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मकबूल की हुसैनी कलम

निर्मल वर्मा
जब हम एक लेखक की आत्मकथा पढते हैं, तो वह उन्हीं शब्दों के माध्यम से अपनी कहानी कहता है जो उसने अपनी कविताओं, उपन्यासों में प्रयोग किए थे, किन्तु जब एक चित्रकार या संगीतज्ञ अपने जीवन के बारे में कुछ कहता है, तो उसे अपनी सृजन भाषा से नीचे उतरकर एक ऐसी भाषा का आश्रय लेना पडता है, जो एक दूसरी दुनिया में बोली जाती है, उससे बहुत अलग और दूर, जिसमें उसकी कलात्मा अपने को व्यक्त करती है। वह एक ऐसी दुनिया है, जहाँ वह है भी और नहीं भी; उसे अपनी नहीं, अनुवाद की भाषा में बात कहनी पडती है। हम शब्दों की खिडकी से एक ऐसी दुनिया की झलक पाते हैं, जो शब्दातीत है-जो बिम्बों, सुरों, रंगों के भीतर संचारित होती है।

हम पहली बार उनके भीतर उस मौन को मूर्तिमान होते देखते हैं, जो लेखक अपने शब्दों के बीच खाली छोड जाता है।

हुसैन की आत्मकथा की यह अनोखी और अद्भुत विशेषता है कि वह अनुवाद की बैसाखी से नहीं, सीधे चित्रकला की शर्तों पर, बिम्बों के माध्यम से अपनी भाषा को रूपान्तरित करती है। ऐसा वह इसलिए कर पाती है, क्योंकि उसमें चित्रकार हुसैन उस दूसरे से अपना अलगाव और दूरी बनाए रखते हैं, जिसका नाम मकबूल है, जिसकी जीवन-कथा वह बाँचते हैं, जिसने जन्म लेते ही अपनी माँ को खो दिया, जो इन्दौर के गली-कूचों में अपना बचपन गुजारता है, बम्बई के चौराहों पर फिल्मी सितारों के होर्डिंग बनाता है, कितनी बार प्रेम में डूबता है, उबरता है, उबरकर जो बाहर उजाले में लाता है, उनकी तस्वीरें बनाता है...धूल-धूसरित असंख्य ब्यौरे, जिनके भीतर से एक लडके की भोली, बेडौल, निश्छल छवि धीरे-धीरे एम.एफ. हुसैन की प्रतिमा में परिणत होती है।

मकबूल और हुसैन -इस आत्मकथा के दोनों ही सहयोगी लेखक हैं। जो कुछ मकबूल के जीवन में घटता है, होता है, दुख, वासनाएँ, तृष्णा और संघर्ष -उसे हुसैन अपने जीवन्त बिम्बों में रूपान्तरित करते जाते हैं। मेरी समझ में हुसैन के चित्रों, शब्दों, ब्यौरों का जादू इस एक शब्द रूपान्तरण में समाहित किया जा सकता है। एक जादूगर की तरह कोई भी चीज उनके हाथों में आते ही अपना रूप बदल लेती है, कायाकल्प कर लेती है, रूसी गुडिया की तरह उसके भीतर से अनेक लिलिपुटियन गुडियाएँ एक के बाद एक नए आकारों में प्रकट होने लगती हैं। यह संयोग नहीं, हुसैन की आत्मकथा अपनी प्राणवत्ता छोटे-छोटे ब्यौरों, तफसीलों में ग्रहण करती है। जरा देखिए, उसकी शुरुआत, जैसे आप शब्दों के भीतर से फिल्म का कोई सीन देख रहे हों -

मिट्टी का घडा, चारपाई पर रखा, छत से लटकती लालटेन खामोश । तकिए के नीचे किताब का चौदहवाँ पन्ना खुला टीन के सन्दूक में बेजोड कपडे...गर्द के मैले रंग की नीली कमीज, साइकिल की टूटी चेन, मलमल का नारंगी दुपट्टा, बाँस की बाँसुरी गुलाबी, पतंग के कागज की पुडिया में अँगूठी।

बचपन की यह कच्ची स्मृतियाँ समय के साथ पकती जाती हैं और मुद्दत बाद यह लालटेन, यह घडा, मलमल का दुपट्टा आपको कभी हुसैन की किसी फिल्म, किसी पेंटिंग, किसी कविता के भीतर दुबके दिखाई दे जाते हैं। जन्दगी के प्रवाह में बहता हुआ कोई अदना-सा टुकडा, कोई भूला हुआ शब्द, कोई भोला-सा चेहरा विस्मृति के अँधेरे में गायब नहीं होता, बरसों बाद खोए हुए मुसाफिर की तरह लौटकर हुसैन की वर्कशॉप में आश्रय पा ही लेता है।

एक पुरानी यहूदी कहावत है-ईश्वर का वास तफसीलों में रहता है। ईश्वर के बारे में यह सच हो न हो, हुसैन की कला का सच यही है। उनकी आत्मकथा पढते हुए जो चीज तुरन्त आँखों को पकडती है, वह कोई भारी-भरकम विराट सत्य नहीं, वह छोटी, नगण्य, निरीह चीजें हैं, जिन्हें इतिहास और राजनीति किनारे छोड जाती है, पर एक कलाकार एक स्कूली बच्चे की तरह जेबों में भरकर ले आता है। कोई भी तफसील इतनी गैर-जरूरी नहीं, जो हुसैन की आँखों से ओझल हो सके, यहाँ तक कि बरसों बाद उन्हें यह भी नहीं भूला कि तकिए के नीचे किताब का चौदहवाँ पन्ना खुला था। रूसी-अमेरिकी उपन्यासकार नाबोकोव ने एक महान कलाकार के लक्षण बताते हुए लिखा था कि वह उस आदमी की तरह है, जो मकान की नवीं मंजिल से नीचे गिरता हुआ अचानक दूसरी मंजिल की एक दुकान का बोर्ड देखकर सोचता है- अरे, इसके तो हिज्*ो गलत लिखे हैं। हुसैन क्या उससे कम है? एक जगह लिखते हैं, यदि फिल्म बनाते समय मैं शराब के गिलासों की शकल से सन्तुष्ट नहीं होता, तो तुरन्त बाजार चला जाता था और इच्छा के अनुरूप गिलास खरीदकर ले आया करता था...

शायद यही कारण है कि हुसैन की आत्मकथा अन्य चित्रकारों के पत्रों, डायरी, जर्नल्स से इतनी अलग दिखाई देती है, वह सीधे-सीधे अपने चित्रों के बारे में कुछ नहीं कहती। वह उनके जीवन में होनेवाली घटनाओं, सुदूर देशों की यात्राओं, खूबसूरत अविस्मरणीय लोगों की स्मृतियों और सबसे ज्यादा खुद अपने भीतर की भूलभुलैय्यों में भटकने का लेखा-जोखा है। अजीब बात यह है कि उसे पढते हुए दुबारा से हमारे स्मृति-पटल पर ये चित्र जीवित होने लगते हैं, जिन्हें मुद्दत पहले हमने किसी गैलरी, किसी संग्रहालय, किसी प्रदर्शनी में देखा था। अतीत की धूल के ऊपर उठते हुए दिखाई देते हैं वे खिलौने, जो बरसों पहले कनॉट प्लेस की गैलरी में देखें थे, और तभी पहली बार हुसैन का नाम कानों में पडा था। याद आती है वह जमीन जो आज भी राष्ट्रीय संग्रहालय में देखी जा सकती है, और यद्यपि आज भूल गया हूँ कि वह कौन-सी प्रदर्शनी थी, जिसमें उस चित्र को देखा था, स्पाइडर एण्ड दि लेम्प, जिसके चेहरे मुझे आज भी वैसे ही हांट करते हैं, मानो ये उनकी आत्मकथा में से निकलकर अभी-अभी बाहर आए हों। अमृता शेरगिल के बाद शायद हुसैन पहले भारतीय चित्रकार हैं, जिनके चित्रों को अपने विशिष्ट अलगाव में याद किया जा सकता है, जैसे हम किसी लेखक की अलग-अलग कृतियों को याद करते हैं, हुसैन की आत्मकथा पढते हुए एक अद्भुत अनुभूति होती है। हम उनके चित्रों के माध्यम से उनके अतीत की ओर उन्मुख होते हैं, जबकि हुसैन के अतीत में अभी उन चित्रों का जन्म भी नहीं हुआ था।

हुसैन का समय एक लीक पर (unilinear) अग्रगामी दिशा में नहीं चलता। यहाँ बहुत-सी दिशाएँ एक-दूसरे में गुँथी दिखाई देती हैं, विभिन्न कालखंडों का बहुआयामी कोलाज । उनका अतीत कोई बीता हुआ विगत नहीं है, वह एक नदी की तरह उनके वर्तमान के पाटों पर बहता है-सतत प्रवहमान-जो कभी था, वह अब भी है, वहाँ कुछ भी नहीं बीता, न पंढरपुर की पोटली, न दादा की अचकन, न अपनी नई माँ के नंगे कोमल पैर, जो उनके घाघरे से बाहर निकल आज भी उन्हें चलती ट्रेन के डिब्बे में दिखाई दे जाते हैं, वह अपने दादा के इतने चहेतेथे कि एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते थे। जब छुटपन में किसी ने उनसे पूछा, तुम कहाँ से आए? तो उत्तर देने में वह एक क्षण नहीं हिचकिचाए, दादा के पेट से । हुसैन की दुनिया एक कार्नीवाल, एक उत्सव, एक मेला, एक सर्कस का मिला-जुला समारोह है-वहाँ सब कुछ सम्भव है।

समय के इसी उलटफेर के कारण हुसैन की आत्मकथा चालू अर्थ में अतीत का संस्मरण नहीं जान पडती। हुसैन अपने बचपन को याद नहीं करते, बल्कि स्वयं बच्चे की आँख से दुनिया को देखने लगते हैं, बीते को याद करने की बजाय उसे दोबारा से जीने लगते हैं और यह दुबारा भी पहली बार की ताजगी और टटकापन लेकर आता है, क्योंकि बीता समय अब इस बडे बच्चे की आँखों से एक नया समय जान पडता है...सनातन और चिरन्तन, जो कभी बूढा, पुराना या बासी नहीं होता।

इसीलिए हुसैन की जीवनी को आत्मकथा कहते हुए दुविधा होती है... आत्म इसलिए नहीं, क्योंकि वह हुसैन के व्यक्ति में एकनिष्ठ न होकर निरन्तर रामलीला के मुखौटों के रंग-रंगीले वैविध्य में विभाजित होती दिखाई देती है-चाहे वह बचपन की जमना हो या टेलरमास्टर, निजामुद्दीन के शकूरा मिस्त्री हो या पोस्टमैन मोहम्मद नासिर। आत्म का स्वरूप एक में अनेक में प्रतिबिम्बित होता है...सच्चे भारतीय अर्थ में यदि असली आत्म वही है, एक होकर भी अनेक में दिखाई देता हुआ, जिसके मर्म को हुसैन ने पकडा है। इस आत्म की कथा एक अनुक्रमणिक (linear) नियम के लगे-बँधे पैटर्न में नहीं चलती, जहाँ समय की अपनी सीढियों का सोपान हैं, एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक जाती हुई। हुसैन की आत्मकथा को हम एक व्यक्ति की कहानी की तरह नहीं, एक पेंटिंग की तरह देखते हैं, जहाँ सफे पलटने की बजाय सब तरफें एक साथ मौजूद हैं, एक के बाद एक नहीं, एक साथ एककालिकता (Simu-ltaneaty) में। यहाँ अनेक चेहरों की पोर्ट्रेट गैलरी एक साथ दिखाई देती है, न कहीं से शुरू होती हुई, न कहीं जाती हुई। कोई चेहरा, कोई दृश्य, कोई कथा अपने पूरेपन में नहीं, खंडित टुकडों में दिखाई देती है, सिर्फ उडान की एक झलक, एक संकेत, रेत पर गडे पदचिह्न में ही कोई कला-सत्य अपनी स्मृति, अपना सौन्दर्य, अपना स्वप्न पीछे छोड जाता है।

हुसैन सम्पूर्णता (Perfection) से कभी आकर्षित नहीं होते, उसके पीछे नहीं भागते । सम्पूर्णता का मतलब है-अन्त, समाप्ति, मृत्यु-जबकि हुसैन की कला का सत्य उसकी सम्पूर्णता में नहीं, उसके सातत्य में है, निरन्तरता के प्रवाह में कोई चीज पूरी हो, कि अगली लहर का उन्मेष उसे आगे वहाँ ले जाता है। आश्चर्य नहीं, जब राजस्थान की पृष्ठभूमि में अपनी फिल्म-थ्रू दि आइज ऑफ ए पेन्टर-बनाने के लिए फिल्म डिवीजन के अधिकारी ने उनसे पूछा, फिल्म की कहानी क्या होगी, हुसैन का उत्तर था, कोई कहानी, किस्सा नहीं, सिर्फ इम्प्रेशंस। सुर हो, लय हो, कुछ शक्लें, कुछ सूरतें - एक छतरी, एक लालटेन, एक राजस्थानी जूता। पास में खडी गाय....

हुसैन की दृष्टि में हर चीज का अपना ओज है, अपना आलोक, अपना ईश्वरीय अक्स । चीज की उपस्थिति में ही उसकी पवित्रता निहित है जैसे अस्तित्व में इबादत हो और इबादत में उसका अर्थ। लोगों की आम आदत है कि लालटेन को देखने की बजाय चारों ओर उसकी मौजूदगी की वजह है। यह जल रही है तो रात, वह नहीं तो दिन, यह कोई नहीं देखता कि लालटेन किस नाज-ओ-अंदाज से जमीन पर टिकी है, उसके पेंद की गोलाई से उठती दो सन्तुलित बाँहों के बीच धरी शीशे की चिमनी...गुम्बद की गोलाई और सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सिमटा हुआ उजाला।

यह हुसैन हैं, जो सिमटे हुए उजाले में सारा ब्रह्मांड देख लेते हैं। उनके लिए सुन्दरता उसमें नहीं है जिसका कोई प्रयोजन है, वह खुद उसके होने में है, चाहे वह आकाश में उडते हुए पहाड ले जाते हुए हनुमान हों या-दो पहियों की साइकिल पर सवार हुसैन । साइकिल का जादू क्या पहाड की भव्यता से कम है? देखिए उनकी साइकिल स्तुति -

साइकिल की सीट इंसानी मुखडा। हैंडल दो बाँहे, पैडल दो पैर...लडका (हुसैन खुद) पीछे कैरियर पर सवार साइक्ंलग किया करता-जैसे पूरी साइकिल उसकी गोद में हो या लडका साइकिल की गोद में। यह नहीं कह सकते, कौन किसे गोद में लिए प्यार कर रहा है।

प्यार की यह पहेली वह केन्द्र-बिन्दु है, जिसके चारों ओर हुसैन का संसार घूमता है. वहाँ स्त्रियों के प्रति अनुराग प्रकृति के एक अभेद्य रहस्य, एक प्रच्छन्न राग की तरह अनुगुंजित होता रहता है; हुसैन के यहाँ कुछ भी निषिद्ध नहीं है -यहाँ बडे छोटे, ऊँच-नीच, पाँच सितारा होटल के गलियारे और निजामुद्दीन के ढाबों से उठता धुआँ-किसी के बीच कोई भेद, कोई अन्तर नहीं रहता। उनके लिए आधुनिकता का मर्म जीवन के प्रति इस सूफियाना दृष्टि में ही सन्निहित है, वह बाहर पश्चिम से आयातित होकर नहीं आता। एक बार हैदराबाद के ढाबे में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से बहस करते हुए हुसैन ने आधुनिकता की बिलकुल निराली परिभाषा खोज निकाली। निराली और ठेठ, शुद्ध भारतीय परिभाषा। मॉडर्न आर्ट का एक मजेदार पेचीदा पहलू यह है कि देखनेवाला अपनी मर्जी और मिजाज में तस्वीर को ढालने का हक रखता है...एक लिहाज से मॉडर्न आर्ट का मिजाज अमीराना नहीं डेमोक्रेटिक है। जैसे कि देखने में व्यक्तित्व शहाना हो, लकीरों का तनाव खुद्दारी का ऐलान करता हो, रंगों की शोखी स्वाभिमान से सम्पूर्ण हो ।

लोहिया जी कुछ देर हुसैन को देखते रहे-आधुनिक कला का यह लोकतान्त्रिक, लोकपक्ष उन्होंने पहली बार देखा था। उन्होंने उनकी पीठ थपथपाई और उत्साह में आकर बोले, यह तो ठीक है, लेकिन यह जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंगरूम में लटकनेवाली तस्वीरों के बीच घिरे हो, इनसे बाहर निकलो। रामायण को पेंट करो। इस देश की सदियों पुरानी कहानी है...गाँव-गाँव इसका गूँजता गीत है, संगीत है... गाँव वालों की तरह तस्वीरों के रंग घुल-मिलकर नाचते गाते नहीं लगते?

जिस तरह आधुनिक कला की परिभाषा सुनकर लोहिया सकते में आ गए थे, उसी तरह रामायण के बारे में लोहिया का कथन हुसैन को तीर की तरह चुभ गया। बरसों तक वह उसके बारे में सोचते रहे और लोहियाजी की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में बदरीविशाल पित्ती, जो लोहिया के मित्र और हिन्दी साहित्यिक पत्रिका कल्पना के सुविख्यात सम्पादक थे-उनके मोती भवन को रामायण के लगभग डेढ सौ चित्रों से भर दिया। कोई दाम नहीं माँगा-सिर्फ लोहियाजी का मान रखा।

क्या यह अजीब विडम्बना नहीं है कि हुसैन के भीतर पहली बार जिस व्यक्ति ने भारतीय संस्कृति के महाकाव्यों-रामायण और महाभारत के प्रति प्रेम जगाया था, यह एक नास्तिक समाजवादी हिन्दू थे-उनसे कितना अलग-जिन्होंने कुछ वर्षों बाद उसी संस्कृति के नाम पर अहमदाबाद की गुफा में उनके चित्रों को तहस-नहस कर डाला था।

हुसैन के जीवन में धर्म ने उसी तरह चुपचाप प्रवेश किया था, जिस तरह सौन्दर्य ने। बचपन में नाना के प्रभाव से उनके भीतर धर्म, दीन, अध्यात्म के प्रति एक गहरी आस्था उत्पन्न हुई थी। कुरान की आयतें उन्हें जुबानी याद थीं। उनके चित्रकार मित्र रामकुमार बताते हैं, कैसे मॉस्को के होटल के कमरे में एक रात उनकी नींद खुली, तो हैरत से देखा, हुसैन नमाज पढ रहे हैं। हुसैन उस अर्थ में धार्मिक कलाकार नहीं हैं, जहाँ किसी मत या मसीहाई सन्देश का अनुकरण किया जाता है। वह अनुकरण करते हैं, तो सिर्फ अपनी कल्पना का, जो सौन्दर्य के हर आवास को पवित्र स्पेस में परिणत कर देती है। तस्वीर का बुनियादी ढाँचा, एक ईंट, एक कदम से शुरू होता है-वह चाहे महाभारत हो या कर्बला।

यह हुसैन के शब्द हैं, जिनके लिए एक चित्र की तीर्थयात्रा इसी एक कदम, एक ईंट से शुरू होती है।



सर्जना पथ के सहयात्री पुस्तक से साभार।

सौजन्य- गगन गिल