शिमला और निर्मल
गगन गिल
तीन अप्रैल, 1929 की दोपहर को उनका जन्म हुआ था। करीब साढे ग्यारह- बारह बजे। कैथू की हरबर्ट विला में।
हरबर्ट विला का घर सन् 1990 में, जब उसे दिखाने मुझे निर्मल ले गए, करीब साठ साल बाद भी इतना बडा था कि उसके दालान में बच्चों की टीम आराम से बेडमिंटन खेल सके। घर के सामने, नीचे की ढलान पर एननडेल का मैदान था. गोल्फ कोर्स, जहाँ कभी अंग्रेज युवक-युवतियाँ घुडसवारी किया करते थे। निर्मल और उनके जैसे भारतीय बच्चे ऊपर से अंग्रेजों को देखते होंगे, कौतुक और सम्मोहन से, कि माल रोड पर तो भारतीयों का आना मना था।
माल रोड पर अंग्रेजों को देखना हो. तो लोअर बाजार की सीढियाँ चढ कर ही देख सकते थे, जहाँ से मेमों का चेहरा नहीं उनकी नंगी टाँगे दिखती थीं, निर्मल ने बताया था, शिमला की उस यात्रा में।
उन दिनों अंग्रेजों की राजधानी आधा साल दिल्ली, आधा साल शिमला में काम करती थी। कभी-कभी पूरा साल ही शिमला में बनी रहती। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिडने से पहले तक यही रवायत थी। युद्ध छिडने के बाद राजधानी ऊपर नहीं गयी- रामकुमार बताते हैं, निर्मल के बडे भाई, यशस्वी चित्रकार रामकुमार।
निर्मल के बाऊजी, श्री नंदकुमार वर्मा, अंग्रेजों के सेना मुख्यालय में काम करते थे, क्यू एम जी ब्राँच में। क्यू एम जी माने क्वार्टर मास्टर जनरल।
बाऊजी और तायाजी अपने जमाने के केवल दो बीए पास थे, पूरी पटियाला रियासत में। अंग्रेज सरकार की नौकरी में आने से पहले बाऊजी लाहौर में महाराजा कॉलेज के वार्डन यानी राजकुमार छात्रों के वार्डन हुआ करते थे।
बाऊजी यारबाज तबीयत के थे, शायद ही कभी दफ्तर से सीधे घर लौटते हों। वह क्लब जाते थे, टेनिस खेलते थे, दोस्तों के साथ शाम का ड्रिंक लेते थे। ज्यादातर दोस्त उनके सरदार थे- रामकुमार हँसते हैं - बाद में जब निर्मल ने तुमसे विवाह किया तो निर्मल के एक दोस्त ने, जिसकी बीवी भी सरदारनी थी, कहा. यार हम लोगों को एक यूनियन बना लेनी चाहिए।
तायाजी बैंकर थे, शिमला बैंक में डायरेक्टर। बैंक से एक बार घर लौटने पर शायद ही वापस बाहर जाते थे। उन्हें पढने का शौक था और रेडियो सुनने का। वे दूसरी जंग की खबरें सुनते रहते और नक्शे पर झंडे को आगे-पीछे बढाते रहते, जैसा भी खबरें बतातीं कि हिटलर की फौजें यहाँ तक आ पहुँचीं। रेडियो सुन-सुन कर उन्होंने चार भाषाएँ सीख ली थीं।
इंग्लैंड वापस लौट रहे एक अंग्रेज अफसर से तायाजी ने उसकी सारी लायब्रेरी खरीद ली थी और उसका पियानो भी। तायाजी खुशी-खुशी अपनी किताबें बच्चों को देखने देते, खासकर निर्मल-रामकुमार को।
पियानो उनकी बैठक में एक ओर पडा शोभा बढाता रहता, उसे बजाना पूरे खानदान में किसी को न आता था।
बाऊजी मस्त मौला थे, तायाजी डिसिप्लिन पसंद। तायाजी के तीन बेटे पैदा होते ही मर गए थे। पत्नी कुबडी हो गयीं थीं और किसी भतीजे के यहाँ रहती थीं, अनबन के कारण।
मालूम नहीं, बाल निर्मल ने किस की जच्चगी देखी थी छिपकर, माँजी की या तायीजी की। लालटीन की छत के नौकर मंगतू की टाँगों से चिपटी बच्ची काया थी या बाल निर्मल? नौकर की टाँगों में बँधी पट्टियाँ, उसकी तकलीफ, उनके घर के नौकर की सच्ची कहानी जान पडते थे।
नौकर वर्मा परिवार का जरूरी अंग थे, लगभग उनके पारिवारिक सदस्य। ये उनके संग पहाडों पर जाते, वहाँ से लौटते। बच्चों के राजदार। बडों की दुनिया में उनके सबसे करीब। बीच रास्ते में।
उनकी कई छवियाँ निर्मल के यहाँ मिलती हैं - लालटीन की छत, अंतिम अरण्य, सुबह की सैर आदि।
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बाऊजी की बजाय तायाजी ही बच्चों की पढाई में दिलचस्पी लेते थे, हालॉकि रामकुमार का मानना है, उन लोगों में पढने के गुण तायाजी से नहीं, अपने बाबा से आए होंगे, जो पटियाला में मास्टर रहे थे, जिन्होंने अपनी जमा-पूँजी खर्च करके दोनों बेटों को बीए तक पढाया था, जो बुढापे में आँखें कमजोर होने पर अपने पोतों से, खास कर निर्मल से, इकन्नी इनाम देकर कल्याण पत्रिका की कहानियाँ पढवाया करते थे और जिनके संदूक में, मरने के बाद, सिर्फ किताबें निकली थीं।
तायाजी में साहबों वाली ठसक थी, बाऊजी संयमी थे। उन दिनों छोटा शिमला से लेकर वाइस रीगल लॉज (अब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज) तक का इलाका अंग्रेजों का था। एक सिरे से दूसरे तक सीधी रेखा में। हिंदुस्तानी खड्डों में रहते थे, अंग्रेजी लक्ष्मण रेखा से नीचे, कैथू जैसी निचली जगहों पर। अंग्रेजों की दुम लगे भारतीय संजौली जैसे इलाके में, अंग्रेजी रेखा (माल रोड) के परले सिरे पर।
हालांकि दोनों भाई ओहदेदार थे, बाऊजी कैथू में रहते आए, तायाजी संजौली में। इससे दोनों भाईयों की शख्सियत का कुछ जायजा मिलता है।
दिल्ली लौटने पर बाऊजी को रहने को, बहैसियत अंग्रेज सरकार के नौकरशाह फीरोजशाह रोड, कुशक रोड, क्वीन मेरी एवेन्यू (अब पंत मार्ग) की कोठियाँ मिलती थीं। कैथू में बाऊजी एक अंग्रेज की मिल्कियत वाले घर, हरबर्ट विला में निर्मल के जन्म के बाद कई बरस तक उसी के साथ सटे भज्जी हाउस में सपरिवार आकर रहते रहे। शिमला में भज्जी के राजा का घर था भज्जी हाउस।
लकडी और सीमेंट का बना हरे रंग का यह मकान 1 जनवरी 1990 की सुबह जब निर्मल मुझे दिखाने ले गए, हमारे विवाह के कोई पौने दो महीने बाद, और उसके साथ का हरबर्ट विला उनका जन्म स्थान, उनके कदमों की लोच देखते बनती थी। वह जैसे पाँच साल के हो गए थे, उत्साही और वाचाल, और मैं उनकी बाल-सखी बानो, दूर कहानी अँधेरे में की बानो, जिसे वह अपने सब राज दिखाने लाये थे। यह और बात है, कि जब वह कहानी लिखी गयी थी, इस पृथ्वी पर मेरा कोई अता-पता न था।
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अपने माता-पिता की आठ संतानों में से सातवें थे निर्मल।
आधे साल के हिसाब से, उनके जन्म के उस साल, सन् 1929 में, यदि अंग्रेजों की राजधानी नीचे से ऊपर आई होगी, तो मेरा अनुमान है, यह अप्रैल का महीना रहा होगा, कि मार्च का महीना तो दिल्ली में भी खुशगवार रहता है।
यदि यह सही हो, तो दिल्ली से माता-पिता, पाँच भाई-बहनों (सबसे बडी बहन पदमा बेवे की शादी कानपुर में हो चुकी थी), नौकर और दादाजी की पलटन के पहुँचने के तीन दिन के भीतर ही निर्मल आन बिराजे होंगे। हिमालय के पहाड देखने को उतावले। साढे ग्यारह- बारह बजे दिन में।
मैं आगे के कमरे में खेल रहा था जब दाई ने आकर मुझे बताया, तुम्हारा भाई हुआ है। निर्मल से पाँच साल बडे रामकुमार बताते हैं। सब भाई-बहनों में रामकुमार ही हैं, जिन्होंने निर्मल को पहली साँसें लेते हुए देखा और अंतिम भी।
आज सन् 2012 की हरबर्ट विला में पीछे का एक कमरा, लकडी के फर्श और दीवार में अंगीठी वाला, पुरानी तर्ज वाला, अभी तक आश्चर्यजनक रूप से बचा है। इस या ऐसे ही किसी पिछले कमरे में निर्मल का जन्म हुआ होगा हालाँकि विला के कई कमरे अब नये जमाने के रंग-ढंग में मरम्मत हो तबदील हो चुके हैं। लकडी की बजाय फर्श सेरेमिक टाइल्स का हो गया है। शिमला का एक सम्भ्रांत व्यवसायी परिवार बल्कि घराना पिछले तीस वर्षों से वहाँ रहता है।
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निर्मल के जन्म की इसी कल्पना को अगर थोडा और आगे बढाऊँ कि उस साल, सन् 1929 में, शायद छह महीने बाद राजधानी नीचे भी गयी होगी, तो संभवतः छह महीने की नन्ही उम्र में बाल निर्मल ने शिमला की जादुई छुक-छुक से पहली रेल यात्रा की होगी। 107 सुरंगों, 20 स्टेशनों, 864 पुलों पर से गुजरती खिलौना रेल जिसे एक दिन यूनेस्को से धरोहर का दर्जा मिलना था।
इस ट्रेन के अनंत बिंब निर्मल कथाओं में भरे पडे हैं, पहाडों के घुमाव, रास्ते की सुरंगें, कभी रेल के ऊपर से, कभी पुल के ऊपर से, कभी पटरियों के एकदम पास। लाल टीन की छत की बच्ची काया की तरह उसका बाल लेखक भी यहाँ मँडराता होगा, समरहिल, शिमला में रेल रास्ते के आसपास।
दिल्ली जाते समय बाबाजी ट्रेन छूटने से कई घंटे पहले सारी पलटन समेत शिमला स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाते थे। बच्चे ऊधम मचाते घूमते। माँजी झल्लातीं, मुझे क्या पता था, मेरे पेट में से ये महाभारत की फौज निकलेगी बाबाजी कहते, वक्त चुटकियों में बीतेगा - रामकुमार की जुबानी।
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छह महीने का बच्चा अपने आसपास क्या देखता होगा? दो साल का क्या? पाँच साल का क्या? हम कुछ भी नहीं जानते, निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं, लेकिन निर्मल की कथाएँ पढें अँधेरे में, पहाड, लालटीन की छत, अंतिम उपन्यास चुप होता हुआ समय के अंश तो कुछ-कुछ समझ में आता है। वह सब उसी बाल-उम्र में छप गया होगा उनके भीतर, उनके मन पर। सिर्फ लिखा उन्होंने उसे बाद में। ठहर-ठहर कर।
अँधेरे में कहानी से एक उद्धरण है -
बीच की तीन पगडंडियों को पार करके बानो आती थी। इन पहाडों के पीछे दिल्ली है। है न बानो?
बानो ने सिर हिला दिया, उसे दिल्ली की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, उस बेचारी ने अब तक दिल्ली नहीं देखी थी।
मेरे अलूचे तुम ले लेना बानो।
तुम्हारे गले सडे अलूचे कौन खाएगा! जब दिल्ली जाओगे, अपनी पोटली में बाँधकर साथ ले जाना।
बानो खीज कर बाहर भाग गई। इन दिनों मेरे कमरे में आने से पहले बानो की तलाशी ली जाती थी कि कहीं वह खट्टे अलूचे और कच्ची बानियाँ लुका-छिपा कर भीतर न ले आए । उसके दुपट्टे के सिरे में नमक-मिर्च की पुडिया बँधी रहती - बीमारी से पहले हम अलूचों को उनमें भिगो कर चटनी बनाया करते थे।
निर्मल की आरंभिक कहानियों में से एक यह कहानी अँधेरे में । सन् 1957 के आसपास प्रकाशित। उन दिनों दिल्ली के करोल बाग वाले घर की बरसाती में लिखी गयी कहानियों में से एक।
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बाऊजी ने रिटायर होते-होते नयी दिल्ली के वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया में वह मकान खरीदा था। हर मंजिल पर एक बडी बैठक, दो बेड रूम का सेट। नीचे की मंजल में किरायेदार थे, बीच की मंजल में बैठक पर बाऊजी का एकछत्र अधिकार था, रसोई के साथ लगते बेडरूम पर माँजी का, सामने का कमरा कहलाता तो निर्मल का था हालाँकि छोटी बहन निर्मला, जिनकी अभी शादी नहीं हुई थी, उस पर बराबर की काबिज थीं। ऊपर की बरसाती रात के समय रामकुमार-विमला भाभीजी की थी। दिन के समय उसमें एक ओर रामकुमार का ईजल लगा होता, एक ओर छोटे-से मेज पर निर्मल बैठे लिखते, निर्मला किसी न किसी बहाने वहीं एक तरफ कुर्सी पर बैठी होती। बडे भाई साहब सेना में कर्नल थे, सो उस घर में रहने वाले वर्मा खानदान के बाशिंदे यही सब थे।
एक दिन निर्मल अपने लिखने की मेज से उठ कर कहीं गए तो देखा निर्मला ने, सारा पन्ना कटा पडा है, जबकि वह समझ रही थीं, यह सारा समय निर्मल लिख रहे थे।
लिखते कम, काटते ज्यादा थे निर्मल।
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अँधेरे में प्रेम त्रिकोण की कहानी है, शिमला में घटित। कहानी में पहाड और रिज ही नहीं, अलूचों और खुबानियों की चटनी भी आ गयी है। करोल बाग की बरसाती में एक तीव्र स्मृति, एक तीव्र अभाव हो कर।
बचपन के ये स्वाद ताउम्र निर्मल के साथ रहे।
छोटे बच्चों की तरह वह दिल्ली में बाजार से कभी लाल बेरों पर मसाला डलवा कर ले आते, कभी फ-पिसे अलूचों की चटनी बनाते नमक-मिर्च लगाकर। दिल्ली में अलूचे-खूबानियाँ आते ही वह आम खाना भूल जाते। हम किसी पहाड से छुट्टियाँ मना कर लौट रहे होते, तो बीच शहर बस रुकते ही अलूचे- खुबानियों के डिब्बे खरीदते और अपनी बस की सीट के नीचे उन्हें रखे-रखे हम दिल्ली आन पहुँचते।
ऐसा गहरा उनके भीतर पहाड बसा था।
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एक अक्षुण्ण अकेलापन है निर्मल के यहाँ। कई-कई छटाओं में। हमेशा असहनीय नहीं, अकसर एक आस्तित्विक स्थिति जैसा।
कहाँ से आया होगा ऐसा अकेलापन?
माँ-बाऊजी, भाई-बहन, सब थे उनके बचपन में पुचकारने वाले। दुनिया न थी, लेकिन दुनिया जिसकी रौनक वह कौतुक से देखते, जिसके व्यापार में उनका बाल-मन कहानियाँ देखता था।
किसी-किसी साल बाऊजी का दफ्तर नीचे न जाता, शिमला में ही रह जाता। बाकी सब चले जाते, नब्बे फीसदी शिमला के बाशिंदे, बस सेना मुख्यालय वाले बच जाते।
हम जाते हुए लोगों को बडी ईर्ष्या से देखते। बर्फ से ढँका शिमला भूतों का डेरा लगता। स्कूल बंद होते। हम बच्चे आवारा से इधर-उधर डोलते -बकौल रामकुमार।
जाते हुए लोगों से ईर्ष्या का यह अनुभव लाल टीन की छत में भी आया है मगर औंधा हो कर। उपन्यास की एंग्लो-इंडियन पात्र नीचे जा रहे लोगों को हिकारत से देखती, जैसे वे तुच्छ हों, जो पहाड का जादू नहीं समझते! निर्मल इसी तरह करते थे। जिस चीज से उन्हें चोट पहुँचती, उस पर वह हँस देते। सामने वाला हैरान होता, कैसे आदमी हैं, इन्हें चोट नहीं पहुँचती? मैं उनकी पीडा को देखती, उसके एकांत को।
कभी हम भाई-बहन काली बाडी पहुँच जाते। वहाँ मंदिर में चोर-सिपाही खेलते। बीच में काली माई, आसपास हम सब। मंदिर में आग जलती रहती थी वह गर्म भी होता था। - रामकुमार के अनुसार। यह काली बाडी का मंदिर लाल टीन की छत में अविस्मरणीय हो कर आया है।
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बचपन की धमा-चौकडी का स्थान निर्मल- कथा में आते ही किसी रहस्यमय सन्नाटे से घिर गया है, जहाँ काली माई के सामने काया अकेली खडी है अपने भाई छोटे के साथ, फिर भी अकेली, क्योंकि वह बडी हो रही है और छोटा तो अभी बिलकुल ही बच्चा है।
बचपन में हम निर्मल को फ्रॉक पहना कर लडकी बना देते थे, वो हम बहनों में लडकी की तरह खेलता रहता था। छोटा-सा निर्मल, गोल-मटोल, गोरा-चिट्टा उसका रंग जैसे किसी अंग्रेज का बच्चा हो।
निर्मल से दो साल बडी उनकी बहन सरला बताती हैं।
कभी तीजों पर हम मेंहदी लगातीं, खासकर अगर बेवे या कमला बेवे में से कोई मायके आयी होती। तब निर्मल, कोई चार-पाँच साल की उम्र का, बहुत जिद करता, मेंहदी लगवाने की। हम इसकी गोरी-गोरी हथेलियों में मेंहदी की टिक्की रख कर पट्टी से मुट्ठी बाँध देती। ये रात भर मुटठी बँधवाए सोता। ये भज्जी हाउस की घटनाएँ हैं।
वो रामलीला कब हुई थी? मैं राम से पूछती हूँ। निर्मल से सुन चुकी थी वह किस्सा।
सन् 1933-34 के आसपास की बात है। उन दिनों कैथू में बहुत से बंगाली परिवार रहते थे। लडकियों लडकियों ने तय किया, चलो रामलीला करते हैं। बिमला बेवे (निर्मल की बडी बहन, जिनकी शादी हो चुकी थी) जनक बनी, सरला सीता की सखी बनी और निर्मल जो यों भी लडकी बना उनके साथ खेलता ही था, सीताजी के स्वयंवर में हार जाने वाला राजा। रामलीला काली बाडी के हॉल में हुई। जब छोटे से निर्मल ने खूब जोर लगा कर धनुष उठाने की एक्टिंग की और फिर गिर पडा, जैसा उसे बताया गया था, इतनी तालियाँ बजीं कि निर्मल, स्वयंवर का छोटा राजा, शरमा कर जाके सीता की गोद में बैठ गया, इस पर और भी तालियाँ बजी।
यह प्रसंग इन बिन इसी तरह निर्मल के अंतिम अधूरे उपन्यास चुप होता हुआ समय में आया है।
पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मानित निर्मल।
दिल्ली के घर में सुबह अपनी मेज पर लिखते निर्मल।
सुदूर बचपन की मीठी स्मृति को पन्ने पर पुनर्जीवित करते निर्मल ।
***
इस गली में मेरा दोस्त रहता था, छोटा-सा सरदार बच्चा।
भज्जी हाउस से निकलते हुए उस सुबह निर्मल ने बताया था।
क्या नाम था उसका?
गोगी।
निर्मल मुझे भी कभी-कभी गोगी कहा करते थे ।
मैं उसे राख की चाय पिलाया करता था। बच्चे थे हम। बडों की नकल किया करते थे। मैं देखता था, बाऊजी के दोस्त जब आते हैं, तो उन्हें कैसे कप-प्लेट में चाय दी जाती है। एक दिन गोगी आया तो मैंने भी वैसे ही किया। चाय कैसे बनती है, ये तो कुछ मालूम नहीं था, कप के पानी में फायर-प्लेस की थोडी सी राख घोल कर मैंने उसे पीने को दी।
और वो पी गया?
हाँ, सब की सब। मैंने पूछा, गोगी चाय कैसी बनी है? उसने कहा, बहुत अच्छी!
हाय राम, कहीं यह मर न गया हो।
अरे नहीं। अभी कुछ साल पहले मैं मैक्समूलर लायब्रेरी में काम कर रहा था कि एक हट्टा-कट्टा सरदार आया। बोला, माफ कीजिए, क्या, आप निर्मल वर्मा है? मैने कहाँ, हाँ। उसने कहा, मैं गोगी हूँ, मुझे पहचाना? मेरी चाय पी कर वो ऐसा हट्टा-कट्टा हो गया था।
निर्मल मेरे साथ भी खेल करते रहते थे बच्चे की तरह। एक बार थकी हुई मैं ऑफिस से लौटी, तो दौडे-दौडे गए ऑमलेट और कॉफी बनाने। ऑमलेट मुझे पहले पकडा गए। जब तक कॉफी लिए लौटे मैं ऑमलेट खा चुकी थी। वह बहुत हैरान-परेशान।
तुमने सारा खा लिया?
हाँ, क्यों?
उसमें माचिस की तीली थी।
तुम्हें पता था?
माचिस की तीली मेरे मुँह में आ गई थी, उसे देख मुझे हैरानी हुई पर भूख इतनी थी, कि उसे अलग करके मैं ऑमलेट खा गयी थी।
हाँ, वो अंडे में गिर गयी थी, मुझे समझ में नहीं आया उसे कैसे निकालूँ, सोचा, ऑमलेट बना कर निकालूँगा, भूल गया।
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गोगी की बहन थी करम कौर।
करम कौर जी, आप अपनी चन्नी मुँह में से निकाल लीजिए, मुझे डर लगता है, हाबलू कहता है उनसे, चुप होता हुआ समय के अंश में।
क्या सचमुच जिंदगी के पन्नों से निकल कर कहानी की हकीकत में उतर आई थी करम कौर?
मुद्दा यह नहीं कि करम कौर या कोई अन्य परिचित निर्मल के कथानक में पूरा उपस्थित है या अधूरा। वह वास्तविकता से उठाया गया है या कल्पना से। मार्मिक यह है कि बचपन के छूटे साथी कोई न कोई पात्र बन कर हमेशा उनके मन में किसी न किसी तरह उपस्थित रहते आए।
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जाखू की पहाडी पर उनका स्कूल था हारकोर्ट बटलर। तीनों भाई उसी स्कूल में पढने जाते। राम और भैयाजी (कर्नल साहब) पैदल, निर्मल सबसे छोटे होने के कारण घोडे पर।
कैसी ममता रही होगी बाऊ जी की। भाँप लिया होगा कमजोर है, छोटा है, बस्ता नहीं उठेगा इससे खडी चढाई पर।
माँजी सब बच्चों में अकेले निर्मल के कपडे, मोजे, अपने हाथों तह करके अलमारी में रखती। बाकी सब को नौकर देखता।
गोल-मटोल, नटखट, पढाकू उस बच्चे को, कद्दू जिसका नाम था बचपन में, क्या इतना उत्कट आभास था इस ममता का, प्रेम का, जो अमूमन सब माँ बाप अपनी संतानों पर लुटाते हैं, बिना किसी फल की अपेक्षा किये?
जाने कैसे संताप में निर्मल ने यह लिखा होगा, सन् 1970 में विदेश से लौट कर, माँ-बाप से खाली घर में रह कर, बरसाती की अकेली मेज पर। कहानी जिंदगी यहाँ और वहाँ में।
वे (माता-पिता) कभी सोच भी नहीं सकते, कि इतनी यातना सहकर उन्होंने जिसे जन्म दिया है, वह बडा हो कर इतनी यातना बर्दाश्त कर सकता है इसीलिए वे चले जाते हैं। अपने बच्चों से पहले ही उठ जाते हैं। खत्म हो जाते हैं, मर जाते हैं।
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निर्मल घोडा चला लेते हैं, मुझे पता भी न चलता यदि एक बार माउंट आबू की यात्रा में, जब हम दोनों अपने-अपने घोडे पर बैठे थे और रस्सी घोडे वाले के हाथ में थी, अचानक निर्मल अपना घोडा भगा ले गए।
मेरी चीखें निकल गयीं कि अब शायद उनकी लाश ही मिलेगी किसी खड्ड में, जब उनका घोडे वाला हँसता हुआ लौट आया, आप परेशान न हों मैडम, बाबूजी को घुडसवारी आती है। घोडा नहीं भागा, बाबूजी भागे हैं।
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छोटे निर्मल को भाई-बहन प्यार करते होंगे, बुद्धू भी बनाते होंगे। बच्चों के खेल भरे पडे हैं उनकी कथाओं में। इतना कि वयस्क भी बचपन के खेल खेलते दिखते हैं उनमें। डायरी का खेल, दूसरी दुनिया, सुबह की सैर जैसी कहानियाँ - बचपन ही है उनके यहाँ जीवन समझने की कुंजी।
शुरू के वर्षों में रामकुमार के खासे चेले थे निर्मल, ऐसा लगता है। राम भी उन्हें बहुत चाहते थे, लगभग लक्ष्मण की तरह। सन् 1950-52 में पेरिस-प्रवास के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में भेजी रामकुमार की कला रिपोर्ट्स बडे ध्यान से पढते थे निर्मल। हिंदी पत्रिकाओं से मिले मानदेय से पेरिस में रहने का खर्चा आराम से निकाल लेते थे रामकुमार। एक रुपये के चार फ्रेंक मिलते थे उन दिनों ।
पहले रामकुमार कहानियाँ लिखने लगे, फिर उनकी देखा-देखी निर्मल भी।
कॉलेज की छुट्टियों में सन 1976-77 में कभी मैंने एक किताब पढी थी निर्मल की, शायद पिछली गर्मियों में।
हिंदी मेरा विषय नहीं था, लेकिन मोहन राकेश, कमलेश्वर को पढ चुकी थी, अपने पिता के मुँहबोले गाँव-भाई तायाजी से मिली मुफ्त की किताबों के कारण।
(तायाजी की बुक-बाइडिंग की दो बडी-सी दुकानें थी, चाँदनी चौक की दुकान पर पंजाबी की और शाहदरे वाली दुकान पर हिंदी की किताबें जिल्द बनने आती थीं। उन्होंने आठवीं की छुट्टियों में मुझे किराये पर गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत की किताबें पढते हुए क्या देखा कि जब आते, दोनों हाथों में किताबें लिये आते)
किताब के ब्लर्ब पर निर्मल के परिचय में अन्य बातों के साथ अंत में लिखा था- निर्मल वर्मा लेखक-चित्रकार रामकुमार के छोटे भाई हैं।
मुझे बडा अजीब लगा कि यह कैसा लेखक है जो लिखता है, यह किसका भाई है।
तब मुझे क्या पता था, एक दिन मेरी उनसे शादी होगी!
वर्मा बहनों में सबसे मेधावी थीं बिमला जीजी। उनकी मनीषा का असर दोनों छोटे भाइयों पर पढा।
जीजी को स्कूल में इनाम में किताबें मिलती। उन्हें सब से पहले निर्मल चाटते, फिर कोई और। रामकुमार बिमला जीजी स्कूल जाते हुए रास्ते में पुल पर रुक कर इतनी लंबी बातें करते, कि दोनों देर से स्कूल पहुँचते। डाँट पडती। लडके-लडकियों के अलग-अलग स्कूल थे तब।
जीजी को प्रभाकर परीक्षा की तैयारी करवाने घर में मास्टर आता था। निर्मल वहीं कमरे में खिडकी के पास बैठे सुनते रहते। परीक्षा होने को हुई तो निर्मल ने कहा, मैं भी बैठ जाता हूँ। और प्रभाकर की परीक्षा में जीजी से ज्यादा नंबर आए निर्मल के।
युवावस्था में जीजी जब गले के कैंसर से पीडित हुईं, उन्हें साईं बाबा के किसी चमत्कार से बचने की आशा थी। तब निर्मल उनकी इच्छा पूरी करवाने उन्हें बैंगलौर ले गए थे, साईं बाबा के दर्शन कराने। 1970 के दशक की शुरुआती बात है। विदेश से भारत लौट आने के बाद।
रात भर दोनों पेड के नीचे बैठे रहे भक्तों की भीड में। जीजी ने साईं बाबा की भभूत खाई भी बडे विश्वास से और अंत तक निर्मल को दिखाती रहीं, देख, पानी गटक पा रही हूँ कि नहीं।
यह अदम्य जिजीविषा, जीने की ऐसी अबुझ प्यास निर्मल में भी थी। पीडा से बिंधे होने पर भी।
***
एक और वाकया। राम का ही सुनाया हुआ -
उनके स्कूल का सालाना दिन था, सबके माता-पिता आए थे, बाऊजी भी आए हुए थे। प्रतियोगिताएँ हुईं, दौड की, गाने की, बैडमिंटन की, उन्हें कई सारे इनाम मिले, पेंसिलें वैगरह। निर्मल तब दूसरी-तीसरी कक्षा में रहे होंगे, रामकुमार छठी-सातवीं में। जब सारे इनाम राम को मिले और निर्मल को कोई भी नहीं, तो नन्हे निर्मल ने रोना शुरु कर दिया। बाऊजी ने राम की पेंसिलें लेकर आधी निर्मल को दे दीं, कि तुम्हारा छोटा भाई है।
बडे होकर पुरस्कारों, ओहदों और यश से हद दर्जा उदासीन रहे निर्मल का यह हाल था बचपन में, भाई रामकुमार के इतने पुरस्कारों को देख कर!
आप तो शुरू से ही बहुत टेलेंटेड थे। मैं रामकुमार से कहती हूँ। मैं सचमुच प्रभावित हूँ। सुनती हूँ, बहुत अच्छा गाया करते थे रामकुमार बचपन में।
अरे नहीं, गाने के मुकाबले में तो उस बार मैं अकेला ही था स्कूल में। एक दिन पहले ही पोनी बाबू अपने जीजाजी से मैंने गाना सीखा था, वो भी वहाँ जाकर भूल गया, पर गाने वाला अकेला था प्रतियोगिता में, सो इनाम मुझे मिल गया। दौड के मुकाबले का ये हाल कि सारे बच्चे एक दिशा में दौडे और मैं दूसरी तरफ। वहाँ खडा एक आदमी देख रहा था, उसने कहा, नहीं नहीं, ये बच्चा सबसे तेज दौडा था, सो वो इनाम इस तरह मिला। अगर बाकियों के साथ मैं दौडा होता, तो इनाम कभी न मिलता।
ड्राइंग में तो आपको बहुत इनाम मिलते होंगे?
उसमें तो मैं फेल हो गया था सातवीं में।
रामकुमार हँसते हैं अपने पर, बिलकुल निर्मल जैसे।
स्कूल में निर्मल के सहपाठी थे, जगदीश स्वामीनाथन, जो बाद में भारत के प्रसिद्ध चित्रकार हुए।
बचपन में स्वामी औघड और धुनी बालक थे, बहुत नटखट। कक्षा में शरारत करते पकडे जाते और बैंच पर खडे होने की सजा मिलती। मास्टर स्वामीनाथन के परम मित्र निर्मल को, जो क्लास में पढाकू माने जाते थे, उनकी शिकायत लगाता।
यह बात मुझे स्वयं स्वामी ने बतायी, जब हमारी शादी के बाद किसी बैठक में शामलाल के घर में उनसे मिली। निर्मल की तरफ इशारा करके बोले, तू इधर आ कर बैठ, ये तुझे अपने बारे में क्या बताएगा, मैं बताता हूँ।
उस रोज मौसम बहुत अच्छा था। सन् 1935-37 की बात है शिमला की। हारकोर्ट बटलर स्कूल की। स्वामी को फिर बेंच पर खडे होने की सजा मिली थी। मास्टर सारी क्लास को पिकनिक पर ले गया, स्वामी को बेंच पर छोड कर।
ये भी चला गया था पिकनिक पर ।
बडा ही दुख था स्वामी को इतने बरस बाद भी।
और मालूम हैं, जाते-जाते क्या कहा मास्टर ने इस को? अपने दोस्त से कहो, आदमी बने आदमी! वो मास्टर मुझे आदमी भी नहीं समझता था? इतना बडा कलाकार, इतना नेक इंसान, इतना प्यारा भाई जैसा दोस्त निर्मल का और ऐसा तीखा दुख, जो अब कैसे भी दूर न हो सकता था निर्मल से।
मैंने बस हाथ रख दिया, स्वामी के हाथ पर।
***
शिमला में स्वामीनाथन कैथू में निर्मल के संगी थे और दिल्ली के करोल बाग में उनके पडोसी।
बालिग होते दिनों में दोनों की खूब बहसें होतीं, घर के नीचे एक खम्भे के पास खडे दोनों घंटों बातें करते रहते। कभी एक घर पहुँचाने जाता, कभी दूसरा। बाऊजी सैर करने जाते, लौट आते तो भी दोनों वहीं, खम्मे के नीचे। क्या बातें करते रहते हो तुम दोनों?
हैरानी उन्हें इसलिए भी होती कि इसी चुप्पा-से लडके को उनके किसी दोस्त ने गूँगा समझ लिया था और बडा अफसोस जताया उनके गूँगा बेटा होने पर।
निर्मल गाँधीजी की प्रार्थना सभा में जाते और कम्युनिस्ट छात्रों की बैठक में भी। सेंट स्टीफन्स कॉलेज में पढ रहे थे उन दिनों।
स्वामीनाथन और निर्मल, दोनों ने विभाजन के दिनों में दरियागंज इलाके में लाशें उठाने का काम किया।
एक घर में दूसरी मंजिल पर लाश उठाने गए तो देखा, सोने की चूडियाँ चमक रही हैं, लाश गल-सड चुकी थी।
दोनों ने एक साथ कम्युनिस्ट पार्टी जॉयन की, धरनों में हिस्सा लिया, पुलिस की मार खाई। समाज बदल डालने का ऐसा ज*बा था दोनों में। शुरू जवानी के दिनों में समूचे भविष्य को दाँव पर रख दिया दोनों ने। आजादी के कई वर्षों बाद तक, सब जानते हैं, कम्युनिस्ट कोई होता तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी।
सन् 1951-52 के आसपास की बात है। पार्टी का फरमान आया कि रिवोली सिनेमा में किसी अमरीकन फिल्म का शो होने वाला है, सब लडके यहाँ गुप्त रूप से पहुँच कर गडबडी करें। एक लडके को फिल्म शुरु होते ही मंच पर जा कर पर्दा फाडना था, बाकियों को नारे लगाने थे। पुलिस को खबर लग चुकी थी, वह भी चौकस थी।
प्लानिंग के मुताबिक सब कम्युनिस्ट लडके-लडकियाँ हॉल में छितरा कर बैठ गए। फिल्म शुरू हुई, तो जिस लडके को शुरुआत करनी थी, वह बिदक गया। उठा ही नहीं पर्दा फाडने। काफी देर साथी लोग इंतजार करते रहे, फिर एक उठा नारे लगाने। उसके पीछे बाकी सब भी। फिल्म रुक गई, पुलिस हरकत में आ गई, नारे लगाने वालो को पुलिस पकडने लगी।
इनकी साथिन एक लडकी थी। उसे जब पुलिस घसीट ले जाने लगी, निर्मल अपनी बारीक आवाज में चिल्लाए, आप ऐसा नहीं कर सकते।
पुलिस वाले ने देखा, दुबला-सा एक लडका है। लडकी छोड निर्मल से बोला, अबे तू भी आ जा।
पंद्रह-बीस छात्र-छात्राओं को पुलिस वाले पकड कर ले आए। कनॉट प्लेस के बीचोंबीच मैदान था, (जहाँ रैम्बल रेस्तरां हुआ करता था, उसके पास), वहाँ बैठा दिया धूप में। दो-चार घंटे वायरलेस चलता रहा। ऊपर से कोई ऑर्डर नहीं मिला कि एक्शन क्या हो।
जो गुनाह था, सजा पाने के लिए काफी कम था, कानून की कोई धारा सिद्ध न होती थी। छात्र भी धूप में घास के तिनके चबाते बैठे रहे। फिर शायद पुलिस वालों को आदेश मिला. इधर-उधर देखने का बहाना करें, अगर ये भाग जाए, तो इनके पीछे न दौडें। मुँह छिपाने को इतना काफी था।
सो यही हुआ। शाम होते-होते सब भाग निकले। क्रांति हो गई थी।
विमला फारूकी चुनावों में उम्मीदवार बनीं, तो निर्मल और स्वामी घर-घर उनके साथ उनकी पैरवी करते घूमे। एक घर में गए तो चारपाई पर कुछ औरते बैठीं थीं। निर्मल ने कहा, ये चुनाव में खडी हुई हैं।
एक औरत उठ कर उन्हें जगह देती बोली, खडी क्यों हैं बहन, बैठ जाइये।
सन् 1953 में बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन करते समय निर्मल जेल में बंद कर दिये गए। घर में अंग्रेजों के पुराने अफसर बाऊजी को जेल वाली बात बताई नहीं जा सकती थी। रामकुमार ने झूठ बोला, निर्मल दोस्तों के साथ आगरे गया है।
बाऊजी से छिप-छिप कर रामकुमार खाना लेकर जेल जाते रहे। एक हफ्ते बाद निर्मल छूट कर घर आए, तो बडी शहादत की मुद्रा में कि जेल काट कर आए हैं। उन्हें कुछ मालूम न था, रामकुमार ने क्या कह रखा है घर में। बाऊजी ने देखा तो कहा, बडे लाल हो गए हैं तुम्हारे गाल। लगता है, आगरे की यात्रा बडी अच्छी रही।
स्वामी पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में काम किया करते थे। निर्मल को अनुवाद का काम दिलवा देते थे। कई बार निर्मल के नाम से वह स्वयं ही अनुवाद कर लेते और पारिश्रमिक ले लेते। संघर्ष के दिन थे दोनों के। अनुवाद के साथ-साथ निर्मल घर के पास एक कोचिंग सेंटर में पढाने जाया करते थे। बाद में उन्हें काम मिल गया राज्य सभा के सचिवालय में बतौर अनुवादक।
उन्हीं सन् 1952-56 के बरसों में देवेन्द्र इस्सर ने कल्चरल फोरम बनाया। करोल बाग इलाके में रहने वाले उत्साही लेखक उसके मेंबर थे - भीष्म साहनी, कृष्णबलदेव वैद, निर्मल, रामकुमार, मनोहरश्याम जोशी, महेन्द्र भल्ला। कोई दस-बीस श्रोता भी आ जाते। प्रथा यह थी कि जिसे कहानी सुनानी होती, वह सब को चाय पिलाता।
उन्हीं बहसों के चलते धीरे-धीरे सब निखरे, फिर बिखर गए। कोई अमेरिका चला गया, कोई यूरोप, कोई रूस। सब ने अपनी-अपनी नियति का सामना किया। वह वे बन हुए, जिस रूप में हम आज उन्हें जानते हैं।
सन् 1956 के आसपास निर्मल का कम्युनिस्ट पार्टी से तीखा मोहभंग हुआ। कॉलेज के दिनों से चला कुल सात साल का यह संबंध हंगरी पर रूसी सेना के हमले के साथ टूट गया था। दिलचस्प तथ्य यह है कि निर्मल चेकोस्लोवाकिया जैसे साम्यवादी देश में सन् 1959 में तब गए, जब वह कम्युनिज्म से मोहभंग कर चुके थे जबकि अभी तक हिंदी साहित्य के कुछ लोग इसका उलट समझते हैं, कि शायद इस सदस्यता के कारण ही वह चेकोस्लोवाकिया गए।
मोहभंग और बाकायदा इस्तीफा देने के बाद न सिर्फ एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में जा कर रहना, बल्कि वहाँ से भारत के अखबारों, खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने के लिए रिपोर्ट भेजना यकीनन जोखिम भरा काम था उन वर्षों में।
प्रवास के उन सात वर्षों में - सन् 1959 से 1968 तक (बीच में 1964-66 के दो साल वह भारत में रहे) - निर्मल ने कम्युनिस्ट व्यवस्था का जो विद्रूप अपनी आँखों से वहाँ देखा, व्यक्तियों पर अंकुश और प्रताडना के लिए जासूसी- संभवतः उसी ने उन्हें न केवल साम्यवाद, बल्कि अंग्रेजों के औपनिवेशिक प्रभाव से भी मुक्त किया। यह उनकी प्रश्नाकुलता थी जिसने उनकी चेतना के भारतीय तत्त्व को ऐसा निथरा किया।
चेकोस्लोवाकिया प्रवास के काफी पहले से रूसी और चेक लेखक उनके प्रिय रहे थे। तॉल्स्तॉय, चेखव, चापेक। हैदराबाद से निकलने वाली बदरीविशाल पित्तीजी की पत्रिका कल्पना में ‘दीवार के दोनों’ ओर स्तंभ वह लिखा करते थे। लेखन में सहज, आम बोली जाने वाली खडी बोली उनका चुनाव थी।
उनकी मां अपने दोनों बेटों की कहानियाँ बडे चाव और उत्सुकता से पढतीं। रामकुमार की कथाएँ उन्हें तुरंत समझ में आ जाती। निर्मल की कहानियाँ उन्हें कुछ अनिश्चित सा छोडती।
अपने घर आने वाले युवा लेखकों, बेटों के मित्रों, से वह फिक्र में पूछतीं, ये निर्मल कैसी कहानियाँ लिखता है?
ऐसा सन्नाटा, अकेलापन उनके बेटे में। डायरी का खेल, माया का मर्म, तीसरा ग्वाह।
मनुष्य की एकांतिक नियति निर्मल को मथती थी। सुदूर बचपन का, शिमला का, सन्नाटा उनकी आत्मा में बस गया था।
ये कैसे लोग थे, जो पहाड छोड नीचे दुनिया में चले जाते थे?
रानीखेत के पहाडों पर, लडकियों के कॉलेज के नीचे से गुजरते हुए वह रुके थे। सन् 1954 के आसपास। पहाडों पर कुछ समय बिताने गए युवा निर्मल। ऊपर से लडकियों के हँसने की, ठिठोली की आवाज ने उन्हें रोक लिया था। छुटियाँ शुरू हो रही थीं।
लेकिन उस हँसी से जो शुरू हुई थी उनकी लंबी कहानी, परिंदे, उसमें लतिका अकेली रह गयी थी। स्कूल की हेड मिस्ट्रेस, खाली स्कूल में।
यथार्थ इसी तरह आता था अकसर उनकी रचना में, असलियत का औंधा होकर।
मनुष्य को अपनी नियति का अकेलापन ढोते रहना चाहिए? कि उसे छोड देना चाहिए?
लतिका और डॉक्टर ह्यूबर्ट के जरिये निर्मल हिंदी साहित्य में इस एकांतिक नियति की प्रस्तावना रख चुके थे।
यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न था, जिसका सामना लगभग साठ साल फैले अपने लेखन में उन्हें बार-बार करना था।
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हरबर्ट विला का घर सन् 1990 में, जब उसे दिखाने मुझे निर्मल ले गए, करीब साठ साल बाद भी इतना बडा था कि उसके दालान में बच्चों की टीम आराम से बेडमिंटन खेल सके। घर के सामने, नीचे की ढलान पर एननडेल का मैदान था. गोल्फ कोर्स, जहाँ कभी अंग्रेज युवक-युवतियाँ घुडसवारी किया करते थे। निर्मल और उनके जैसे भारतीय बच्चे ऊपर से अंग्रेजों को देखते होंगे, कौतुक और सम्मोहन से, कि माल रोड पर तो भारतीयों का आना मना था।
माल रोड पर अंग्रेजों को देखना हो. तो लोअर बाजार की सीढियाँ चढ कर ही देख सकते थे, जहाँ से मेमों का चेहरा नहीं उनकी नंगी टाँगे दिखती थीं, निर्मल ने बताया था, शिमला की उस यात्रा में।
उन दिनों अंग्रेजों की राजधानी आधा साल दिल्ली, आधा साल शिमला में काम करती थी। कभी-कभी पूरा साल ही शिमला में बनी रहती। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिडने से पहले तक यही रवायत थी। युद्ध छिडने के बाद राजधानी ऊपर नहीं गयी- रामकुमार बताते हैं, निर्मल के बडे भाई, यशस्वी चित्रकार रामकुमार।
निर्मल के बाऊजी, श्री नंदकुमार वर्मा, अंग्रेजों के सेना मुख्यालय में काम करते थे, क्यू एम जी ब्राँच में। क्यू एम जी माने क्वार्टर मास्टर जनरल।
बाऊजी और तायाजी अपने जमाने के केवल दो बीए पास थे, पूरी पटियाला रियासत में। अंग्रेज सरकार की नौकरी में आने से पहले बाऊजी लाहौर में महाराजा कॉलेज के वार्डन यानी राजकुमार छात्रों के वार्डन हुआ करते थे।
बाऊजी यारबाज तबीयत के थे, शायद ही कभी दफ्तर से सीधे घर लौटते हों। वह क्लब जाते थे, टेनिस खेलते थे, दोस्तों के साथ शाम का ड्रिंक लेते थे। ज्यादातर दोस्त उनके सरदार थे- रामकुमार हँसते हैं - बाद में जब निर्मल ने तुमसे विवाह किया तो निर्मल के एक दोस्त ने, जिसकी बीवी भी सरदारनी थी, कहा. यार हम लोगों को एक यूनियन बना लेनी चाहिए।
तायाजी बैंकर थे, शिमला बैंक में डायरेक्टर। बैंक से एक बार घर लौटने पर शायद ही वापस बाहर जाते थे। उन्हें पढने का शौक था और रेडियो सुनने का। वे दूसरी जंग की खबरें सुनते रहते और नक्शे पर झंडे को आगे-पीछे बढाते रहते, जैसा भी खबरें बतातीं कि हिटलर की फौजें यहाँ तक आ पहुँचीं। रेडियो सुन-सुन कर उन्होंने चार भाषाएँ सीख ली थीं।
इंग्लैंड वापस लौट रहे एक अंग्रेज अफसर से तायाजी ने उसकी सारी लायब्रेरी खरीद ली थी और उसका पियानो भी। तायाजी खुशी-खुशी अपनी किताबें बच्चों को देखने देते, खासकर निर्मल-रामकुमार को।
पियानो उनकी बैठक में एक ओर पडा शोभा बढाता रहता, उसे बजाना पूरे खानदान में किसी को न आता था।
बाऊजी मस्त मौला थे, तायाजी डिसिप्लिन पसंद। तायाजी के तीन बेटे पैदा होते ही मर गए थे। पत्नी कुबडी हो गयीं थीं और किसी भतीजे के यहाँ रहती थीं, अनबन के कारण।
मालूम नहीं, बाल निर्मल ने किस की जच्चगी देखी थी छिपकर, माँजी की या तायीजी की। लालटीन की छत के नौकर मंगतू की टाँगों से चिपटी बच्ची काया थी या बाल निर्मल? नौकर की टाँगों में बँधी पट्टियाँ, उसकी तकलीफ, उनके घर के नौकर की सच्ची कहानी जान पडते थे।
नौकर वर्मा परिवार का जरूरी अंग थे, लगभग उनके पारिवारिक सदस्य। ये उनके संग पहाडों पर जाते, वहाँ से लौटते। बच्चों के राजदार। बडों की दुनिया में उनके सबसे करीब। बीच रास्ते में।
उनकी कई छवियाँ निर्मल के यहाँ मिलती हैं - लालटीन की छत, अंतिम अरण्य, सुबह की सैर आदि।
***
बाऊजी की बजाय तायाजी ही बच्चों की पढाई में दिलचस्पी लेते थे, हालॉकि रामकुमार का मानना है, उन लोगों में पढने के गुण तायाजी से नहीं, अपने बाबा से आए होंगे, जो पटियाला में मास्टर रहे थे, जिन्होंने अपनी जमा-पूँजी खर्च करके दोनों बेटों को बीए तक पढाया था, जो बुढापे में आँखें कमजोर होने पर अपने पोतों से, खास कर निर्मल से, इकन्नी इनाम देकर कल्याण पत्रिका की कहानियाँ पढवाया करते थे और जिनके संदूक में, मरने के बाद, सिर्फ किताबें निकली थीं।
तायाजी में साहबों वाली ठसक थी, बाऊजी संयमी थे। उन दिनों छोटा शिमला से लेकर वाइस रीगल लॉज (अब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज) तक का इलाका अंग्रेजों का था। एक सिरे से दूसरे तक सीधी रेखा में। हिंदुस्तानी खड्डों में रहते थे, अंग्रेजी लक्ष्मण रेखा से नीचे, कैथू जैसी निचली जगहों पर। अंग्रेजों की दुम लगे भारतीय संजौली जैसे इलाके में, अंग्रेजी रेखा (माल रोड) के परले सिरे पर।
हालांकि दोनों भाई ओहदेदार थे, बाऊजी कैथू में रहते आए, तायाजी संजौली में। इससे दोनों भाईयों की शख्सियत का कुछ जायजा मिलता है।
दिल्ली लौटने पर बाऊजी को रहने को, बहैसियत अंग्रेज सरकार के नौकरशाह फीरोजशाह रोड, कुशक रोड, क्वीन मेरी एवेन्यू (अब पंत मार्ग) की कोठियाँ मिलती थीं। कैथू में बाऊजी एक अंग्रेज की मिल्कियत वाले घर, हरबर्ट विला में निर्मल के जन्म के बाद कई बरस तक उसी के साथ सटे भज्जी हाउस में सपरिवार आकर रहते रहे। शिमला में भज्जी के राजा का घर था भज्जी हाउस।
लकडी और सीमेंट का बना हरे रंग का यह मकान 1 जनवरी 1990 की सुबह जब निर्मल मुझे दिखाने ले गए, हमारे विवाह के कोई पौने दो महीने बाद, और उसके साथ का हरबर्ट विला उनका जन्म स्थान, उनके कदमों की लोच देखते बनती थी। वह जैसे पाँच साल के हो गए थे, उत्साही और वाचाल, और मैं उनकी बाल-सखी बानो, दूर कहानी अँधेरे में की बानो, जिसे वह अपने सब राज दिखाने लाये थे। यह और बात है, कि जब वह कहानी लिखी गयी थी, इस पृथ्वी पर मेरा कोई अता-पता न था।
***
अपने माता-पिता की आठ संतानों में से सातवें थे निर्मल।
आधे साल के हिसाब से, उनके जन्म के उस साल, सन् 1929 में, यदि अंग्रेजों की राजधानी नीचे से ऊपर आई होगी, तो मेरा अनुमान है, यह अप्रैल का महीना रहा होगा, कि मार्च का महीना तो दिल्ली में भी खुशगवार रहता है।
यदि यह सही हो, तो दिल्ली से माता-पिता, पाँच भाई-बहनों (सबसे बडी बहन पदमा बेवे की शादी कानपुर में हो चुकी थी), नौकर और दादाजी की पलटन के पहुँचने के तीन दिन के भीतर ही निर्मल आन बिराजे होंगे। हिमालय के पहाड देखने को उतावले। साढे ग्यारह- बारह बजे दिन में।
मैं आगे के कमरे में खेल रहा था जब दाई ने आकर मुझे बताया, तुम्हारा भाई हुआ है। निर्मल से पाँच साल बडे रामकुमार बताते हैं। सब भाई-बहनों में रामकुमार ही हैं, जिन्होंने निर्मल को पहली साँसें लेते हुए देखा और अंतिम भी।
आज सन् 2012 की हरबर्ट विला में पीछे का एक कमरा, लकडी के फर्श और दीवार में अंगीठी वाला, पुरानी तर्ज वाला, अभी तक आश्चर्यजनक रूप से बचा है। इस या ऐसे ही किसी पिछले कमरे में निर्मल का जन्म हुआ होगा हालाँकि विला के कई कमरे अब नये जमाने के रंग-ढंग में मरम्मत हो तबदील हो चुके हैं। लकडी की बजाय फर्श सेरेमिक टाइल्स का हो गया है। शिमला का एक सम्भ्रांत व्यवसायी परिवार बल्कि घराना पिछले तीस वर्षों से वहाँ रहता है।
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निर्मल के जन्म की इसी कल्पना को अगर थोडा और आगे बढाऊँ कि उस साल, सन् 1929 में, शायद छह महीने बाद राजधानी नीचे भी गयी होगी, तो संभवतः छह महीने की नन्ही उम्र में बाल निर्मल ने शिमला की जादुई छुक-छुक से पहली रेल यात्रा की होगी। 107 सुरंगों, 20 स्टेशनों, 864 पुलों पर से गुजरती खिलौना रेल जिसे एक दिन यूनेस्को से धरोहर का दर्जा मिलना था।
इस ट्रेन के अनंत बिंब निर्मल कथाओं में भरे पडे हैं, पहाडों के घुमाव, रास्ते की सुरंगें, कभी रेल के ऊपर से, कभी पुल के ऊपर से, कभी पटरियों के एकदम पास। लाल टीन की छत की बच्ची काया की तरह उसका बाल लेखक भी यहाँ मँडराता होगा, समरहिल, शिमला में रेल रास्ते के आसपास।
दिल्ली जाते समय बाबाजी ट्रेन छूटने से कई घंटे पहले सारी पलटन समेत शिमला स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाते थे। बच्चे ऊधम मचाते घूमते। माँजी झल्लातीं, मुझे क्या पता था, मेरे पेट में से ये महाभारत की फौज निकलेगी बाबाजी कहते, वक्त चुटकियों में बीतेगा - रामकुमार की जुबानी।
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छह महीने का बच्चा अपने आसपास क्या देखता होगा? दो साल का क्या? पाँच साल का क्या? हम कुछ भी नहीं जानते, निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं, लेकिन निर्मल की कथाएँ पढें अँधेरे में, पहाड, लालटीन की छत, अंतिम उपन्यास चुप होता हुआ समय के अंश तो कुछ-कुछ समझ में आता है। वह सब उसी बाल-उम्र में छप गया होगा उनके भीतर, उनके मन पर। सिर्फ लिखा उन्होंने उसे बाद में। ठहर-ठहर कर।
अँधेरे में कहानी से एक उद्धरण है -
बीच की तीन पगडंडियों को पार करके बानो आती थी। इन पहाडों के पीछे दिल्ली है। है न बानो?
बानो ने सिर हिला दिया, उसे दिल्ली की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, उस बेचारी ने अब तक दिल्ली नहीं देखी थी।
मेरे अलूचे तुम ले लेना बानो।
तुम्हारे गले सडे अलूचे कौन खाएगा! जब दिल्ली जाओगे, अपनी पोटली में बाँधकर साथ ले जाना।
बानो खीज कर बाहर भाग गई। इन दिनों मेरे कमरे में आने से पहले बानो की तलाशी ली जाती थी कि कहीं वह खट्टे अलूचे और कच्ची बानियाँ लुका-छिपा कर भीतर न ले आए । उसके दुपट्टे के सिरे में नमक-मिर्च की पुडिया बँधी रहती - बीमारी से पहले हम अलूचों को उनमें भिगो कर चटनी बनाया करते थे।
निर्मल की आरंभिक कहानियों में से एक यह कहानी अँधेरे में । सन् 1957 के आसपास प्रकाशित। उन दिनों दिल्ली के करोल बाग वाले घर की बरसाती में लिखी गयी कहानियों में से एक।
***
बाऊजी ने रिटायर होते-होते नयी दिल्ली के वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया में वह मकान खरीदा था। हर मंजिल पर एक बडी बैठक, दो बेड रूम का सेट। नीचे की मंजल में किरायेदार थे, बीच की मंजल में बैठक पर बाऊजी का एकछत्र अधिकार था, रसोई के साथ लगते बेडरूम पर माँजी का, सामने का कमरा कहलाता तो निर्मल का था हालाँकि छोटी बहन निर्मला, जिनकी अभी शादी नहीं हुई थी, उस पर बराबर की काबिज थीं। ऊपर की बरसाती रात के समय रामकुमार-विमला भाभीजी की थी। दिन के समय उसमें एक ओर रामकुमार का ईजल लगा होता, एक ओर छोटे-से मेज पर निर्मल बैठे लिखते, निर्मला किसी न किसी बहाने वहीं एक तरफ कुर्सी पर बैठी होती। बडे भाई साहब सेना में कर्नल थे, सो उस घर में रहने वाले वर्मा खानदान के बाशिंदे यही सब थे।
एक दिन निर्मल अपने लिखने की मेज से उठ कर कहीं गए तो देखा निर्मला ने, सारा पन्ना कटा पडा है, जबकि वह समझ रही थीं, यह सारा समय निर्मल लिख रहे थे।
लिखते कम, काटते ज्यादा थे निर्मल।
***
अँधेरे में प्रेम त्रिकोण की कहानी है, शिमला में घटित। कहानी में पहाड और रिज ही नहीं, अलूचों और खुबानियों की चटनी भी आ गयी है। करोल बाग की बरसाती में एक तीव्र स्मृति, एक तीव्र अभाव हो कर।
बचपन के ये स्वाद ताउम्र निर्मल के साथ रहे।
छोटे बच्चों की तरह वह दिल्ली में बाजार से कभी लाल बेरों पर मसाला डलवा कर ले आते, कभी फ-पिसे अलूचों की चटनी बनाते नमक-मिर्च लगाकर। दिल्ली में अलूचे-खूबानियाँ आते ही वह आम खाना भूल जाते। हम किसी पहाड से छुट्टियाँ मना कर लौट रहे होते, तो बीच शहर बस रुकते ही अलूचे- खुबानियों के डिब्बे खरीदते और अपनी बस की सीट के नीचे उन्हें रखे-रखे हम दिल्ली आन पहुँचते।
ऐसा गहरा उनके भीतर पहाड बसा था।
***
एक अक्षुण्ण अकेलापन है निर्मल के यहाँ। कई-कई छटाओं में। हमेशा असहनीय नहीं, अकसर एक आस्तित्विक स्थिति जैसा।
कहाँ से आया होगा ऐसा अकेलापन?
माँ-बाऊजी, भाई-बहन, सब थे उनके बचपन में पुचकारने वाले। दुनिया न थी, लेकिन दुनिया जिसकी रौनक वह कौतुक से देखते, जिसके व्यापार में उनका बाल-मन कहानियाँ देखता था।
किसी-किसी साल बाऊजी का दफ्तर नीचे न जाता, शिमला में ही रह जाता। बाकी सब चले जाते, नब्बे फीसदी शिमला के बाशिंदे, बस सेना मुख्यालय वाले बच जाते।
हम जाते हुए लोगों को बडी ईर्ष्या से देखते। बर्फ से ढँका शिमला भूतों का डेरा लगता। स्कूल बंद होते। हम बच्चे आवारा से इधर-उधर डोलते -बकौल रामकुमार।
जाते हुए लोगों से ईर्ष्या का यह अनुभव लाल टीन की छत में भी आया है मगर औंधा हो कर। उपन्यास की एंग्लो-इंडियन पात्र नीचे जा रहे लोगों को हिकारत से देखती, जैसे वे तुच्छ हों, जो पहाड का जादू नहीं समझते! निर्मल इसी तरह करते थे। जिस चीज से उन्हें चोट पहुँचती, उस पर वह हँस देते। सामने वाला हैरान होता, कैसे आदमी हैं, इन्हें चोट नहीं पहुँचती? मैं उनकी पीडा को देखती, उसके एकांत को।
कभी हम भाई-बहन काली बाडी पहुँच जाते। वहाँ मंदिर में चोर-सिपाही खेलते। बीच में काली माई, आसपास हम सब। मंदिर में आग जलती रहती थी वह गर्म भी होता था। - रामकुमार के अनुसार। यह काली बाडी का मंदिर लाल टीन की छत में अविस्मरणीय हो कर आया है।
***
बचपन की धमा-चौकडी का स्थान निर्मल- कथा में आते ही किसी रहस्यमय सन्नाटे से घिर गया है, जहाँ काली माई के सामने काया अकेली खडी है अपने भाई छोटे के साथ, फिर भी अकेली, क्योंकि वह बडी हो रही है और छोटा तो अभी बिलकुल ही बच्चा है।
बचपन में हम निर्मल को फ्रॉक पहना कर लडकी बना देते थे, वो हम बहनों में लडकी की तरह खेलता रहता था। छोटा-सा निर्मल, गोल-मटोल, गोरा-चिट्टा उसका रंग जैसे किसी अंग्रेज का बच्चा हो।
निर्मल से दो साल बडी उनकी बहन सरला बताती हैं।
कभी तीजों पर हम मेंहदी लगातीं, खासकर अगर बेवे या कमला बेवे में से कोई मायके आयी होती। तब निर्मल, कोई चार-पाँच साल की उम्र का, बहुत जिद करता, मेंहदी लगवाने की। हम इसकी गोरी-गोरी हथेलियों में मेंहदी की टिक्की रख कर पट्टी से मुट्ठी बाँध देती। ये रात भर मुटठी बँधवाए सोता। ये भज्जी हाउस की घटनाएँ हैं।
वो रामलीला कब हुई थी? मैं राम से पूछती हूँ। निर्मल से सुन चुकी थी वह किस्सा।
सन् 1933-34 के आसपास की बात है। उन दिनों कैथू में बहुत से बंगाली परिवार रहते थे। लडकियों लडकियों ने तय किया, चलो रामलीला करते हैं। बिमला बेवे (निर्मल की बडी बहन, जिनकी शादी हो चुकी थी) जनक बनी, सरला सीता की सखी बनी और निर्मल जो यों भी लडकी बना उनके साथ खेलता ही था, सीताजी के स्वयंवर में हार जाने वाला राजा। रामलीला काली बाडी के हॉल में हुई। जब छोटे से निर्मल ने खूब जोर लगा कर धनुष उठाने की एक्टिंग की और फिर गिर पडा, जैसा उसे बताया गया था, इतनी तालियाँ बजीं कि निर्मल, स्वयंवर का छोटा राजा, शरमा कर जाके सीता की गोद में बैठ गया, इस पर और भी तालियाँ बजी।
यह प्रसंग इन बिन इसी तरह निर्मल के अंतिम अधूरे उपन्यास चुप होता हुआ समय में आया है।
पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मानित निर्मल।
दिल्ली के घर में सुबह अपनी मेज पर लिखते निर्मल।
सुदूर बचपन की मीठी स्मृति को पन्ने पर पुनर्जीवित करते निर्मल ।
***
इस गली में मेरा दोस्त रहता था, छोटा-सा सरदार बच्चा।
भज्जी हाउस से निकलते हुए उस सुबह निर्मल ने बताया था।
क्या नाम था उसका?
गोगी।
निर्मल मुझे भी कभी-कभी गोगी कहा करते थे ।
मैं उसे राख की चाय पिलाया करता था। बच्चे थे हम। बडों की नकल किया करते थे। मैं देखता था, बाऊजी के दोस्त जब आते हैं, तो उन्हें कैसे कप-प्लेट में चाय दी जाती है। एक दिन गोगी आया तो मैंने भी वैसे ही किया। चाय कैसे बनती है, ये तो कुछ मालूम नहीं था, कप के पानी में फायर-प्लेस की थोडी सी राख घोल कर मैंने उसे पीने को दी।
और वो पी गया?
हाँ, सब की सब। मैंने पूछा, गोगी चाय कैसी बनी है? उसने कहा, बहुत अच्छी!
हाय राम, कहीं यह मर न गया हो।
अरे नहीं। अभी कुछ साल पहले मैं मैक्समूलर लायब्रेरी में काम कर रहा था कि एक हट्टा-कट्टा सरदार आया। बोला, माफ कीजिए, क्या, आप निर्मल वर्मा है? मैने कहाँ, हाँ। उसने कहा, मैं गोगी हूँ, मुझे पहचाना? मेरी चाय पी कर वो ऐसा हट्टा-कट्टा हो गया था।
निर्मल मेरे साथ भी खेल करते रहते थे बच्चे की तरह। एक बार थकी हुई मैं ऑफिस से लौटी, तो दौडे-दौडे गए ऑमलेट और कॉफी बनाने। ऑमलेट मुझे पहले पकडा गए। जब तक कॉफी लिए लौटे मैं ऑमलेट खा चुकी थी। वह बहुत हैरान-परेशान।
तुमने सारा खा लिया?
हाँ, क्यों?
उसमें माचिस की तीली थी।
तुम्हें पता था?
माचिस की तीली मेरे मुँह में आ गई थी, उसे देख मुझे हैरानी हुई पर भूख इतनी थी, कि उसे अलग करके मैं ऑमलेट खा गयी थी।
हाँ, वो अंडे में गिर गयी थी, मुझे समझ में नहीं आया उसे कैसे निकालूँ, सोचा, ऑमलेट बना कर निकालूँगा, भूल गया।
***
गोगी की बहन थी करम कौर।
करम कौर जी, आप अपनी चन्नी मुँह में से निकाल लीजिए, मुझे डर लगता है, हाबलू कहता है उनसे, चुप होता हुआ समय के अंश में।
क्या सचमुच जिंदगी के पन्नों से निकल कर कहानी की हकीकत में उतर आई थी करम कौर?
मुद्दा यह नहीं कि करम कौर या कोई अन्य परिचित निर्मल के कथानक में पूरा उपस्थित है या अधूरा। वह वास्तविकता से उठाया गया है या कल्पना से। मार्मिक यह है कि बचपन के छूटे साथी कोई न कोई पात्र बन कर हमेशा उनके मन में किसी न किसी तरह उपस्थित रहते आए।
***
जाखू की पहाडी पर उनका स्कूल था हारकोर्ट बटलर। तीनों भाई उसी स्कूल में पढने जाते। राम और भैयाजी (कर्नल साहब) पैदल, निर्मल सबसे छोटे होने के कारण घोडे पर।
कैसी ममता रही होगी बाऊ जी की। भाँप लिया होगा कमजोर है, छोटा है, बस्ता नहीं उठेगा इससे खडी चढाई पर।
माँजी सब बच्चों में अकेले निर्मल के कपडे, मोजे, अपने हाथों तह करके अलमारी में रखती। बाकी सब को नौकर देखता।
गोल-मटोल, नटखट, पढाकू उस बच्चे को, कद्दू जिसका नाम था बचपन में, क्या इतना उत्कट आभास था इस ममता का, प्रेम का, जो अमूमन सब माँ बाप अपनी संतानों पर लुटाते हैं, बिना किसी फल की अपेक्षा किये?
जाने कैसे संताप में निर्मल ने यह लिखा होगा, सन् 1970 में विदेश से लौट कर, माँ-बाप से खाली घर में रह कर, बरसाती की अकेली मेज पर। कहानी जिंदगी यहाँ और वहाँ में।
वे (माता-पिता) कभी सोच भी नहीं सकते, कि इतनी यातना सहकर उन्होंने जिसे जन्म दिया है, वह बडा हो कर इतनी यातना बर्दाश्त कर सकता है इसीलिए वे चले जाते हैं। अपने बच्चों से पहले ही उठ जाते हैं। खत्म हो जाते हैं, मर जाते हैं।
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निर्मल घोडा चला लेते हैं, मुझे पता भी न चलता यदि एक बार माउंट आबू की यात्रा में, जब हम दोनों अपने-अपने घोडे पर बैठे थे और रस्सी घोडे वाले के हाथ में थी, अचानक निर्मल अपना घोडा भगा ले गए।
मेरी चीखें निकल गयीं कि अब शायद उनकी लाश ही मिलेगी किसी खड्ड में, जब उनका घोडे वाला हँसता हुआ लौट आया, आप परेशान न हों मैडम, बाबूजी को घुडसवारी आती है। घोडा नहीं भागा, बाबूजी भागे हैं।
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छोटे निर्मल को भाई-बहन प्यार करते होंगे, बुद्धू भी बनाते होंगे। बच्चों के खेल भरे पडे हैं उनकी कथाओं में। इतना कि वयस्क भी बचपन के खेल खेलते दिखते हैं उनमें। डायरी का खेल, दूसरी दुनिया, सुबह की सैर जैसी कहानियाँ - बचपन ही है उनके यहाँ जीवन समझने की कुंजी।
शुरू के वर्षों में रामकुमार के खासे चेले थे निर्मल, ऐसा लगता है। राम भी उन्हें बहुत चाहते थे, लगभग लक्ष्मण की तरह। सन् 1950-52 में पेरिस-प्रवास के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में भेजी रामकुमार की कला रिपोर्ट्स बडे ध्यान से पढते थे निर्मल। हिंदी पत्रिकाओं से मिले मानदेय से पेरिस में रहने का खर्चा आराम से निकाल लेते थे रामकुमार। एक रुपये के चार फ्रेंक मिलते थे उन दिनों ।
पहले रामकुमार कहानियाँ लिखने लगे, फिर उनकी देखा-देखी निर्मल भी।
कॉलेज की छुट्टियों में सन 1976-77 में कभी मैंने एक किताब पढी थी निर्मल की, शायद पिछली गर्मियों में।
हिंदी मेरा विषय नहीं था, लेकिन मोहन राकेश, कमलेश्वर को पढ चुकी थी, अपने पिता के मुँहबोले गाँव-भाई तायाजी से मिली मुफ्त की किताबों के कारण।
(तायाजी की बुक-बाइडिंग की दो बडी-सी दुकानें थी, चाँदनी चौक की दुकान पर पंजाबी की और शाहदरे वाली दुकान पर हिंदी की किताबें जिल्द बनने आती थीं। उन्होंने आठवीं की छुट्टियों में मुझे किराये पर गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत की किताबें पढते हुए क्या देखा कि जब आते, दोनों हाथों में किताबें लिये आते)
किताब के ब्लर्ब पर निर्मल के परिचय में अन्य बातों के साथ अंत में लिखा था- निर्मल वर्मा लेखक-चित्रकार रामकुमार के छोटे भाई हैं।
मुझे बडा अजीब लगा कि यह कैसा लेखक है जो लिखता है, यह किसका भाई है।
तब मुझे क्या पता था, एक दिन मेरी उनसे शादी होगी!
वर्मा बहनों में सबसे मेधावी थीं बिमला जीजी। उनकी मनीषा का असर दोनों छोटे भाइयों पर पढा।
जीजी को स्कूल में इनाम में किताबें मिलती। उन्हें सब से पहले निर्मल चाटते, फिर कोई और। रामकुमार बिमला जीजी स्कूल जाते हुए रास्ते में पुल पर रुक कर इतनी लंबी बातें करते, कि दोनों देर से स्कूल पहुँचते। डाँट पडती। लडके-लडकियों के अलग-अलग स्कूल थे तब।
जीजी को प्रभाकर परीक्षा की तैयारी करवाने घर में मास्टर आता था। निर्मल वहीं कमरे में खिडकी के पास बैठे सुनते रहते। परीक्षा होने को हुई तो निर्मल ने कहा, मैं भी बैठ जाता हूँ। और प्रभाकर की परीक्षा में जीजी से ज्यादा नंबर आए निर्मल के।
युवावस्था में जीजी जब गले के कैंसर से पीडित हुईं, उन्हें साईं बाबा के किसी चमत्कार से बचने की आशा थी। तब निर्मल उनकी इच्छा पूरी करवाने उन्हें बैंगलौर ले गए थे, साईं बाबा के दर्शन कराने। 1970 के दशक की शुरुआती बात है। विदेश से भारत लौट आने के बाद।
रात भर दोनों पेड के नीचे बैठे रहे भक्तों की भीड में। जीजी ने साईं बाबा की भभूत खाई भी बडे विश्वास से और अंत तक निर्मल को दिखाती रहीं, देख, पानी गटक पा रही हूँ कि नहीं।
यह अदम्य जिजीविषा, जीने की ऐसी अबुझ प्यास निर्मल में भी थी। पीडा से बिंधे होने पर भी।
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एक और वाकया। राम का ही सुनाया हुआ -
उनके स्कूल का सालाना दिन था, सबके माता-पिता आए थे, बाऊजी भी आए हुए थे। प्रतियोगिताएँ हुईं, दौड की, गाने की, बैडमिंटन की, उन्हें कई सारे इनाम मिले, पेंसिलें वैगरह। निर्मल तब दूसरी-तीसरी कक्षा में रहे होंगे, रामकुमार छठी-सातवीं में। जब सारे इनाम राम को मिले और निर्मल को कोई भी नहीं, तो नन्हे निर्मल ने रोना शुरु कर दिया। बाऊजी ने राम की पेंसिलें लेकर आधी निर्मल को दे दीं, कि तुम्हारा छोटा भाई है।
बडे होकर पुरस्कारों, ओहदों और यश से हद दर्जा उदासीन रहे निर्मल का यह हाल था बचपन में, भाई रामकुमार के इतने पुरस्कारों को देख कर!
आप तो शुरू से ही बहुत टेलेंटेड थे। मैं रामकुमार से कहती हूँ। मैं सचमुच प्रभावित हूँ। सुनती हूँ, बहुत अच्छा गाया करते थे रामकुमार बचपन में।
अरे नहीं, गाने के मुकाबले में तो उस बार मैं अकेला ही था स्कूल में। एक दिन पहले ही पोनी बाबू अपने जीजाजी से मैंने गाना सीखा था, वो भी वहाँ जाकर भूल गया, पर गाने वाला अकेला था प्रतियोगिता में, सो इनाम मुझे मिल गया। दौड के मुकाबले का ये हाल कि सारे बच्चे एक दिशा में दौडे और मैं दूसरी तरफ। वहाँ खडा एक आदमी देख रहा था, उसने कहा, नहीं नहीं, ये बच्चा सबसे तेज दौडा था, सो वो इनाम इस तरह मिला। अगर बाकियों के साथ मैं दौडा होता, तो इनाम कभी न मिलता।
ड्राइंग में तो आपको बहुत इनाम मिलते होंगे?
उसमें तो मैं फेल हो गया था सातवीं में।
रामकुमार हँसते हैं अपने पर, बिलकुल निर्मल जैसे।
स्कूल में निर्मल के सहपाठी थे, जगदीश स्वामीनाथन, जो बाद में भारत के प्रसिद्ध चित्रकार हुए।
बचपन में स्वामी औघड और धुनी बालक थे, बहुत नटखट। कक्षा में शरारत करते पकडे जाते और बैंच पर खडे होने की सजा मिलती। मास्टर स्वामीनाथन के परम मित्र निर्मल को, जो क्लास में पढाकू माने जाते थे, उनकी शिकायत लगाता।
यह बात मुझे स्वयं स्वामी ने बतायी, जब हमारी शादी के बाद किसी बैठक में शामलाल के घर में उनसे मिली। निर्मल की तरफ इशारा करके बोले, तू इधर आ कर बैठ, ये तुझे अपने बारे में क्या बताएगा, मैं बताता हूँ।
उस रोज मौसम बहुत अच्छा था। सन् 1935-37 की बात है शिमला की। हारकोर्ट बटलर स्कूल की। स्वामी को फिर बेंच पर खडे होने की सजा मिली थी। मास्टर सारी क्लास को पिकनिक पर ले गया, स्वामी को बेंच पर छोड कर।
ये भी चला गया था पिकनिक पर ।
बडा ही दुख था स्वामी को इतने बरस बाद भी।
और मालूम हैं, जाते-जाते क्या कहा मास्टर ने इस को? अपने दोस्त से कहो, आदमी बने आदमी! वो मास्टर मुझे आदमी भी नहीं समझता था? इतना बडा कलाकार, इतना नेक इंसान, इतना प्यारा भाई जैसा दोस्त निर्मल का और ऐसा तीखा दुख, जो अब कैसे भी दूर न हो सकता था निर्मल से।
मैंने बस हाथ रख दिया, स्वामी के हाथ पर।
***
शिमला में स्वामीनाथन कैथू में निर्मल के संगी थे और दिल्ली के करोल बाग में उनके पडोसी।
बालिग होते दिनों में दोनों की खूब बहसें होतीं, घर के नीचे एक खम्भे के पास खडे दोनों घंटों बातें करते रहते। कभी एक घर पहुँचाने जाता, कभी दूसरा। बाऊजी सैर करने जाते, लौट आते तो भी दोनों वहीं, खम्मे के नीचे। क्या बातें करते रहते हो तुम दोनों?
हैरानी उन्हें इसलिए भी होती कि इसी चुप्पा-से लडके को उनके किसी दोस्त ने गूँगा समझ लिया था और बडा अफसोस जताया उनके गूँगा बेटा होने पर।
निर्मल गाँधीजी की प्रार्थना सभा में जाते और कम्युनिस्ट छात्रों की बैठक में भी। सेंट स्टीफन्स कॉलेज में पढ रहे थे उन दिनों।
स्वामीनाथन और निर्मल, दोनों ने विभाजन के दिनों में दरियागंज इलाके में लाशें उठाने का काम किया।
एक घर में दूसरी मंजिल पर लाश उठाने गए तो देखा, सोने की चूडियाँ चमक रही हैं, लाश गल-सड चुकी थी।
दोनों ने एक साथ कम्युनिस्ट पार्टी जॉयन की, धरनों में हिस्सा लिया, पुलिस की मार खाई। समाज बदल डालने का ऐसा ज*बा था दोनों में। शुरू जवानी के दिनों में समूचे भविष्य को दाँव पर रख दिया दोनों ने। आजादी के कई वर्षों बाद तक, सब जानते हैं, कम्युनिस्ट कोई होता तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी।
सन् 1951-52 के आसपास की बात है। पार्टी का फरमान आया कि रिवोली सिनेमा में किसी अमरीकन फिल्म का शो होने वाला है, सब लडके यहाँ गुप्त रूप से पहुँच कर गडबडी करें। एक लडके को फिल्म शुरु होते ही मंच पर जा कर पर्दा फाडना था, बाकियों को नारे लगाने थे। पुलिस को खबर लग चुकी थी, वह भी चौकस थी।
प्लानिंग के मुताबिक सब कम्युनिस्ट लडके-लडकियाँ हॉल में छितरा कर बैठ गए। फिल्म शुरू हुई, तो जिस लडके को शुरुआत करनी थी, वह बिदक गया। उठा ही नहीं पर्दा फाडने। काफी देर साथी लोग इंतजार करते रहे, फिर एक उठा नारे लगाने। उसके पीछे बाकी सब भी। फिल्म रुक गई, पुलिस हरकत में आ गई, नारे लगाने वालो को पुलिस पकडने लगी।
इनकी साथिन एक लडकी थी। उसे जब पुलिस घसीट ले जाने लगी, निर्मल अपनी बारीक आवाज में चिल्लाए, आप ऐसा नहीं कर सकते।
पुलिस वाले ने देखा, दुबला-सा एक लडका है। लडकी छोड निर्मल से बोला, अबे तू भी आ जा।
पंद्रह-बीस छात्र-छात्राओं को पुलिस वाले पकड कर ले आए। कनॉट प्लेस के बीचोंबीच मैदान था, (जहाँ रैम्बल रेस्तरां हुआ करता था, उसके पास), वहाँ बैठा दिया धूप में। दो-चार घंटे वायरलेस चलता रहा। ऊपर से कोई ऑर्डर नहीं मिला कि एक्शन क्या हो।
जो गुनाह था, सजा पाने के लिए काफी कम था, कानून की कोई धारा सिद्ध न होती थी। छात्र भी धूप में घास के तिनके चबाते बैठे रहे। फिर शायद पुलिस वालों को आदेश मिला. इधर-उधर देखने का बहाना करें, अगर ये भाग जाए, तो इनके पीछे न दौडें। मुँह छिपाने को इतना काफी था।
सो यही हुआ। शाम होते-होते सब भाग निकले। क्रांति हो गई थी।
विमला फारूकी चुनावों में उम्मीदवार बनीं, तो निर्मल और स्वामी घर-घर उनके साथ उनकी पैरवी करते घूमे। एक घर में गए तो चारपाई पर कुछ औरते बैठीं थीं। निर्मल ने कहा, ये चुनाव में खडी हुई हैं।
एक औरत उठ कर उन्हें जगह देती बोली, खडी क्यों हैं बहन, बैठ जाइये।
सन् 1953 में बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन करते समय निर्मल जेल में बंद कर दिये गए। घर में अंग्रेजों के पुराने अफसर बाऊजी को जेल वाली बात बताई नहीं जा सकती थी। रामकुमार ने झूठ बोला, निर्मल दोस्तों के साथ आगरे गया है।
बाऊजी से छिप-छिप कर रामकुमार खाना लेकर जेल जाते रहे। एक हफ्ते बाद निर्मल छूट कर घर आए, तो बडी शहादत की मुद्रा में कि जेल काट कर आए हैं। उन्हें कुछ मालूम न था, रामकुमार ने क्या कह रखा है घर में। बाऊजी ने देखा तो कहा, बडे लाल हो गए हैं तुम्हारे गाल। लगता है, आगरे की यात्रा बडी अच्छी रही।
स्वामी पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में काम किया करते थे। निर्मल को अनुवाद का काम दिलवा देते थे। कई बार निर्मल के नाम से वह स्वयं ही अनुवाद कर लेते और पारिश्रमिक ले लेते। संघर्ष के दिन थे दोनों के। अनुवाद के साथ-साथ निर्मल घर के पास एक कोचिंग सेंटर में पढाने जाया करते थे। बाद में उन्हें काम मिल गया राज्य सभा के सचिवालय में बतौर अनुवादक।
उन्हीं सन् 1952-56 के बरसों में देवेन्द्र इस्सर ने कल्चरल फोरम बनाया। करोल बाग इलाके में रहने वाले उत्साही लेखक उसके मेंबर थे - भीष्म साहनी, कृष्णबलदेव वैद, निर्मल, रामकुमार, मनोहरश्याम जोशी, महेन्द्र भल्ला। कोई दस-बीस श्रोता भी आ जाते। प्रथा यह थी कि जिसे कहानी सुनानी होती, वह सब को चाय पिलाता।
उन्हीं बहसों के चलते धीरे-धीरे सब निखरे, फिर बिखर गए। कोई अमेरिका चला गया, कोई यूरोप, कोई रूस। सब ने अपनी-अपनी नियति का सामना किया। वह वे बन हुए, जिस रूप में हम आज उन्हें जानते हैं।
सन् 1956 के आसपास निर्मल का कम्युनिस्ट पार्टी से तीखा मोहभंग हुआ। कॉलेज के दिनों से चला कुल सात साल का यह संबंध हंगरी पर रूसी सेना के हमले के साथ टूट गया था। दिलचस्प तथ्य यह है कि निर्मल चेकोस्लोवाकिया जैसे साम्यवादी देश में सन् 1959 में तब गए, जब वह कम्युनिज्म से मोहभंग कर चुके थे जबकि अभी तक हिंदी साहित्य के कुछ लोग इसका उलट समझते हैं, कि शायद इस सदस्यता के कारण ही वह चेकोस्लोवाकिया गए।
मोहभंग और बाकायदा इस्तीफा देने के बाद न सिर्फ एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में जा कर रहना, बल्कि वहाँ से भारत के अखबारों, खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने के लिए रिपोर्ट भेजना यकीनन जोखिम भरा काम था उन वर्षों में।
प्रवास के उन सात वर्षों में - सन् 1959 से 1968 तक (बीच में 1964-66 के दो साल वह भारत में रहे) - निर्मल ने कम्युनिस्ट व्यवस्था का जो विद्रूप अपनी आँखों से वहाँ देखा, व्यक्तियों पर अंकुश और प्रताडना के लिए जासूसी- संभवतः उसी ने उन्हें न केवल साम्यवाद, बल्कि अंग्रेजों के औपनिवेशिक प्रभाव से भी मुक्त किया। यह उनकी प्रश्नाकुलता थी जिसने उनकी चेतना के भारतीय तत्त्व को ऐसा निथरा किया।
चेकोस्लोवाकिया प्रवास के काफी पहले से रूसी और चेक लेखक उनके प्रिय रहे थे। तॉल्स्तॉय, चेखव, चापेक। हैदराबाद से निकलने वाली बदरीविशाल पित्तीजी की पत्रिका कल्पना में ‘दीवार के दोनों’ ओर स्तंभ वह लिखा करते थे। लेखन में सहज, आम बोली जाने वाली खडी बोली उनका चुनाव थी।
उनकी मां अपने दोनों बेटों की कहानियाँ बडे चाव और उत्सुकता से पढतीं। रामकुमार की कथाएँ उन्हें तुरंत समझ में आ जाती। निर्मल की कहानियाँ उन्हें कुछ अनिश्चित सा छोडती।
अपने घर आने वाले युवा लेखकों, बेटों के मित्रों, से वह फिक्र में पूछतीं, ये निर्मल कैसी कहानियाँ लिखता है?
ऐसा सन्नाटा, अकेलापन उनके बेटे में। डायरी का खेल, माया का मर्म, तीसरा ग्वाह।
मनुष्य की एकांतिक नियति निर्मल को मथती थी। सुदूर बचपन का, शिमला का, सन्नाटा उनकी आत्मा में बस गया था।
ये कैसे लोग थे, जो पहाड छोड नीचे दुनिया में चले जाते थे?
रानीखेत के पहाडों पर, लडकियों के कॉलेज के नीचे से गुजरते हुए वह रुके थे। सन् 1954 के आसपास। पहाडों पर कुछ समय बिताने गए युवा निर्मल। ऊपर से लडकियों के हँसने की, ठिठोली की आवाज ने उन्हें रोक लिया था। छुटियाँ शुरू हो रही थीं।
लेकिन उस हँसी से जो शुरू हुई थी उनकी लंबी कहानी, परिंदे, उसमें लतिका अकेली रह गयी थी। स्कूल की हेड मिस्ट्रेस, खाली स्कूल में।
यथार्थ इसी तरह आता था अकसर उनकी रचना में, असलियत का औंधा होकर।
मनुष्य को अपनी नियति का अकेलापन ढोते रहना चाहिए? कि उसे छोड देना चाहिए?
लतिका और डॉक्टर ह्यूबर्ट के जरिये निर्मल हिंदी साहित्य में इस एकांतिक नियति की प्रस्तावना रख चुके थे।
यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न था, जिसका सामना लगभग साठ साल फैले अपने लेखन में उन्हें बार-बार करना था।
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