बन रहे हैं। फलतः अब बाजार में या मीडिया में किसी भी भाषा की गंभीर पुस्तकों की चर्चा तक नहीं होतीं। जो ऐसी पुस्तकें पुस्तकालयों में हैं, वे प्रायः वैसे ही अनपढी पडी रहती हैं। जिस संस्कार, जिस परम्परा-बोध, भाषा के प्रति जिस संवेदना से पुस्तकों से सार्थक रिश्ता बनता है उस रिश्ते के सब तार धीरे-धीरे टूटते जा रहे हैं।
निर्मलजी ने कहा था, मैं आशा करता हूँ कि ऐसा भीषण समय नहीं आएगा जबकि ये तार बिलकुल छिन्न-भिन्न हो जाएँगे और लेखक और पाठक और उस के समाज के बीच का सम्बन्ध हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ईश्वर करे, यह आशा सच हो। अन्यथा वैसे समय के आने और प्रलय में कोई विशेष अंतर नहीं होगा।
***
सम्पर्क - 4/44 एन.सी.आर.टी. क्वाटर्स,
श्री अरविन्दो मार्ग, नई दिल्ली-110016
मो. ९९१००३५५०
समकालीन युग में निर्मल वर्मा वैसे ही एक भारतीय साहित्यकार थे। उन की रचनाओं की देन उन्हें पढकर ही समझी जा सकती है। उस पर लेख लिख, या वक्तव्य देकर हम अधिक से अधिक उस के विषय का उल्लेख भर कर सकते हैं। कुछ परिचय करा सकते हैं। इस निबंध में वही करने का एक प्रयत्न है, अधिकाधिक निर्मलजी के ही शब्दों में। ताकि परिचय अधिक प्रमाणिक रहे। ये विषय हैं - साहित्य का महत्त्व, अर्थ, भाषा का मूल्य, राजनीतिक आग्रह, साहित्य से उस का संबंध, प्रगतिवाद, यथार्थवाद, भारतीयता, इतिहास और विज्ञान, आदि। ये विचार-बिन्दु निर्मलजी की साहित्य रचना में सूक्ष्म रूप में मिलते हैं, जबकि उन के लेखों, वक्तव्यों या साक्षात्कारों में इन पर सीधे बातें कही गयी हैं। वह भी इसलिए, क्योंकि समकालीन युग में साहित्य के बदले मतवाद, नारे, सांगठनिक सक्रियता, आदि का दिनों-दिन अधिक महत्त्व होता गया।
वस्तुतः इसी कारण आज के भारतीय शैक्षिक-बौद्धिक जीवन में साहित्य ही पूरी तरह पृष्ठभूमि में चला गया है। निर्मलजी ने इसे यह कह कर नोट किया था कि हमारे साहित्य (समाज) में जो पोषित करने वाली ऊर्जा थी वह आज मरुस्थल में बदल गई है। हम क्रांति, सामाजिक परिवर्तन, भेद-भाव, उत्पीडन, दलितों, महिलाओं, आदि के बारे में अंतहीन बातें करते रहते हैं। पर हमें मानो संकोच होता है कि हम साहित्य के बारे में बात करें!
साहित्य-विमर्श के नाम पर मुख्यतः और कई बार केवल उन समस्याओं के बारे में बात करते रहते हैं, जो राजनीतिज्ञ, पत्रकार, एक्टिविस्ट लोग करते हैं। लेकिन साहित्यकार की हैसियत से खुद अपने भविष्य के बारे में हम एक शब्द भी कहना पसंद नहीं करते। ऐसे शब्द जो सच्ची अनुभूति संप्रेषित करते हों।
ऐसे करने वाले लेखक अपनी पात्रता तक का ध्यान नहीं रखते। जैसा निर्मलजी ने कहा था, मुझे दलितों के बारे में सुनना है तो मैं किसी सेमिनार में जाऊँगा जहाँ इन समाजशास्त्रीय समस्याओं के बारे में सुंदर पर्चे पढे जाते हैं। पर साहित्यिक चर्चा में इन्हीं विषयों पर दूसरे-तीसरे दर्जे की उधारी बातें सुनने की किसी श्रोता में उत्सुकता नहीं हो सकती।
इसलिए, मूल प्रश्न है कि हम साहित्य के पास क्यों जाते हैं? कभी अवकाश में इस प्रश्न का उत्तर अपने से माँगिए, जैसा निर्मलजी ने पूछा था- मैं निराला की कविता क्यों पढने जाता हूँ, जिसे मैंने पचास बार पढ रखा है? क्योंकि उस में हर बार कोई नया अर्थ, आनन्द, अंतर्दृष्टि मिलती है। जो पहले नहीं मिली थी, या छूट गई थी। वह अर्थ या अंतर्दृष्टि किसी समाजशास्त्री या राजनीतिक का दिया हुआ तथ्य या तर्क नहीं है। टैगोर, टॉल्सटॉय, अज्ञेय, जैसे महान साहित्यकारों के साहित्य में एक दूसरे यथार्थ से हमारा साक्षात्कार होता है। वह सत्य हमें न फिलोसोफी, न मतवादी या मजहबी ग्रंथ, न राजनीतिक पाठ दे सकते हैं। जिस दिन हम समझ लेंगे कि साहित्यिक सत्य का कोई विकल्प नहीं, उस दिन हमें साहित्य की अनिवार्यता का पता चलेगा।
जब तक साहित्य के नाम पर स्थानापन्न मिलते रहेंगे, तब तक साहित्य सदैव गौण स्थिति में पडा रहेगा। कई चतुर लोग साहित्य को समाज या राजनीति के एक अनुचर, सहायक, या औजार के रूप में देखते हैं, चाहे कहते नहीं हैं। पर अचेतन में रहता है कि साहित्य को अमुक और अमुक काम करना चाहिए। पर, जैसा निर्मलजी ने कहा था, हो सकता है कि जो माँग आप साहित्य से कर रहे हैं, उस में साहित्य की कोई दिलचस्पी न हो!
उपयोग दृष्टि से किसी रूसी समालोचक ने शेक्सपीयर के नाटकों को एक मोची के काम से बदतर बताया था। क्योंकि वह नाटक न तो जूता, न ही भोजन दे सकता है। इसलिए कुछ लोग साहित्य को मनोरंजन या भोग-विलास की चीज भी मानते रहे हैं। वैसी स्थिति में, हमें वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, निराला, आदि से कोई लेना-देना नहीं रह जाएगा! पर स्वयं समाज यह नहीं मानता! अन्यथा वह साहित्य सदियों, हजारों वर्षों से क्यों जीवित है? आखिर क्या मिलता है उस से? निर्मलजी कहते हैं टॉल्सटॉय के उपन्यास या निराला की कविताएँ ठिठुरते पैरों को गरमाई न दे सकें, लेकिन ठिठुरती आत्मा को जरूर ऊष्मा देते हैं।
वे पूछते हैं- सभी भौतिक जरूरतों की पूर्ति के बाद मनुष्य में वह कौन सा वीरानापन, कैसा अकेलापन है, या तृष्णा है, जो तब भी बची रहती है? हमारी इस तृष्णा का समाधान कोई मजहबी या राजनीतिक विश्वास, आइडियोलॉजी, कोई अतीत का स्वर्णयुग या भविष्य का यूटोपिया नहीं कर पाता है। इसीलिए साहित्य को कभी किसी का अनुचर या परजीवी न तो मानना, न होना चाहिए।
उदीयमान लेखकों, कवियों को कभी किसी वाद से जीवन पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्हें समझना होगा कि लेखकों को गाँधीवादी, फ्रॉयडवादी, माक्र्सवादी, राष्ट्रवादी, आदि कहना उन्हें सेकेंड क्लास दर्जा दे देना है। साहित्य का सत्य स्वायत्त, शाश्वत होता है। यही उस की मूल्यवत्ता है। इतिहास, राजनीति, विज्ञान, आदि बदलते रहते हैं। साहित्य के मूल्य और गुणवत्ता स्थायी होती है। अन्यथा, वाल्मीकि रामायण या प्लेटो के संवाद या माक्र्स ऑरेलियस के मेडिटेशंस आज भी नहीं पढे जाते। तुलना में देखें कि हाल के बडे-बडे से महामहिम पोप, लेनिन, माओ, या नेहरू के लेखन, भाषण को अब कोई नहीं पूछता।
यह सच्चे साहित्य का महत्त्व है। वह मनुष्य की संपूर्ण छवि को देखने की चेष्टा करता है। यह हमारी अपने-आप से पहचान बढाता है। इसी प्यास को बुझाने के लिए हम शेक्सपीयर, टॉल्सटॉय, टैगोर, निराला जैसों के पास जाते हैं। कभी भी जा सकते हैं। लेकिन किसी की प्यास अगर गंदे नाले के पानी से बुझती हो जो हमारे समाज के बीचो-बीच बहता है - मतवादों या मास-मीडिया का नाला ङ्क्त तो उसे महान साहित्य की जरूरत नहीं है।
अतः साहित्य की पहचान और भूमिका पर स्पष्टता रहनी चाहिए। निर्मलजी के अनुसार आज साहित्य के भीतर की सब से बडी बीमारी है जब इस में फॉरेन एलीमेंट्स आपरेट करने लगते हैं, बाहर से आया हुआ कोई कीटाणु। उसे निकालना होगा, तभी साहित्य स्वस्थ होगा। अपना स्वरूप प्राप्त करेगा, और अपना कार्य कर सकेगा। निर्मलजी के शब्दों में, गलत सवालों का सच हम कभी न कभी पा लेंगे, पर झूठे प्रश्नों का कभी अन्त नहीं होता... मेरी समझ में लेखक की प्रतिबद्धता, उस की राजनीति, पार्टनर की पॉलिटिक्स ... यह सब झूठे प्रश्न हैं। जब लोग कहते हैं कि अच्छा सहित्य नहीं बिकता, तब वे भूल जाते हैं कि साहित्य के बारे में झूठी मान्यताएँ और उस के नाम पर नकली सामग्री की भरमार भी उस का एक कारण है। जब हम झूठे प्रश्नों से मुक्ति पा लेंगे, साहित्य के मर्म और सत्य की तरफ आएँगे, तभी साहित्य उपेक्षित चीज नहीं रहेगा।
उन झूठी मान्यताओं के प्रभाव में ही कहा जाता है कि ऐसा साहित्य लिखना चाहिए जिसे किसान, मजदूर, छोटे लोग समझ सकें। जबकि बात उलटी है। हमें ऐसे समाज का निर्माण करना है जिस में हर व्यक्ति निराला या अज्ञेय की दुरुह से दुरूह कविताओं को समझ सके। निर्मलजी के अनुसार, आप साहित्य को समाज के लोएस्ट नोमिनेटर पर लाकर अवमूल्यित करना चाहते हैं और इस के लिए हर तरह के बहाने, सिद्धांत गढते हैं। इसीलिए आज गंभीर पुस्तकें बाजार में नहीं दिखतीं या पुस्तकालयों में उपेक्षित पडी रहती हैं। क्योंकि जिस संस्कार, जिस परम्परा-बोध, भाषा के प्रति जिस संवेदना से उन से सार्थक रिश्ता बनता है उस रिश्ते के सब तार धीरे-धीरे टूटते जा रहे हैं।
इसीलिए, जब निर्मलजी से पूछा गया कि क्या साहित्य अपनी प्रासंगिकता नहीं खो रहा है? तो उन्होंने कहा, क्या यह अजीब विडंबनापूर्ण स्थिति नहीं होगी कि आने वाले समय में हम जिस चीज को साहित्य समझ रहे हों, वह कुछ और हो... शब्दों की बनी काया, जिस में कोई साहित्येतर जीव साँस ले रहा हो? जिसे हम साहित्य समझ रहे थे, उस के भीतर किसी और की प्रेतछाया छिपी हो?
हर हाल में, हमें साहित्य का असली स्वरूप पहचानने की क्षमता जुटानी होगी। पहले सुपात्र पाठक बनना होगा। तभी स्वयं साहित्य को पहचान सकने का विवेक मिलेगा। साहित्यिक वेशभूषा में अभिनीत होते लेखन के पीछे की असलियत मालूम होगी। यह विचार-विमर्श से अधिक अनुभूति का क्षेत्र है। यदि हर उपन्यास, कहानी और कविता हमें अनूठा स्वाद तथा रस और आनन्द देती है, तो उन के बीच एक सामान्य केंद्रीय तत्व अवश्य होगा, जो उसे साहित्य का दर्जा देता हो। वह सामान्य तत्व क्या है, इसे खोज पाना आसान नहीं; किन्तु उस तत्व का प्रादुर्भाव ही अनुभूति की उर्वरा भूमि पर होता है।
आज साहित्य की गणना समाज-संबंधी अनुशासनों ह्यूमैनिटीज, यानी समाजशास्त्र, इतिहास, आदि के साथ की जाती है। निर्मलजी के अनुसार, यह आश्चर्यजनक है। क्योंकि ऊपरी दृष्टि से जरूर साहित्य में भी अध्ययन विषय मनुष्य ही है। पर अन्तर यह है कि जहाँ अन्य शास्त्रों में मनुष्य एक अन्य है, एक ऑब्जेक्ट- जिसे बाहर से देखता-परखा जाता है। वहाँ साहित्य में देखने-परखने वाला व्यक्ति स्वयं मैं हूँ, एक सब्जेक्ट, जो साहित्य में एक ऑब्जेक्ट की तरह अपने को प्रतिबिम्बित होता हुआ पाता है।
निर्मलजी के शब्दों में, मेरे लिए साहित्य में आना एक तरह से ऐसे कक्ष में प्रवेश करना है ... जहाँ चारे तरफ आइने लगे हैं, हॉल ऑफ मिरर्स, जिस में मेरे मैं की एक अखंडित सत्ता अनेक छवियों में विभाजित होती जाती है- मैं ही हैमलेट हूँ और किंग लियर भी... महाभारत का कर्ण भी मैं हूँ और कुन्ती भी...। साहित्य में मेरे व्यक्तित्व की समस्त प्रच्छन्न संभावनाएँ चरितार्थ हो जाती हैं, जो वास्तविक जीवन में केवल भू*ण अव्सथा में रहने के लिए बाध्य हैं...।
आम जीवन और समाजशास्त्र, इतिहास जैसे विवरणों में भी मनुष्य का एक छोटा-सा अंश ही हमें आइसबर्ग की तरह पानी के ऊपर उजाले में दिखाई देता है। बाकी हिस्से चूँकि सतह के नीचे डूबे रहते हैं, उस से उन का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। साहित्य रचना उसी आमूल अस्तित्व को छूती, जगाती है। इसी रूप में वह हमारी पहचान हम से ही कराने में सहायक होती है। सभी लेखन साहित्य नहीं होता। निश्चय ही हर अनुभव भाषा के माध्यम से ही संप्रेषित होता है, किन्तु हर संप्रेषित होने वाला अनुभव साहित्य नहीं होता।
निर्मलजी ने इसे अजीब विडंबना के रूप में देखा था कि कुछ समय से हमारा अधिकांश कथा साहित्य उन्हीं प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिन के बिना स्वयं मनुष्य का मनुष्यत्व एकांगी, अधूरा और बंजर पडा रहता है। साहित्य लेखन और विमर्श में यथार्थवाद के नाम पर मनुष्य को उस यथार्थ से ही विलगित कर दिया गया जो उस के जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है। जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों से बाहर शायद ही किसी लेखक ने मनुष्य की अस्तित्वगत विडम्बनाओं को अपने कथा-साहित्य में जगह देना जरुरी समझा |
उसी से संबंधित प्रश्न यह भी है कि क्या साहित्य में यथार्थ वैसे ही प्रकट होता है जैसा घट रहे जीवन में? जो अनुभव दैनिक जीवन में हमें नितान्त मायावी, असंगत, अस्वभाविक जान पडते हैं, वही साहित्य में आश्चर्यजनक विश्वसनीयता प्राप्त कर लेते हैं। यह एक अनोखी स्थिति है। जो संवेदनशील लोग ही अनुभव कर सकते हैं। निर्मलजी ने इसे एक बडे लेखक के वास्तविक अनुभव से दर्शाया है। एक बार प्रसिद्ध माक्र्सवादी समालोचक जार्ज लुकाच ने काफ्का की रचनाओं को थामस मान की रचनाओं की तुलना में गैर-यथार्थवादी कहा था। पर जब उन के अपने देश, हंगरी में सोवियत सेना का आगमन (1956 ई.) हुआ तो उन्हें भागकर रोमानिया दूतावास में शरण लेनी पडी। एक बडे माक्र्सवादी को दूसरे माक्र्सवादी के भय से। तब उन्हें यह भोग इतना तार्किक, एब्सर्ड लगा कि पहली बार उन्हें काफ्का के उपन्यासों का यथार्थ तात्कालीन युग के लिए सब से अधिक प्रासंगिक जान पडा था।
अतः प्रश्न यथार्थ को नकारने का नहीं, बल्कि यथार्थवाद को विभिन्न सींखचों से मुक्त करने का है। यहीं पर विचार और विचारतंत्र, आइडिया और आइडियोलॉजी, का अंतर ध्यान रखने की बात हो जाती है। विचार स्वतंत्र होते हैं, पर कोई भी विचारतंत्र (आइडियोलॉजी) विचारों को बाँधने, रोकने का काम करता है। चाहे कितने भी अच्छे उद्देश्य का हवाला देकर, किन्तु वह मनुष्य की विचारशीलता का अंततः हनन ही करता है! यह लगभग फौरन शुरू हो जाता है। इसे किसी आइडियोलॉजी में बाद में आई विकृति आदि कहना बडी भूल है।
इसीलिए, भारतीय ज्ञान-परंपरा में आइडियोलॉजी जैसी चीज ही नहीं रही है। भारतीय मनीषियों ने शास्त्रार्थ और संप्रदाय की खुली परंपरा ही बनाई। जिस में नए-नए संप्रदाय बनने का मार्ग सदैव खुला रहा है। एक-दूसरे का सम्मान भी, चाहे किसी भी विचार बिन्दु पर कितनी भी भिन्नता हो। किसी भिन्न विचार को लीप-पोत कर मिटाने, जबरन रोकने, आदि का उपाय कभी नहीं किया गया। उसे बुरा माना गया। यही भारतीय जन-गण की सहज उदारता, विविधता और समृद्ध ज्ञान पंरपरा का भी कारण है।
इस संदर्भ में ही तरह-तरह की आइडियोलॉजियों को समझा जाना चाहिए। प्रगतिवाद, यथार्थवाद, सेक्यूलरवाद, आदि की भद पिटने के बाद हाल में भारतीयता पर बहस के बहाने पिछले दरवाजे से फिर वही दबाव बनाने का यत्न हुआ है। आजकल उसे आइडिया ऑफ इंडिया करके रखा जाता है।
निर्मलजी ने सही ध्यान दिलाया था कि जब हमारे देश का साहित्यकार सच्चे अर्थों में अपने परंपरा-बोध और संस्कारों में भारतीय था - जैसे, बंगला में रवीन्द्रनाथ, मराठी में खांडेकर, तमिल में भारती, हिन्दी में प्रसाद, निराला. प्रेमचंद, आदि - तब भारतीयता की चर्चा शायद ही कभी होती थी। क्योंकि जब लेखक अपनी जडों से सहज ही जुडा होता है तब वह अपनी अस्मिता का ढिंढोरा नहीं पीटता। न वह तथाकथित अभारतीय तत्त्वों के काँटों को चुनकर अपनी साहित्य-वाटिका से हटाने-बुहारने का उपऋम करता है। लेकिन, विचित्र बात है, कि जो हमारे पूर्वजों के लिए महत्त्वहीन-सा प्रश्न था, वह सहसा ऐसा बडा बन गया है कि साहित्य के मूल्याकंन में कसौटी से अधिक लाठी की तरह इस्तेमाल हो रहा है। यही आज के राजनीतिग्रस्त लेखन की देन है।
वस्तुतः सदियों की दासता ने हमारी मानसिकता, वैचारिक स्वायत्तता, काल-बोध और जीवन-शैली को जिन गहन स्तरों पर प्रभावित किया है कि हम अपनी पहचान के प्रति शंकालु हो गए हैं। दुर्भाग्यवश, यह स्वतंत्र भारत में अधिक हुआ जब विदेशी शासक नहीं रहे। लेकिन अनेक हानिकर विदेशी मतवादों को आधुनिक, वैज्ञानिक, आदि कहकर अनजान जनता के मध्यवर्गीय हिस्से में अधिकाधिक प्रतिष्ठित कराया गया। समय के साथ अब स्वयं हमारे नीति-निर्माता, नेता, लेखक, प्रोफेसर उसी से ग्रस्त होकर सारी शिक्षा और विमर्श चौपट कर रहे हैं। निर्मलजी के अनुसार, शिक्षा-संस्कृति में हमारी ऐसी असहायता विदेशी ब्रिटिश शासन में भी नहीं थी। हम जो हैं, उसे भूलकर कुछ और होने की कोशिश करते रहे हैं। यह उपक्रम संस्कृति के हर क्षेत्र में हो रहा है। विदेशी भाषा में दी गई शिक्षा-पद्धति में, कला के सौदर्य-बोध में, मूल्याकंन के मापदंडों में, जिस के कारण हम ने अपनी संस्कारगत परंपरा से प्राप्त जातीय-चेतना को गँवा दिया है।
भारतीयता का प्रश्न केवल लेखक, विचारक के लिए नहीं है। निर्मलजी के अनुसार, यह हर संवेदनशील भारतीय के लिए अपनी खोई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे से निकाल कर दिन के उजाले में लाने से जुडा है। ताकि हम अपने चेहरे को वैसा देख सकें, जैसा वह है। इस अर्थ में भारतीयता की खोज कोई पुनरुत्थानवादी प्रयास न होकर स्वयं अपनी चेतना से विस्मृति की धूल पोंछने का प्रयास है।
यह सभी कार्य केवल भाषा के माध्यम से हो सकते हैं- अपनी भाषा के माध्यम से। अपने समाज की भाषा। इस का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, यह भी स्वतंत्र भारत की एक विकट समस्या बन चुका है। अपनी भाषाओं की दुर्गति हम ने अपने हाथों से की है, और निरंतर उसी दिशा में बढ रह हैं।
अपनी जातीय-स्मृति, अपनी ज्ञान-संस्कृति परंपरा से जुडे रहने का मूल माध्यम भाषा ही है। कुछ और हो ही नहीं सकता। इस का अर्थ यह भी है जैसे ही कोई अपनी भाषा छोडते हैं, वैसे ही उस से जुडी ज्ञान-संस्कृति को छोड देना तय कर लेते हैं। चाहे वह क्रमशः हो, अनजाने हो, तथा वैसी कोई इच्छा न होने के बावजूद हो। परन्तु ठोस तथ्य यह है कि भाषा छूटने पर उस से जुडी संस्कृति छूटेगी ही। अपवाद अलग हैं।
भाषा का प्रश्न समूची सांस्कृतिक मनीषा से जुडा है। क्या इस मनीषा की महीन बुनावट किसी भाषा में परिलक्षित हो सकती है जिसमें भारतीय संस्कार और स्मृतियों का निपट अभाव है? हम सोचते हैं कि शब्दों का चुनाव हम कर रहे हैं, जबकि शब्द अपनी सत्ता-मात्र से हमें एक ऐसे विशिष्ट संवेदन-तन्त्र से जोड देते हैं, जिस की लय हमारे समूचे कल्पना-विधान को अनुप्राणित करती है। हम चाहे किसी देश या काल में लेखकों के कृतित्व से प्रेरणा लें, पर उस के प्रभाव का अपनी भाषा में कायाकल्प सा हो जाता है।
इस का विपरीत भी सत्य है। जैसे ही हम किसी समाज की विशिष्ट जातीय संस्कृति को एक विजातीय भाषा में व्यक्त करते हैं, वैसे ही उस के अर्थ बदलने लगते हैं। नियमित ऐसा करते रहने से वह पूरी तरह विकृत और भ्रष्ट तक हो जाती है। अपवाद और बात है। किन्तु आम तौर पर सारी इंडोलॉजी और आइडिया ऑफ इंडिया की बहसों में यह साफ देखा जा सकता है। यदि वही बातें भारतीय भाषाओं में कही जातीं, तो उन की विकृति इतनी साफ दिखती कि वे चार कदम भी नहीं चल पातीं। किन्तु विदेशी भाषा में वे न केवल खूब चलती हैं, बल्कि उस का दबदबा कथित हिन्दूवादियों, राष्ट्रवादियों तक पर है।
निर्मलजी ने भी यह विडंबना नोट की थी कि आज पश्चिमी देशों में केवल अंग्रेजी में रची भारतीय लेखकों की रचनाएँ भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व करने लगी हैं। भारतीय भाषाओं का साहित्य क्षेत्रीय बन कर रह गया है। यही नहीं, अंग्रेजी में अनुदित भारतीय साहित्य के आधार पर भी भारतीय साहित्य का आकलन असंभव है। अनुवाद में रेणु दोयम दर्जे के विक्रम सेठ ही लगेंगे।
भाषा का प्रश्न निर्मलजी ने इसलिए भी गंभीर माना था क्योंकि आज लेखकों ने भाषा के प्रति एक अजीब उदासीन-सा रवैया अपना लिया है। मानो भाषा पर बात करना एक रूपवादी, कलावादी शगल हो। परन्तु निर्मलजी ने प्रतिबद्धता का प्रश्न भाषा के प्रति ही देखा था। न कि किसी आइडियलॉजी, पार्टी, राजनीति, या मत के प्रति। भाषा में ही संस्कृति प्रतिष्ठित रहती है। उसी में किसी रचना का सत्य, सौंदर्य भी अन्तर्निहित होता है। निर्मलजी के शब्दों में, एक कविता और कहानी भाषा का वह मोनोलॉग, एकालाप है जो वह संसार से करती है, किन्तु उस में हर पाठक का संसार अपनी वाणी पा लेता है। लेखक महज एक माध्यम है भाषा के इस मोनोलॉग को अपनी रचना में दर्ज करने का जिसे वह एक ईव्स ड्रापर की तरह दरवाजे के पीछे से सुनता है।
इस से लेखक की जिम्मेदारी दुहरी हो जाती है। न केवल भाषा के प्रति, बल्कि अपने प्रति भी। एक माध्यम के तौर पर वह जितना अपने अहं के पूर्वाग्रहों से मुक्त होगा उतना ही उस की रचना का सत्य बिना किन्हीं मतवादी आग्रहों से दूषित हुए अपनी उज्ज्वलता के साथ प्रकट हो सकेगा। संभवतः यही कारण है कि टॉल्सटॉय जैसे एक महानतम लेखक के कथा-साहित्य और वैचारिक निबंधों में भिन्नता की झलक मिलती है। इस दृष्टि से, निर्मलजी के शब्दों में, एक लेखक और एक सन्यासी में भेद बहुत कम रह जाता है। दोनों को अपनी साधना का फल पाने के लिए अपने अहं के दुराग्रहों से मुक्त होना पडता है।
कोई सच्चा लेखक बाहर से आरोपित प्रतिबद्धताओं से मुक्ति पाकर ही अपना साहित्यिक दायित्व निभा पाता है। उन्होंने नोट किया था कि यह साहित्य का एक सब से शाश्वत सत्य है कि अपने युग और समाज की असली आकांक्षाओं को केवल वही कृतियाँ अभिव्यक्त करने में क्षमता प्राप्त करती हैं, जिन में लेखक की स्वाधीन चेतना सब से अधिक सजग रूप से त्रि*याशील रहती है। इस दृष्टि से हाल के हिन्दी साहित्य को परखा जा सकता है।
भारत में गत पाँच-छह दशकों में जो बडे-बडे आंदोलन, उद्वेलन हुए, उन में किस का, और कौन-सा निरुपण साहित्य में हुआ है? कुछ चिंताओं, विभीषिकाओं को नोट तक नहीं किया गया, क्योंकि वे राजनीतिक रूप से असंगत, पोलिटिकली इन्करेक्ट, घोषित कर दिए गए। जैसे, कश्मीरी पंडितों का सामूहिक संहार और विस्थापन, अपने ही देश में शरणार्थी हो जाना! इतनी बडी घटना हमारे राष्ट्रीय साहित्य और विमर्श से लुप्तप्राय रही। यह साहित्य की स्वायत्तता को ठुकरा कर उसे राजनीति का अनुचर बनाने की प्रत्रि*या का ही एक आनुषांगिक कुफल था।
हम भूल गए हैं कि साहित्य की प्रासंगिकता स्वयं उस के भीतर की अन्तर्निहित प्रवृत्ति में वास करती है। बाहर की घटनाओं और परिस्थितियों की व्याख्या करने वाले राजनीतिक विचारतंत्र (आइडियोलॉजी) और उस से प्रभावित आलोचनात्मक मानदंड समय के साथ अप्रासंगिक बन जाते हैं, परन्तु कला का अंतर्निहित सत्य नहीं। उदाहरण के लिए, आज उन सैकडों सोवियत उपन्यासों को कौन याद रखता है, जिन्हें कम्युनिस्ट सत्ता ने प्रगतिशील और यथार्थवादी कह कर सम्मानित किया था। किन्तु बूनिन, अन्ना आख्मातोवा, बोरिस पास्तरनाक, सोल्झेनित्सिन, जैसे उपेक्षित, लांछित लेखकों की रचनाएँ आज भी समादृत हैं।
इस से कम से कम अब तो यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि साहित्य की स्वायत्तता का मतलब असामाजिक होना है। सच्चाई बिलकुल उलटी है। जिस हद तक कोई रचना अपने अंतर्निहित सत्य के भीतर स्वायत्त होगी, उस हद तक वह अपने समय के लिए प्रासंगिक होगी। इसी से उन तमाम रचनाओं को परखा जा सकता है जो यहाँ हाल के युग में राजनीतिक प्रभाव में लिखी गईं। उन में प्रायः कृत्रिम शब्दजाल, छिछली भावुकता और मताग्रह के सिवा कुछ न था। फलतः उस ने किसी को नहीं छुआ, न उस का समाज पर कोई प्रभाव हुआ। हमारे असंख्य लेखकों ने अनजाने अपनी मूल थाती, स्वतंत्र चेतना और अनुभूति, को मतवादियों के हाथों गिरवी रख दिया। वे मानसिक पराधीन हो गए। यह भी स्वतंत्र भारत में अधिक हुआ, यह विडंबना भी देखनी चाहिए।
अतः निर्मलजी के शब्दों में, चेखव ने जो बात अपने लिए कही थी, वह साहित्य पर कहीं ज्यादा लागू होती है। उसे अपने भीतर की पराधीनता को बूँद-बूँद निचोडकर बाहर निकालना होगा, ताकि उस की स्वतंत्र आवाज इतिहास की रेल-पेल और कोलाहल में साफ-साफ सुनाई दे सके।
आज हमारे देश में साहित्य पठन और लेखन बडी दुर्बल अवस्था में है। इतनी कि यह समझना और समझा पाना भी कठिन हो गया है। बच्चों, युवाओं की शिक्षा में साहित्य और भाषा का लगभग कोई स्थान नहीं बचा है। जन्म से ही बच्चों को अंग्रेजी से जोडने की मानो प्रतियोगिता चल रही है। फलतः हमारे बच्चे और युवा प्रायः भाषा के संस्कार से वंचित होकर मानसिक अपंग जैसे बन रहे हैं। फलतः अब बाजार में या मीडिया में किसी भी भाषा की गंभीर पुस्तकों की चर्चा तक नहीं होतीं। जो ऐसी पुस्तकें पुस्तकालयों में हैं, वे प्रायः वैसे ही अनपढी पडी रहती हैं। जिस संस्कार, जिस परम्परा-बोध, भाषा के प्रति जिस संवेदना से पुस्तकों से सार्थक रिश्ता बनता है उस रिश्ते के सब तार धीरे-धीरे टूटते जा रहे हैं।
निर्मलजी ने कहा था, मैं आशा करता हूँ कि ऐसा भीषण समय नहीं आएगा जबकि ये तार बिलकुल छिन्न-भिन्न हो जाएँगे और लेखक और पाठक और उस के समाज के बीच का सम्बन्ध हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ईश्वर करे, यह आशा सच हो। अन्यथा वैसे समय के आने और प्रलय में कोई विशेष अंतर नहीं होगा।
***
सम्पर्क - 4/44 एन.सी.आर.टी. क्वाटर्स,
श्री अरविन्दो मार्ग, नई दिल्ली-110016
मो. ९९१००३५५०