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मुझे विश्वास नहीं होता कि आदमी मृत्यु के बाद बिलकुल नष्ट हो जाता है

माधव भान
निर्मल वर्मा से माधव भान से बातचीत


ऐसा कौन-सा क्षण है, जिसे आप महसूस करते हैं, जिसका आपको इन्तजार है? कोई ऐसा क्षण जिसके जाने के बाद आपको सुकून मिला हो?


मैंने कभी इसके बारे में सोचा नहीं। कभी कोई कठिनाई या भीतर का संकट सामने आता है, तो मन में खयाल जरूर आता है कि यह भी गुजर जायेगा। This too will pass. वह सचमुच टिकता नहीं है। उसके जाने के बाद लगता है कि हम उसे कितना बडा समझ बैठे थे, कि उससे बच निकलना मुश्किल होगा, लेकिन अब वह निकल गया है, तो राहत महसूस होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर से मुझे फ्लाइट लेनी थी। बारिश बहुत हो रही थी। मैं एयरपोर्ट पर बैठा इन्तजार कर रहा था। थोडी देर में मुझे हैरानी हुई कि जिस शहर पर इतने बादल थे, इतनी मूसलधार बारिश हो रही थी, उसी शहर के ऊपर से जब हवाई जहाज उडा तो एक ऊँचाई पर जाकर सारे बादल, सारी बारिश, सारा कोहरा नीचे आ गया और ऊपर बडा सुन्दर आकाश और तारे दिखाई दे रहे थे। मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इस कोहरे के ऊपर आकाश इतना सुन्दर और इतना तारों-भरा होगा... फिर मुझे लगा कि जिन्दगी में भी ऐसे लम्हें आते हैं। हमें लगता है कि यही सब कुछ है, इस दुख से पार पाना असम्भव है, लेकिन सौभाग्यवश वह टिकता नहीं है और हम फिर उजाले में आ जाते हैं। मेरा ख्याल है, ऐसा सुख के साथ भी होता है और तकलीफ के साथ भी। इसलिए मुझे अब यह विश्वास रहता है कि कोई चीज टिकेगी नहीं और यह चीज मुझे पता नहीं क्यों सान्त्वना-सी देती है। सुख भी नहीं टिकता और दुख भी नहीं टिकता।


एक बार मेरी शुभा मुद्गल से बात हो रही थी, उन्होंने कहा कि मैंने मीरां बैले पर काफी काम किया। इतनी रिसर्च, इतना काम, जितना एक बच्चे पर किया जाता है। मीरां बैले मुझे अपना बच्चा-सा लगता है। क्या आपकी कोई ऐसी कहानी या पुस्तक है कि खुद लिखने के बाद उससे प्यार हो गया हो?


मेरे साथ कुछ अजीब होता है। जब मैं लिख रहा होता हूँ, तो उस किताब की घटनाएँ मुझ पर छायी-सी रहती हैं। मैं कुछ भी करूँ उनका खयाल मुझे आता रहता है। कभी न कभी उसके पात्रों के बारे में, उनकी नियति के बारे में, मैं बराबर सोचता रहता हूँ। जानबूझ कर नहीं लेकिन उसके खयाल आते रहते हैं। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक समाप्त होती है, छप जाती है, तो मेरा उससे बिलकुल किनारा हो जाता है। मैं अपने को बहुत ही तटस्थ महसूस करता हूँ। यह जरूर है कि लोग इसके बारे में क्या सोच रहे हैं, इसके बारे में मुझे उत्सुकता रहती है। मैं समीक्षाएँ भी पढता हूँ और एक चिन्ता भी मन में रहती है कि इसका क्या प्रभाव पडेगा-आलोचकों पर और पाठकों पर, मेरे मित्रों पर, लेकिन मेरा उसके साथ कोई अन्तरंग सम्बन्ध नहीं रहता। उसके बाद मैं दूसरे काम में जुट जाता हूँ-कोई नई कहानी, या नया उपन्यास। फिर वह मेरे मन पर उसी तरह छाने लगता है जिस तरह पिछली किताब, जिसे मैं छोड चुका हूँ या जिसे समाप्त कर चुका हूँ। यह एक अजीब चीज है कि मेरे मन में किसी कहानी के साथ कोई लगाव नहीं रहता। कुछ लेखक कहते हैं कि यह मेरा प्रिय उपन्यास है, इसे मैं सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। मैं कभी इस तरह नहीं सोच पाता।


ऐसा कोई विषय है जिस पर आपने लिखना चाहा और अभी तक आप लिख नहीं पाए? मन में मलाल रह गया हो? एक बार श्याम बेनेगल से बात हो रही थी उन्होंने बताया कि एक विषय है कलंक मुक्ति। फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास है। उस पर वह काम करना चाहते हैं लेकिन अभी तक नहीं कर पाए। उसमें एक पात्र है जिसे लेखक रच रहा है, अपने ढंग से, लेकिन एक ऐसा क्षण आता है कि पात्र अपने कथानक से बाहर निकल जाता है। वह लेखक के काबू में नहीं रहता। यह चीज श्यामजी को बहुत खींचती है, पर वह अभी तक उसे कर नहीं पाये। क्या ऐसा कोई विषय है जो आप करना चाहते रहे, करना चाहा पर अभी तक कर नहीं पाए?


ऐसे कई विषय हैं और मन में हमेशा विश्वास रहता है कि मैं अवश्य ही कभी न कभी उन पर लिख पाऊँगा। वे मेरे भीतर इतनी गहरी जड जमा चुके हैं, उनसे छुटकारा पाना मुश्किल है। अगर मैं उन पर नहीं लिख पाया हूँ, तो इसलिए क्योंकि मैं कभी कोई उपन्यास पूरा कर रहा होता हूँ या कभी समय के तकाजे की वजह से कोई निबन्ध लिख रहा हूँ, कोई पेपर लिख रहा हूँ। लेकिन वह विषय मेरे दिमाग में बिलकुल अटका-सा रहता है। पहले कभी-कभी मेरे मन में यह इच्छा होती थी, जिन विषयों पर मैं नहीं लिख पाया हूँ उन्हें अपनी डायरी में लिख लेता था, ताकि उनके कथानक, उनके प्राक्कथन जो मेरे दिमाग में रह गये हैं, उन्हें मैं भूल न जाऊँ। वे आधे-अधूरे मन में पडे रहते हैं। यह उन बीजों की तरह है जो जमीन पर पडे रहते हैं, जिन्हें किसी ने बोया नहीं है। इससे मुझे एक आशा भी बँधती है कि मुझमें कभी ऐसा समय नहीं रहा कि सब कुछ ऊसर-सा है या मुझे समझ नहीं आ रहा हो कि क्या लिखा जाए या कोई विषय मेरे दिमाग में न हो। मेरे साथ बल्कि इससे उल्टा होता है कि जल्दी से मैं इस चीज को खत्म करूँ ताकि उस चीज को शुरू कर सकूँ।


ईश्वर को लेकर क्या सोचते हैं आप?


मुझे ईश्वर की परिकल्पना बहुत आकर्षित करती है। मुझे इस चीज में कोई दिलचस्पी नहीं कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है। न मैं कभी इस बहस में पडना चाहता हूँ। बल्कि मुझे आश्चर्य होता है कि जिस मस्तिष्क से ईश्वर की परिकल्पना निकली होगी वह कितना विचित्र होगा। ईश्वर की कल्पना बहुत कुछ महसूस करने की चीज है, विश्वास करने की नहीं- यह कोई तार्किक प्रस्तावना नहीं है कि ईश्वर है या नहीं है। उसकी बहस इस तरफ हैं या उस तरफ। मुझे कभी इसमें दिलचस्पी नहीं रही। केवल उस शब्द से मेरा समूचा भावात्मक लगाव है, उस शब्द की विराटता और व्यापकता के साथ, जो ईश्वर शब्द से ध्वनित होकर मेरे पास आता है। मुझे यह भी लगता है कि मनुष्य का जीवन कितना गरीब, कितना विपन्न और खाली होता अगर ईश्वर की कल्पना न होती। हम जिन भक्तों की कविताएँ पढते हैं-कबीर, मीरां, तुलसी, सूर, तुकाराम-क्या इनके माध्यम से ईश्वर हमारे पास नहीं आता? और अगर यह कवि न होते जिन्हें हम भक्त-कवि कहते हैं, तो हमारा जीवन कितना शून्य होता। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता इसलिए भी महसूस होती है कि उस भावना ने ऐसी कविता को जन्म दिया है और ऐसी साधनाओं को, साधकों को हमारे समक्ष रखा है। अरविन्द, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि-जिनके सम्पर्क से, जिनकी चीजें पढकर मैं स्वयं को हमेशा बहुत समृद्ध महसूस करता हूँ। इसलिए अब तो यह बात मुझे कभी अखरती ही नहीं कि ईश्वर है या नहीं।


लेकिन आपकी बात से यह तो निश्चित है कि आफ स्वयं के अन्तर में वह परिकल्पना है।


परिकल्पना है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह कम यथार्थ है। मेरे दिमाग में परिकल्पना और यथार्थ के बीच कोई दीवार नहीं है। यथार्थ की वह भौतिक परिभाषा मेरे दिमाग में नहीं है कि जो हमें दिखाई देता है, जिसे हम छू सकते हैं। जो परिकल्पना हमें इतना उद्वेलित करती है, उसका यथार्थ कितना बडा होगा!


आप नर्मदा गए, कुम्भ गए। उन यात्राओं के बारे में विस्तार से लिखना एक आध्यात्मिकता से जुडा हुआ कृत्य है। कौन-सी सोच है जो आपको वहाँ लेकर जाती है?


जब मैं कुम्भ के मेले में गया तब मैं बहुत ही गहरे मानसिक कष्ट से गुजर रहा था। मेरे व्यक्तिगत जीवन में एक संकट था। मैं उससे छुटकारा पाना चाहता था। मुझे लगा कि इस जनसमूह में जहाँ लाखों लोग आते हैं, श्रद्धा से, आस्था से, घर-बार छोडकर। मैं कम-से-कम इनके बीच रहकर उन छोटी चीजों को भूल सकता हूँ जो मुझे त्रस्त करती हैं... इसलिए जब दिनमान के सम्पादक ने मुझसे पूछा कि आप वहाँ जाना चाहेंगे-साधारण तौर पर मैं ऐसे मेले में कभी न जाता, न मुझे भीड में जाना अच्छा लगता है-मैंने उनसे कहा, आपने मुझसे क्यों कहा, तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा सोचता हूँ कि कुम्भ के मेले के बारे में पत्रकार लिखते हैं, राजनीतिज्ञ लिखते हैं, श्रद्धालु लोग लिखते हैं, किसी ऐसे लेखक को भी लिखना चाहिए जिसने आज तक कभी धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में बात नहीं की, तो मुझे लगा कि हाँ, यह ठीक भी है। यह मेरे जीवन का एक ऐसा अवसर है, जिसमें मैं अनुभव के ऐसे आयाम को छू पाऊँगा, जो अब तक मैं केवल सिद्धान्त के रूप में ही सोचता आया था, लेकिन अपने भीतर कभी मैंने उसे जीने की कोशिश नहीं की। इसलिए कुम्भ जाना मेरे लिए वहाँ नहाना नहीं था। मुझे वहाँ स्नान करने का कोई शौक नहीं था। इतने लोगों को देखना-सुबह के वक्त कोई बुढिया जा रही थी, कोई लडका अपनी माँ को लेकर जा रहा है, कोई साइकिल पर, कोई ठठरी पर चला जा रहा है। यह एक रोसा अजीब अनुभव था, मुझे लगा कि यह एक व्यक्तिगत अनुभव से कहीं अधिक एक सांस्कृतिक अनुभव है। कौन-सा ऐसा देश है जहाँ हजारों वर्षों से इस तरह की यात्रा बराबर चली आ रही हो? और हम भारत की एकता की बात करते हैं, भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। लेकिन ये लोग जीवन में अर्थ पाने के लिए हर बारह वर्ष बाद इकट्ठा होते हैं, उनके लिए यह एक पवित्र एवं शाश्वत दुर्लभ क्षण रहा है।


मुझे याद है कि अभी इस बार जब आप कुम्भ मेले में हमारे शिविर में रहे, आप जितने भी दिन रहे, आपने हरे रंग के वस्त्र पहने हुये थे। अभी भी जो कमीज आप पहने हुये हैं, उसमें हरा रंग है। क्या यह रंग आपको विशेष प्रिय है?


नहीं, ऐसा तो नहीं है।


कोई विशेष रंग आपको प्रिय है?


ज्यादातर मुझे मटमैला सफेद, सलेटी या खाकी किस्म के शेड, गहरा नहीं, हल्का शेड पसन्द है।


तो किसी भी कला की सृजनात्मकता का केन्द्र क्या है?


जिसे आप क्रियेटिविटी कहते हैं वह इस बात में निहित होती है कि जो चीज दिखाई देती है उसका सत्व उस चीज के भीतर छुपा है और हमारी क्रियेटिविटी इससे उद्वेलित होती है कि इस छिपे हुये सत्य को बाहर के यथार्थ में रूपान्तरित करे। इसीलिए एक कवि शब्दों को लेता है और उन्हें कविता में रूपान्तरित कर देता है। एक चित्रकार, एक वास्तुकार एक पत्थर को लेता है क्योंकि उसे पता है इसके अन्दर एक छवि छिपी हुई है, जो उस पत्थर का सत्य है और वह उसे तराश कर वह छवि उसके भीतर से निकाल लेता है। सारे जीव जगत में मनुष्य ही एक ऐसा व्यक्ति है जो इस बात को जानता है कि जो दिखाई देता है उससे कहीं महत्त्वपूर्ण वह चीज है जो उसके भीतर अन्तर्निहित है। यही वे लोग भी करते हैं जो कलाकार नहीं होते।


जो आदमी बागवानी करता है वह लिखता तो नहीं, वह चित्रकार या शिल्पकार तो नहीं है, लेकिन उसे मालूम है कि मिट्टी के भीतर एक ऐसी सम्पदा है जिसका हम उपयोग कर सकते हैं; फूल और पत्तियों को उगाने के लिए। यह एक जादू है, बढई को मालूम है कि लकडी है, लेकिन लकडी के भीतर की जो मेज है वह उसकी कला है, उसका शिल्प है। इसीलिए मुझे हमेशा यह महसूस होता है कि सृजनात्मकता के बिना कला असम्भव नहीं, लेकिन हर व्यक्ति बिना कलाकार हुए भी सृजनात्मक है, हो सकता है। और यह एक बडी चीज है। यह हैरानी की बात है, यह विस्मय की बात है। कभी आपने सुराही बनाने वाले को देखा है, वह चाक चलाता है और उसके भीतर से मिट्टी के बर्तन एक के बाद एक बनते हुए आते हैं। वह तो कोई बडा कलाकार नहीं है, लेकिन उसे मालूम है कि मिट्टी का क्या रहस्य उसे किस तरह से ढाला जाता है। इसलिए हमारी परम्परा में, भारतीय परम्परा में शिल्प और कला के बीच में कोई ज्यादा भेद नहीं है। कुमारस्वामी कहा करते थे कि एक शिल्पकार एक तरह का कलाकार ही होता है और एक कलाकार भीतर का शिल्पी, शिल्पी का मतलब है उसकी रूपान्तरित करने की क्षमता। जो है वह न हो तो उसकी कलाकृति।


मालूम नहीं कि आप पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं या नहीं। पर जैसा कि हमारी संस्कृति में माना जाता रहा है कि व्यक्ति के जैसे कर्म होते हैं उसके अनुसार उसको अगला जन्म मिलता है। अपने प्रारब्ध से अगला जन्म कैसा होगा वह इस जन्म में ही आदमी महसूस कर सकता है। तो आपको अपने कर्म के द्वारा जो इस जन्म में कर रहे हैं, आप क्या सोचते हैं कि आपको ईश्वर इससे अच्छा जन्म देगा ?


मुझे नहीं मालूम। मैं सच कहूँ तो मुझे पुनर्जन्म की अवधारणा बहुत विचलित करती है। विश्वास नहीं होता कि मृत्यु के बाद आदमी बिलकुल नष्ट हो जाता है, लेकिन यह बात भी मुझे समझ में आती है एक हद तक। किसी का जन्म होता है, तो वह शुरुआत नहीं होती, वह पिछले जन्मों की यात्रा का ही एक पडाव होता। जिस चीज में मुझे पूरा विश्वास है, वह यह कि पुनर्जन्म हो या न हो, लेकिन इस मृत्यु के बाद मेरा अपना सेल्फ एवेयरनेस है, मेरी जो अपनी आईडेण्टिटी है, मेरा जो अपने बारे में अहसास है, वह नष्ट हो जाता है। अगर मैं अपने को दूसरे जन्म में न याद कर पाऊँ, तो यह गलत बात या बुरी बात नहीं होगी, लेकिन ये जरूर कि मेरे इस जन्म और जीवन का शुरू और अन्त इसी जीवन में सम्पन्न हो जाने वाला है। इसके आगे की मेरी आत्मा की यात्रा चलती रहेगी, इस पर विश्वास किया जा सकता है, इस पर सन्देह करने की कोई कसौटी नहीं बल्कि इस पर विश्वास करना अधिक logical जान पडता है बजाय इसके कि मेरी मृत्यु ही मेरा अन्त है। मेरा नष्ट हो जाना है पूरी तरह से। लेकिन उस यात्रा के दौरान हर नया जन्म चाहे वह पुराने का ही हिस्सा हो, पुराने का ही अंग हो, उस विशेष तत्त्व की दोहराहट नहीं जो मैंने इस जन्म में महसूस किया। यह बिलकुल ऐसे ही है जैसे कि एक पेड के पत्ते पतझड में झडते फिर गर्मी आती है, सर्दी आती है, फिर बसन्त आता है और उस नंगे पेड पर फिर नयी पत्तियाँ आनी शुरू होती हैं। लेकिन ये वही पत्ते नहीं होते जो झड गये थे। यह इतनी साधारण और सहज-सी प्रक्रिया है कि इसमें शक या सन्देह करने की कोई गुंजाइश नहीं।


एक बात और, इसी से सम्बन्धित है। आइन्सटाइन से एक बार पूछा गया था कि आप अगले जन्म में क्या बनना चाहेंगे। तो उनका जवाब था कि मालूम नहीं अगला जन्म होता है या नहीं, लेकिन अगर ईश्वर है तो मैं उससे यह कहूँगा कि मुझे वैज्ञानिक कभी न बनाए। मुझे प्लम्बर बना देना, लेकिन वैज्ञानिक नहीं। आज आप लेखक हैं। अगर अगला जन्म होता है, तो आप क्या होना चाहेंगे? आप क्योंकि पुनर्जन्म को तो मान रहे हैं। आपने कभी सोचा है इस विषय में ?


असल में मैं इतना लालची हूँ कि इतनी चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, फिल्म, फोटोग्राफी, पेन्टिंग, म्यूजिक-मुझे समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ। मुझे यह लगता है कि अगला जन्म अगर मनुष्य के वेश में होगा, तो वह अपने में ही एक बहुत बडी blessing है, आशीर्वाद है। उसमें अपने में ही कितनी सम्भावनाएँ हैं। मैं उस सम्भावना को एक पेशा कहकर उसे संकुचित नहीं करना चाहता। मैं उसे खुला छोड देना चाहता हूँ। हो सकता है कि मैं फिल्ममेकर बन जाऊँ। यह भी हो सकता है कि मैं डाकू बन जाऊँ। (हँसते हैं) कौन कह सकता है, मेरे भीतर किस तरह की सम्भावनाएँ पैदा हों! लेकिन मेरा विश्वास है कि मनुष्य में चुनने की क्षमता होती है। मैं उस नियति में विश्वास नहीं करता कि वह वही बनेगा जो उसका भाग्य है। वह कुछ भी चुन सकता है। इसकी स्वतंत्रता मनुष्य को देवता से भी कहीं ऊँचा बना देती है और पशु से भी कहीं नीचे ले जा सकती है क्योंकि पशु की एक बँधी-बँधाई जिन्दगी होती है। मनुष्य के भीतर यह चुनाव करने की क्षमता मनुष्य की सबसे बडी परिभाषा है और मैं इसे यह कहकर कि मैं यह बनना चाहता हूँ, अपनी उन सम्भावनाओं को नहीं खोना चाहता।


आपकी बातों से लग रहा है कि आप प्रारब्ध शब्द पर विश्वास नहीं करते।


ऐसा नहीं। मेरे लिए उसकी परिभाषा बहुत अलग है। मुझे मालूम है कि उसकी क्या खींच होती है, उसकी क्या ताकत होती है। मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। मैंने इसे देखा है। मैं अतीत के बारे में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि मैंने इस तरह के निर्णय कैसे ले लिए। मुझे आश्चर्य होता है कि मैंने यह रास्ता क्यों लिया? मैं वह रास्ता भी तो ले सकता था! और मुझे उसका कोई कारण नजर नहीं आता। उसके पीछे क्या तर्क रहा होगा, यह आज भी मैं नहीं जान पाया। उसे आप प्रारब्ध कहिये, भाग्य कहिए, मेरे जीवन की एक अन्धी संकल्प शक्ति कहिए, मैं नहीं जान पाता। लेकिन अतीत में किये कई फैसलों पर मैं आज भी हैरान हूँ। शायद आप कहें मेरे प्रारब्ध में ऐसा था। मेरे पास इसका कोई तर्क नहीं है कि मैं उसको नकार सकूँ, लेकिन यह कहने के बाद मैं तुरन्त इस बात को जोडना चाहूँगा कि मनुष्य में यह शक्ति, यह क्षमता भी है कि अगर कोई चीज उसे एक जगह खींच ले जा रही है तो उसका विवेक, उसका अनुभव उसे दूसरी तरफजाने की शक्ति, सामर्थ्य दे सकता है। इतनी स्वतन्त्रता मनुष्य के भीतर हमेशा बची रहती है कि हवा के थपेडों के साथ ही बिलकुल घिसटता न जाए। इस तरह की नियति मनुष्य की नहीं, मैं यह विश्वास करता हूँ। हवा का अपना जोर होता है, लेकिन स्वतन्त्रता की भी अपनी शक्ति होती है।


और वह जो भीतर से आवाज आती है, कुछ भी करने से पहले एक आवाज, उसके विषय में कुछ कहना चाहेंगे?


आपने बहुत सुन्दर बात कही। उस बात को मैं पहले से कहना चाहता था जिसे गाँधीजी इनर वायस कहते थे। हिन्दी में एक बहुत सुन्दर शब्द है अन्तरात्मा। यह अन्तरात्मा का अपना जन्म है, जो विज्ञान और ज्ञान से बहुत पहले होता है। मुझे लगता है यह अन्तरात्मा हर मनुष्य में होती है। यह बात अलग है कि वह उसे कुचल दे। वह एक बार कुचलेगा, वह दूसरी बार उठेगी। यह उस चिडिया की तरह है जो बार-बार तुमसे कुछ कहती है कि तुम्हारा असली तत्त्व यह है, यह नहीं। लेकिन अगर आप उसे चुप करा देते हैं तो तीन-चार बार चुप कराने के बाद वह बेचारी अधमरी हो जाती है और बोलना बन्द कर देती है। तब आपकी अन्तरात्मा जो पहले आपको कहती थी, विवेक के आधार पर कुछ करने के लिए, वह इतना ज्यादा मूर्छित हो जाती है, पस्त हो जाती है कि यह बहुत बडा दुर्भाग्य है मनुष्य का। हमारे अन्दर की उदासीनता हमारी अन्तश्चेतना को खामोश कर देती है। अगर आप मुझसे पूछे कि मनुष्य की सबसे बडी कमजोरी क्या है, तो मैं कहूँगा उसकी उदासीनता। कहते हैं कि मनुष्य योनि बडी मुश्किल से मिलती है। मनुष्य अगर उदासीन हो जाए जो आफ भीतर उबाल-सा आता है, आवाज आती है, उस सबके प्रति उदासीन हो जाए तो फिर हम उस वरदान को डिजर्व नहीं करते। मनुष्य की योनि इसीलिए दुर्लभ होती है क्योंकि हम में स्वतन्त्र विवेक के आधार पर आचरण करने की क्षमता है। मनुष्य बाकी जीव-जन्तुओं से इसलिए बेहतर नहीं है कि उसमें बुद्धि है. उसमें शक्ति है, बाहुबल है। वह बाकी प्राणियों से इसलिए बेहतर है क्योंकि उसमें आत्म-चेतना है, आत्मबोध है, जो किसी में नहीं।


आपने अभी कहा कि देवताओं से भी श्रेष्ठ है मनुष्य, यह किस आधार पर?


देवता ईर्ष्या करते हैं। मनुष्य से इसलिए कि मनुष्य किसी भी बने-बनाए खेल से बाहर आ सकता है, देवताओं की बनी-बनाई भूमिका होती है। इन्द्र, शिव, विष्णु, इन सबकी अपनी भूमिकाएँ हैं, जिन्हें वे सम्पन्न करते हैं। मनुष्य किसी भी भूमिका का अतिक्रमण करके दूसरी भूमिका निभा सकता है। भीष्म ने विवाह नहीं किया और जन्म भर ब्रह्मचर्य का पालन किया। यह उनकी नियति नहीं, यह उन्होंने देखा कि इसके बिना यह वंश नहीं चल पाएगा। देवताओं से बेहतर मनुष्य जीवन इसलिए है क्योंकि ईश्वर ने उसे मृत्यु दी है, जो देवताओं को प्राप्त नहीं है। लेकिन उसे एक हाथ से मृत्यु दी है, तो दूसरे हाथ से अमरत्व का वरदान भी दिया है कि तुम अपने जीवन-काल में अपने मृत क्षणों का हमेशा अतिक्रमण करते रहो। मृत क्षण क्या होता है? मृत क्षण वह होता है जब हम यथास्थिति को स्वीकार कर लेते हैं, तब हम एक तरह की मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं कि अब इसमें कुछ नहीं होने वाला है। मृत्यु चरम स्थिरता की स्थिति होती है। मनुष्य यदि मनुष्य है, तो वह स्थिरता को स्वीकार नहीं करता।


आफ वक्तव्य से यह स्पष्ट हो रहा है कि आप ईश्वर के विषय में तो अगर शब्द लगाते हैं, लेकिन देवताओं के विषय में नहीं! देवताओं के विषय में आपको पूर्ण विश्वास है कि वे हैं?


मुझे लगता है, देवताओं और ईश्वर के बीच में बहुत बडा अन्तर है। जितने भी देवता हैं वे असल में बाहर नहीं, वे हमारे भीतर की शक्तियों का प्रतीक मात्र हैं। इसलिए आप देखें कि बहुमुखी देवताओं की जो संस्कृति होती है वे उन संस्कृतियों से कहीं ज्यादा सहिष्णु और उदार होती है जो एक ईश्वर में विश्वास करती हैं। जैसे इस्लाम, ईसाइयत जिनके लिए एक ईश्वर है बाकी कुछ नहीं। हिन्दू धर्म में यह नहीं है। हिन्दू धर्म में आप ईश्वर को अस्वीकार भी कर सकते हैं, लेकिन अगर आप अनेक देवताओं में आस्था रखते हैं, तो इसका मतलब है, हर देवता में आपको अलग शक्ति देने की ताकत है। यह कैसी अजीब संस्कृति है। हम काली के पास जाते हैं जो एक तरह के साहस और वीरता का प्रतीक हैं। निराला की एक कविता है-राम की शक्ति पूजा। वह शक्ति के पास इसलिए गए क्योंकि वह बिल्कुल निराशा के क्षण में डूबे हुए थे और फिर से साहस पाना चाहते थे, ताकि रावण के साथ लड सकें। शिव के पास कुछ और पाने के लिए जाते हैं, विष्णु के पास किसी और शक्ति के लिए जाते हैं। लेकिन देखिए विष्णु, ब्रह्मा, शिव, काली, गौरी, सभी देवी देवता हमारे भीतर की शक्तियों का ही चरम प्रतिनिधित्व करते हैं । वे कहते हैं कि आप हमारे पास आएँ, हम आफ भीतर वह शक्ति जगा देते हैं जो आफ भीतर पहले से ही मौजूद है। इसलिए हिन्दू संस्कृति हमारी संस्कृति, यह नहीं कहती कि एक ही रास्ते पर चलकर या एक ही ईश्वर तुम्हें सत्य प्राप्त करा सकता है। इस्लाम या ईसाई धर्म में मनुष्य और ईश्वर के बीच में कोई और नहीं है। उनका ईश्वर भी एक खास तरह का बिम्ब या एक खास तरह की अवधारणा रखता है। यदि आप ईश्वर की उस अवधारणा की खोज नहीं करते तो आप काफिर हैं। यहाँ एक अजीब चीज है कि आप धार्मिक होते हुये भी ईश्वर की बनी-बनायी अवधारणा को अस्वीकार कर सकते हैं। मनुष्य धार्मिक होता हुआ भी नास्तिक हो सकता है।


जीवन के जिस मुकाम पर आप आज हैं, वहाँ आदमी अपने अन्त के विषय में सोचने लगता है। अपने बारे में, अपने परिवार के और भी जो उससे सम्बन्धित विषय हैं, क्या कभी आपको ऐसा विचार आता है?


इस विचार के साथ जीना पडता है। यह आतंक नहीं है। इसके साथ रहना चाहिए। पहले कभी यह विचार आता था और चला जाता था। मेरे खयाल में हम में इस विचार के साथ जीने की क्षमता होनी चाहिए। मृत्यु की स्वीकृति स्वयं नहीं आती, उसे सीखना पडता है। हम जिसे वानप्रस्थ आश्रम कहते थे, या संन्यास आश्रम। यह आश्रम क्या चीज है? एक ट्रेनिंग है कि अपने को तैयार करो कि अब समय आ गया है कि तुम मृत्यु के साथ जीना सीखो। यह नहीं कि वह एक घटना की तरह आएगी। अब वह घटना बन गयी है, वह तुम्हारे जीवन का अंग है। जीवन का अंग वह हमेशा से थी लेकिन उसका बोध इतना तीव्र नहीं था जितना इन वर्षों में। हम अन्त के बारे में क्या सोचते हैं यह इतना महत्त्वपूर्ण मुझे नहीं लगता लेकिन अन्त के साथ जीना और अन्त के सन्दर्भ में अपने जीवन को देखते-परखते चलना, यह कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।


भीष्म पितामह द्वारा कर्ण से कही गयी एक बात मुझे याद आ रही है। जब कर्ण बहुत व्यथित थे, तो उस समय वह मृत्यु के बारे में सोचने लगे थे। भीष्म ने कहा कि मरने के कारण हो सकते हैं, तो जिन्दा रहने के भी कारण हो सकते हैं। मुझे आपकी बात से पता नहीं क्यों यह वाक्य याद आया।


मुझे लगता है मृत्यु को हम अस्वाभाविक मानकर उसकी अवमानना करते हैं। हमें यह भी सोचना चाहिए जन्म से पहले भी हम मृत्यु में ही थे। हमें अपने बारे में कुछ पता ही नहीं था। हम गहरे अन्धकार में थे, वह एक तरह का छोटा-सा पुल है जन्म और मृत्यु के बीच और अगर हम जन्म में आने के बाद एक ऐसी जगह से आए हैं जिसके बारे में हमें कुछ मालूम नहीं, तो ऐसी जगह जा भी सकते हैं। उसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है, इसे कहना आसान है, इसे अपने मर्म के भीतर समझना और मृत्यु के भय को निकाल पाना-यह गाँधीजी से मैंने सीखा है। गाँधी ने कितनी बार कहा है कि अपने भीतर के भय को अगर तुम निकाल डालो, तो फिर तुम सत्य का सामना कभी भी किसी भी परिस्थिति में कर सकते हो। फिर तुम यह नहीं सोचोगे कि उसकी मुझे कितनी कीमत चुकानी पडेगी क्योंकि तुमने अपने जीवन की कीमत तो पहले ही लगा दी। फिर छोटी-मोटी चीजों की क्या चिन्ता है?


* पुस्तक : संसार में निर्मल वर्मा से साभार।


सौजन्य : गगन गिल