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साहित्य का निर्मल अध्यात्म

-ब्रजरतन जोशी
निर्मल वर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने रचनाकारों में अग्रणी हैं जो अपनी कलम आत्मा में डुबोकर लिखते हैं। भाषा और शब्दों के माध्यम से वे अपने परिवेश को जीवंत स्वरूप में उकेरकर हमारे आत्म में कुछ नया जोडते हैं। वे अपने पाठक को ठीक वही नहीं रहने देते, जो उनके साहित्य को पढने के पूर्व में वह था।

किसी भी श्रेष्ठ रचनात्मक व्यक्तित्व की पहचान यह होती है कि वह अस्तित्व के पर्यवेक्षण की प्रक्रिया कैसे सम्पन्न करता है? वह अपने समय की समस्याओं में कैसे प्रवेश करता है? वह विरोधाभासों के बीच कैसे एकत्व की साधना को साकार कर दिखाता है? निर्मल वर्मा हिन्दी के ऐसे विरल लेखक हैं जो स्वयं के साथ-साथ अपने पाठक/भावक के लिए अपनी हर रचना में नयी आकाशगंगा ओर नया ब्रह्माण्ड ही नहीं रचते बल्कि उसे स्वयं को महसूस भी कराते हैं।

वे हिन्दी के ही नहीं वरन् विश्वसाहित्य के उन अद्भुत लेखकों में हैं जो अस्तित्त्व के भाषयी सीमान्त के पार की अनुभूतियों को भाषा के सीमान्त में लाकर व्यक्त करने में सफल हुए हैं। इन अर्थों में वे अज्ञेय की इन काव्यपंक्तियों है अभी कुछ और है, जो अभी नहीं कहा गया को कहने की पूरी चेष्टा अपने साहित्य में करते हैं।

निर्मल वर्मा के माध्यम से उनके पाठक उस दिग-दिगंत की यात्रा को पूरा करते हैं। जहाँ पहले कोई गया ही नहीं। उनकी अभिव्यक्ति अनुभव की अपूर्व अभिव्यक्ति है। वे अंतरतम के बीहड में भटकते नहीं, रमते हैं। उनको पढना एक ऐसा नशा है कि जो पाठक के संस्कार और रूपान्तरण को लगभग अवश्यसंभावी बना देता है।

उनके लेखन के बारे में कहा जाता है कि वे निराकार परिवेश को साकार कर देते हैं। उनकी लेखकीय आँख परिवेश के उन दबे-छुपे स्थलों का भी कोना-कोना झाँक आती है, जहाँ हमारी सजग, खुली आँख भी नहीं जा पाती। दरअस्ल में वे परिवेश का चित्रण / वर्णन भर ही नहीं कर रहे होते। वे परिवेश का अंकन करते समय स्वयं परिवेश हो जाते हैं। यह जो स्वयं परिवेश हो जाना है, यही विषय-विषयी का तादात्मय है। ज्ञाता और ज्ञेय का एक हो जाना है। यह सिर्फ और सिर्फ अनुभव से ही संभव होता है। इसके अभाव में सृजन की प्रक्रिया में प्रायः रचनाकार सूचनाओं, ब्यौरों और वर्णन पर अटककर ही रह जाता है। उनके लेखक का मूल सत्व है कि अनुभव ही ज्ञान है। इतना ही नहीं वरन् उनका रचनाकार विवेक इस स्तर पर प्रतिष्ठ था कि जो यह भली-भाँति अनुभूत कर चुका कि अनुभूतिपरक ज्ञान की जिम्मेदारी किसी अन्य ज्ञान के बजाय साहित्य एवं कलाओं में सर्वाधिक है। तभी तो उनकी रचनाकार रूपी रिपोर्टर समस्त अस्तित्व में एक ही आत्म के विस्तार की यात्रा का लेखा-जोखा हमारे सामने रखता है। इसलिए ही उनका रचनाकार हमारे जाने-पहचाने संसार, या कह लें पूर्व कथित ज्ञान का सार तत्त्व नये रूप में हमारे सामने लाता रहता है। उनके पात्र, रचनाएँ सदैव ही कुछ नयी तलाश के अस्पर्शी रूप में हमारे सामने लाते हैं। यह नयापन वस्तुतः मानवचेतना के ही आयामों का उद्घाटन है। हम कह सकते हैं कि इस प्रक्रिया में वे अनुभव के विविध रंग और छवियाँ हमारे सामने लाते हैं। उनका समूचा साहित्य आत्म के मूल स्वभाव विस्तार का श्रेष्ठतम उदाहरण है। इसलिए हम देखते हैं कि उनकी रचनाओं में मनुष्य का अधूरा मौन अपनी मुखरता और सुदीर्ध जीवन प्राप्त करता है। उनकी चेतना ठहरी, ठिठकी नहीं है, वरन् एक विकासशील चेतना है। इसलिए निर्मल वर्मा का साहित्य एक फिलट्रेशन प्लान्ट की तरह है जिसमें से गुजर कर पाठक अपनी मलिनता से मुक्त होकर उज्ज्वलता को अर्जित करता है। वह निर्मल चित्त की सहज प्राप्ति भी इस तरह से कर लेता है।

अतः वह बार-बार अपनी मलिनता को धोने और उज्ज्वलता को और निखारने के क्रम में निर्मल साहित्य के सागर में डुबकी लगाता रहता है।

भारतीय परम्परा में सर्जक को दर्शनकार भी कहा गया है। दर्शनकार यानी क्रांतदर्शी। निर्मल वर्मा सही अर्थों में क्रांतदर्शी साहित्यकार थे। क्योंकि उनका लेखन पारदर्शी लेखन था। जो देह के परे के अनुभवों पर पडे परदे को हटाकर, उनको हमारे अनुभव जगत का स्थायी हिस्सा बना देता है।

निर्मल वर्मा के चरित्र आत्मवान, आत्मनिष्ठ और आत्मसमर्पित हैं। काव्यशास्त्रीय पदावली में कहूँ तो वे सचमुच परिभू हैं। परिभू यानी जिस प्रकार समुद्र नदियों को अपने में समा लेता है, उसी तरह समस्त विश्व को अपने प्रेम से पूरित कर देने वाले रचनाकार को भी परिभू कहा गया है। यानी उनके सर्जक का आत्म ही विश्वरूप है। ऐसा सर्जक सामान्य अर्थों में रचयिता नहीं होकर मूंडकोपनिषद् के क्रियावान एवं ब्रह्मनिष्ठ यानी आत्मवेताओं में भी क्रियावान आत्मवेता के रूप में हमारे सामने आता है। अंतर्मुखता और चिंतनपरकता के लिए अक्सर कहा जाता है कि ये सृजन के आनंद को बाधित करते हैं। यह एक हद तक ठीक भी है, लेकिन देखना यह होता है कि जो रचनाकार इन गुणों से सम्पन्न होकर सृजन कर रहा है, उसने इनके संतुलन को कितना साधा है? अगर वह इस संतुलन को ठीक से साध पाए, तो ही सफल रहता है। अन्यथा वह आनंद के स्रोत को सूखा क्षेत्र बना देता है। निर्मल के साहित्य की लीनियर रीडिंग में ऐसा आभास हो सकता है, पर जब पाठक सर्ककुलर रीडिंग से गुजरेंगे, तो हमारे सारे आभास स्वतः ही दूर हो जाएँगे।

निर्मल साहित्य के चरित्र, उसकी थीम वस्तुतः पल-क्षण बदलते मनुष्य को समझने की विधि भी है। निर्मल वर्मा के यहाँ स्वतंत्रता का तात्पर्य है अपने होने की क्षण-प्रतिक्षण पहचान। अंतर्जीवन को जितना गहरा, मार्मिक एवं कारूणिक रूप से निर्मल वर्मा साहित्य में व्याख्यायित करते हैं, उतना हिन्दी के बहुत कम रचनाकार ही कर पाएँ हैं।

इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि अन्य के साथ उनका रिश्ता केवल भावात्मक था, बल्कि उनके लेखन से गुजरने पर हम पाते हैं कि उनमें एक कर्त्तव्यभाव भी है जो हमें एक भिन्न अनुभव संसार के नागरिक होने के बोध से भर देता है।

निर्मल वर्मा के चरित्र दोहरी अर्थवत्ता लिए होते हैं- एक रागात्मक और दूसरी भावात्मक अर्थात् वे इस स्थापना पर आगे बढते हैं कि ज्ञान और भाव मानव चेतना के अनिवार्य अंग हैं। इसलिए हम देखते हैं कि उनके पात्र हमें सूक्ष्मतर भावों के प्रति सजग और जागरूक बनाते हैं। इसके चलते कईं बार सामान्य पाठक को उनका साहित्य अपनी समझ से परे जाता जान पडता है। यानी वे अपने पाठक का बौद्धिक संस्कार भी करते चलते हैं। इस प्रक्रिया में जब-जब भी उनका रचनाकार संस्कृति के श्रेष्ठ प्रदाय को सहेजते हुए अपने पथ पर पथारूढ होता है, तो वह दर्शनपरक साहित्य की सीढी पर आगे बढता है।

सारतः निर्मल वर्मा का साहित्य भाव, कर्म और ज्ञान की अर्थवत्ता से युक्त साहित्य है। उनका सृजन मनुष्य के जीये जीवन को हमारी अनुभूत अर्थ संरचनाओं के बिम्ब में प्रस्तुत करता है। यही उन्हें साहित्य के उस निर्मल अध्यात्म की भावभूमि पर प्रतिष्ठ करता है, जिस युगों-युगों उनका लिखा, कहा और सोचा विचारा हमारी चेतना के संस्कार की प्रक्रिया में सहभागी होकर नित-नूतन, चिरंजीवी बना रहेगा।

निर्मल वर्मा के रचनाकार का अखण्ड कालबोध से गहरा जुडाव है। वे यूरोप की व्यक्ति केन्द्रित वैचारिकी से जन्मे इतिहास को मनुष्यता के लिए ठीक नहीं मानते। क्योंकि राष्ट्र राज्य की अपनी धारणा में वे उसे सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखते हैं। उनके लिए इतिहास स्मृति या परम्परा का विलोम है। क्योंकि परम्परा का अर्थ है सातत्य, निरन्तरता और अखण्ड कालबोध। इसी के चलते वे यह कहने से नहीं हिचकिचाते कि यूरोप का सांस्कृतिक खालीपन उनकी अक्रामकता / साम्राज्यवादी विचार के मूल में था। भारत के लिए यह समस्या थी ही नहीं। अतः भारत को किसी अन्य के बारे में सोचने-विचारने की आवश्यकता नहीं पडी।

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मधुमती का यह अंक निर्मल वर्मा की पावन स्मृति को समर्पित है। वे साहित्य की दुनिया के ऐसे श्लाका पुरुष हैं जो साहित्य का निर्मल अध्यात्म न केवल रचते हैं, बल्कि व्यावहारिक धरातल पर उसे पाठकीय चेतना में प्रक्षेपित भी करते हैं।

इस अंक की एक अन्यतम उपलब्धि है गगन गिल का आलेख शिमला और निर्मल। यह आलेख निर्मल साहित्य के अध्येताओं के लिए ऐसा प्रवेश द्वार है जिसमें प्रविष्ट होकर वे निर्मल अध्यात्म की सृष्टि और दृष्टि से निर्मल विश्व के मूल से भली-भाँति परिचित हो सकते हैं। मधुमती परिवार इस आलेख के साथ निर्मलजी से सम्बन्धित आवश्यक सामग्री समय पर उपलब्ध करवाने हेतु गगन गिल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है।

वरिष्ठ आलोचक राजाराम भादू का अज्ञेय की चर्चित कहानी हीली बोन् की बतखें पर लिखा आलेख अज्ञेय के रचना संसार के नए आयामों के साथ इस कहानी को नए विमर्शों के आलोक में, निपट नई दृष्टि से देखने का अद्भुत प्रयास है। वहीं राजकुमार का लिखा आलेख रचना के मर्म को रचनात्मक प्रक्रिया के माध्यम से समझने के बेहतरीन उदाहरण को हमारे सामने रखता है। ये आलेख पाठकों को अपनी आलोचकीय दृष्टि विकसित करने में मददगार साबित होंगे।

इसके अतिरिक्त इस अंक में चर्चित कथाकार सत्यनारायण की डायरी, पद्मजा का संस्मरण और क्षमा शर्मा, रश्मि शर्मा की कहानियों के साथ सुशांत प्रिय के किए अरर्नेष्ट हेमिंग्वे की चर्चित कहानी का अनुवाद भी इसे पठनीय बनाएगा।

अंक में समकालीन परिदृश्य के कवियों विनोद पदरज, अमिताभ चौधरी, आस्तीक वाजपेयी और लवली गोस्वामी की कविताएँ आपको अपने नवीन कथ्य और शिल्प से जरूर प्रेरित करेंगी। इसके अतिरिक्त हमेशा की तरह समीक्षा, प्राप्ति स्वीकार, संवाद निरन्तर और सूचना आदि कॉलम तो आफ समक्ष हैं ही।

कोरोना महामारी की द्वितीय लहर के बीच एक बेहद ही निराश करने वाली खबर है कि हिन्दी के यशस्वी गद्यकार श्री नरेन्द्र कोहली हमारे बीच नहीं रहे। मधुमती परिवार साहित्य के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय सेवाओं और अवदान को स्मरण करते हुए उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

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एक बार फिर कोरोना का प्रचण्ड कहर जीवन पर भारी पड रहा है। भौतिक दूरी के नाम पर सामाजिक दूरी का मँडराता खतरा बढता जा रहा है। ध्यान रहे विपदाएँ हमें स्वकेन्द्रित होने की ओर भी अग्रसर करतीं है। हमें सजग, जागरूक रहकर पूरी संवेदनशीलता के साथ समय-समय पर केन्द्र एवं राज्य सरकार की ओर से जारी निर्देशों की पालना करते हुए इन खतरों से परे अपने मनुष्य होने के गौरव को प्रमाणित करना है। राह कठिन है, पर सफर तो हमें ही तय करना है।

कोरोना से जीतो जंग, नया जीवन नयी उमंग-